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तवह्हुम-परस्ती, बद-शुगूनी (नुहूसत) और शिर्क

🔹तवह्हुम-परस्ती, बद-शुगूनी (नुहूसत) और शिर्क🔹

तालीफ़: प्रोफेसर अब्दुल रहमान नासिर 
(ऐ मेरी बहन: पेज नंबर 31/43)

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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मुस्लिम ख़वातीन (औरतों) का निहायत (बहुत) मोहलिक (ख़तरनाक) और बदतरीन (सबसे बुरा) 'ऐब तवह्हुम-परस्ती और शिर्क-ओ-बिद'अत में मुब्तला (फँसना) होना है 
ख़वातीन (औरतें) कमज़ोर 'अक़ीदे की हामिल और ज़ेहनी (मानसिक) तौर पर पस-मांदा (वंचित) होती हैं
इस लिए वो हालात से बहुत जल्द (जल्दी) दिल-बर्दाश्ता (उदास) हो जाती हैं अगर उनकी मर्ज़ी के मुताबिक़ कोई काम न हो तो दिल छोड़ (हिम्मत हार) बैठतीं हैं और दर-पेश (मौजूद) मु'आमले को 'अक़्ल-ओ-शु'ऊर (बुद्धि) की रौशनी-में (इस संबंध में) देखने जाँचने और परखने की ब-जाए मुख़्तलिफ़ क़िस्म (प्रकार) के तवह्हुमात (वहम) का शिकार हो जाती हैं
अगर किसी ख़ातून (औरत) का ख़ाविंद (पति) अपनी मां की तरफ़ माएल (झुका) हो और उस की ख़िदमत-गुज़ारी (सेवा) और इता'अत-शि'आरी (आज्ञा पालन) के जज़्बे (भावना) से सरशार होतो बीवी समझती है कि सास (सासू) ने मेरे शौहर पर कोई जादू-टोना कर दिया है वो अपने गिरेबान में झाँकने और यह सोचने की ज़हमत (तकलीफ़) कभी गवारा (स्वीकार) नहीं करती कि मैं अपने शौहर और सास (सासू) से कैसा बर्तावा (व्यवहार) करती हूं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा ख़ाविंद (पति) मेरे रवैये की बिना (आधार) पर मुझसे बे-रुख़ी बरत रहा है ?
बसा-औक़ात (कभी-कभी) ऐसा भी होता है कि ख़ाविंद (शौहर) मां और बीवी दोनों से यकसाँ (एक जैसा) हुस्न-ए-सुलूक (अच्छे-बरताव) से पेश आता है मगर बीवी को यह मा'क़ूल (दुरुस्त) बात भी गवारा (योग्य) नहीं होती चुनांचे (इसलिए) अपने ख़ाविंद (पति) को सुधारने और अपने तई (लिए) राह-ए-रास्त (सीधे रास्ते) पर लाने के लिए मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) आस्तानो (मज़ारों) दरबारो गद्दी-नशींनो और 'आमिलो (ता'वीज़-गंडे, झाड़-फूँक या जादू करने वालों) का रुख़ करती है 
इसी तरह अगर किसी ख़ातून (महिला) का बेटा अपनी बीवी का ध्यान रखता है और उसकी ज़रूरियात (ज़रूरते) ब-ख़ूबी (अच्छी तरह से) पुरी करता है तो मां तैश (ग़ुस्से) में आकर तरह तरह के वसवसों (वहम) का शिकार हो जाती है और अपने बेटे को अपनी तरफ़ माएल करने के लिए जादू-टोना और ता'वीज़-गंडे शुरू' कर देती है
बा'ज़ (कुछ)ख़वातीन (औरतें) इस-क़दर तवह्हुम-परस्त (वहमी) है कि अगर कोई औरत ख़ुद अपनी तरफ़ से कोई बात बनाकर कह दे कि फ़ुलाँ दिन फ़ुलाँ वाक़ि'आ रूनुमा (घटित) हुआ था लिहाज़ा (इसलिए) उस दिन काम न करना और अगर तुमने कोई काम किया तो तुम तरह तरह की मुश्किलात और मुसीबतों में फँस जाओगी तो वो नादान ख़ातून (औरत) उस दिन अपना काम-काज छोड़ देती है
बा'ज़ (कुछ) ख़वातीन (औरतों) ने बा'ज़ (कुछ) महीने और कुछ दिन मख़्सूस (विशेष) कर रखे हैं कि फ़ुलाँ (अमुक) दिन या महीने में फ़ुलाँ (अमुक) काम करने से उम्मीदें बर-आती (इच्छाएं पुरी होती) हैं मसलन (जैसे) माह-ए-मुहर्रम को शादियों की मुमान'अत (मनाही) का महीना समझा जाता है और उसके बारे में यह 'अक़ीदा रिवाज पा गया है कि जो शख़्स इस महीने में शादी करता है उसकी शादी कामयाब नहीं होती या ऐसे शख़्स पर मुसीबतें नाज़िल होने लगती हैं 
इसी तरह हर क़मरी-महीने की ग्यारह तारीख़ को शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी रहिमहुल्लाह की ख़ुशनूदी (ख़ुशी) के लिए खीर वग़ैरा पका कर लोगों में तक़सीम की जाती है और इस सिलसिले में यह वहम कार-फ़रमा (असर-अंदाज़) है कि अगर ऐसा न किया जाए तो भैंसें दूध नहीं देती बल्कि (किंतु) उन्हें ख़ून आना शुरू' हो जाता है या घर में मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) क़िस्म (प्रकार) की मुसीबतों का नुज़ूल शुरू' हो जाता है और यह सिलसिला उस वक़्त तक जारी रहता है जब तक ग्यारहवीं का ख़त्म न कराया जाए
बा'ज़ (कुछ) ख़वातीन (औरतें) को कव्वे के बोलने को मेहमानों की आमद (आने) की इत्तिला' (ख़बर) क़रार देती हैं और बा'ज़ (कुछ) ख़वातीन काली बिल्ली के रास्ता काट जाने को बद-फ़ाल (मनहूस) समझतीं हैं
बा'ज़ (कुछ) ख़वातीन (औरतें) लड़की की पैदाइश (जन्म) को नुहूसत ख़याल करतीं हैं और कहती हैं कि जब से यह पैदा हुई है घर से बरकत उठ गई है मैं ने इस की पैदाइश (जन्म) के बाद कभी ख़ुशी का मुँह नहीं देखा इस के पैदा होने की वजह से अहल-ए-ख़ाना (घर के लोग) मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) तंगियों और आज़माइशों में मुब्तला (गिरिफ़्तार) हैं बा'ज़ (कुछ) ख़वातीन यही (ऐसा ही) नज़रिया (सोच) अपनी बहू के बारे में भी रखती हैं
मेरी बहन! यह तमाम (सब) उमूर (काम) सरासर (बिल्कुल) तवहहुमात (अंधविश्वास) और लग़्वियात (बे-कार और फ़ालतू बातें) हैं इनका हक़ाइक़-ए-ज़िंदगी (सच्चाई) से दूर का भी त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) नहीं है यह तमाम उमूर (काम) ख़िलाफ़-ए-शरी'अत बल्कि शिर्क के ज़ुमरे (प्रकार) में आते हैं उनमें से बा'ज़ उमूर (काम) तो ऐसे हैं जिनके मुशरिकीन-ए-मक्का भी क़ाइल थे ऐसी बातों और दीगर (अन्य)
शिर्किय्यात व कुफ़्रिय्यात की बिना-बर (इसलिए) अल्लाह-त'आला ने उन्हें अबदी जहन्नमी क़रार दिया
मेरी बहन! हो सकता है कि तू इन उमूर (काम) को मा'मूली समझतीं हो और उन्हें दुनिया-ओ-आख़िरत में अपनी कामयाबी की ज़मानत (गारंटी) गर्दानती (मानती) हो लेकिन दर-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) यह तमाम उमूर (काम) तेरी दुनिया-ओ-आख़िरत के लिए इंतिहाई (बहुत) नुक़सान-देह (हानिकारक) और तेरी नाकामी का सबब (कारण) है 
मेरी बहन! तू छूत-छात की क़ाइल है तू ख़ुद भी इस बात से डरती है और दूसरों को भी डराती है कि किसी कोढ़ी, ख़ारिश-ज़दा (खुजली वाली) या किसी और मुत'अद्दी (छूत की) बीमारी में मुब्तला ख़ातून (महिला) के पास न बैठो तू हामिला (गर्भ-वती) औरत को मर्ग (मौत) वाले घर जाने से मना' करती है या किसी ख़ातून (औरत) को किसी ज़च्चा (वह औरत जिसने अभी बच्चे को जन्म दिया हो) के पास जाने से रोकती है यह सब ऐसे उमूर (काम) हैं जिन से रसूलुल्लाह ﷺ ने मना' फ़रमाया है
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी (रिवायत) है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
 «لَا عَدْوَى وَلَا طِيَرَةَ وَلَا هَامَةَ وَلَا صَفَرَ»
तर्जमा: छूत-छात, बद-शुगूनी (नुहूसत) उल्लू (के बोलने) और माह-ए-सफ़र (को मनहूस समझने) की कोई हक़ीक़त नहीं है,
(सहीह बुखारी हदीष:5757, सहीह मुस्लिम हदीष:2220)
मेरी बहन! इस हदीष को बार-बार पढ़ और ग़ौर कर कि यह फ़रमान (हुक्म) किस हस्ती का है ?
आज तू हर जाहिल, कम-'अक़्ल और फ़ुज़ूल बात की इत्तिबा' (पैरवी) करने वाली ख़ातून (औरत) की बात पर ए'तिमाद (भरोसा) करती है हालांकि उसकी बात की कोई सनद (दलील) होती है न हक़ीक़त ऐसी ख़वातीन (औरतें) ख़ुद भी गुमराह हैं और तुझे भी गुमराह करती है लेकिन जिस 'अज़ीम हस्ती का यह फ़रमान है वो वही-ए-इलाही के ज़रिया' से उन तमाम उमूर (काम) की हक़ीक़त से ख़ूब वाक़िफ़ (जानकार) है उसे मा'लूम है कि छूत-छात किस-क़दर मुअस्सिर (असरदार) है और बद-शुगूनी (नुहूसत) की हद क्या है
इस हदीष में नबी-ए-अकरम ﷺ ने जिन तवह्हुमात (वहम) का तज़्किरा (ज़िक्र) फ़रमाया है उनमें से पहली चीज़ बीमारी के मुत'अद्दी (दूसरे को लगने) होने का 'अक़ीदा है आप ﷺ ने छूत-छात की बात से साफ़ इंकार किया है और हमें यह नुक्ता समझाया है कि किसी का बीमारी में मुब्तला (पड़ना) होना महज़ (सिर्फ़) अल्लाह-त'आला की मशिय्यत (मर्ज़ी) से होता है बीमारी ब-ज़ात-ए-ख़ुद (अपने-आप) मुत'अद्दी (एक से दूसरे पर असर) नहीं होती 
हम अपनी रोज़-मर्रा (हर-रोज़) की ज़िंदगी में देखते हैं कि जिस घर में कोई किसी मुत'अद्दी बीमारी मसलन (जैसे) ता'ऊन (plague) कोढ़ वग़ैरा में मुब्तला होतो उस का सारा घराना (ख़ानदान) उस में मुब्तला नहीं होता बल्कि कुंबे (परिवार) के अक्सर अफ़राद (आदमी) इस बीमारी से महफ़ूज़ (सही-सलामत) होते हैं अगर यह बीमारी ब-ज़ात-ए-ख़ुद (ख़ुद ही) मुत'अद्दी होती तो कम-अज़-कम मरीज़ (बीमार) घराने के दीगर (अन्य) अफ़राद (आदमी) को तो ज़रूर मुब्तला-ए-आज़माइश करतीं लेकिन ऐसा नहीं होता बल्कि (किंतु) होता यूं हैं कि कोई हमसाया (पड़ोसी) या गली महल्ले में दूर के घर वाला इस बीमारी में मुब्तला हो जाता है तो शोर मच जाता है कि फ़ुलाँ आदमी की वजह से इसे यह बीमारी चिमट गई है हालांकि यह शख़्स शायद उसके पास बैठा भी न हो इस लिए नबी-ए-अकरम ﷺ ऐसे बीमार के साथ बैठ कर भी खा लिया करते थे जिसके मुत'अल्लिक़ (बारे में) लोग समझते थे कि इसे कोई मुत'अद्दी-मर्ज़ (छूत की बीमारी) लाहिक़ है
हज़रत ज़ाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं:
أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ ﷺ أَخَذَ بِيَدِ مَجْذُومٍ فَوَضَعَهَا مَعَهُ فِي الْقَصْعَةِ وَقَالَ: كُلْ بِسْمِ اللَّهِ ثِقَةٌ بِاللَّهِ وَتَوَكَّلًا عَلَيْهِ"
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ ने कोढ़ी का हाथ थाम (पकड़) कर उसे अपने दस्त-ए-मुबारक (मुबारक हाथ) के साथ खाने के प्याले में डाला और फ़रमाया: (बिस्मिल्लाह) पढ़ो और अल्लाह पर ए'तिमाद (यक़ीन) और भरोसा कर के खाओ,
(सुनन अबू दाऊद हदीष:3925, जामे' तिर्मिज़ी हदीष:1817)
दूसरी बात जिस का आप ﷺ ने शिद्दत से (सख़्ती से) इंकार किया है वो है बद-शुगूनी (नुहूसत) लेना 
किसी चीज़, दिन या फ़र्द (शख़्स) को मनहूस (बुरा) समझना
मेरी बहन! तुझे मा'लूम होना चाहिए कि अल्लाह-त'आला ने हर चीज़ को मुफ़ीद (फ़ाइदा-मंद) बनाया है और किसी चीज़ में हरगिज़ कोई नुहूसत नहीं रखी मुख़्तलिफ़ अश्या (वस्तूओ) के मनहूस होने या उनसे बद-शुगनी लेने का 'अक़ीदा रखना मुशरिकीन ए मक्का का तर्ज़-ए-'अमल (तरीक़ा) है 
रसूलुल्लाह ﷺ के दौर (समय) में मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) क़िस्म (प्रकार) की बद-शुगूनियां ली जाती थी जिनमें से दो का तज़्किरा (ज़िक्र) आप ﷺ ने गुज़श्ता हदीष में किया है इनमें से एक चीज़ उल्लू की आवाज़ से बद-शुगूनी लेना और दूसरी चीज़ सफ़र के महीने को मनहूस समझना है हालांकि इन दोनों की मुतलक़न (बिल्कुल) कोई हक़ीक़त नहीं है
उल्लू को मौजूदा दौर (इस समय) में भी मनहूस (अशुभ) समझा जाता है लिहाज़ा (इसलिए) इस 'अक़ीदे की क़ाइल ख़वातीन (औरतों) को चाहिए कि वो मुशरिकीन-ए-मक्का की तक़लीद (पैरवी) से बाज़ (अलग) रहें और जानवरों को मनहूस और रहमत-ए-इलाही से धुत्कारा हुआ क़रार न दें इसी तरह कव्वे की काएं-काएं (कौवे की आवाज़) से कोई शुगून लेना भी नाजाएज़ और शिर्क है
दूसरी चीज़ जिस की रसूलुल्लाह ﷺ ने तरदीद (रद्द) फ़रमाइ वो माह-ए-सफ़र को मनहूस समझना है चूँकि (इसलिए कि) 'अरब मुहर्रम में जंग-ओ-जिदाल (लड़ाई-झगड़े) को हराम समझते थे जैसा कि हमारी शरी'अत-ए-मुतहहरा के मुताबिक़ (अनुसार) भी यह हराम है तो 'उमूमन (अक्सर) मुहर्रम गुज़रने के बाद उनके हाँ (यहां) लड़ाई-झगड़ों और जंग-ओ-जिदाल (लड़ाई) में शिद्दत (ज़्यादती) आ जाती थी लेकिन वो अपना क़ुसूर (ग़लती) मानने के बजाए माह-ए-सफ़र को मनहूस क़रार देते थे कि इसमें क़त्ल-ओ-ग़ारत और ख़ूँ-रेज़ी (मार-काट) का बाज़ार गर्म हो जाता है जंग के शो'ले भड़क उठते हैं और मुसीबतें नाज़िल होती हैं
इसी तरह वो बुध (बुधवार) के दिन को भी मनहूस समझते थे और माह-ए-शव्वाल में शादी करना भी मा'यूब (बुरा) गर्दानते (समझते) थे
आज हमारी ख़वातीन (औरतें) भी मुशरिकीन ए मक्का के तर्ज़-ए-'अमल (तरीक़े) पर चलते हुए मुहर्रम में शादी को मनहूस (बुरा) क़रार देती हैं और यह 'अक़ीदा रखतीं हैं कि अगर किसी औरत की शादी मुहर्रम में होतो उस का निबाह (गुज़ारा) मुश्किल है या उसे औलाद के मसाइल लाहिक़ हो जाते हैं और उसका सबब (कारण) यह है कि इस महीने में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत हुई थी 
मेरी बहन! यह तमाम महीने अल्लाह-त'आला के पैदा कर्दा हैं इन में कोई ख़राबी नहीं हां बा'ज़ (कुछ) महीने और दिन अल्लाह-त'आला की मशिय्यत (मर्ज़ी) से बा'इस-ए-बरकत हैं मसलन (जैसे)
माह-ए-रमज़ान और ज़िल-हिज्जा का पहला अश्रा (दस दिन) वग़ैरा
मेरी बहन! तू मज़्कूरा-बाला (जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ) तमाम उमूर (काम) से बद-शुगूनी लेने से बाज़ आजा क्यूंकि बद-शुगूनी को रसूलुल्लाह ﷺ ने शिर्क क़रार दिया है आप ﷺ का इरशाद है:
" الطَّبَرَةُ شرك، الطَّيَرَةُ شِرك "
तर्जमा: बद-शुगूनी शिर्क है, बद-शुगूनी शिर्क है,
(सुनन अबू दाऊद हदीष:3910, जामे'तिर्मिज़ी हदीष:1614)
मेरी बहन! तू कब तक इन तवह्हुमात (वहम) का शिकार रहेगी ?
कब तक तू बद-शुगूनी लेकर अपने अहम (ज़रूरी) कामों से मुँह मोड़ती रहेगी ? क्या अभी तक यह वक़्त नहीं आया कि तू यह 'अक़ीदा अपना ले कि कोई भी चीज़ अल्लाह-त'आला की मर्ज़ी के बग़ैर ब-ज़ात-ए-ख़ुद (अपने-आप) भलाई रखतीं है न बुराई बल्कि (लेकिन) जो कुछ भी होता है वो सिर्फ़ अल्लाह-त'आला की मर्ज़ी से होता है आल-ए-फ़िर'औन भी अपने ऊपर नाज़िल होने वाले 'अज़ाब-ए-इलाही को मूसा अलैहिस्सलाम की नुहूसत समझते थे चुनांचे (जैसा कि) अल्लाह-त'आला ने फ़रमाया:
( فَإِذَا جَاءَتْهُمُ الْحَسَنَةُ قَالُوا لَنَا هَذِهِ : وَإِن تُصِبْهُمْ سَيِّئَةُ تَطَيَّرُوا يمُوسى وَمَنْ مَعَهُ أَلَا إِنَّمَا ظَهِرُهُمْ عِنْدَ اللهِ وَلَكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ )
तर्जमा: जब उन पर ख़ुशहाली आती तो कहते यह हमारे ही लिए है और अगर उन्हें बद-हाली आलेती तो उसे मूसा और उनके साथियों की नुहूसत ठहराते ख़बर-दार उनकी नुहूसत अल्लाह के यहां (मुक़द्दर) है लेकिन उनमें से अक्सर (लोग) नहीं जानते,
(सूरा अल्-आराफ़:131)
हज़रत इकरिमा रहिमहुल्लाह बयान करते हैं कि मैं हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा के पास बैठा था अचानक एक परिंदा चीख़ता हुआ गुज़रा तो लोगों में से एक शख़्स ने उससे शुगून लेते हुए कहा कि इस में ख़ैर है और अब भलाई आएगी तो इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने फ़रमाया:
" مَا عِنْدَ هَذَا، لَا خَيْرَ وَلَا شَرَّ»
तर्जमा: इस परिंदे के पास कोई ख़ैर (भलाई) है न कोई शर (बुराई)
(तफ़्सीर अल-कुर्तुबी:7/235)
ख़वातीन (औरतों) की तवह्हुमात (अंधविश्वास) में से एक सितारों के इंसानी ज़िंदगी पर असर-अंदाज़ (प्रभावित) होने का 'अक़ीदा है और ख़वातीन की इसी दिलचस्पी के बा'इस (कारण) 'इल्म-ए-नुजूम (सितारों का 'इल्म) सिर्फ़ लूट-खसूट (लूट-मार) का धंदा बन कर रह गया है लोग नित-नए तरीक़ों से ख़वातीन को अपने जाल में फँसा कर उन्हें लूटते हैं वो उन्हें सुनहरी क़िस्मत साज़ी के सब्ज़-बाग़ (झूठा वा'दा) दिखाते हैं और ख़वातीन पक्के फल की तरह उनकी झोली में गिर पड़ती हैं 
जबकि (हालाँकि) हक़ीक़त (सच्चाई) यह है कि इंसान की क़िस्मत साज़ी में सितारों का कोई दख़्ल है न वो इस काम के लिए बनाए गए हैं
हज़रत क़तादा रहिमहुल्लाह फ़रमाते हैं: अल्लाह-त'आला ने इन सितारों को तीन मक़्सद के लिए पैदा किया है:
(1) आसमान की ज़ीनत (ख़ूबसूरती) के लिए
(2) शयातीन (शैतानों) को मारने और उन्हें भगाने के लिए 
(3) और बहर-ओ-बर (ज़मीन और समुंदर) में सम्त (रास्ता) मा'लूम करने के लिए
जो शख़्स इनके 'अलावा दीगर (दूसरे) उमूर (काम) की तकमील में उन्हें सबब (कारण) क़रार देता या समझता है वो ग़लती पर है उस शख़्स ने अपने आप को हर क़िस्म (प्रकार) की भलाई से महरूम कर लिया है उसने ऐसी चीज़ के बारे में तकल्लुफ़ किया है जिस का उसे कुछ 'इल्म ही नहीं है 
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि:
«لَا عَدْوَى، وَلَا هَامَةَ، وَلَا نَوْءَ، وَلَا صَفَرَ»
तर्जमा: कोई बीमारी ब-ज़ात-ए-ख़ुद  (अपने-आप) मुत'अद्दी नहीं होती न हामा (परिंदे) की कोई हक़ीक़त है न सितारों की कोई तासीर है और न सफ़र के महीने में नुहूसत की कोई हक़ीक़त,
(सहीह बुखारी हदीष:3198, सहीह मुस्लिम हदीष:2220)
'उमूमन (अक्सर) ख़वातीन (औरतें) दमदार सितारे के बारे में 'अजीब 'अक़ाइद रखती हैं और इसे मुसीबतों का पेश-ख़ेमा समझती हैं इसी तरह वो बा'ज़ (कुछ) सितारों को ख़ुश-बख़्ती (सौभाग्य) का सबब (कारण) क़रार देती हैं यह तमाम बातें शिर्क और कुफ़्र के ज़ुमरे (सिलसिले) में आती हैं इस लिए मेरी मुसलमान बहनो को चाहिए कि वो ऐसे 'अक़ाइद (ईमान) से अपना दामन आलूदा (नापाक) न होने दें और इस के लिए दर्ज ज़ैल (नीचे लिखित) हदीष का ब-ग़ौर (ध्यान से) मुताल'अ (अध्ययन) करे
हज़रत ज़ैद बिन खालिद जुहनी रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि एक रात हुदैबिया के मक़ाम (जगह) पर (नबी-ए-अकरम ﷺ की मौजूदगी में) बारिश हुई नबी-ए-अकरम ﷺ ने जब हमें नमाज़-ए-फ़ज्र पढ़ा कर सलाम फेरा तो हमारी तरफ़ मुतवज्जह (मुख़ातिब) हो कर फ़रमाया:
هَلْ تَدْرُونَ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمْ؟» قَالُوا: اللَّهُ وَرَسُولُهُ أَعْلَمُ، قَالَ: «أَصْبَحَ مِنْ عِبَادِي مُؤْمِنْ بِي وَكَافِرٌ، فَأَمَّا مَنْ قَالَ: مُطِرْنَا بِفَضْلِ اللهِ وَرَحْمَتِهِ، فَذَلِكَ مُؤْمِنٌ بِي وَكَافِرٌ بِالْكَوْكَبِ، وَأَمَّا مَنْ قَالَ مُطِرْنَا بِنَوْءٍ كَذَا وَكَذَا، فَذَلِكَ كَافِرُ بِي وَمُؤْمِنْ بِالْكَوْكَبِ"
तर्जमा: जानते हो तुम्हारे रब ने क्या फ़रमाया है ? सहाबा किराम ने 'अर्ज़ किया: अल्लाह-त'आला और उसका रसूल ﷺ ही बेहतर जानते हैं (आप ﷺ ने फ़रमाया) अल्लाह-त'आला ने फ़रमाया है कि मेरे बंदों में से बा'ज़ (कुछ) ने मुझ पर ईमान की हालत में सुब्ह की और बा'ज़ ने कुफ़्र की हालत में उनमें से जिन्होंने कहा कि हम पर अल्लाह-त'आला के फ़ज़्ल और उसकी रहमत से बारिश हुई वो मुझ पर ईमान रखने वाले और सितारों के काफ़िर हैं और जिन्होंने कहा कि हम पर यह बारिश सितारों की वजह से हुई वो मेरे मुनकर और काफ़िर हैं और सितारों पर ईमान लाने वाले हैं,
(सहीह बुखारी हदीष:1038, सहीह मुस्लिम हदीष:71)
औरतों में भूत-प्रेत के मुत'अल्लिक़ (बारे में) भी बहुत से 'अक़ाइद और तवह्हुमात (अंधविश्वास) राइज (प्रचलित) हैं हालांकि भूत-प्रेत की कोई हक़ीक़त नहीं है जैसा कि हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की मज़्कूरा-बाला (जिसका ज़िक्र ऊपर आ चुका) हदीष से 'अयाँ (स्पष्ट) है यह हदीष वाज़ेह तौर पर इस 'अक़ीदे की नफ़ी (इंकार) करती है 
'अलावा-अज़ीं (इसके 'अलावा) औरतों के हाँ (वहाँ) जादू-टोना और ता'वीज़-गंडों के इस्ते'माल की वबा (बुराई) भी 'आम (बहुत) है और इस पर औरत का निहायत (बहुत) पुख़्ता ए'तिमाद (भरोसा) और ए'तिक़ाद (विश्वास) है ख़वातीन अपनी ख़्वाहिशात (आरज़ूओं) की तकमील दूसरों के घरों की बर्बादी या सास बहू की अज़ली (पुरानी) आतिश-ए-रक़ाबत (लड़ाई) को ठंडा करने के लिए नुजूमियों (ज्योतिषी) सितारा-शनासों, काहिनों (फ़ाल निकालनें वालों) जादू-गरों और पीरों फ़क़ीरों के पास हाज़िरी देती और एक दूसरे के ख़िलाफ़ ता'वीज़ वग़ैरा लिखवाती रहती हैं
मेरी बहन! अफ़सोस है तुझ पर तुझे  इस-क़दर (इतना ज़ियादा) यक़ीन-ओ-ए'तिमाद (भरोसा) अपने ख़ालिक़-व-मालिक और रब्ब-ए-काइनात पर नहीं है जिस क़द्र ए'तिमाद (भरोसा) तुझे अपने उन नाम-निहाद (नक़ली) ग़ैब-दानों पर है 
अगर आप कभी ख़ाली-अज़-ज़ेहन हो कर बिल्कुल ग़ैर-जानिबदारी से किसी पीर फ़क़ीर, सितारा-शनास (ज्योतिषी) या जादूगर वग़ैरा की मजलिस में जाए तो आप औरतों को उन नाम-निहाद (नक़ली) क़िस्मत-साज़ लोगों से यूँ (ऐसे) गुफ़्तुगू (बात-चीत) करते पाएंगे जैसे यह पूरी काइनात (दुनिया) के मालिक हो और ज़मीन की हर चीज़ उनकी मुती' (आज्ञाकारी) हो हालांकि हक़ीक़त यह है कि नुसरत इरादा-ए-इलाही (अल्लाह की मदद) के बग़ैर एक पत्ता हिलाने की भी क़ुदरत (ताक़त) नहीं रखते 
मेरी बहन! क्या तुझे अल्लाह की ज़ात पर ए'तिमाद (भरोसा) नहीं है जबकि वो सारी काइनात (दुनिया) का मालिक और हर चीज़ पर क़ादिर है ? 
क्या कभी तुने ग़ौर किया कि तू ने अपने इस 'अमल (काम) से उन नाम-निहाद (नक़ली) क़िस्मत साज़ों को अल्लाह से भी ऊंचा मक़ाम दे रखा है हालांकि अल्लाह की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई तुझे फ़ाइदा पहुंचा सकता है न नुक़्सान 
क्या तुझे अल्लाह-त'आला की सबसे सच्ची किताब (क़ुरआन) पर यक़ीन नहीं है ? या तू यह समझतीं है कि न'ऊजु-बिल्लाह यह किताब
मबनी-बर-हक़ीक़त नहीं है ?
अगर तुझे क़ुरआन-ए-करीम पर यक़ीन-ए-कामिल (पूरा भरोसा) है तो मुंदरिजा-ज़ेल (नीचे लिखी हुई) आयत पढ़ अपने तर्ज़-ए-'अमल (व्यवहार) पर ग़ौर कर और अपने दिल से पूछ कि क्या तेरा 'अमल (काम) इस आयत के मुताबिक़ है या बर-'अक्स (विरुद्ध) ?
अल्लाह-त'आला ने फ़रमाया है:
وَإِن يَمْسَسْكَ اللهُ بِضُرٌ فَلَا كَاشِفَ لَةَ إِلَّا هُوَ وَإِنْ يُرِدُكَ بِخَيْرٍ فَلَا رَادَ لِفَضْلِهِ)
तर्जमा: अगर अल्लाह तुम्हें कोई तकलीफ़ पहुंचा दे तो उसके सिवा कोई इस तकलीफ़ को दूर करने वाला नहीं है और अगर वो तुम को कुछ फ़ाइदा पहुंचाना चाहे तो कोई उसके फ़ज़्ल को रोकने वाला नहीं है
(सूरा यूनुस:107)
मेरी बहन! क्या तुझे मा'लूम है कि किसी जादूगर, सितारा-शनास (ज्योतिषी) नुजूमी, फ़ाल निकालने वाले वग़ैरा के पास जाना किस-क़दर (कितना) कबीरा (बड़ा) गुनाह है ? यह ऐसा गुनाह है जो तुझे दाइरा-ए-इस्लाम से ख़ारिज (बाहर) कर देता है
हज़रत इमरान बिन हुसैन- रज़ियल्लाहु अन्हुमा बयान करते है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
 ليْسَ مِنَّا مَنْ تَطَيَّرَ أَوْ تُعيرَ لَهُ، أَوْ تَكَهَنَ أَوْ تُكهَنَ لَهُ، أَوْ سَحَرَ أَوْ سُحِرَ لَهُ، وَمَنْ عَقَدَ عُقْدَةً - أَوْ قَالَ: عُقِدَ عُقْدَةً ـ وَ مَنْ أَنَّى كَاهِنًا، فَصَدَّقَهُ بِمَا قَالَ، فَقَدْ كَفَرَ بِمَا أُنْزِلَ عَلَى مُحَمَّدٍ)
तर्जमा: जिस शख़्स ने फ़ाल निकाली या निकलवाई कहानत की या कराई और जादू किया या कराया वो हम (मुसलमानों) में से नहीं है और जो शख़्स किसी काहिन ('आमिल, जादूगर वग़ैरा) के पास गया और जो कुछ उसने कहा इस ने उसकी तस्दीक़ की तो बिला-शुब्हा (यक़ीनन) इसने उस चीज़ का कुफ़्र किया जो मोहम्मद ﷺ पर नाज़िल की गई है,
(मज्मा'-अल-जवाइद:5/201, हदीष नंबर:8480)
मेरी बहन! अगर मैं तेरे तवह्हुमात (अंधविश्वास) और फ़ासिद (ख़राब)'अक़ीदों की तफ़्सील बयान करूं तो इस के लिए एक किताब भी कम है लिहाज़ा (इसलिए) मैं इन्हीं चंद अलफ़ाज़ पर इक्तिफ़ा करता हूं और तुझे इशारतन (इशारे के तौर पर) बताता हूं कि तेरा ता'वीज़-गंडों का इस्ते'माल किसी बीमारी के 'इलाज के लिए बे-ज़रर छल्ले को उँगली में पहनना बच्चे के बालों की चोटी को उसकी हिफ़ाज़त के लिए छोड़े रखना और उसे न कटवाना उम्मीद बर-आरी के लिए किसी दरगाह, मज़ार या क़ब्र पर जाना मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) दरख़्तों, जानवरों और मक़ामात के बारे में अपने मन-माने (मनपसंद) 'अक़ाइद (ईमान) रखना और उन्हें मुक़द्दस (पाक) समझना यह तमाम उमूर (काम) यकसर (बिल्कुल) हराम हैं इन तमाम उमूर और उनसे मुनासबत (लगाव) रखने वाली दीगर (अन्य) चीज़ों से दूर भागना अज़-बस (बहुत) ज़रुरी है।

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