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Note > पोस्ट मुकम्मल पढ़े !
दीन यह नहीं की फलाँ ने यह कहा
दीन यह हैं कि अल्लाह ने यह कहा और रसूलुल्लाह ने यह फरमाया !
अल्लाह कुरान में कहता हैं :
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1. आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया !
(Quran > 5 : 3)
Note > दीन मुकम्मल हो चुका हैं अब ना तो इसमें कमी की जा सकती हैं और न वेशी !
Note > तो नबी सल्लाहु अलैही वसल्लम के जमाने में जो चीज दीन नहीं थी वो आज भी दीन नहीं बन सकती !
👉 इस्लाम में सिर्फ 2 ईद हैं !
1. ईद उल फित्र ( मीठी ईद)
2. ईद उल अजहा (बकरा ईद)
हदीस ए नबबी :
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1. नबी ﷺ मदीने तशरीफ लाये अहले मदीना ने दो दिन मुर्करर किये हुए थे जिनमे वो खेल - कूंद करते चले आ रहे हैं आप ﷺ ने फरमाया बेशक अल्लाह तआला ने आपको (ईद उल अजहा / ईद उल फित्र) की सूरत में बेहतरीन दो दिन अता किए !
(Abu Dawood > 1134)
Note > यह हदीस सहीह हैं और इस हदीस से पता यह चला कि आप ﷺ ने हमें सिर्फ और सिर्फ दो ईद मनाने का हुक्म दिया हैं !
👉 आप ﷺ की जिंदगी में 63 मर्तबा ईद - मीलाद आया आप ﷺ ने कभी भी ईद - मीलाद नहीं मनाया आपके सहाबा ने नहीं मनाया तो फिर हम क्यू मनाए ?
👉 याद रखिए ईद - मीलाद का तसब्बुर पूरी शरीअत में नहीं और ईद - मीलाद मनाना कुरआन - हदीस से साबित नहीं !
👉 ईद - मीलाद मनाने वालों से कुछ सवालात ???
👉 ईद उल फित्र और ईद उल अजहा यह दो ईद तो मनाने का हुक्म खुद हमारे नबी ने दिया हैं मगर ईद - मीलाद मनाने का हुक्म कहाँ हैं बस इतना बता दीजिए।
Reference ?
👉 ईद - मीलाद मनाना आप कभी भी कुरान / हदीस से साबित नहीं कर सकते क्यूकी ईद - मीलाद का जिक्र कुरआन - अहादीस में है ही नहीं !
👉 ईद - मीलाद दीन का हिस्सा होता तो आप ﷺ ने बता दिया होता और आपके सहाबा ने इस पर भी अमली जामा पहना दिया होता !
👉 रब्बे काबा की कसम मरते मर जाएंगे मगर जिसको मुस्तफा जाने रहमत की जुबान ने ईद नहीं कहा हम भी उसे ईद नहीं कहेंगें ईद - मीलाद दीन का हिस्सा नहीं क्यूकी इस पर आप ﷺ की मुहर नहीं !
हदीस ए नबबी :
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1. रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया : -
जिस अमल पर हमारा हुक्म नहीं वो अमल रद्द हैं !
(Sahi Bukhari > 2697)
👉 ईद - मीलाद मनाना बिदअत हैं दीन ए मोहम्मदी में इजाफा हैं और बिदअत से इस्लाम की शान नहीं बढ़ती लेहाजा ईद - मीलाद के जलसों में शरीक होने उनमें चंदा देने से बचें !
हदीस ए नबबी :
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1. रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया : -
दीन में नई बातों से (बिदअतों) से अपने आप को बचाना इसलिए कि हर बिदअत गुमराही हैं !
(Ibne maja > 42)