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रोज़ा के 100 मसाइल

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:1,2)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*सहरी सुन्नत है वाजिब नहीं है*

सवाल 1: एक शख़्स रमज़ान में सहरी के वक़्त से कुछ पहले सो गया और सहरी नहीं खा सकता हालाँकि उस का सहरी खाने का इरादा था लेकिन फ़ज्र (सुब्ह) के बाद उस की नींद खुली क्या उस का रोज़ा दुरुस्त होगा ?

जवाब 1: उस का रोज़ा दुरुस्त होगा क्यूँकि (इसलिए कि) रोज़े की दुरुस्तगी के लिए सहरी खाना शर्त नहीं है सहरी खाना महज़ (सिर्फ़) मुसतहब (पसंदीदा) है अल्लाह के रसूल ﷺ का फ़रमान है "सहरी खाओ क्यूँकि इस में बरकत है"
(मुत्तफ़क़-'अलैह) (शैख़ इब्न बाज़)

*सूरज ग़ुरूब हो जाने के बाद अज़ान से पहले इफ़्तार करना*

सवाल 2: एक सहीह हदीष में अल्लाह के रसूल ﷺ फरमाते हैं
"जब सूरज इधर (मग़रिब) से ग़ुरूब हो जाए और रात इधर मशरिक़ (पूरब) से ज़ाहिर हो जाए तो रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया"
اوکماقال ﷺ
हम ने तहक़ीक़ के बाद पाया कि जब सूरज फ़िल-वाक़े' (सच में) ग़ुरूब हो जाता है इस के पांच सात मिनट के बाद हमारे यहां मुअज़्ज़िन अज़ान देता है यह मुअज़्ज़िन जंतरी में अजीरी (कुवैत) के लिए दिए गए वक़्त के मुताबिक़ (अनुसार) अज़ान देता है तो क्या ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब की तहक़ीक़ हो जाने के बाद मुअज़्ज़िन के अज़ान देने से पहले इफ़्तार करना जाइज़ हैं ?

जवाब 2: जब रोज़े-दार को ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब और रात की आमद (आने) का हक़ीक़ी 'इल्म हो जाए तो उसके लिए इफ़्तार करना जाइज़ हैं अल्लाह रब्ब-उल-'इज़्ज़त का फ़रमान है:
(ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّیَامَ إِلَی الَّلیْْل)
फिर रोज़े को रात तक पूरा करो
और अल्लाह के रसूल की हदीष है कि: जब रात इधर से ज़ाहिर हो जाए और दिन इधर से रवाना हो जाए और सूरज ग़ुरूब हो जाए तो रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया 
(मुत्तफ़क़-'अलैह)
इस से मा'लूम हुआ कि इन जंतरीओ का ए'तिबार (भरोसा) नहीं किया जाएगा जो इस हक़ीक़त के मुताबिक़ (अनुसार) न हो नीज़ (और) यह कि सहीह तौर पर ग़ुरूब ए आफ़ताब का 'इल्म हो जाने के बाद इफ़्तार करने के लिए अज़ान सुनने की शर्त नहीं है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:3)
✍...शैख़ अस'अद आज़मी 
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*तुलू'-ए-फ़ज्र का यक़ीनी 'इल्म न होने की सूरत में अज़ान के दौरान खाना-पीना*
सवाल 3: मुअज़्ज़िन के अज़ान देने की हालत में या अज़ान के कुछ देर बाद तक खाते पीते रहने का क्या हुक्म है ख़ास तौर से ऐसी सूरत (स्थिति) में जब कि तुलू'-ए-फ़ज्र का यक़ीनी तौर पर 'इल्म न हो ?
जवाब 3: रोज़ा रखने वाले को जो चीज़ खाने पीने से रोकने वाली है वो तुलू'-ए-फ़ज्र है क्यूँकि अल्लाह-त'आला का इरशाद हैं:
(فَالآنَ بَاشِرُوہُنَّ وَابْتَغُوا مَا کَتَبَ اللّہُ لَکُمْ وَکُلُواوَاشْرَبُوا حَتَّی یَتَبَیَّنَ لَکُمُ الْخَیْْطُ الأَبْیَضُ مِنَ الْخَیْْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْر)
अब तुम्हें उन औरतों से मुबाशरत की और अल्लाह-त'आला की लिखी हुई चीज़ को तलाश करने की इजाज़त है और तुम खाते पीते रहो यहां तक कि (सुब्ह) का सफ़ेद धागा 
(रात के) सियाह धागे से ज़ाहिर हो जाए
और नबी करीम ﷺ का इरशाद हैं:
" जब तक इब्ने उम्मे मकतूम अज़ान न दे खाते पीते रहो क्यूँकि फ़ज्र तुलू' हुए बग़ैर वो अज़ान नहीं देते "
लिहाज़ा (इसलिए) अस्ल ए'तिबार (भरोसा) तुलू'-ए-फ़ज्र ही का होगा पस अगर अज़ान देने वाला क़ाबिल-ए-ए'तिमाद (भरोसेमंद) है और यह कहता है कि वो उस वक़्त तक अज़ान नहीं देता जब-तब कि फ़ज्र तुलू' न हो जाए तो ऐसी सूरत में वो जैसे ही अज़ान शुरू' करे अज़ान सुनते ही खाने पीने से रुक जाना ज़रूरी है
और अगर मुअज़्ज़िन इज्तिहाद कर के और तुलू'-ए-फ़ज्र का अंदाज़ा लगा कर अज़ान देता है तो ऐसी सूरत में भी एहतियात का तक़ाज़ा यही है कि इस की अज़ान सुनते ही खाना-पीना तर्क कर दिया जाए अगर कोई शख़्स खुल्ले मैदान में हो और (आसमान पर) फ़ज्र का मुशाहदा कर रहा हो तो अज़ान सुनने के बावुजूद इस को खाना पीना तर्क करना ज़रूरी नहीं है जब तक वो ख़ुद फ़ज्र तुलू' होते न देखले ब-शर्त-ए-कि रूयत (देखना) से कोई चीज़ माने' (रुकावट) न हो क्यूँकि अल्लाह-त'आला ने सियाह-धागे (रात की तारीकी) से फ़ज्र के सफ़ेद धागे (सुब्ह की सफ़ेदी) के नुमायाँ होने पर हुक्म को मु'अल्लक़ फ़रमाया है और नबी ﷺ ने इब्ने उम्मे मकतूम की अज़ान के बारे में फ़रमाया कि " वो उस वक़्त तक अज़ान नहीं देते जब तक फ़ज्र तुलू' न हो जाए " यहां मुअज़्ज़िन के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से एक मसअला की तरफ़ में तवज्जोह मबज़ूल कराना चाहता हूं वो यह है कि बा'ज़ (कुछ) मुअज़्ज़िन तुलू'-ए-फ़ज्र से चार पांच मिनट पहले अज़ान दे देते हैं और वो समझते हैं कि रोज़े के लिए बतौर एहतियात वो ऐसा करते हैं यह ऐसा एहतियात है जिस को हम ग़ुलू से ता'बीर कर सकते हैं यह शर'ई एहतियात नहीं है नबी करीम ﷺ का फ़रमान है कि
”ھَلَکَ الْمُتَنَطِّعُوْنَ“
दीन में ग़ुलू करने वाले बर्बाद हो गए यह एहतियात दुरुस्त नहीं है इस लिए कि यह लोग अगर रोज़े के वास्ते (कारण) एहतियात कर रहे हैं तो नमाज़ को ख़राब कर रहे हैं क्यूंकि बहुत से लोग अज़ान सुनने के बाद फ़ौरन (तुरंत) उठ कर फ़ज्र की नमाज़ पढ़ लेते हैं ऐसी हालत में यह आदमी जिसने वक़्त से पहले अज़ान देने वाले मुअज़्ज़िन की अज़ान सुन कर फ़ज्र की नमाज़ पढ़ ली इस ने नमाज़ को उनके वक़्त से पहले पढ़ लिया और वक़्त से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ दुरुस्त नहीं होती ऐसे मुअज़्ज़िन नमाज़ पढ़ने वालों को भी ज़रर पहुँचाते है और रोज़ा रखने वाले को भी क्यूंकि रोज़ा रखने वाले के लिए अभी ब-हुक्म इलाही खाना पीना मुबाह (जाइज़) था लेकिन इस मुअज़्ज़िन ने अज़ान कह कर उन को इससे रोक दिया इस मुअज़्ज़िन ने एक तरफ़ तो रोज़ा रखने वालों पर ज़ुल्म किया कि अल्लाह की हलाल कर्दा चीज़ से उन को रोक दिया तो दूसरी तरफ़ नमाज़ पढ़ने वालों के साथ भी ज़्यादती की क्यूंकि इन्होंने वक़्त होने से पहले नमाज़ पढ़ ली और यह 'अमल उन की नमाज़ को बातिल कर देने वाला है लिहाज़ा (इसलिए) मुअज़्ज़िन को अल्लाह से डरना चाहिए और यह कि दुरुस्त बात तक पहुंचने के लिए जो इज्तिहाद करे इस में किताब-ओ-सुन्नत के बताए हुए तरीक़ो का ख़याल रखें
(शैख़ इब्न उसैमीन)
रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:5-6)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*रेडियो की ख़बर और मस्जिद की अज़ान में फ़र्क़*

सवाल 5: एक दिन रमज़ान में रेडियो से यह ख़बर दी गई कि मग़रिब की अज़ान दो मिनट के बाद होने वाली है ठीक उसी वक़्त मुहल्ले के मुअज़्ज़िन की अज़ान की आवाज़ सुनाई दी उन दोनों में से किस का ए'तिबार (भरोसा) करना बेहतर है ?

जवाब 5: अगर मुअज़्ज़िन क़ाबिल-ए-ए'तिमाद (भरोसेमंद) आदमी है और सूरज देख कर अज़ान कहता है तो हम मुअज़्ज़िन ही की इत्तिबा' (पैरवी) करेंगे क्यूंकि वो एक महसूस (ज़ाहिर) चीज़ को देख कर अज़ान देता है और वो है ग़ुरूब ए आफ़ताब का मुशाहदा (देखना) अलबत्ता (लेकिन) अगर वो घड़ी देख कर अज़ान देता है और सूरज देख कर नहीं देता तो गुमान-ए-ग़ालिब यह है कि रेडियो का ए'लान ही ज़ियादा दुरुस्त होगा क्यूँकि घड़ियों में वक़्त मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) रहता है और ऐसी हालत में रेडियो पर ए'तिबार (भरोसा) बेहतर और महफ़ूज़ चीज़ है (शैख़ इब्न उसैमीन)

*मग़रिब की सम्त (तरफ़) परवाज़ (उड़ना) करने वाले जहाज़ में इफ़्तार कब किया जाए ?*

सवाल 6: हम लोग रमज़ान के महीने में मग़रिब की अज़ान से तक़रीबन (लगभग) एक घंटा क़ब्ल (पहले) रियाज से हवाई-जहाज़ के ज़री'आ (द्वारा) रवाना हुए मग़रिब की अज़ान होने वाली थी और हम सऊदीया की फ़ज़ाओ में थे क्या हम रोज़ा इफ़्तार कर ले जब कि हम सूरज को देख रहे थे जो ख़ासा बलंद (ऊंचा) था और हम फ़ज़ा में थे या हम रोज़ा रखे रहे और अपने मुल्क जा कर रोज़ा इफ़्तार करे या हम सऊदीया की अज़ान के वक़्त के मुताबिक़ रोज़ा इफ़्तार कर ले ?

जवाब 6: जब जहाज़ रियाज से उड़ा और वो ग़ुरूब ए आफ़ताब से पहले मग़रिब ही की तरफ़ रवाना हुआ तो जब तक सूरज ग़ुरूब न हो आप रोज़ा रखे रहेंगे आप ख़्वाह (चाहे) फ़ज़ा में हो या अपने मुल्क में उतरे सूरज ग़ुरूब होने पर ही आप इफ़्तार करे क्यूंकि नबी-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया: " जब रात इधर से बढ़ आए इधर से दिन पीछे हट जाए तो उस वक़्त रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया " (मुत्तफ़क़-'अलैह)
(शैख़ इब्न बाज़)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:7-10)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*ब-हालत रोज़ा क़य (उल्टी) आ जाना*

सवाल 7: क्या क़य (उल्टी) से रोज़ा टुट जाता है ?

जवाब 7: रोज़े-दार को बहुत से ऐसे उमूर (मसलें) पेश (सामने) आते हैं जिन में उस का अपना कोई दख़्ल (हस्तक्षेप) नहीं होता जैसे ज़ख़्म लग जाना, नकसीर फूटना, क़य (उल्टी) हो जाना, या बग़ैर इख़्तियार के पानी या पेट्रोल हल्क़ में चला जाना, इन में से कोई भी चीज़ रोज़ा तोड़ने वाली नहीं है क्यूंकि नबी ﷺ ने फ़रमाया है: 
" जिस को ख़ुद-ब-ख़ुद क़य आ जाए उस पर क़ज़ा नहीं है और जिस ने 'अमदन (जान बूझकर) क़य किया इस पर क़ज़ा है "
(शैख़ इब्न बाज़)

*लु'आब (थूक) निगलना*

सवाल 8: रोज़े की हालत में लु'आब (थूक) निगलने का क्या हुक्म है ?

जवाब 8: लु'आब (थूक) से रोज़े पर कोई असर नहीं पड़ता क्यूंकि वो भी एक तरह का थूक ही है पस (इसलिए) अगर कोई उस को निगल जाए तो भी हरज नहीं और अगर थूक दे तो भी हरज नहीं लेकिन नाक या सीने से ख़ारिज (बाहर) होने वाले ग़लीज़ बलग़म को थूकना ज़रूरी है इसे निगलना नहीं चाहिए रहा थूक की नौ'इय्यत (प्रकार) का 'आम लु'आब (थूक) तो इस में कोई हरज नहीं हैं और रोज़े-दार के लिए मुज़िर (हानिकारक) नहीं हैं चाहे वो मर्द हो या औरत
(शैख़ इब्न बाज़)

*बिला-इरादा (अनजाने में) हल्क़ (गले) में पानी उतर जाना*

सवाल 9: कुल्ली करते या नाक में पानी डालते वक़्त अगर बिला-इरादा (अनजाने में) रोज़े-दार की हल्क़ में पानी उतर जाए तो क्या उस से रोज़ा फ़ासिद हो जाएगा ?

जवाब 9: अगर रोज़े-दार ने कुल्ली की या नाक में पानी डाला और वो पानी उसके पेट में चला गया तो उस का रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि उसने क़स्दन (जान बूझ कर) ऐसा नहीं किया है अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
 (وَلَکِن مَّا تَعَمَّدَتْ قُلُوبُکُم)
" या'नी (गुनाह) वो है जिस का दिल से तुम इरादा करो "
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*ग़र्ग़रा (मुंह में पानी लेकर फिराना)
करना*

सवाल 10: क्या किसी दवा से ग़र्ग़रा करने से रोज़ा टुट जाएगा ?

जवाब 10: अगर वो दवा हल्क़ (गले) से नीचे न उतरे तो रोज़ा बातिल नहीं होगा लेकिन सख़्त ज़रूरत के बग़ैर ऐसा न करो अलबत्ता (लेकिन) अगर (ब-वक़्त ज़रुरत ग़र्ग़रा किया और) तुम्हारे पेट में दवा दाख़िल नहीं हुई तो रोज़ा नहीं टुटेगा (शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:11-12)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*आंख और कान में दवा डालना*

सवाल 11: क्या रोज़ा की हालत में आंख में दवा टपकाने से रोज़ा टुट जाएगा ?

जवाब 11: सहीह यह है कि आंख में दवा टपकाने से रोज़ा नहीं टुटता अगरचे कि अहल-ए-'इल्म के दरमियान (बीच में) इस सिलसिले में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) है बा'ज़ (कुछ)
लोगों का यह कहना है कि अगर दवा का असर हल्क़ (गले) में महसूस हो तो उस से रोज़ा टुट जाएगा लेकिन सहीह यही है कि चाहे असर महसूस हो या न हो रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि आंख नुफ़ूज़ (अंदर घुसना) की जगह नहीं है लेकिन जिस शख़्स ने हल्क़ में दवा का असर महसूस किया उसने बतौर एहतियात और इख़्तिलाफ़ से बचने के लिए इस रोज़ा की क़ज़ा कर ली तो कोई हरज की बात नहीं है वर्ना (नहीं तो) सहीह यही है कि इस से रोज़ा नहीं टुटता चाहे आंख में दवा डाली जाए या कान में
(शैख़ इब्न बाज़)

*टूथ-पेस्ट और ब्रश का इस्ते'माल*

सवाल 12: क्या रोज़े की हालत में दांत साफ़ करने के लिए टूथ-पेस्ट का इस्ते'माल जाइज़ हैं ? 
और अगर ब्रश के इस्ते'माल से मसूढ़ो से मा'मूली सा ख़ून निकल आए तो क्या रोज़ा टुट जाएगा ?

जवाब 12: रोज़े की हालत में पानी से, मिस्वाक से या टूथ-ब्रश से दांत साफ करने में कोई हरज नहीं हैं बा'ज़ (कुछ) लोगों ने ज़वाल आफ़ताब के बाद रोज़ा-दार के लिए मिस्वाक के इस्ते'माल को मकरूह कहा है क्यूंकि इस से उसके मुंह की बू ख़त्म हो जाती है लेकिन सहीह यही है कि पूरे दिन मिस्वाक करना मुसतहब है मिस्वाक के इस्ते'माल से मुंह की बू ख़त्म नहीं होती बल्कि दांत और मुंह की सफाई होती है और महक (सुगंध) तबख़ीर और खाने के फ़ुज़लात वग़ैरा साफ़ हो जाते हैं अलबत्ता (लेकिन) टूथ-पेस्ट के इस्ते'माल का मकरूह होना ज़ाहिर है क्यूंकि इस में बू होती है और इस का एक मज़ा होता है जो बसा-औक़ात (कभी-कभी) थूक से मिलकर अंदर चला जाता है पस (इसलिए) अगर किसी को ज़रूरत रहे तो सहरी के बाद और फ़ज्र से पहले इसे इस्ते'माल कर लेना चाहिए और अगर कोई शख़्स दिन में इसे इस्ते'माल करता है और इस बात का पूरा ख़याल रखता है कि इस का कोई जुज़ (भाग) अंदर न जाए तो ज़रूरत के पेश-ए-नज़र इस में कोई हरज (नुक़सान) नहीं है ब्रश या मिस्वाक करते वक़्त दांतों से मा'मूली सा ख़ून आ जाने से रोज़ा नहीं टुटता
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:13-15)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*भूल कर खा पी लेना और देखने वाले का उस को याद दिलाना*

सवाल 13: अगर कोई शख़्स रोज़ा की हालत में भूल कर (ग़लती से) खा पी ले तो इस का क्या हुक्म है ?
और जो शख़्स उस को खाते पीते देखें तो क्या उस को याद दिलाना ज़रूरी है ?

जवाब 13: ब-हालत रोज़ा जो शख़्स भूल कर खा पी ले तो उस का रोज़ा दुरुस्त होगा लेकिन जैसे ही उस को याद आए फ़ौरन (तुरंत) रुक जाना ज़रूरी है हत्ता कि अगर लुक़्मा (निवाला) या पानी का घूँट मुंह में होतो उसे थूक देना ज़रूरी है रोज़ा दुरुस्त होने की दलील वो हदीष है जिस में अल्लाह के रसूल ﷺ फरमाते हैं कि " जिस से रोज़ा की हालत में भूल हो गई और उसने कुछ खा पी लिया तो वो अपना रोज़ा पूरा करे क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने उसे खिलाया पिलाया है " दुसरी बात यह कि ना-दानिस्ता (ग़लती से) कोई मम्नू' काम करने पर इंसान की गिरिफ़्त नहीं की जाती क्यूंकि कुरआन में है कि:
(رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِیْنَا أَوْ أَخْطَأْنَا)
" या'नी ऐ हमारे रब हम से भूल-चूक हो जाए या ग़लती हो जाए तो हमारी गिरिफ़्त न कर " ”قَدْ فَعَلْتُ“
या'नी मैंने बंदे की यह दु'आ क़ुबूल कर ली जो शख़्स ऐसे रोज़े-दार को खाते पीते देखें तो उस पर ज़रूरी है कि उसे याद दिलाए क्यूंकि यह मुनकर काम को बदलने व रोकने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) है और नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया है कि " तुम में से जो शख़्स कोई ग़लत काम होता देखें तो इस को अपने हाथ से बदल दे अगर हाथ से नहीं बदल सकता तो ज़बान से और अगर इस की भी ताक़त नहीं तो दिल से "
और इस में कोई शक नहीं कि रोज़ा की हालत में रोज़े-दार का खाना पीना एक मुनकर काम है अलबत्ता (लेकिन) भूल चूक की हालत में यह मु'आफ़ है क्यूंकि इस पर मुवाख़ज़ा (पकड़) नहीं होगा लेकिन जिस शख़्स ने इस को ऐसा करते देखा और उस को मना' नहीं किया वो मा'ज़ूर नहीं समझा जाएगा
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*अजनबी औरत से बात-चीत करना और उस का हाथ छूना*

सवाल 14: रोज़ा की हालत में किसी अजनबी औरत से बात करने या उस का हाथ छू जाने का क्या हुक्म है ? क्यूंकि बा'ज दुकानों और तिजारती मक़ामात पर ऐसा होता है

जवाब 14: अगर औरत से बात करने में मर्द की बद-निय्यती नहीं है और न ही उस से लुत्फ़-अंदोज़ी (मज़ा लेना) मक़्सूद है इस तौर पर कि तिजारती नौ'इय्यत (प्रकार) की बात हो या रास्ता वग़ैरा पूछने के लिए हो ऐसे ही बिला-इरादा (अनजाने में) हाथ छू जाए तो यह सब काम रमज़ान और ग़ैर रमज़ान दोनों में जाइज़ हैं हां अगर औरत से बात करने का मक़्सद लुत्फ़-अंदोज़
होना हो तो यह सिरे-से (बिल्कुल)
जाइज़ नहीं है न रमज़ान में न ग़ैर रमज़ान में अलबत्ता (लेकिन) रमज़ान में इस की मुमान'अत (मनाही) और सख़्त हो जाती है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*इंजेक्शन लगवाना*

सवाल 15: क्या रमज़ान में दिन के वक़्त इंजेक्शन लगवाने से रोज़ा पर कोई असर पड़ेगा ?

जवाब 15: इंजेक्शन दो तरह का होता है एक वो जिस से ग़िज़ा (खाना) और ताक़त मक़्सूद (मंशा) होती है और इस के ज़री'आ खाने पीने से आदमी बे-नियाज़ हो सकता है ऐसे इंजेक्शन से रोज़ा टुट जाएगा क्यूंकि नुसूस-ए-शर'इय्या जिस मा'नी-ओ-मफ़हूम पर मुश्तमिल होती है वो मा'नी-ओ-मफ़हूम 
जहां कहीं पाया जाएगा वहां वो हुक्म लगाया जाएगा
दूसरा वो इंजेक्शन है जिस से ग़िज़ा (खाना) ताक़त नहीं हासिल होती या'नी इस के ज़री'आ खाने पीने से बे-नियाज़ नहीं हो सकते तो इस से रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि शर'ई दलील न लफ़्ज़ी (शाब्दिक) ए'तिबार से इस को शामिल है न मा'नी (मतलब) के ए'तिबार से ऐसा इंजेक्शन न तो खाना पीना है और न ही खाने पीने के मा'नी में है और जब तक शर'ई दलील से रोज़ा के फ़ासिद होने का सुबूत न मिल जाए रोज़ा का बाकी और दुरुस्त होना ही अस्ल है 
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:16-18)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*जाँच के लिए ख़ून निकलवाना*

सवाल 16: ख़ून की जाँच के लिए रोज़े की हालत में एक रोज़े-दार के दाहिने (right) हाथ से थोड़ा सा ख़ून निकाला गया उस का क्या हुक्म है ?

जवाब 16: इस तरह के 'अमल से रोज़ा फ़ासिद (ख़राब) नहीं होता यह मु'आफ़ है क्यूंकि इस की ज़रूरत पड़ती है और शरी'अत-ए-मुतहहरा से जो चीज़ें रोज़ा तोड़ने वाली मा'रूफ़ (प्रसिद्ध)
हैं यह उन की क़िस्म में से नहीं है
(शैख़ इब्न बाज़)

*बार-बार ग़ुस्ल करना और एयर-कंडीशनर में बैठना*

सवाल 17: रमज़ान में दिन के औक़ात (समय) में बार-बार ग़ुस्ल करने का क्या हुक्म है ?
ऐसे ही पूरे औक़ात (समय) में एयर-कंडीशनर के पास बैठे रहना कैसा है जब कि यह मा'लूम है कि एयर-कंडीशनर से रतूबत (ताज़गी) ख़ारिज होती है ?

जवाब 17: ऐसा करना जाइज़ हैं इस में कोई हरज (नुक़सान) की बात नहीं है अल्लाह के रसूल ﷺ ब-हालत ए रोज़ा गर्मी की वजह से (कारण से) या प्यास की वजह से अपने सर पर पानी डालते थे हज़रत इब्न उमर रोज़ा की हालत में अपने कपड़े को पानी से तर (गीला) करते थे ता-कि (इसलिए कि) गर्मी की शिद्दत (तीव्रता) में या प्यास में कमी हो और रतूबत (गीलापन) रोज़े पर असर-अंदाज़ नहीं होती क्यूंकि यह पानी नहीं है जो मे'दा तक पहुंचे
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*वर्ज़िश (कसरत) या थकान (थकावट) की वजह से पानी पीना*

सवाल 18: एक मर्तबा रमज़ान में सुब्ह के वक़्त वर्ज़िश (कसरत) करने की वजह से एक शख़्स बहुत ज़ियादा थक गया और उसने पानी पी लिया फिर अपना रोज़ा पूरा किया क्या इस का यह रोज़ा हो जाएगा ?

जवाब 18: वर्ज़िश (कसरत) कोई फ़र्ज़-ए-'ऐन नहीं है जिस की वजह से इस्लामी अरकान तर्क कर दिए जाए जब इस को मा'लूम होगा कि वर्ज़िश उस को ज़ियादा थका देगी तो इस के उपर वाजिब (ज़रूरी) था कि रुक जाए और अपने आप को परेशान न करे महज़ (सिर्फ़) थकान (थकावट) की वजह से इस को रोज़ा तोड़ना जाइज़ नहीं था इल्ला 
(लेकिन) यह कि इस की ऐसी हालत हो जाए कि मौत का ख़ौफ़ (डर) हो पस (इसलिए) वो मरीज़ (बीमार) के हुक्म में हो जाएगा बहर-हाल (फिर भी) जो कुछ हो चुका उस से इस को तौबा करना चाहिए और पानी पी कर जो रोज़ा इस ने फ़ासिद (ख़राब) कर दिया था उस की फ़ौरी (तुरंत) क़ज़ा करनी ज़रूरी है
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:19-21)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*थक जाने वाले मज़दूर का रोज़ा तोड़ देना*

सवाल 19: मैंने रमज़ान के दूसरे जुम'आ को एक मस्जिद के इमाम को ख़ुतबा देते हुए सुना कि इन्होंने उस मज़दूर को रोज़ा तोड़ देना जाइज़ क़रार दिया जो काम करने की वजह से थक कर चूर हो गया हो और इस काम के 'अलावा उस के लिए कोई ज़री'आ आमदनी (कमाई) नहीं और यह कि वो हर रोज़ा के बदले एक मिस्कीन (ग़रीब)
को खाना खिलाएं इन्होंने नक़्द में इस की पंद्रह दिरहम तहदीद (हद बाँधना) भी की तो क्या किताब-ओ-सुन्नत से इस की कोई सहीह दलील है ?

जवाब 19: किसी मुकल्लिफ़ शख़्स के लिए जाइज़ नहीं है कि महज़ (केवल) मज़दूर होने के नाते वो रमज़ान के दिन में रोज़ा तोड़े हां अगर उस को कभी इतनी ज़ियादा परेशानी लाहिक़ हो कि उस की वजह से मजबूरन रोज़ा तोड़ना पड़े तो वो सिर्फ़ (केवल) इस मशक़्क़त (तकलीफ़) और परेशानी के दफ़'इय्या (निवारण) के लिए रोज़ा तोड़ कर कुछ खा पी लेगा फिर ग़ुरूब ए आफ़ताब तक रुका रहेगा और लोगों के साथ इफ़्तार करेगा फिर इस दिन के रोज़ा की क़ज़ा करेगा जो उस ने तोडा है जो फ़तवा आप ने ज़िक्र किया है वो सहीह नहीं है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*एहतिलाम हो जाना / ग़ुस्ल में ताख़ीर करना*

सवाल 20: अगर रोज़े-दार को रमज़ान में दिन के वक़्त एहतिलाम हो जाए तो इस का रोज़ा बातिल हो जाएगा या नहीं ? और क्या उस को फ़ौरन (तुरंत) ग़ुस्ल करना वाजिब है ?

जवाब 20: एहतिलाम से रोज़ा बातिल नहीं होता क्यूंकि वो रोज़े-दार के इख़्तियार में नहीं है ऐसे शख़्स को ग़ुस्ल-ए-जनाबत करना ज़रूरी है अगर फ़ज्र की नमाज़ अदा करने के बाद किसी वक़्त एहतिलाम हुआ है और उस ने नमाज़-ए-ज़ोहर के वक़्त तक के लिए ग़ुस्ल को मुअख़्ख़र कर दिया तो कोई हरज की बात नहीं ऐसे ही अगर अपनी बीवी से रात में हमबिस्तरी किया और तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद ग़ुस्ल किया तो उस पर भी कोई हरज नहीं हैं क्यूंकि नबी करीम ﷺ के बारे में यह साबित हैं कि आप हमबिस्तरी के बाद जनाबत की हालत में रहते और फ़ज्र तुलू' हो जाती फिर आप ग़ुस्ल करते थे और रोज़ा रखते थे इसी तरह हैज़ व निफ़ास वाली औरतें अगर रात में पाक हुई और वो तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद ही ग़ुस्ल कर सके तो उन पर भी कोई हरज नहीं उन का रोज़ा दुरुस्त होगा लेकिन उन को या नापाक शख़्स को जाइज़ नहीं कि ग़ुस्ल या नमाज़ को तुलू' ए आफ़ताब तक मुअख़्ख़र करे बल्कि (किंतु) उन तमाम पर ज़रुरी है कि
जल्दी करें और तुलू' ए आफ़ताब से पहले-पहले ग़ुस्ल कर ले ताकि (फ़ज्र की) नमाज़ वक़्त से पढ़ सके और मर्द के लिए वाजिब है कि फ़ज्र की नमाज़ से पहले ग़ुस्ल-ए-जनाबत
करने में जल्दी करे ताकि नमाज़ बा-जमा'अत (जमा'अत के साथ) अदा कर सके
(शैख़ इब्न बाज़)

*एहतिलाम होना, बग़ैर ग़ुस्ल नमाज़ पढ़ लेना, जिस्म से ख़ून बहना और क़य (उल्टी) आ जाना*

सवाल 21: मैं रोज़े की हालत में मस्जिद में सो गया बेदार (जागना) होने के बाद मुझे मा'लूम हुआ कि मुझे एहतिलाम हो गया है तो क्या रोज़ा पर एहतिलाम का कोई असर होगा ? वाज़ेह रहे कि मैंने ग़ुस्ल नहीं किया था और बग़ैर ग़ुस्ल के नमाज़ पढ़ ली थी और एक बार मेरे सर में पत्थर से चोट लगी जिससे ख़ून बह पड़ा तो क्या ख़ून बहने की वजह से रोज़ा टुट जाएगा ? और क़य (उल्टी) से रोज़ा ख़राब हो जाएगा या नहीं ?

जवाब 21: एहतिलाम से रोज़ा ख़राब नहीं होता क्यूंकि वो बंदे के इख़्तियार में नहीं है लेकिन अगर इस से मनी' ख़ारिज हुई है तो उस पर ग़ुस्ल-ए-जनाबत वाजिब (ज़रूरी) है क्यूंकि नबी करीम ﷺ से जब इस के बारे में पूछा गया तो आप ने जवाब दिया कि एहतिलाम वाले शख़्स पर ग़ुस्ल है जबकि वो पानी या'नी मनी' देखें और आप ने बग़ैर (बिना) ग़ुस्ल जो नमाज़ पढ़ ली तो यह आपकी ग़लती है और बड़ा मुनकर काम है आप अल्लाह के हुज़ूर तौबा करने के साथ उस नमाज़ को दोहराएं और जो पत्थर आप के सर पर लगा और उस से ख़ून बहा तो उस से रोज़ा बातिल नहीं होगा और जो क़य (उल्टी) आप के इख़्तियार के बग़ैर हो गई तो वो भी आप के रोज़े को बातिल नहीं करेगी क्यूंकि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: 
’’مَنْ ذَرَعَہُ الْقَيْئُ ُفَلَاقَضَاء عَلَیْہِ وَمَنِ اسْتَقَاء فَعَلَیْہِ الْقَضَاء"
" जिस पर क़य (उल्टी) ग़ालिब आ गई (या'नी उस के इख़्तियार के बग़ैर हो गई) तो उस पर क़ज़ा नहीं है और जिस ने 'अमदन (जान बूझकर) क़य किया उस पर क़ज़ा है इस हदीष को इमाम अहमद और अहल-ए-सुनन ने बसंद सहीह रिवायत किया है
(शैख़ इब्न बाज़)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:22-25)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*बीवी का बोसा लेना*

सवाल 22: रोज़ा की हालत में बीवी का बोसा ले सकते हैं या नहीं ?

जवाब 22: यह ऐसा मसअला हैं जिस पर 'उलमा-ए-किराम ने बहुत ही लम्बी-चौड़ी (बहुत लंबी) बहस की है और इस पर फ़िक़्ह की किताबों में तवील अबवाब है इस में शक नहीं कि रसूल ﷺ से बोसा लेना साबित हैं
एक मर्तबा हज़रत उमर ने रसूल-ए-अकरम ﷺ से दरियाफ़्त किया कि रोज़ा की हालत में बोसा लेना कैसा है ?
तो आप ने फ़रमाया: अगर तुम पानी से कुल्ली करो तो इस में क्या हरज है या'नी बोसा लेना भी ऐसा ही है और ख़ुद हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने फ़रमाया कि रसूल ﷺ रोज़ा की हालत में अपनी बा'ज़ बीवियों का बोसा लेते थे जब उन से पूछा गया कि रोज़ा की हालत में आप ऐसा करते थे ?
तो हज़रत आइशा ने फ़रमाया कि आप ﷺ तुम मे सबसे ज़ियादा अपने नफ़्स पर क़ाबू रखने वाले थे
इस से मा'लूम हुआ कि रोज़ा की हालत में बोसा लेना उसी वक़्त जाइज़ हैं जब इस से शहवत भड़कने का अंदेशा न हो और रोज़ा ख़तरे में पड़ने का ख़ौफ़ न हो और अगर रोज़ा टुट जाने का ख़ौफ़ होतो बोसा लेना जाइज़ नहीं यही वज्ह है कि रसूल ﷺ ने एक नौजवान को (ब-हालत-ए-रोज़ा) बोसा लेने से मना' फ़रमाया और एक बूढे शख़्स के लिए इस को जाइज़ बताया इस से साफ़ पता चलता है कि अगर शहवत भड़कने का ख़ौफ़ न हो तो बोसा लेना जाइज़ हैं (वर्ना नहीं) लेकिन बोसा वग़ैरा से परहेज़ करना ही ज़ियादा बेहतर है रसूलुल्लाह ﷺ ने सिर्फ़ जवाज़ साबित करने के लिए ऐसा फ़रमाया था
(शैख़ इब्न बाज़)

*बोस-ओ-कनार में मज़ी ख़ारिज होना*

सवाल 23: एक शख़्स कहता है कि जब उस के और उस की बीवी के दरमियान (बीच में) बोस-ओ-कनार और मुला'अबत होती है तो वो अपने पाजामे में शर्म-गाह से ख़ारिज रतूबत (गीला-पन) पाता है तहारत और रोज़ा की सेहत या 'अदम-ए-सेहत के ए'तिबार से इस पर क्या आसार मुरत्तब होंगे ?

जवाब 23: सवाल करने वाले ने यह नहीं ज़िक्र किया है कि बीवी से बोस-ओ-कनार के वक़्त मनी' के ख़ुरूज का इस को एहसास होता है उस ने इतना ज़िक्र किया है कि पाजामे में रतूबत (गीला-पन) पाता है इस से यह मा'लूम होता है कि वो मज़ी है मनी' नहीं है मज़ी नापाक होती है कपड़े या पाइजामे पर जहां लगी हो उस हिस्से को धुलना मुत'अय्यन है इस से वुज़ू टुट जाता है और इस की नजासत (नापाकी) की वजह से शर्म-गाह और ख़ुसियों (अंडकोष) को धुलना भी मुत'अय्यन (निश्चित) है इस के बाद ही वो दो बार वुज़ू करेगा ताकि तहारत हासिल हो 'उलमा के सहीह क़ौल के मुताबिक़ (अनुसार) इस का रोज़ा ख़राब नहीं होगा और न उस पर ग़ुस्ल वाजिब होगा अलबत्ता (लेकिन) अगर मनी' ख़ारिज हो तो ग़ुस्ल वाजिब (ज़रूरी) होगा और रोज़ा फ़ासिद हो जाएगा मनी' पाक है मगर गंदी है कपड़े या पाइजामे के जिस हिस्सा पर लगे उसे धुल लेना मशरू' है वैसे रोज़े-दार को चाहिए कि रोज़ा की ख़ातिर मुहतात (सावधान) रहे और मुला'अबत वग़ैरा जैसे शहवत-अंगेज़ कामों से परहेज़ करे
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*ज़बरदस्ती बीवी से
जिमा' (मुबाशरत) करना*

सवाल 24: अगर कोई शख़्स रोज़े की हालत में अपनी बीवी पर ज़बरदस्ती करके उस से हमबिस्तरी करे तो उस का क्या हुक्म है वाज़ेह रहे कि यह लोग न तो ग़ुलाम आज़ाद करने की ताक़त रखते हैं और न ही (दो-माह) रोज़ा रखने की क्यूंकि हुसूल-ए-रिज़्क़ की कोशिश में वो मशग़ूल (व्यस्त) रहते हैं तो क्या ऐसी सूरत में खाना खिलाना काफी होगा ? और इस की मिक़दार (मात्रा) और नौ'इय्यत (प्रकार) क्या होगी ?

जवाब 24: अगर मियाँ-बीवी दोनों रोज़े से हो और शौहर ने बीवी पर जब्र (ज़बरदस्ती) कर के उस से जिमा' (मुबाशरत) किया तो औरत का रोज़ा सहीह होगा उस पर कोई कफ़्फ़ारा नहीं अलबत्ता (लेकिन) मर्द जिस ने रमज़ान के दिन में जिमा' किया उस पर कफ़्फ़ारा है जो एक गर्दन (ग़ुलाम) आज़ाद करना है अगर यह मुयस्सर (मुमकिन) न हो तो दो माह पै-दर-पै (लगातार) रोज़ा रखें अगर इस की ताक़त न हो तो साठ (60) मिस्कीन को खाना खिलाएं क्यूंकि सहीहैन में हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीष से यही साबित है और उस पर इस रोज़ा की क़ज़ा भी है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*इस्तिम्ना-बिल-यद (मुश्त-ज़नी) का कफ़्फ़ारा*

सवाल 25: रमज़ान के दिन में इस्तिम्ना-बिल-यद (मुश्त-ज़नी) के कफ़्फ़ारे के बारे में मैं पूछना चाहता हूं मुझे मा'लूम है कि यह नाजाएज़ काम है लेकिन क्या इस का कोई कफ़्फ़ारा है ? वाज़ेह (स्पष्ट) फ़रमाएँ 

जवाब 25: इस्तिम्ना-बिल-यद (मुश्त-ज़नी) रमज़ान और ग़ैर रमज़ान कभी भी जाइज़ नहीं है यह एक गुनाह और जुर्म का काम है अगर अल्लाह-त'आला ने इसे मु'आफ़ नहीं किया इस का कफ़्फ़ारा यह है कि आदमी सच्ची तौबा करे और नेकियों करे जो बुराइयों को ख़त्म करती है और चूँकि यह काम रमज़ान के दिन में हुआ है इस लिए इस का गुनाह और बड़ा है लिहाजा तौबा ख़ालिस
आ'माल सालेह और ज़्यादा से ज़्यादा नेकी के काम करने की ज़रूरत है साथ ही नफ़्स को हराम ख़्वाहिशात से बचाने की भी ज़रुरत है और जिस रोज़े को इस्तिमना के ज़री'आ इस ने ख़राब किया इस की क़ज़ा ज़रुरी है अल्लाह-त'आला अपने बंदों से तौबा क़ुबूल करता है और गुनाहे मु'आफ़ करता है
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:26-28)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*इम्तिहान के वास्ते रोज़ा छोड़ना*

सवाल 26: अगर रमज़ान में हाई-स्कूल का इम्तिहान पड़ जाएं तो क्या इम्तिहान की तैयारी और मेहनत की ख़ातिर (कारण से) तालिब-ए-'इल्म (विद्यार्थी) को रोज़ा छोड़ना जाइज़ हैं ?

जवाब 26: इम्तिहान की वजह से किसी मुकल्लिफ़ को रमज़ान में रोज़ा छोड़ना जाइज़ नहीं क्यूंकि यह कोई शर'ई-'उज़्र नहीं है उसे रोज़ा रखना ज़रूरी है और अगर दिन में तैयारी करने में मशक़्क़त (तकलीफ़) होतो रात में करे इम्तिहान से मुत'अल्लिक़ (बारे में) ज़िम्मा-दाराना को चाहिए कि वो तलबा (students) की सुहूलत (आसानी) का ख़याल रखें और रमज़ान के 'अलावा (सिवा) दूसरे अय्याम (दिनों) में इम्तिहान रखें ताकि दोनों ज़रूरतों की तकमील हो सके एक रोज़े की ज़रूरत दूसरे यकसूई के साथ इम्तिहान की तैयारी की ज़रूरत
रसूलुल्लाह ﷺ से सहीह सनद से मर्वी है कि आप ने यह दुआ फ़रमाइ 
" ऐ अल्लाह जो कोई मेरी उम्मत के किसी मु'आमला का ज़िम्मेदार बना और उस ने उम्मत के साथ आसानी का मु'आमला किया तो ऐ अल्लाह
तू भी उसके साथ आसानी का मु'आमला कर और जो किसी मु'आमले का ज़िम्मेदार बना और लोगों को मशक़्क़त (तकलीफ़) से दो चार किया ऐ अल्लाह उसे भी मशक़्क़त (तकलीफ़) से दो चार कर " (सहीह मुस्लिम)
(शैख़ इब्न बाज़)

*शराब-नोश (शराबी) का रोज़ा*

सवाल 27: एक शख़्स शराब-नोशी (शराब पीने) का 'आदी है यहां तक कि रमज़ान की रातों में भी वो शराब पीता है रात में शराब पीने की सूरत में उस के दिन के रोज़े का क्या हुक्म है ?

जवाब 27: शराब-नोशी (शराब पीना) कबीरा गुनाहों में से एक बड़ा गुनाह है क्यूंकि अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त ने फ़रमाया है:
{ یَا أَیُّہَا الَّذِیْنَ آمَنُوْا إِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَیْْسِرُ وَالأَنْصَابُ وَالأَزْلاَمُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّیْْطَانِ فَاجْتَنِبُوْہُ لَعَلَّکُمْ تُفْلِحُوْنَ۔ إِنَّمَا یُرِیْدُ الشَّیْْطَانُ أَنْ یُّوقِعَ بَیْْنَکُمُ الْعَدَاوَۃَ وَالْبَغْضَاء فِیْ الْخَمْرِ وَالْمَیْْسِرِ وَیَصُدَّکُمْ عَن ذِکْرِ اللّہِ وَعَنِ الصَّلاَۃِ فَہَلْ أَنتُم مُّنتَہُون}
ऐ ईमान वालो बात यही है कि शराब और जुआ और थान और फ़ाल निकालने के पाँसे के तीर यह सब की सब गंदी बातें और शैतानी काम है उन से बिल्कुल अलग रहो ताकि तुम फ़लाह याब हो शैतान तो यह चाहता है कि शराब और जुए के ज़री'आ से तुम्हारे आपस में 'अदावत और बुग़्ज़ वाक़े' करादे और अल्लाह-त'आला की याद से और नमाज़ से तुम को बाज़ रखें सो अब भी बाज़ आ जाओ "
पस (इसलिए) रमज़ान हो या ग़ैर रमज़ान शराब पीना हराम है हां रमज़ान में इस की हुरमत ज़ियादा सख़्त हो जाती है पस (इसलिए) शराब पीने वाले पर वाजिब है कि अल्लाह के दरबार में तौबा करे और 'अहद करे कि इस से परहेज़ करेगा और शराब-नोशी का जो जुर्म इस से कब तक सादिर होता रहा है उस पर नदामत और अफ़सोस करे और यह पुख़्ता इरादा करे कि रमज़ान हो या ग़ैर रमज़ान वो इस को हाथ नहीं लगाएंगे
जहां तक रात में शराब पीने वाले के रोज़े का मु'आमला है तो इस का रोज़ा हो जाएगा ब-शर्त-ए-कि (इस शर्त के साथ) वो तुलू'-ए-फ़ज्र से ग़ुरूब ए शम्स तक रोज़े की निय्यत से खाने पीने और दीगर (अन्य) रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों से बाज़ (अलग) रहे
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*ब-हालत-ए-रोज़ा खाना चखना*

सवाल 28: क्या रमज़ान में रोज़े की हालत में औरत खाने की कोई चीज़ चख सकती है ?

जवाब 28: ब-वक़्त-ए-ज़रूरत ऐसा करने में कोई हरज नहीं लेकिन जो कुछ चखें उसे थूक दे
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:29-30)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*ब-हालत-ए-रोज़ा वुज़ू से कुल्ली के साक़ित हो जाने का मसअला*

सवाल 29: क्या यह सहीह हैं कि रमज़ान में दिन के औक़ात (समय) में रोज़ा-दार से वुज़ू में कुल्ली करने का हुक्म साक़ित हो जाता है ?

जवाब 29: यह सहीह नहीं है वुज़ू में कुल्ली करना रमज़ान और ग़ैर रमज़ान में रोज़ा-दार और ग़ैर रोज़ा-दार सब के लिए फ़राइज़ ए वुज़ू सामिल है क्यूंकि अल्लाह-त'आला का यह क़ौल 'आम है:
 {فاغْسِلُوا وُجُوہَکُمْ}
लेकिन रोज़े-दार के लिए मुनासिब नहीं है कि कुल्ली करने और नाक में पानी डालने में मुबालग़ा (अतिशयोक्ति) से काम लें क्यूँकि हज़रत लक़ीत बिन सबिरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया:
कामिल (पूरा) वुज़ू करो उँगलियों के दरमियान ख़िलाल करो और नाक में पानी डालने में मुबालग़ा (अतिशयोक्ति) से काम लो इल्ला (लेकिन) यह कि तुम रोज़ा की हालत में रहो "
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*तनफ़्फ़ुस (दमे की) बीमारी वाले के लिए तिब्बी स्प्रे का इस्ते'माल*

सवाल 30: बा'ज़ (कुछ) दवा-ख़ानो पर एक तिब्बी (medical) स्प्रे मिलता है जिसे तनफ़्फ़ुस (दमे की) बीमारी वाले लोग इस्ते'माल करते हैं क्या रमज़ान में दिन के औक़ात (समय) में रोज़ा-दार के लिए इस का इस्ते'माल जाइज़ हैं ?

जवाब 30: इस क़िस्म के स्प्रे का इस्ते'माल रोज़ा-दार के लिए जाइज़ हैं चाहे वो रमज़ान में रोज़ा से हो या ग़ैर रमज़ान में क्यूंकि यह स्प्रे मे'दे (stomach) तक नहीं पहुंचता बल्कि (किंतु) हवा की नालियों तक ही जाता है और इस दवा की ख़ासियत (ख़ूबी) और तासीर (गुण) से वो खुल जाती है और इस के बाद आदमी मा'मूल के मुताबिक़ (अनुसार) साँस लेने लगता है पस (इसलिए) यह न तो खाने पीने के मफ़्हूम (अर्थ) में आता है और न ही मे'दे (stomach) तक पहुंचने वाला हक़ीक़ी खाना पीना है
और यह मुसल्लम (निश्चित) है कि जब तक किताब-ओ-सुन्नत इज्मा' (सहमति) या क़ियास सहीह से रोज़ा के टुटने पर कोई दलील न आ जाए तब तक अस्ल (सच) यह है कि रोज़ा दुरुस्त है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:31-33)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*बीमारी से मुत'अल्लिक़ (बारे में) अहकाम*

*दिमाग़ी तवाज़ुन (संतुलन) की ख़राबी में मुब्तला औरत के रोज़े का हुक्म*

सवाल 31: मेरी एक लड़की है जिस की 'उम्र (30) साल है उस के यहां कई बच्चे हैं तक़रीबन (लगभग) (14) बरस से उस का दिमाग़ी तवाज़ुन (संतुलन) गड-बड रहता है पहले यह मरज़ (बीमारी) उस को कुछ वक़्फ़े तक रहता था और फिर ख़त्म हो जाता था इस बार ख़िलाफ़-ए-मा'मूल (ग़ैर-मा'मूली) यह मरज़ (बीमारी) इस को तक़रीबन (लगभग) "3" माह से मुसलसल (लगातार) लाहिक़ है जिस की वजह से न दुरुस्त तरीक़ा पर नमाज़ पढ़ सकती है न वुज़ू कर सकती है इल्ला (लेकिन) यह कि कोई दूसरा शख़्स उस की रहनुमाई करें और उस को बतलाए कि कैसे पढ़ेगी और कितना पढ़ेगी इस वक़्त जबकि (हालाँकि) रमज़ान आ गया है वो सिर्फ़ एक रोज़ा रख सकी उस को भी वो सहीह ढंग से नहीं रख पाई बक़िया अय्याम (बाकी दिनों) के रोज़े बिल्कुल नहीं रख सकी मेरी रहनुमाई फ़रमाइए कि मेरे उपर क्या वाजिब (ज़रूरी) है और उसके उपर क्या वाजिब है मैं ही उस का सर-परस्त हूं अल्लाह-त'आला आप हज़रात को अज्र से नवाज़े 

जवाब 31: जब उस लड़की की हालत ऐसी है जैसी आप ने ज़िक्र किया तो जब तक वो इस हालत में है उस के उपर न रोज़ा वाजिब है न नमाज़ न फ़ौरी तौर पर न क़ज़ा के तौर पर और ब-हैसियत सर-परस्त आप की सिर्फ़ यही ज़िम्मेदारी है कि उस की देख-भाल करें नबी-ए-अकरम ﷺ से साबित है कि आप ने फ़रमाया: " तुम में का हर फ़र्द निगहबान है और हर फ़र्द से उसके मातहतों के बारे में पूछा जाएगा "
अगर ऐसा होता है कि बा'ज़-औक़ात में उस के होश-ओ-हवास दुरुस्त हो जाते हैं तो सिर्फ़ इस दुरुस्तगी की हालत में जिस नमाज़ का वक़्त होगा वहीं उस पर वाजिब होगी इसी तरह अगर ऐसा हो कि रमज़ान में एक रोज़ (दिन) या उस के बाद कई रोज़ तक उसके होश-ओ-हवास दुरुस्त रहे तो सिर्फ़ इस दुरुस्तगी की हालत में वो रोज़ा रखेगी
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*टीबी के मरीज़ का रोज़ा*

सवाल 32: एक शख़्स टीबी का मरीज़ है रमज़ान में रोज़ा रखना उस के लिए दुश्वार (कठिन) है गुज़श्ता (भूतकाल) रमज़ान में उस ने रोज़ा नहीं रखा क्या उस पर खाना खिलाना वाजिब (ज़रूरी) है ?
वाज़ेह रहे कि उस मरीज़ से उस के सेहत-याब (तंदरुस्त) होने की उम्मीद नहीं है

जवाब 32: अगर उस मरीज़ को रमज़ान के रोज़े रखने की ताक़त नहीं है और उसके अच्छे होने की भी उम्मीद नहीं है तो रोज़ा उस से साक़ित हो गया और उस पर वाजिब (ज़रूरी) है कि हर रोज़ा के बदले एक मिस्कीन को खाना खिलाएं उसके घर के लोग जो खाने के 'आदी हो इस में से आधा सा' हर रोज़े के बदले दे मसलन (जैसे कि) गेहूँ, खजूर, चावल वग़ैरा अगर इस को उस की क़ुदरत (ताक़त) है ऐसे मरीज़ का वही मसअला हैं जो ज़'ईफ़ (कमज़ोर) बूढे या बूढ़ी का है जिन को रोज़ा रखना दुश्वार (कठिन) है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*बीमारी की वजह से छूटे हुए रोज़े*

सवाल 33: मैं एक बीमार औरत हूं गुज़श्ता (बीता हुआ) रमज़ान के कुछ रोज़े मैं नहीं रख सकी थी और बीमारी के बा'इस (कारण) उन की क़ज़ा भी नहीं कर सकी इस का कफ़्फ़ारा क्या है ?
ऐसे ही इस साल भी मैं रोज़े नहीं रख सकूंगी इस का क्या कफ़्फ़ारा होगा ?

जवाब 33: बीमार आदमी के लिए अगर रोज़ा रखने में मशक़्क़त (तकलीफ़) होतो उसके लिए रोज़ा न रखना जाइज़ हैं और जब अल्लाह-त'आला उसे शिफ़ा दे वो उस की क़ज़ा करलें क्यूंकि फ़रमान-ए-इलाही है:
{وَمَن کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلَی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَر}
" या'नी जो बीमार हो या सफ़र में हो वो दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे "
ऐ सवाल करने वाली औरत जब तक तुम्हारी बीमारी बाकी है तुम्हें इस महीने में रोज़ा न रखने में कोई हरज नहीं हैं क्यूंकि मरीज़ और मुसाफ़िर के लिए अल्लाह-त'आला ने रोज़ा न रखने की रुख़्सत (इजाज़त) दे रखी है और अल्लाह-त'आला पसंद करता है कि उस की दी हुई रुख़्सत (इजाज़त) से फ़ाइदा उठाया जाए जिस तरह वो इस बात को ना-पसंद करता है कि उस की नाफ़रमानी की जाए और तुम्हारे उपर कोई कफ़्फ़ारा नहीं है लेकिन जब भी अल्लाह-त'आला तुम्हें 'आफ़ियत (आराम) दे तुम को अपने रोजों की क़ज़ा करनी लाज़िमी (ज़रूरी) है अल्लाह-त'आला तुम को मुसीबत से नजात दे और हमारे और तुम सब के गुनाहों को बख़श दे 
(शैख़ इब्न बाज़)

🔹.........................🔹रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:34-36)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*बीमारी की वजह से चार साल रोज़े न रख सकी*

सवाल 34: एक औरत बा'ज़ (कुछ) नफ़्सियाती (मानसिक) और आ'साबी बिमारियों में मुब्तला हुई जिस की वजह से वो तक़रीबन (लगभग) चार साल रमज़ान के रोज़े न रख सकी क्या ऐसी हालत में वो उन रोजों की क़ज़ा करेंगी या नहीं ?
इस का क्या हुक्म है ?

जवाब 34: अगर उस ने इस लिए रोज़ा छोड़ दिया था कि उसे इस की ताक़त न थी तो उस के उपर वाजिब (ज़रूरी) है कि जब ताक़त हो जाए तो छूटे हुए चारों साल के रोजों की क़ज़ा करें अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त का फ़रमान है:
{ وَمَنْ کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلٰی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَرَ یُرِیْدُ اللّہُ بِکُمُ الْیُسْرَ وَلاَ یُرِیْدُ بِکُمُ الْعُسْرَ وَلِتُکْمِلُوا الْعِدَّۃَ وَلِتُکَبِّرُوا اللّہَ عَلَی مَا ہَدَاکُمْ وَلَعَلَّکُمْ تَشْکُرُوْنَ} 
" जो बीमार हो या मुसाफ़िर हो उसे दूसरे दिनों में यह गिनती पूरी करनी चाहिए अल्लाह-त'आला का इरादा तुम्हारे साथ आसानी का है सख़्ती का नहीं वो चाहता है कि तुम गिनती पूरी कर लो और अल्लाह-त'आला की दी हुई हिदायत पर उस की बडाईयां बयान करो और उस का शुक्र करो "
और अगर डोक्टरों की रिपोर्ट के मुताबिक़ (अनुसार) उस की बीमारी ऐसी है कि उसके ख़त्म होने की उम्मीद नहीं है और इस की वजह से वो रोज़ा नहीं रख सकतीं तो हर छूटे हुए रोज़े के बदले वो एक मिस्कीन को खाना खिलाएंगी जिस में आधा सा' गेहूं चावल खजूर या इस क़िस्म की और कोई ग़िज़ा (खाना) जिसे उसके घर वाले खाते हों वो देंगी इस औरत का हुक्म ऐसा ही है जैसा कि हद-दर्जा (बहुत ज़्यादा) बूढे, बूढ़िया का जिन को रोज़ा रखने में परेशानी और शदीद मशक़्क़त (तकलीफ़) का सामना करना पड़ता है इस औरत पर (इस इत'आम (खाना खिलाने) के बाद) क़ज़ा नहीं है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*बुढ़ापे और बीमारी में रोज़ा का हुक्म*

सवाल 35: मेरी वालिदा (मां) की 'उम्र ज़ियादा है रमज़ान से कुछ दिनों पहले वो बीमार पड़ी जिस की वजह से वो बहुत ज़ियादा कमज़ोर हो गई उन्होंने रमज़ान के "15" रोज़े रखे लेकिन बक़िया (बाकी) रोज़े रखने की उनमें ताक़त न थी और उन रोजों की क़ज़ा कर ने की पोजीशन में भी वो नहीं थी क्या उनके लिए दुरुस्त है कि वो सदक़ा करें ? और यौमिया (रोज़ाना) सदक़ा में कितना देना काफी होगा ?
वाज़ेह रहे कि मैं उन की कफ़ालत करता हूं पस (इसलिए) अगर उनके पास सदक़ा करने के लिए कुछ न हो तो क्या मैं उनके ऊपर 'आइद सदक़ा दे सकता हूं ?

जवाब 35: जो कोई भी बूढ़ा पे या ऐसे मरज़ (बीमारी) की वजह से रोज़ा न रख सके जिस मरज़ (बीमारी) से शिफ़ा (तंदुरुस्ती) की उम्मीद न हो तो वो रोज़ा नहीं रखेगा और हर रोज़े के बदले एक मिस्कीन को खाना खिलाएं गा अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त का इरशाद हैं:
 {وَعَلَی الَّذِیْنَ یُطِیْقُونَہُ فِدْیَۃٌ طَعَامُ مِسْکِیْنٍ }
जो लोग रोज़ा रखने में ज़ियादा मशक़्क़त (तकलीफ़) महसूस करें वो एक मिस्कीन का खाना बतौर फ़िदया दे-दे इब्न अब्बास फरमाते हैं कि यह आयत ऐसे बूढ़े मर्द और बूढ़ी औरतों के बारे में नाज़िल हुई है जो रोज़ा रखने की ताक़त नहीं रखते इस में उन्हें रुख़्सत (इजाज़त) दी गई है पस (इसलिए) वो हर रोज़े की जगह पर एक मिस्कीन (ग़रीब) को खाना खिलाएं
 (सहीह बुखारी)
पस (इसलिए) ज़रुरी है कि आप की वालिदा (मां) हर रोज़े के 'इवज़ (बदले) एक मिस्कीन को खाना खिलाएं जिस की मिक़दार (मात्रा) शहर की 'आम ग़िज़ा (खाना) में से निस्फ़ (आधा) सा' है अगर अपनी तरफ़ से खाना खिलाने की उनके अंदर वुस'अत (ताक़त) नहीं है तो उन पर कोई चीज़ वाजिब (ज़रूरी) नहीं है अगर आप उन की जानिब (तरफ़) से खाना खिलाना चाहें तो यह नेकी की क़बील (प्रकार) से होगा और अल्लाह-त'आला नेकू-कारो को पसंद करता है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*बीमार शख़्स जिस का 'ईद के दिन इंतिक़ाल हो गया*

सवाल 36: एक शख़्स का 'ईद के दिन इंतिक़ाल हो गया वो पहले या दूसरे रमज़ान को बीमार पड़ा और पूरे रमज़ान रोज़ा न रख सका क्या उसकी वफ़ात (मौत) के बाद उस के वरसा (वारिस) उस की जानिब (तरफ़) से रोज़ा रखेंगे या उनके ज़िम्मा खाना देना है या यह कि मय्यत और वरसा (वारिस) में से किसी के ज़िम्मा कुछ भी नहीं है ?

जवाब 36: अगर उस मरीज़ ने रोज़े की ताक़त न हो ने की वजह से रोज़ा छोड़ा था और फिर ईद के दिन इंतिक़ाल हो जाने की वजह से उसे उन रोजों की क़ज़ा का भी मौक़ा' (अवसर) न मिल सका तो उस पर न रोज़ा की अदा (देना) वाजिब (ज़रूरी) हुई क्यूंकि बीमार होने की वजह से उस को क़ुदरत (ताक़त) न थी और न ही क़ज़ा वाजिब हुई क्यूंकि 'ईद-उल-फ़ित्र के दिन इंतिक़ाल कर जाने की वजह से उस को इस का मौक़ा' न मिल सका इस के वरसा (वारिस) पर भी इस की तरफ़ से न तो रोज़ा रखना है न खाना खिलाना है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:37-39)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*ला-'इलाज बीमारी से शिफ़ा (तंदुरुस्ती) पा जाने वाले के रोजों का मसअला*

सवाल 37: अगर किसी मरीज़ के बारे में डोक्टरों ने यह फ़ैसला सुना दिया हो कि उस की बीमारी ला-'इलाज है इस से शिफ़ा पाना नामुमकिन (असंभव) है लेकिन रमज़ान के कुछ अय्याम (दिन) गुज़रने के बाद वो शख़्स शिफ़ायाब (तंदरुस्त) हो गया तो गुज़रे हुए रोजों की क़ज़ा का उस से मुतालबा (अनुरोध) किया जाएगा ?

जवाब 37: अगर कोई शख़्स ऐसी बीमारी में मुब्तला हो जिस का ख़त्म होना 'आदत या मो'तमद (विश्वासी) डोक्टरों के फ़ैसले की रू से नामुमकिन (असंभव) है और उस ने पूरे रमज़ान या रमज़ान के कुछ रोज़े छोड़े तो ऐसी सूरत में हर रोज़े के 'इवज़ (बदले) एक मिस्कीन को खाना देना उस पर वाजिब है जब उस ने ऐसा कर लिया और उसके बाद अल्लाह-त'आला ने उसे शिफ़ा से नवाज़ दिया तो जिन रोजों के 'इवज़ (बदले) वो खाना दे चुका है उन रोजों को रखना उस के लिए ज़रुरी नहीं है क्यूंकि रोज़े के बदल की हैसियत से वो खाना दे चुका है और इस की जिम्मेदारी पूरी हो गई और जब उस की जिम्मेदारी पूरी हो गई तो उस के बाद कोई और फ़र्ज़ियत उस को नहीं लाहिक़ होगी उस की मिसाल ऐसी ही है जैसे फ़ुक़हा-ए-किराम रहिमहुल्लाह ने उस शख़्स के बारे में ज़िक्र किया है जिस को ऐसी मज़बूरी थी जिस के ख़त्म होने की उम्मीद नहीं थी उसकी वजह से वो फ़रीज़ा-ए-हज्ज अदा करने से क़ासिर (मजबूर) था उसने दूसरे से अपनी तरफ़ से हज्ज-ए-बदल कराया उसके बाद वो शिफ़ायाब (तंदरुस्त) हो गया तो दोबारा उस पर यह फ़रीज़ा 'आइद (लागू) नहीं होगा
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*मरीज़ को तेज़ भूक लगने जिस्म में दवा दाख़िल करने और जिस्म से ख़ून निकलवाने का हुक्म*

सवाल 38: मेरी 'उम्र सोला साल है और तक़रीबन (लगभग) पांच साल से अस्पताल का 'इलाज करा रहा हूं गुज़श्ता साल रमज़ान में डॉक्टर ने हुक्म दिया कि मेरी रगों में कीमियावी दवा दाख़िल की जाए उस वक़्त मैं रोज़े की हालत में था वो दवा बहुत तेज़ थी और मे'दे और पूरे जिस्म पर उस का असर हुआ जिस रोज़ मुझे यह दवा दी गई मुझे सख़्त भूक का एहसास (अनुभव) हुआ हालांकि (अगरचे) अभी फ़ज्र को तक़रीबन (लगभग) सात घंटे ही गुज़रे थे 'अस्र के वक़्त मेरी हालत ज़ियादा ख़राब हो गई और ऐसा लगने लगा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन मैंने मग़रिब से पहले रोज़ा नहीं तोड़ा इस साल भी रमज़ान में इंशा-अल्लाह डोक्टर वही दवा चढ़ाने का हुक्म देंगे तो क्या उस दिन में रोज़ा छोड़ूं या न छोड़ूं ?
अगर न छोड़ूं तो क्या उस दिन की क़ज़ा करनी होगी ? और रगों से ख़ून निकालने से रोज़ा टुट जाता है या नहीं ? और इसी तरह जिस दवा का मैंने ज़िक्र किया उस से रोज़ा टुट जाएगा या नहीं ?

जवाब 38: अगर बीमार आदमी के लिए रोज़ा रखना नुक़सान-देह हो या उस पर शाक़ (मुश्किल) हो या दिन औक़ात (समय) में गोलियाँ खाने या दूसरी कोई दवा पीने की उसे ज़रुरत होतो उन तमाम हालात में रोज़ा न रखना मशरू' (जाइज़) है क्यूंकि अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त का फ़रमान है: 
{ وَمَنْ کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلٰی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَرَ}
" या'नी जो शख़्स बीमार हो या सफ़र में हो वो दूसरे दिनों में गिनती पूरी कर ले " 
और नबी-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया: ’إنّ اللّٰہَ یُحِبُّ أنْ تُؤْتیٰ رُخَصُہٗ کَمَا یَکْرَہُ اَنْ تُؤْتیٰ مَعْصِیَتُہٗ
" अल्लाह-त'आला इस बात को पसंद करता है कि उस की रुख़्सत पर 'अमल किया जाए जैसे वो इस बात को ना-पसंद करता है कि उस की नाफ़रमानी की जाए " 
और एक रिवायत में है कि:
’کَمَا یُحِبُّ اَنْ تُؤْتٰی عَزَائِمُہٗٗ
" या'नी जिसे वो पसंद करता है कि उस के वाजिब कर्दा कामों को किया जाए " रहा मसअला जाँच के लिए या किसी और ग़रज़ (मतलब) से रगों से ख़ून निकालने का तो सहीह क़ौल यह है कि इस से रोज़ा नहीं टुटता लेकिन अगर ज़ियादा ख़ून निकलवाना हो तो बेहतर यह है कि इस 'अमल को रात तक के लिए मुअख़्ख़र कर दिया जाए अगर दिन में निकलवाना हो तो एहतियात का तक़ाज़ा यह है कि उसे हजामत (पछना लगवाने) से मुशाबेह क़रार दे कर उस रोज़े की क़ज़ा की जाए
(शैख़ इब्न बाज़)

*सख़्त प्यास में मुब्तला चरवाहों के रोज़े का हुक्म*

सवाल 39: बसा-औक़ात (कभी-कभी) रमज़ान गर्मी के दिनों में आता है ऊंट और बकरी वग़ैरा चराने वाले जिन्हें (जिनको) मज़दूरी पर कोई दूसरा चराने वाला नहीं मिल पाता और अगर ख़ुद चराते है तो प्यास की शिद्दत (तीव्रता) से परेशान होते हैं उन के लिए रोज़ा न रखने की गुंजाइश (संभावना) है या नहीं ?

जवाब 39: अगर रोज़े-दार को दिन के वक़्त रोज़ा तोड़ने की ज़रूरत पेश आ जाए इस तौर पर कि अगर वो रोज़ा नहीं तोड़ता है तो उस की जान का ख़तरा है तो ऐसी मजबूरी के वक़्त रोज़ा तोड़ सकता है और उतनी चीज़ खाने पीने के बाद जिस से उसकी जान बच जाए वो मज़ीद (ज़ियादा)
खाने पीने से परहेज़ करेगा और रमज़ान पूरा होने के बाद उस दिन की क़ज़ा करेगा जिसमें रोज़ा तोड़ दिया था क्यूंकि अल्लाह-त'आला का यह फ़रमान 'आम है कि:
{لَا یُکَلِّفُ اللّہُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَہَا} 
"या'नी अल्लाह-त'आला किसी नफ़्स को उस की ताक़त से ज़ियादा का मुकल्लिफ़ नहीं बनाता"
और ऐसे ही अल्लाह-त'आला का यह क़ौल भी है कि:
 { مَا یُرِیْدُ اللّہُ لِیَجْعَلَ عَلَیْْکُم مِّنْ حَرَجٍٍ }  
" या'नी अल्लाह-त'आला तुम्हारे ऊपर कोई तंगी पैदा करना नहीं चाहता "
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:40-44)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*सफ़र से मुत'अल्लिक़ (बारे में) अहकाम (आदेश)*

*कितने किलो-मीटर के सफ़र में रोज़ा छोड़ सकते हैं*

सवाल 40: कितने किलो-मीटर के सफ़र में रोज़ा छोड़ना चाहिए ?
और अगर कोई रोज़ा रखें तो उस का क्या हुक्म है ?

जवाब 40: बा'ज़ (कुछ) 'उलमा ने रुख़्सत (इजाज़त) दी है कि कोई भी सफ़र हो उस में रुबा'ई नमाज़ कसर की जा सकती हैं और रमज़ान का रोज़ा छोड़ा जा सकता है लेकिन जमहूर 'उलमा ने तक़रीबन (लगभग) "80" (अस्सी) किलो-मीटर की मसाफ़त (दूरी) मुत'अय्यन (मुक़र्रर) की है
अगर कोई शख़्स ऐसे सफ़र में रोज़ा रखता है जिस सफ़र में उसे रोज़ा न रखने की इजाज़त है तो इस सिलसिले में वारिद दलीलों की वजह से उस का रोज़ा दुरुस्त होगा और उस पर कोई हरज (नुक़सान) नहीं होगा अलबत्ता (लेकिन) अगर रोज़ा रखने में उसे मशक़्क़त (तकलीफ़) हो तो न रखने का हुक्म ही उसके लिए ताकीदी (ज़रूरी) होगा क्यूंकि नबी ﷺ ने फ़रमाया है:
" सफ़र में रोज़ा रखना नेकी का काम नहीं है "
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*सफ़र में रोज़ा छोड़ने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) चंद शराइत (पाबंदियाँ) के बारे में इस्तिफ़्सार (सवाल)*

सवाल 41: रमज़ान में मुसाफ़िर को रोज़ा छोड़ने की जो रुख़्सत (इजाज़त) है क्या उस में यह शर्त है कि सफ़र पैदल हो या घोड़े पर और मोटर-गाड़ी व हवाई-जहाज़ के सफ़र में कोई फ़र्क़ नहीं है ?
और इस सिलसिले में क्या यह शर्त है कि सफ़र करने वाले को ऐसी मशक़्क़त (तकलीफ़) लाहिक़ हो जो ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त (असहनीय) हो ? अगर मुसाफ़िर को रोज़ा रखने की इस्तिता'अत (ताक़त) होतो ऐसी सूरत में उस के लिए रोज़ा रखना बेहतर है या न रखना ?

जवाब 41: जो शख़्स ऐसे सफ़र में हो जिस में नमाज़ कसर करनी जाइज़ हो तो ऐसे ब-हालत ए सफ़र रोज़ा न रखना जाइज़ हैं चाहे वो पैदल सफ़र कर रहा हो या सवारी पर मोटर-गाड़ी पर सफ़र हो या हवाई-जहाज़ या किसी और सवारी पर सफ़र में ऐसी मशक़्क़त (तकलीफ़) हो जिस की वजह से रोज़ा रखना मुश्किल हो या ऐसी मशक़्क़त (तकलीफ़) न हो भूक-प्यास इस को लाहिक़ हो या न लाहिक़ हो क्यूंकि जो मुसाफ़िर कसर वाले सफ़र में हो उस के लिए शरी'अत ने रोज़ा न रखने और नमाज़ कसर करने और उस जैसी दूसरी रुख़्सते मुतलक़ तौर पर 'अता की है इस को सवारी की नौ'इय्यत से और मशक़्क़त (तकलीफ़) के ख़ौफ़ या भूक-ओ-प्यास के ख़ौफ़ से मुक़य्यद (बंदी) नहीं किया है सहाबा किराम नबी-ए-अकरम ﷺ के साथ रमज़ान के महीने में किसी ग़ज़्वा (लड़ाई) में शरीक होने के लिए सफ़र करते थे तो उन में से कुछ रोज़ा रखते थे और कुछ न रखते थे लेकिन उन में से किसी एक ने दूसरे पर ए'तिराज़ (विरोध) नहीं किया अलबत्ता (लेकिन) रमज़ान के महीने में सफ़र करने वाले के लिए रोज़ा न रखने का हुक्म इस-वक़्त ज़ियादा ताकीदी (ज़रूरी) हो जाता है जब उस पर रोज़ा रखना दुश्वार (कठिन) हो मसलन (जैसे) सख़्त गर्मी हो रास्ता दुश्वार-गुज़ार (जहाँ से गुज़रना कठिन) हो या सफ़र लंबा और मुसलसल (लगातार) हो चुनांचे (इसलिए) " हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है वो कहते हैं कि हम लोग अल्लाह के रसूल ﷺ के साथ एक सफ़र में थे बा'ज लोगों ने रोज़ा रखा और बा'ज (कुछ) ने न रखा रोज़ा न रखने वालों ने चुस्ती का सुबूत दिया और काम किया और रोज़ा रखने वाले बा'ज कामों की अदाएगी में सुस्त (कमज़ोर) पड़ गए नबी ﷺ ने फ़रमाया: आज रोज़ा न रखने वाले सवाब समेट ले गए " 
कभी कभी सफ़र में कोई ऐसा मु'आमला सामने आ जाता है जो रोज़ा तोड़ने को वाजिब (ज़रूरी) ठहराता है जैसा कि हज़रत अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीष में है कि हम लोगों ने अल्लाह के रसूल ﷺ के साथ मक्का का सफ़र किया उस वक़्त हम लोग रोज़ा से थे एक जगह हम लोगों ने पड़ाव डाला तो आप ﷺ ने फ़रमाया: तुम लोग दुश्मन से क़रीब हो चुके हो इस लिए रोज़ा न रखना तुम्हारे लिए ज़ियादा क़ुव्वत (ताक़त) का बा'इस (कारण) होगा 
यह एक तरह की रुख़्सत (इजाज़त)
थी इस लिए हम में से बा'ज ने रोज़ा रखा और बा'ज ने न रखा फिर एक दूसरे मक़ाम (जगह) पर हम उतरे तो आप ने फ़रमाया: अब 'अलस-सुब्ह (बहुत सवेरे) दुश्मन से तुम्हारा मुक़ाबला है ऐसी सूरत (स्थिति) में रोज़ा न रखना तुम्हारे लिए ज़ियादा ताक़त का बा'इस (कारण) होगा लिहाज़ा (इसलिए) तुम लोग रोज़ा तोड़ दो यह 'अज़ीमत (इरादा) वाला हुक्म था हमने रोज़ा तोड़ दिया फिर हज़रत अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि इस के बाद हम ने दूसरे सफ़रो में अल्लाह के रसूल ﷺ के साथ रोज़े रखे (सहीह मुस्लिम)
इस तरह हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीष में है कि अल्लाह के रसूल ﷺ एक सफ़र में थे आप ने देखा कि एक शख़्स के पास लोग भीड़ लगाए हुए है और उस पर साया किया गया है आप ने वज्ह (कारण)
दरियाफ़्त की लोगों ने बताया कि यह एक रोज़े-दार आदमी है तो आप ﷺ ने फ़रमाया :
सफ़र में रोज़ा रखना नेकी का काम नहीं है (सहीह मुस्लिम)
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*ड्राईवरों पर मुसाफ़िर का हुक्म मुंतबिक़ (चस्पाँ) होगा या नहीं ?*

सवाल 42: टैक्सी और बस वग़ैरा के ड्राईवर जो हमेशा अपने इस काम में लगे होते हैं क्या उन पर मुसाफ़िर का हुक्म साबित होगा और वो रमज़ान में रोज़ा छोड़ेंगे ?

जवाब 42: जी-हाँ उन पर सफ़र का हुक्म साबित होगा और वो नमाज़ कसर कर सकते हैं जम' कर सकते हैं और रोज़ा छोड़ सकते हैं अगर कोई यह कहे कि फिर वो कब अपने रोजों की क़ज़ा करेंगे क्यूंकि उन का काम तो हमेशा जारी रहता है तो हम कहेंगे कि वो लोग जाड़े (सर्दी) के मौसम में रोज़ा रख लेंगे क्यूंकि जाड़े (सर्दी) में दिन छोटा होता है और ठंडक रहतीं हैं और जो ड्राईवर
शहरों के अंदर काम करते हैं उन के लिए मुसाफ़िर का हुक्म नहीं है उन पर रोज़ा रखना वाजिब (ज़रूरी) है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*सफ़र के दौरान अजनबी शहर में क़ियाम (ठहरना) करने पर रोज़ा रखने का हुक्म*

सवाल 43: जब मैं रमज़ान में सफ़र में रहूं और रोज़ा न रखूं फिर एक शहर में पहुंचने के बाद जहां मुझे चंद दिन रुकना है मैंने उस दिन का बक़िया (बाकी) हिस्सा बग़ैर कुछ खाए पीए गुज़ारा बाकी दिनों में भी रोज़ा से रहा तो क्या मैं जब ऐसे शहर में रहूं जो मेरा अस्ली शहर नहीं तो उन दिनों भी मेरे लिए रोज़ा न रखने की रुख़्सत इजाज़त है ?*

जवाब 43: जब मुसाफ़िर अपने शहर के 'अलावा किसी दूसरे शहर से गुज़रे दर आँहालेकि (इस दौरान) वो रोज़ा नहीं रखे हुए हैं तो अगर उस शहर में उस का क़ियाम (ठहरना) चार दिन या उस से कम है तो उस पर रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं है हां अगर उस ने चार दिन से ज़ियादा वहां क़ियाम का इरादा किया तो जिस दिन वो (बग़ैर रोज़ा रखें) पहुंचा है उस की बाद में क़ज़ा करेगा और बाकी अय्याम (दिनों) में रोज़ा रखेगा क्यूंकि इस निय्यत की वजह से वो मुक़ीम के हुक्म में हो गया न कि मुसाफ़िर के हुक्म में जमहूर 'उलमा का यही कौल है 
(शैख़ इब्न बाज़)

*सफ़र में रोज़ा न रखने की हालत में जिमा' (मुबाशरत) का हुक्म*

सवाल 44: जो शख़्स रमज़ान में दिन के वक़्त में अपनी बीवी से सफ़र की वजह से जिमा' (मुबाशरत) करता है उस का क्या हुक्म है ?
क्यूंकि वो लोग (सफ़र में) बग़ैर रोज़े के है और नमाज़ कसर करते हैं अलबत्ता (लेकिन) वो रमज़ान ही में तो हैं ?

जवाब 44: रमज़ान के दिन में सफ़र करने वाले के लिए रोज़ा न रखना जाइज़ हैं और सफ़र इस का तक़ाज़ा करता है क्यूंकि अल्लाह-त'आला का इरशाद हैं:
  {وَمَن کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلَی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَر} 
" जो शख़्स बीमार हो या सफ़र में वो दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे "
ऐसे शख़्स के लिए खाना पीना और जिमा' (मुबाशरत) करना सब जाइज़ है जब तक वो सफ़र में है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:45-47)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*हमल व रज़ा'अत से मुत'अल्लिक़ (बारे में) अहकाम (आदेश)*

(हामिला (गर्भ-वती) और दूध पिलाने वाली औरत का रोज़ा न रखना)

सवाल 45: अगर हामिला (गर्भ-वती) या दूध पिलाने वाली औरत रमज़ान में रोज़ा न रख सके तो उस के ज़िम्मा क्या है ? 
और कितना चावल (फ़िदया में) देना होगा ?

जवाब 45: हामिला (गर्भ-वती) और दूध पिलाने वाली औरतों के लिए जाइज़ नहीं है कि रमज़ान का रोज़ा छोड़े मगर यह कि कोई 'उज़्र (मजबूरी) और परेशानी हो अगर किसी 'उज़्र (मजबूरी) और परेशानी की वजह से वो रोज़ा नहीं रख सकतीं हैं तो उन पर रोजों की क़ज़ा वाजिब (ज़रूरी) है क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने मरीज़ के बारे में फ़रमाया है:
{وَمَنْ کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلٰی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَرَ}
" तुम में से जो मरीज़ हो या सफ़र में हो तो वो दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे " 
और यह दोनों भी मरीज़ के हुक्म में है अगर इन दोनों के रोज़ा तर्क करने का सबब बच्चे की हिफ़ाज़त है तो क़ज़ा के साथ उन पर हर दिन एक मिस्कीन को खाना देना भी ज़रूरी है चाहे गेहूँ से हो या चावल से या खजूर या किसी और इंसानी ग़िज़ा (खाने) से और बा'ज़ (कुछ) 'उलमा का कहना है कि हामिला (गर्भ-वती) या दूध पिलाने वाली औरत ने चाहें जिस 'उज़्र (मजबूरी) से रोज़ा छोड़ा हो उस पर क़ज़ा के 'अलावा (सिवा) कोई और चीज़ नहीं है क्यूंकि खाना देने के वुजूब पर किताब-ओ-सुन्नत से कोई दलील मौजूद नहीं है और जब दलील फ़राहम (हाज़िर) न हो तो आदमी बरीउज़्ज़िम्मा (ज़िम्मेदारी से अलग) होता है यही इमाम अबू हनीफा का मज़हब है और इसी क़ौल के अंदर क़ुव्वत है 
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*मुसलसल (लगातार) दो रमज़ान में पैदाइश हुई और बीच में भी क़ज़ा का मौका न मिला*

सवाल 46: एक औरत के यहां रमज़ान में पैदाइश हुई (और वो रोज़ा न रख सकी) रमज़ान गुज़रने के बाद भी वो अपने दूध पीते बच्चे को ज़रर (नुक़्सान) पहुंचने के ख़ौफ़ (डर) से छूटे हुए रोजों की क़ज़ा न कर सकी फिर वो दोबारा हामिला (गर्भ-वती) हुई और अगले रमज़ान में उस के यहां पैदाइश हुई तो क्या उस के लिए जाइज़ हैं कि छूटे हुए रोजों के बदले पैसा तक़सीम करदे ?

जवाब 46: उस औरत पर वाजिब (ज़रूरी) है कि उस के जितने रोज़े छूटे है उतनें रोज़े रखे भले दूसरे रमज़ान के बाद ही क्यूं न हो क्यूंकि पहले और दूसरे रमज़ान के बीच में वो किसी मजबूरी की वजह से क़ज़ा न कर सकी थी अगर दूध पिलाने की मुद्दत ही में वो जाड़े (सर्दी) के मौसम में एक रोज़ (दिन) के नाग़े (छुट्टी कर लेने) से क़ज़ा करे तो नहीं मा'लूम कि इस को कोई दुश्वारी होगी अल्लाह त'आला उस को ताक़त देगा और उस पर या उसके दूध पर उस से कोई असर नहीं पड़ेगा बहर-हाल (हर हाल में) ऐसी औरत को हत्तल-मक़दूर (जहां तक ताक़त है) कोशिश करनी चाहिए कि अगला रमज़ान आने से पहले गुज़रे हुए रमज़ान के रोज़ो की क़ज़ा कर ले अगर वो ऐसा न कर सकी तो दूसरे रमज़ान (के बाद) तक क़ज़ा को मुअख़्ख़र करने में कोई हरज नहीं हैं
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*हमल (गर्भ) की वजह से रोज़ा नहीं रखा*

सवाल 47: मैं रमज़ान के महीने में हामिला (गर्भ-वती) थी इस लिए रोज़ा नहीं रखा इस के बदले मैंने
(बाद में) पूरे माह (महीने) का रोज़ा रखा और सदक़ा भी किया इस के बाद फिर दोबारा रमज़ान में हामिला (गर्भ-वती) रही और रोज़ा न रख सकी बाद में दो महीना तक एक रोज़ के नाग़े से मैंने पूरे माह का रोज़ा रखा और इस बार कुछ सदक़ा न किया तो क्या इस त'अल्लुक़ से मेरे उपर सदक़ा वाजिब (ज़रूरी) है ?

जवाब 47: अगर हामिला (गर्भ-वती) औरत को रोज़ा रखने से अपने पेट के बच्चे के सिलसिले में किसी ज़रर (नुक़्सान) का अंदेशा (ख़तरा) हो तो वो रोज़ा नहीं रखेंगी इस के ज़िम्मा सिर्फ़ उन छूटे हुए रोजों की क़ज़ा है इस औरत का मु'आमला वैसे ही है जैसे उस मरीज़ का जिसे रोज़ा रखने की इस्तिता'अत (ताक़त) नहीं है या रोज़ा रखने से उसे अपने ऊपर किसी ज़रर (नुक़्सान) का अंदेशा है अल्लाह-त'आला ने फ़रमाया है:
{ وَمَن کَانَ مَرِیْضاً أَوْ عَلَی سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ أَیَّامٍ أُخَر}
" जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे "
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:48-51)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*हैज़ व निफ़ास के मसाइल*

*हैज़ से पाकी (स्वच्छता) के बाद गदला (मैला) माद्दा (पदार्थ) आना*

सवाल 48: मेरे हैज़ की मुद्दत छ दिन है कभी सात दिन भी आता हैं मैं तहारत (पवित्रता) देख लेने के बाद ग़ुस्ल (स्नान) कर लेती हूं और पूरे दिन तहारत (पवित्रता) रहती हैं फिर गदला (मैला) सुर्ख़ (लाल) सियाही-माइल (काला सा) माद्दा (पदार्थ) देखने में आता है मुझे इस बारे में शर'ई हुक्म मालूम नहीं इस लिए पस-ओ-पेश (सोच विचार) में रहती हूं कि नमाज़, रोज़ा और दूसरी 'इबादतें करूं या नहीं ?

जवाब 48: जब आप को हैज़ के अय्याम (दिनों) और औक़ात (वक़्त) मालूम है तो इस दौरान रोज़ा नमाज़ से रुकीं रहें फिर तहारत के बाद नमाज़ पढ़े और रोज़ा रखें अगर पाकी (स्वच्छता) के बाद ज़र्द (पीला) या गदला (मैला) पानी देखें तो इस हालत में नमाज़ रोज़ा और दूसरी 'इबादत नहीं की जाएगी पाकी की नुमायाँ (ज़ाहिर) 'अलामत होती है जिस को औरतें जानती है और वो ख़ालिस (केवल) सफ़ेदी है जो हैज़ ख़त्म होने के बाद रहिम (बच्चा-दानी) से निकलती है जब औरत इस को देखले तो यह हैज़ के ख़त्म होने और पाकी (स्वच्छता) के शुरू' होने की 'अलामत होती है इस के बाद औरत को ग़ुस्ल करना और नमाज़ रोज़ा की अदाएगी ज़रुरी है ऐसे ही तिलावत और दीगर (अन्य) 'इबादात की अदाएगी भी की जा सकती हैं
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*हैज़ के दरमियान (बीच में) तीन दिन की पाकी (सफ़ाई)*

सवाल 49: मैं एक बयालीस (forty-two) साल की शादी-शुदा औरत हूं मेरी माहवारी (मासिक) की सूरत यह है कि चार दिन आतीं हैं फिर तीन दिन के लिए रुक जाती है और सातवें दिन दोबारा (फिर) शुरू' हो जाती है लेकिन हल्की होती है फिर भूरे रंग जैसी हो जाती है और बारहवें दिन तक यही सूरत रहतीं हैं मुझे इस से सख़्त कमज़ोरी लाहिक़ हो जाती थी जिस का मैं शिकवा किया करतीं थी लेकिन बहमदुलिल्लाह 'इलाज के बाद यह तकलीफ़ दूर हो गई 
मैंने एक माहिर (एक्स्पर्ट) और मुत्तक़ी तबीब (डॉक्टर) से अपनी हालत के मुत'अल्लिक़ (बारे में) मशवरा किया तो उन्होंने मशवरा दिया कि मैं चार दिन के बाद ग़ुस्ल करूं और नमाज़ रोज़ा और दूसरी 'इबादत अदा करूं चुनांचे (इसलिए)
मैं 'अर्सा दो साल से इस तबीब (डॉक्टर) की नसीहत पर 'अमल (पालन) कर रही हूं लेकिन अब कुछ औरतों ने मुझे मशवरा दिया है कि बारह दिन तक इंतिज़ार कर लिया करो मैं आप से तवक़्क़ो' (उम्मीद) रखतीं हूं कि मेरी सहीह रहनुमाई फ़रमाएगे 

जवाब 49: यह चार दिन और छ दिन सब के सब (तमाम) अय्याम ए हैज़ ही है लिहाज़ा (इसलिए) आप पर लाज़िम (ज़रुरी) है कि इन दिनों में नमाज़ और रोज़ा छोड़ दे इन अय्याम (दिनों) में आप अपने ख़ाविंद (पति) के लिए भी हलाल नही नीज़ (और) आप पर लाज़िम (ज़रुरी) है कि चार दिन बाद आप ग़ुस्ल करे नमाज़ अदा करे और ख़ाविंद के लिए हलाल है यह मुद्दत-ए-तहारत वो है जो चार दिन और छ दिन के दरमियान (बीच में)
है इस में आप रोज़ा भी रख सकतीं हैं जब रमज़ान में यह सूरत वाक़े' (घटित) होतो इस दरमियानी मुद्दत में आप रोज़ा रखे फिर जब मज़ीद (अधिक) छ दिन बाद आप पाक हो तो पाक औरतों की तरह ग़ुस्ल कर के नमाज़ अदा करे और रोज़ा रखे क्यूंकि अय्याम-ए-माहवारी (या'नी हैज़) ज़ियादा भी हो सकती है और कम भी इकट्ठे भी हो सकती है और जुदा-जुदा भी
(शैख़ इब्न बाज़)

*तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद हैज़ से पाकी हुई*

सवाल 50: अगर औरत तुलू'-ए-फ़ज्र के फ़ौरन बाद हैज़ से पाक हो जाए तो क्या वो खाना पीना वग़ैरा छोड़ कर उस दिन रोज़ा रखेंगी ? और उस का यह रोज़ा शुमार (गिनती) होगा या इस रोज़े की क़ज़ा करनी होगी ?

जवाब 50: अगर वो तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद हैज़ से पाक हो जाए तो इस दिन के बाकी हिस्से में वो खाना पीना वग़ैरा छोड़ेंगी या नहीं इस सिलसिले में 'उलमा के दो अक़्वाल (कथन) है:
पहला क़ौल यह है कि इस दिन के बाकी हिस्से में उसे खाना पीना वग़ैरा छोड़ना ज़रुरी है लेकिन इस का यह रोज़ा शुमार (गिनती) नहीं होगा बल्कि (किंतु) उस पर इस दिन के रोज़े की क़ज़ा है इमाम अहमद का मशहूर मज़हब यही है
दूसरा क़ौल यह है कि इस दिन के बक़िया (बाकी) हिस्से में खाना पीना वग़ैरा छोड़ना उस के लिए ज़रुरी नहीं और उस दिन इस का रोज़ा रखना इस लिए सहीह न होगा कि इस दिन के शुरू' हिस्से में वो हाइज़ा थी और रोज़ा रखने के क़ाबिल (योग्य) नहीं थी चुनांचे (इसलिए) जब उस का रोज़ा ही सहीह नहीं होगा तो खाना पीना छोड़ने से कोई फ़ाइदा नहीं और इस मुद्दत में उस पर रोज़ा की कोई पाबंदी 'आइद (लागू) नहीं होगी क्यूंकि दिन के इब्तिदाई हिस्से में उसे रोज़ा छोड़ने का हुक्म था बल्कि (किंतु) उस पर रोज़ा रखना हराम था और जैसा कि हम सबको मा'लूम है कि शर'ई ए'तिबार से रोज़ा तुलू'-ए-फ़ज्र से लेकर ग़ुरूब ए आफ़ताब तक अल्लाह के लिए खाना पीना और दीगर (अन्य) चीजें छोड़ने का नाम है
यही राजेह (सहीह) क़ौल है ताहम (फिर भी) दोनों अक़्वाल (बात) की बिना पर इस दिन के रोज़े की क़ज़ा ज़रुरी है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*एहसास पहले से हो लेकिन ख़ून ग़ुरूब ए आफ़ताब के बाद आए*

सवाल 51: अगर औरत हैज़ का दर्द महसूस करे लेकिन ख़ून ग़ुरूब ए आफ़ताब से पहले न आए तो क्या उस दिन का इस का रोज़ा सहीह होगा या उस पर इस की क़ज़ा ज़रुरी होगी ?

जवाब 51: अगर पाक औरत रोज़े की हालत में महसूस करे कि उस के रहिम (बच्चा-दानी) से ख़ून निकलने लगा है लेकिन ख़ून ग़ुरूब ए आफ़ताब के बाद ख़ारिज हुआ या इस को हैज़ का दर्द महसूस हुआ लेकिन ख़ून ग़ुरूब ए आफ़ताब के बाद आए तो उस दिन का रोज़ा सहीह होगा अगर वो फ़र्ज़ रोज़ा है तो उस की क़ज़ा नहीं और अगर नफ़्ल है तो इस का सवाब ज़ाए' (बे-कार) नहीं होगा
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:52-55)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*हैज़ से पाकी के बाद लिबास (कपड़े) तब्दील (बदलना) करना*

सवाल 52: क्या हाइज़ा औरत के लिए पाक होने के बाद लिबास तब्दील करना ज़रूरी है जब कि इसे मालूम है कि कपड़े में ख़ून या कोई गंदगी नहीं लगी है ?

जवाब 52: उस के लिए लिबास (कपड़े) तब्दील करना ज़रूरी नहीं क्यूंकि हैज़ से पूरा जिस्म नापाक नहीं होता हैज़ के ख़ून से सिर्फ़ वही चीज़ नापाक होती है जिस में वो लग जाए इसी लिए नबी-ए-अकरम ﷺ ने औरतों को हुक्म दिया था कि जब उन के कपड़ों में हैज़ का ख़ून लग जाए तो वो इसे धो कर नमाज़ पढ़ लें
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*रोज़ा रखने के लिए माने' हैज़ दवाओं का इस्ते'माल*

सवाल 53: बा'ज़ (कुछ) औरतें रमज़ान में माहवारी (मासिक) का ख़ून रोकने के लिए कुछ दवाओं का इस्ते'माल करतीं हैं ताकि (रमज़ान ही में पूरे रोज़े रख ले) बाद में क़ज़ा करनें की ज़रुरत न पड़े क्या ऐसा करना जाइज़ हैं ? 
अगर इस सिलसिले में कुछ क़ुयूद-ओ-ज़वाबित (पाबंदियां और क़ाइदे) होतों बयान फ़रमाए ताकि यह औरतें इन के मुताबिक़ (अनुसार) 'अमल कर सकें

जवाब 53: इस मस'अले में मेरी राय (सलाह) यह है कि औरत यह काम न करे और अल्लाह-त'आला ने औरतों के लिए जो चीज़ मुक़द्दर फ़रमाँ दी है उसी पर बाक़ी रहे क्यूंकि माहवारी (मासिक) का ख़ून ख़ारिज होने में भी अल्लाह की हिकमत व मस्लहत (भलाई) है जो औरत की फ़ितरत (स्वभाव) के मुताबिक़ (अनुसार) है क्यूंकि अगर इस सिलसिले को रोका जाएगा तो यक़ीनन (अवश्य) औरत के जिस्म पर इस का मुज़िर (हानिकारक) रद्द-ए-'अमल (reaction) होगा हालाँकि नबी ﷺ ने फ़रमाया है कि:
" न नुक़्सान पहुंचाओ न नुक़्सान उठाओ " इस के 'अलावा अतिब्बा (डॉक्टर) बतलाते हैं कि इन दवाओं का औरत के रहिम (बच्चा-दानी) पर बुरा असर पड़ता है लिहाज़ा (इसलिए) इस मस'अले में मेरी राय (सलाह) तो यही है कि औरतें यह दवाएं न इस्ते'माल करे अल्लाह-त'आला की मुक़र्रर-कर्दा तक़दीर और इस की हिकमत पर उस का शुक्रिया जब हैज़ का ख़ून जारी हो जाए तो औरत नमाज़ रोज़ा से रुक जाए और जब पाक हो जाए तो दोबारा नमाज़ रोज़ा शुरू' कर दे फिर जब रमज़ान गुज़र जाए तो छूटे हुए रोजों की क़ज़ा कर ले 
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*एक हफ़्ता के बाद निफ़ास से पाक हो गई फिर दोबारा ख़ून आ गया*

सवाल 54: अगर निफ़ास के ख़ून वाली औरत एक हफ़्ता के अंदर पाक हो जाए और रमज़ान में 'आम-लोगों के साथ चंद दिन रोज़े रखे फिर दोबारा इस को ख़ून जारी हो जाए तो क्या ऐसी हालत में वो रोज़ा छोड़ देगी और इस बीच उस ने जो रोज़े रखे थे उन की और जो न रख सकी थी उन की क़ज़ा इस पर होगी ?

जवाब 54: अगर निफ़ास वाली औरत चालीस दिन के अंदर पाक हो जाए और रोज़ा रखना शुरू' कर दे फिर चालीस दिन के अंदर ही उस को दोबारा ख़ून आ जाए तो उस ने इस बीच जो रोज़ा रखा वो सहीह होगा अलबत्ता (लेकिन) उस पर वाजिब (ज़रूरी) है कि जिन अय्याम (दिनों) में ख़ून दोबारा आ गया उन में नमाज़ रोज़ा छोड़ दे क्यूंकि यह निफ़ास का ख़ून है फिर पाक होने या चालीस दिन मुकम्मल होने का इंतिज़ार करे चालीस दिन पूरे हो जाने के बाद उस पर ग़ुस्ल वाजिब (ज़रूरी) है भले वो पाकी न महसूस करे क्यूंकि 'उलमा के दो क़ौल में से सहीह क़ौल यही है कि निफ़ास के ख़ून की मुद्दत चालीस दिन है इस के बाद (अगर ख़ून जारी है) तो उस के लिए ज़रुरी है कि हर नमाज़ के वक़्त वुज़ू किया करे ता-आंकि (यहां तक कि) ख़ून आना बंद हो जाए
जैसा कि नबी ﷺ ने इस्तिहाज़ा वाली औरत को हुक्म दिया था चालीस दिन गुज़र ने के बाद अगरचे ख़ून बंद न हो फिर भी उस के शौहर को उस से लुत्फ़-अंदोज़ होना जाइज़ नहीं है क्यूंकि मज़कूरा सूरत में यह फ़ासिद (ख़राब) ख़ून होता है जो न नमाज़ रोज़ा से माने' (बाधक) बनता है न ही शौहर को अपनी बीवी से लुत्फ़-अंदोज़ होने से रोकता है अलबत्ता (लेकिन) चालीस दिन के बाद आने वाला ख़ून अगर इस के हैज़ की 'आदत के मुताबिक़ (अनुसार) आए तो वो नमाज़ रोज़ा तर्क कर देगी और इस को हैज़ का ख़ून माने गी
(शैख़ इब्न बाज़)

*सात दिन के अंदर निफ़ास का ख़ून बंद हो गया*

सवाल 55: मेरी बीवी ने रमज़ान से तक़रीबन (लगभग) सात दिन पहले एक बच्चे को जन्म दिया और रमज़ान शुरू' होने से पहले वो पाक हो गई क्या उस का रोज़ा दुरुस्त होगा या उस के लिए क़ज़ा करना ज़रूरी है ? 
वाज़ेह (स्पष्ट) रहे कि उस का कहना है कि उस ने तहारत की हालत में रोज़ा रखा है

जवाब 55: अगर मु'आमला (मामला) ऐसा है जैसा कि आप ने सवाल में ज़िक्र किया है और आप की बीवी ने रमज़ान में हालत-ए-तहारत में रोज़ा रखा है तो बिला-शुब्हा (यक़ीनन) इस का रोज़ा सहीह हैं और इस के लिए क़ज़ा की ज़रूरत नहीं
(शैख़ इब्न बाज़)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:56-60)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*बग़ैर वुज़ू तिलावत का हुक्म*

सवाल 56: क्या बग़ैर वुज़ू के क़ुरआन पढ़ना सहीह हैं ?

जवाब 56: हदस-ए-असग़र वाला शख़्स (या'नी जिस के ऊपर ग़ुस्ल वाजिब न हो बल्कि वो सिर्फ़ बे-वुज़ू हो) मुसहफ़ (क़ुरआन) को छुए ब़गैर अगर क़ुरआन की तिलावत करता है तो यह बिल-इत्तिफ़ाक़ (सबकी सलाह से) जाइज़ हैं लेकिन बा-वुज़ू तिलावत करना बहर-हाल (हर हाल में) अफ़ज़ल हैं 
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*जनाबत (नापाकी) की हालत में तिलावत का हुक्म*

सवाल 57: जनाबत (नापाकी) की हालत में क़ुरआन को छुए ब़गैर (ज़बानी) इस की तिलावत करनी जाइज़ हैं या नहीं ? और इस के लिए तयम्मुम करने का क्या हुक्म है ?

जवाब 57: जमहूर 'उलमा इस बात के क़ाइल है कि जनाबत (नापाकी) की हालत में (मुसहफ़ को हाथ में लिए बग़ैर भी) क़ुरआन पढ़ना जाइज़ नहीं क्यूंकि इमाम अहमद और असहाब-ए-सुनन हज़रत अली से एक हदीष रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल ﷺ को क़ुरआन से कोई चीज़ नहीं रोकती थी सिवाए जनाबत के इब्न हजर कहते हैं कि इस की अस्नाद (सनद) हसन है पस (इसलिए) अगर पानी न पाए या किसी मरज़ (बीमारी) वग़ैरा की वजह से पानी के इस्ते'माल से 'आजिज़ होतो तयम्मुम कर ले
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*तिलावत अफ़ज़ल हैं या नफ़ली नमाज़ें*

सवाल 58: रमज़ान में दिन के औक़ात (समय) में क़ुरआन की तिलावत करना अफ़ज़ल हैं या नफ़ली नमाज़ें पढ़ना ?

जवाब 58: रमज़ान के महीने में अल्लाह के रसूल ﷺ का मा'मूल यह था कि ज़ियादा से ज़ियादा 'इबादत करते थे हर रात जिब्रईल अलैहिस्सलाम आप के साथ क़ुरआन का दौर करते थे जब हज़रत जिब्रईल से आप की मुलाक़ात होती तो नेकी और सख़ावत के मु'आमला में तेज़ आँधी से भी बढ़ जाते थे आप सबसे ज़ियादा फ़य्याज़ (सख़ी) थे और रमज़ान में आप की फ़य्याज़ी (सख़ावत) बढ़ जाती थी क्यूंकि इस में ज़ियादा से ज़ियादा सदक़ा ओ ख़ैरात भलाई, तिलावत ए क़ुरआन पाक नमाज़ ज़िक्र ओ अज़़कार और ए'तिकाफ़ वग़ैरा किया करते थे
(मुस्नद अहमद, बुखारी, मुस्लिम)
यह था इस मुबारक महीना में अल्लाह के रसूल ﷺ का मा'मूल अब रहा यह कि क़ुरआन की तिलावत या नफ़ली नमाज़ों में से कौन अफ़ज़ल हैं तो यह लोगों के अहवाल (हालत) के तफ़ावुत (फ़र्क़) पर मुनहसिर (निर्भर) है (या'नी किसी के हक़ में यह अफ़ज़ल और किसी के हक़ में वो अफ़ज़ल) और इस का सहीह अंदाज़ा अल्लाह के पास है क्यूंकि वो हर चीज़ का इहाता किए हुए हैं
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*क़ुरआन देख कर तिलावत करना अफ़ज़ल हैं या बग़ैर देखें*

सवाल 59: क़ुरआन को देख कर पढ़ना और बग़ैर देखें (हिफ़्ज़) से पढ़ना इस में से कौन अफ़ज़ल हैं ?

जवाब 59: जो तुम्हारे लिए ज़ियादा सूद-मंद (फ़ाइदा-मंद) और जिस से दिल में ज़ियादा ख़ुशू'-ओ-ख़ुज़ू' पैदा हो वही अफ़ज़ल हैं
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*नमाज़ में देख कर क़ुरआन पढ़ने का हुक्म*

सवाल 60: क्या तरावीह और सूरज-ग्रहण की नमाज़ में क़ुरआन देख कर पढ़ा जा सकता है ?

जवाब 60: क़ियाम-ए-रमज़ान में क़ुरआन देख कर पढ़ने में कोई हरज नहीं हैं क्यूंकि इस तरह मुक़तदियों को पूरा क़ुरआन सुनाया जा सकता है और इस लिए कि किताब-ओ-सुन्नत से साबित शर'ई दलीलें नमाज़ में क़ुरआन की क़िराअत मशरू' क़रार देती है और यह मशरू'इय्यत 'आम है देख कर पढ़ना और हाफ़िज़ से पढ़ना दोनों इस में दाख़िल हैं और हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वारिद है कि इन्होंने अपने ग़ुलाम हज़रत जकवान को हुक्म दिया था कि क़ियाम ए रमज़ान में उन की इमामत करे हज़रत जकवान क़ुरआन से देख कर पढ़ते थे इस को इमाम बुखारी رحمہ اللہ ने अपनी किताब में सीग़ा ए जज़्म के साथ ता'लीक़न ज़िक्र किया है
(शैख़ इब्न बाज़)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:61-66)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*क़ज़ा के मसाइल*

*जाड़े (सर्दी) के मौसम तक क़ज़ा को मुअख़्ख़र करना*

सवाल 61: क्या रमज़ान के छुटे हुए रोजों की क़ज़ा जाड़े (सर्दी) के मौसम तक टाली जा सकती हैं ?

जवाब 61: जब 'उज़्र (मजबूरी) दूर हो जाए और रोज़ा रखने की क़ुदरत (ताक़त) हासिल हो जाए तो फ़ौरन (तुरंत) छूटे हुए रोजों की क़ज़ा करना वाजिब (ज़रूरी) है और बिला-वजह (बेसबब) इस में ताख़ीर नहीं करनी चाहिए क्यूंकि रुकावटें पैदा होने का ख़द्शा (डर) रहता है मसलन (जैसे) बीमारी है या सफ़र है या मौत हैं अलबत्ता (लेकिन) कोई इसे मुअख़्ख़र कर के जाड़े (सर्दी) के दिनों में या छोटे दिनों में रखता है तो इस के लिए काफ़ी होगा और उस से रोज़ा अदा हो जाएगा
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*क़ज़ा नहीं किया और दूसरा रमज़ान आ गया*

सवाल 62: बा'ज़ (कुछ) औरतें पिछले रमज़ान के छूटे हुए रोजों की क़ज़ा नहीं करतीं यहां तक कि दूसरा रमज़ान शुरू' हो जाता है उन पर क्या वाजिब (ज़रूरी) है ?

जवाब 62: उन पर वाजिब (ज़रूरी) है कि अपने इस फ़े'ल (काम) पर अल्लाह-त'आला की जानिब (तरफ़) में तौबा करे क्यूंकि किसी मा'क़ूल (वाजिब) 'उज़्र (मजबूरी) के बग़ैर रोजों की क़ज़ा को दूसरा रमज़ान आने के बाद तक मुअख़्ख़र करना जाइज़ नहीं (बल्कि (किंतु) दूसरा रमज़ान आने से पहले इन्हें इन रोजों की क़ज़ा कर लेनी चाहिए) जैसा कि हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि:
" मेरे ज़िम्मे रमज़ान के रोज़े होते थे मैं इन की क़ज़ा शा'बान में ही कर पातीं थी "
हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा का यह क़ौल इस बात की दलील है कि रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा को दूसरे रमज़ान के बाद तक मुअख़्ख़र करना जाइज़ नहीं लिहाज़ा (इसलिए) जो औरत ऐसा करे उसे चाहिए कि वो अल्लाह की जानिब में तौबा करे और इन रोजों की क़ज़ा दूसरे रमज़ान के बाद कर ले जो उस ने छोड़े हैं
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*क़ज़ा की निय्यत से अय्याम-ए-बीज़ का रोज़ा रखना*

सवाल 63: रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की निय्यत से अय्याम-ए-बीज़ 
(हर क़मरी माह की 13,14,15 तारीख़) के रोज़े रख सकते हैं ?

जवाब 63: आ'माल निय्यत से होती है इस लिए अगर अय्याम-ए-बीज़ के रोज़े नफ़ल की निय्यत से रखो तो नफ़ल होगे और रमज़ान की क़ज़ा की निय्यत से रखो तो क़ज़ा के रोज़े होगे क्यूंकि आ'माल निय्यत से होते हैं और जिस ने जो निय्यत की वहीं उस को हासिल होता है जैसा कि रसूल-ए-अकरम ﷺ का इरशाद हैं लिहाज़ा (इसलिए) अय्याम-ए-बीज़ के रोज़े क़ज़ा और सुन्नत दोनों की निय्यत से जाइज़ नहीं और निय्यत की तहदीद (हद-बंदी) ज़रुरी है कि वो सुन्नत का है या फ़र्ज़ की क़ज़ा का
(शैख़ अब्दुल 'अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह आले शैख़)

*क़ज़ा से पहले नफ़ली रोज़ा रखना*

सवाल 64: अगर औरत के ज़िम्मा रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा करनी होतो क्या इस को नफ़ली रोज़े जैसे 'अरफ़ा के दिन का रोज़ा रखना जाइज़ हैं ?

जवाब 64: रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा करने में जल्दी करनी चाहिए और फ़र्ज़ की क़ज़ा करने से पहले नफ़ल की अदाएगी जाइज़ नहीं है लेकिन अगर उस ने नफ़ल की निय्यत से 'अरफ़ा के दिन का और इस तरह का और कोई नफ़ली रोज़ा रखा तो फ़र्ज़ साक़ित नहीं हुआ और अगर उस ने यह कह कर रोज़ा रखा कि वो रमज़ान का छूटा हुआ रोज़ा है तो यह दुरुस्त है इंशा-अल्लाह इस का अज्र-ओ-सवाब इस को मिलेगा
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*छूटे हुए रोजों को शुमार न कर सकी*

सवाल 65: मैं माह-ए-रमज़ान के उन दिनों की क़ज़ा न कर सकी जिन के रोज़े हैज़ के सबब (कारण)
छूट गए थे और मैं उन की ता'दाद भी मुत'अय्यन (निश्चित) नहीं कर सकतीं तो अब मुझ पर क्या वाजिब (ज़रूरी) है ?

जवाब 65: तुम कोशिश करो और अंदाज़ा लगाओ जितने रोज़े तर्क (भूल) करने का तुम्हें गुमान-ए-ग़ालिब हो उन की क़ज़ा करो और अल्लाह से मदद और तौफ़ीक़ मांगों 
{ لَا یُکَلِّفُ اللّہُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَہَا} (سورۃ البقرہـ: 286)  
" अल्लाह किसी को उस की ताक़त से ज़ियादा मुकल्लिफ़ नहीं बनाता "
कोशिश करो तख़मीना (अनुमान) लगाओ और अपने लिए एहतियात (सावधानी) से काम लो ता कि गुमान-ए-ग़ालिब के मुताबिक़ (अनुसार) तर्क कर्दा रोज़े रख सको नीज़ (और) तुम पर अल्लाह की जानिब में तौबा करना लाज़िम (ज़रुरी) है
(शैख़ इब्न बाज़)

*जान बूझ कर रोज़ा छोड़ा फिर तौबा किया*

सवाल 66: उस मुसलमान आदमी के बारे में क्या हुक्म है जिस ने साल-हा-साल (बरसों) बग़ैर रोज़े के गुज़ार दिया हालांकि बक़िया (बाकी) फ़राइज़ का वो एहतिमाम (बंदोबस्त) करता है यह शख़्स अपने 'इलाक़े से दूर अजनबी मुल्क में रहता है उस को रोज़ा रखने में कोई रुकावट नहीं थी अगर वो तौबा कर ले या वतन वापस हो तो क्या उस पर क़ज़ा लाज़िम (ज़रुरी) है

जवाब 66: रमज़ान का रोज़ा इस्लाम के अरकान में से एक अहम रुक्न है किसी मुकल्लिफ़ शख़्स का जान बूझ कर रोज़ा छोड़ देना भारी
कबीरा गुनाहों में से हैं बा'ज 'उलमा तो ऐसे शख़्स पर कुफ़्र-ओ-इर्तिदाद का हुक्म लगातें है ऐसे शख़्स को सिद्क़-ए-दिल से (सच्चे दिल से) तौबा करनी चाहिए और नवाफ़िल और दूसरे आ'माल सालेह का ज़ियादा से ज़ियादा एहतिमाम करना चाहिए उस पर वाजिब (ज़रूरी) है कि दीन के जुमला शराए' की पाबंदी करे जैसे नमाज़ रोज़ा हज्ज ज़कात वग़ैरा 'उलमा के दो क़ौल में से सहीह क़ौल के मुताबिक़ (अनुसार) ऐसे शख़्स पर क़ज़ा नहीं है क्यूंकि इस का जुर्म इतना बड़ा है कि क़ज़ा से इस की मु'आफ़ी नहीं हो सकती
 ۔وباللہ التوفیق۔ 
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:67-70)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*'ईदी रोज़े*

*शश-'ईदी रोज़े कब रखें जाए*

सवाल 67: क्या शश-'ईदी रोज़े रमज़ान के ख़त्म होने और 'ईद का दिन गुज़र ने के बाद फ़ौरन रखना ज़रूरी है या चंद दिन गुज़ार ने के बाद शव्वाल के बक़िया (बाकी) अय्याम (दिनों) में मुसलसल (लगातार) रखा जाए ?

जवाब 67: यह रोज़े 'ईद का दिन गुज़र ने के फ़ौरन बाद रखना ज़रूरी नहीं है बल्कि 'ईद के एक दो रोज़ या कई रोज़ के बाद भी इसे शुरू' किया जा सकता है अपनी आसानी (सुविधा) के मुताबिक़ (अनुसार) आदमी चाहे तो यह रोज़े मुसलसल (लगातार) भी रख सकता है और चाहें तो शव्वाल के महीने भर वक़्फ़ा-ब-वक़्फ़ा से रखे इस में गुंजाइश है यह शश-'ईदी रोज़े फ़र्ज़ नहीं बल्कि (किंतु) सुन्नत है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*रमज़ान के रोज़े मुकम्मल किए बग़ैर 'ईदी रोज़े रखना*

सवाल 68: एक शख़्स ने रमज़ान के रोजों को मुकम्मल (पूरा) किए बग़ैर शश-'ईदी रोज़े रखे इस तरह से कि किसी शर'ई 'उज़्र (मजबूरी) की वजह से इस ने रमज़ान के कुछ रोज़े छोड़ दिए थे क्या ऐसे शख़्स को वहीं सवाब मिलेगा जो उस शख़्स को मिलता है जिसने रमज़ान के पूरे रोज़े रखने के बाद शव्वाल के छ रोज़े रखे और सियाम-उद-दहर या'नी हमेशा रोज़ा रखने वालों में इस का शुमार हुआ ?

जवाब 68: बंदे अल्लाह की रज़ा (ख़ुशी) के लिए जो 'अमल करते हैं उन के सवाब की त'यीन (मुक़र्रर करना) अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त के ख़ुसूसी इख़्तियार में है जब बंदा अल्लाह की इता'अत कर के उस के अज्र ओ सवाब का तालिब (ख़्वाहिश-मंद) होता है तो अल्लाह-त'आला उस के अज्र को ज़ाए' (नष्ट) नहीं करता इस का फ़रमान है:
{ إِنَّا لَا نُضِیْعُ أَجْرَ مَنْ أَحْسَنَ عَمَلاً }
" अच्छा 'अमल करने वालों का अज्र हम बर्बाद नहीं करते "
जिस शख़्स के ज़िम्मा रमज़ान के कुछ रोज़े रह गए हो उसे चाहिए कि पहले उन रोजों को पूरा करे फिर शव्वाल के छ रोज़े रखे क्यूंकि रमज़ान का रोज़ा रखने के बाद शव्वाल का रोज़ा रखने की जो बात (हदीष में) कही गई है उस पर इस वक़्त तक सादिक़ नहीं आएगी जब तक वो रमज़ान के रोज़े मुकम्मल न कर ले
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*क़ज़ा के रोज़े 'ईदी रोज़े के लिए काफ़ी नहीं*

सवाल 69: अगर औरत रमज़ान के छूटे हुए रोजों की क़ज़ा के लिए शव्वाल के महीने में छ रोज़े रखे तो क्या क़ज़ा के यह रोज़े शश-'ईदी रोज़े के लिए भी काफ़ी होंगे और उसे 'ईदी रोज़ा रखने वालों जैसा सवाब मिलेगा ?

जवाब 69: नबी-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया है कि जिस ने रमज़ान के रोज़े रखे उस के बाद शव्वाल के छ रोज़े रखे तो गोया (जैसे) सियाम-उद-दहर (पूरे ज़माने भर रोज़े) रखा इस हदीष से मा'लूम हुआ कि रमज़ान के फ़र्ज़ रोजों को मुकम्मल करना ज़रूरी है फिर इस में शव्वाल के छ नफ़ली रोजों का इज़ाफ़ा किया जाएगा ता कि सियाम-उद-दहर हो सके
एक दूसरी हदीष में है कि " रमज़ान के रोज़े दस माह के बराबर होते हैं और शव्वाल के छ रोज़े दो माह के बराबर " इस से मुराद (मतलब) यह है कि एक नेकी दस नेकी के बराबर होती है इस बुनियाद पर देखें तो जिस ने रमज़ान का कुछ हिस्सा ब-हालत-ए-रोज़ा गुज़ारा और कुछ हिस्सा बीमारी, सफ़र या हैज़ या निफ़ास की वजह से बग़ैर रोज़े के गुज़ारा तो उस पर वाजिब है कि शव्वाल या उसके बाद छूटे हुए रोजों को क़ज़ा के ज़री'आ पूरा करे और 'ईदी रोज़े और दूसरे नफ़ली रोज़े से पहले उन्हें रखे जब छूटे हुए रोजों की क़ज़ा मुकम्मल कर ले तो शव्वाल के छ रोज़े उस के हक़ में मशरू' होगे और मज़कूरा अज्र ओ सवाब उसे हासिल होगा पस (इसलिए) क़ज़ा के तौर पर जो रोज़े रखे जाएंगे वो नफ़ली रोजों के क़ाइम-मक़ाम नहीं हो सकते जैसा कि वाज़ेह (स्पष्ट) है
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*शश-'ईदी रोज़े रखने वाला एक मर्तबा यह रोज़े न रख सका*

सवाल 70: एक शख़्स शश-'ईदी रोज़े रखा करता था अगर किसी साल उस मौक़ा' पर वो बीमार हो जाए या उस को कोई और रुकावट हो या सुस्ती में वो रोज़ा न रख सके तो क्या गुनाहगार होगा ?
क्यूंकि हम ने सुना है कि जिस ने एक साल यह रोज़ा रख लिया उस को कभी छोड़ना जाइज़ नहीं

जवाब 70: ईद के दिन के बाद शश-'ईदी रोज़े रखना सुन्नत है अगर किसी ने एक या एक से ज़ियादा बार इसे रखा तो हमेशा रखना उस पर वाजिब (ज़रूरी) नहीं और न ही उन रोजों को छोड़ने से वो गुनहगार होगा
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:71-77)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*सिर्फ़ 28, दिन का रोज़ा*

सवाल 71: क्या रमज़ान के महीने में सिर्फ़ 28, दिन का रोज़ा रखना दुरुस्त है ?

जवाब 71: सहीह और मशहूर हदीसों से साबित है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि महीना 29, दिन से कम का नहीं होता अगर कभी 28, दिन रोज़ा रखने के बाद ही शर'ई दलील से शव्वाल के चांद का सुबूत हो जाए तो ऐसी सूरत में मुत'अय्यन (निश्चित) होगा कि लोगों ने पहले रमज़ान का रोज़ा छोड़ा है लिहाज़ा (इसलिए) उन पर इस की क़ज़ा वाजिब है क्यूंकि यह मुमकिन (संभव) नहीं कि महीना 28, दिन का हो महीना या तो 29, दिन का होता है या 30, दिन का
(शैख़ इब्न बाज़)

*रोज़ा शुरू' करने के बाद दूसरे मुल्क में जाकर 31, दिन रोज़ा रखना*

सवाल 72: हम सऊदी अरब में रोज़ा शुरू' करते हैं और उस के बाद रमज़ान ही में मशरिक़ी एशिया में वाक़े' अपने मुल्क का सफ़र करते हैं जहां हिजरी महीना एक दिन बाद शुरू' होता है तो क्या हम ऐसी सूरत (स्थिति) में 31, दिन रोज़ा रखेंगे ?

जवाब 72: जब आप लोग सऊदीया वग़ैरा में रोज़ा शुरू' करे फिर बाकी अय्याम (दिनों) के रोज़े अपने मुल्क में या कहीं और रखे तो वहां के लोगों के साथ ही रोज़ा ख़त्म करे अगरचे कि तीस दिन से ज़ियादा क्यूंकि नबी ﷺ ने फ़रमाया
" रोज़ा उस दिन से हैं जिस दिन तुम लोग रोज़ा रखते हो और इस का इख़्तिताम (ख़त्म) उस दिन हैं जिस दिन तुम इस का इख़्तिताम करते हो " लेकिन अगर आप लोगों ने 29, दिन मुकम्मल नहीं किया तो उस को पूरा करना ज़रूरी होगा क्यूंकि महीना 29, दिन से कम नहीं होता
(शैख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह)

*तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद रमज़ान के चांद का इल्म हुआ*

सवाल 73: सो जाने की वजह से या किसी और वजह से अगर किसी को रमज़ान के चांद के बारे में तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद इल्म हुआ तो ऐसे शख़्स के रोज़े का क्या हुक्म है ?

जवाब 73: जिस शख़्स को तुलू'-ए-फ़ज्र के बाद रमज़ान की आमद (आगमन) का इल्म हुआ उस पर वाजिब (ज़रूरी) है कि पूरे दिन रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों से परहेज़ करे क्यूंकि वो रमज़ान का दिन है और तंदुरुस्त मुक़ीम (निवासी) शख़्स के लिए जाइज़ नहीं है कि इस तरह की रोज़ा तोड़ने वाली कोई चीज़ तनावुल करे इस को इस दिन की क़ज़ा करना भी ज़रूरी है इस लिए कि उसने फ़ज्र से पहले रात ही में रोज़े की निय्यत नहीं की जबकि (हालाँकि) नबी ﷺ से साबित है कि आप ने फ़रमाया " जिस ने फ़ज्र से पहले रात ही में रोज़े की निय्यत न की उस का रोज़ा नहीं होगा "
इब्न कुदामा ने अल-मुगनी में इस को नक़्ल किया है और यही 'आम (अधिक) फ़ुक़हा का क़ौल है अलबत्ता (लेकिन) इस से मुराद (मतलब) फ़र्ज़ रोज़े है इस हदीष की वजह से जिस को हम ने ज़िक्र किया रहा नफ़ली रोज़ा तो दिन में भी उस की निय्यत कर लेना काफ़ी है ब-शर्त-ए-कि (इस शर्त के साथ) रोज़ा तोड़ने वाली कोई चीज़ न खाया पिया हो क्यूंकि ऐसा नबी कर ﷺ से साबित है 
(शैख़ इब्न बाज़)

*लड़की पर रोज़ा फ़र्ज़ होने की उम्र*

सवाल 74: लड़की पर रोज़ा कब फ़र्ज़ होता है ?

जवाब 74: लड़की जब मुकल्लफ़ बनने की उम्र को पहुंच जाए तो उस पर रोज़ा फ़र्ज़ हो जाता है और बुलूग़त (जवानी) 15,साल की उम्र पूरी करने से शर्म-गाह के इर्द-गिर्द बाल जमने से मनी' के नुज़ूल से हैज़ से या हमल से साबित होती है इन चीजों में से कोई चीज़ भी पाई जाए तो उस पर रोज़ा लाज़िम (ज़रुरी) हो जाता है अगरचे उस लड़की की उम्र दस साल ही क्यूं न हो क्यूंकि बहुत सारी लड़कियां बसा-औक़ात (कभी-कभी) दस या ग्यारह साल की उम्र में हायिज़ा हो जाती है लेकिन उन के सर-परस्त ध्यान नहीं देते और समझते हैं कि लड़की अभी छोटी है पस (इसलिए) इस को रोज़ा रखने का पाबंद नहीं बनाते यह बहुत बड़ी ग़लती है क्यूंकि लड़की को जब हैज़ आ जाए तो वो औरत के दर्जें में पहुंच गई और उसके ऊपर ज़िम्मेदारी का कलम चल गया
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*बच्चों के लिए रोज़ा का हुक्म*

सवाल 75: मेरा एक छोटा बच्चा रोज़ा रखने पर मुसिर (हटीला) रहता है हालांकि कम-सिनी की वजह से यह रोज़ा उस के लिए नुक़सान-देह है उस की सेहत पर भी उस से असर पड़ता है तो क्या उस का रोज़ा तोड़ने के लिए उस के साथ सख़्ती कर सकते हैं ?

जवाब 75: बच्चा अगर छोटा और नाबालिग़ है तो उस पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है अलबत्ता (लेकिन) अगर बग़ैर किसी मशक़्क़त (तकलीफ़) के वो रोज़ा रख सकता है तो उस को रोज़ा रखने का हुक्म दिया जाएगा सहाबा किराम अपने बच्चों से रोज़ा रखवाते थे और अगर कोई बच्चा रोने लगता था तो उस को खिलोना वग़ैरा दे कर बहलाते थे हां अगर यह साबित हो जाए कि रोज़ा बच्चे के लिए मुज़िर (हानिकारक) है तो उस को रोक दिया जाएगा क्यूंकि जब अल्लाह-त'आला ने हमें छोटे बच्चों को उन का माल देने से इस लिए मना' किया है कि इस को वो बर्बाद कर डाले तो जिस्मानी ख़राबी का ख़ौफ़ इस बात का ज़ियादा
मुस्तहिक़ (हकदार) है कि इस को रोका जाए अलबत्ता (लेकिन) रोकने में सख़्ती का रास्ता नहीं इख़्तियार (पसंद) किया जाएगा क्यूंकि बच्चों के तर्बियत के मु'आमला में सख़्ती मुनासिब (योग्य) नहीं है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*रात में निय्यत करना मफ़्हूम (मतलब) और तरीक़ा*

सवाल 76: इस हदीष का क्या मफ़्हूम (मतलब) है जिस में कहा गया है कि " जिस ने रात में निय्यत न की उस का रोज़ा नहीं होगा "
और रात में निय्यत करने का क्या तरीक़ा है ?

जवाब 76: यहां निय्यत से मुराद (मतलब) यह है कि रोज़ा रखने का दिल में इरादा किया जाए हर वो मुसलमान जो यह जानता है कि माह-ए-रमज़ान का रोज़ा अल्लाह ने फ़र्ज़ किया है इस के लिए यह निय्यत ज़रुरी है निय्यत के लिए इतना काफ़ी है कि आदमी को इस की फ़र्ज़ियत का इल्म है और यह कि वो इस का पाबंद है ऐसे ही अगर वो अपने जी (मन) में सोच ले कि अगर उस को कोई उज़्र न होगा तो वो रोज़ा रखेगा तो यह भी निय्यत के लिए काफ़ी होगा रोज़ा रखने की निय्यत से सहरी खाना भी काफ़ी होगा रोज़ा और दीगर (अन्य) 'इबादतों के लिए ज़बान से निय्यत के अलफ़ाज़ अदा करने की कोई जरूरत नहीं है क्यूंकि निय्यत का महल तो दिल है इस निय्यत का हुक्म पूरे दिन साथ में रहना ज़रुरी है या'नी यह निय्यत न करे कि रोज़ा तोड़ेगा या उसे बातिल कर देगा
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*पूरे रमज़ान के रोज़े की यक-बारगी (एक मर्तबा) निय्यत कर लेना*

सवाल 77: क्या पूरे रमज़ान के रोज़ो की निय्यत (यक-बारगी) कर लेना काफ़ी होगा ब-जाए उस के कि हर दिन के रोज़े की अलग अलग निय्यत की जाए

जवाब 77: यह बात मा'रूफ़ (प्रसिद्ध) है कि हर वो शख़्स जो रात के आख़िरी हिस्से में उठता है और सहरी खाता है वो रोज़े ही का इरादा रखता है इस में किसी शक-ओ-शुब्हा (संदेह) की गुंजाइश (संभावना) नहीं है क्यूंकि हर ज़ी-'अक़्ल (समझदार) इंसान जब कोई काम अपने इख़्तियार से करता है तो इरादे के बग़ैर नहीं करता और इरादा ही का नाम निय्यत है रात के आख़िरी हिस्से में उठकर जो शख़्स खाता पीता है सिवाए रोज़े के इस का और क्या मक़्सद हो सकता है अगर उस का मक़्सद सिर्फ़ और सिर्फ़ खाना होता तो इस जैसे वक़्त में तो उस के खाने की आदत ही नहीं है पस (इसलिए) निय्यत यही है
मज़कूरा सवाल की जरूरत उस शख़्स के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से पेश आती है जिस के बारे में यह मान लिया जाए कि वो रमज़ान में किसी दिन सूरज ग़ुरूब होने से पहले सो गया और पूरी रात सोता रहा किसी ने उसे नहीं जगाया यहां तक कि अगले दिन फ़ज्र तुलू'हो गई ऐसी सूरत (स्थिति) में उस ने अगले दिन के रोज़े की रात में निय्यत नहीं की क्या अब यह कहा जा सकता है कि उस का अगले दिन का रोज़ा साबिक़ा निय्यत (या'नी जो शुरू रमज़ान में पूरे माह के लिए किया था) की बिना पर दुरुस्त होगा ?
या यह कहा जाए कि चूंकि इस ने उस रात निय्यत नहीं की इस लिए उस का रोज़ा दुरुस्त नहीं होगा ?
हम कहते हैं कि इस का रोज़ा सहीह होगा क्यूंकि राजेह कौल यही है कि शुरू रमज़ान में पूरे रमज़ान की निय्यत कर लेना काफ़ी होगा और रोज नए सिरे से (फिर से) निय्यत करने की ज़रूरत नहीं है अलबत्ता (लेकिन) अगर कोई ऐसा 'उज़्र (मजबूरी) पेश आ जाए जिस की वजह से बीच में कुछ रोज़े छोड़ना पड़े तो उस के बाद दोबारा रोज़ा शुरू करने के लिए नए सिरे से निय्यत की जरूरत होगी
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:78-85)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*(मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) मसाइल:2)*

*शौहर का बीवी को नफ़ली रोज़े से रोकना*

सवाल 78: क्या मुझे अपनी बीवी को नफ़ली रोज़े (मसलन (जैसे) शश-'ईदी रोज़े वग़ैरा) से रोकने का हक़ हासिल है ? और क्या ऐसा करने पर मैं गुनाहगार हूंगा ?

जवाब 78: शौहर की मौजूदगी में औरत को इस की इजाज़त के बग़ैर नफ़ली रोज़े रखने की मुमान'अत (मनाही) आई है क्यूंकि शौहर को अपनी बीवी से फ़ाइदा उठाने की ज़रूरत पड़ती है लिहाज़ा (इसलिए)
अगर कोई औरत शौहर की इजाज़त के बग़ैर (नफ़ली) रोज़ा रखले और शौहर को हमबिस्तरी की ज़रूरत होतों उस का रोज़ा तोड़ने का हुक्म देना उस के लिए जाइज़ हैं अलबत्ता (लेकिन) अगर शौहर को बीवी से जिमा' (मुबाशरत) की ज़रूरत न होतों उस को (नफ़ली) रोजों से मना' करना मकरूह है ब-शर्त-ए-कि (इस शर्त के साथ) वो रोज़ा न तो उस को ज़रर (नुक़्सान) पहुंचाता हो और न ही बच्चों की देख-रेख और दूध वग़ैरा पिलाने में रुकावट बनता हो इस मु'आमला में शश-'ईदी रोज़े और दूसरे नफ़ली रोजों का हुक्म यकसाँ (बराबर) है
(शैख़ इब्न जिब्रिन)

*वो अय्याम जिन में रोज़ा रखने से मना' किया गया है*

सवाल 79: किन अय्याम (दिनों) में रोज़ा रखना मकरूह है ?

जवाब 79: जिन अय्याम (दिनों) में रोज़ा रखने से मना' किया गया है उन में से एक जुम'आ का दिन है सिर्फ़ जुम'आ के दिन नफ़ली रोज़ा रखना जाइज़ नहीं है क्यूंकि रसूल अल्लाह ﷺ ने इस से मना' फ़रमाया है ऐसे ही अकेले सनीचर (शनिवार) के दिन भी नफ़ली रोज़ा नहीं रखा जाएगा अलबत्ता (लेकिन) अगर किसी ने जुम'आ के दिन रोज़ा रखा और उसके साथ सनीचर के दिन भी रख लिया या उसके साथ जुमे'रात के दिन रोज़ा रख लिया तो ऐसी सूरत (स्थिति) में कोई हरज नहीं है जैसा कि इस सिलसिले में नबी-ए-अकरम की हदीष वारिद हुई है
ऐसे ही 'ईद-उल-फ़ित्र के दिन भी रोज़ा रखने से मना' किया गया है
उस दिन रोज़ा रखना हराम है इसी तरह क़ुर्बानी के दिन (दसवीं ज़िलहिज्जा को) और अय्याम-ए-तशरीक़ (11,12,13 ज़िलहिज्जा) में भी रोज़ा नहीं रखा जाएगा क्यूंकि नबी-ए-अकरम ﷺ इस से मना' किया है अलबत्ता (लेकिन) हज-ए-तमत्तो' या हज्ज-ए-क़िरान करने वाला शख़्स अगर हदी (कुर्बानी) पेश करने की ताक़त नहीं रखता तो उस के बदले अय्याम-ए-तशरीक़ में उस के लिए रोज़ा रखने का जवाज़ मिलता है बुखारी में हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा और हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है कि " अय्याम-ए-तशरीक़ में रोज़ा रखने की रुख़्सत (इजाज़त) किसी को नहीं है सिवाए उस शख़्स के जो हदी (कुर्बानी) न पा सके "
अलबत्ता (लेकिन) महज़ (सिर्फ़) नफ़ली तौर पर या किसी और सबब से अय्याम-ए-तशरीक़ का रोज़ा रखना वैसे ही नाजाएज़ है जिस तरह 'ईद के दिन
इसी तरीक़े से 29,शा'बान को रमज़ान का चांद नज़र न आए तो 30,शा'बान को रोज़ा रखने का मसअला हैं क्यूंकि यह शक का दिन है और 'उलमा के दो क़ौल में से सहीह क़ौल के मुताबिक़ (अनुसार)
इस दिन रोज़ा रखना जाइज़ नहीं है
चाहे मतला' साफ़ रहा हो या अब्र-आलूद (बादल से धिरा हुआ) क्यूंकि मुत'अद्दिद (अनेक) सहीह हदीषे इस से मुमान'अत पर दलालत करती है 
(शैख़ इब्न बाज़)

*बीमारी की वजह से एक मर्तबा नफ़ली रोज़ा न रख सका*

सवाल 80: मैं हर महीने तीन दिन (नफ़ली) रोज़ा रखता था एक मर्तबा मैं बीमार पड़ गया जिस की वजह से रोज़ा न रख सका तो क्या मेरे उपर क़ज़ा का कफ़्फ़ारा है ?

जवाब 80: नफ़ली रोजों की क़ज़ा नहीं अगरचे इख़्तियार से (बग़ैर किसी मजबूरी के) ही कोई छोड़े अलबत्ता (लेकिन) एक मुसलमान के लिए अफ़ज़ल और औला (बेहतर) यही है कि जो नेक 'अमल वो कर रहा है उस को हमेशा पाबंदी से करे क्यूंकि एक हदीष है कि
" अल्लाह के नज़दीक सबसे महबूब 'अमल वो है जो हमेशा किया जाए भले कम ही हो "
आप के उपर न तो क़ज़ा है न कफ़्फ़ारा यह भी मा'लूम होना चाहिए कि इंसान अगर कोई नेक 'अमल करता रहता है लेकिन बीमारी, मजबूरी या सफ़र वग़ैरा की वजह से कभी उसे नहीं कर पाता तो उस के लिए इस का सवाब लिखा जाता है चुनांचे (जैसा कि) एक हदीष है कि
" जब इंसान बीमार हो जाए या सफ़र में हो तो उस के लिए उस 'अमल का अज्र ओ सवाब लिखा जाता है जो तंदुरुस्त और मुक़ीम (निवासी) होने की हालत में वो क्या करता था "
(सऊदी फ़तवा कमेटी)

*तन्हा (अकेले) चांद देखना*

सवाल 81: अगर किसी शख़्स को यक़ीन हो जाए कि रमज़ान शुरू' हो गया है क्यूंकि उसने चांद देखा है अलबत्ता (लेकिन) वो दारुल-क़ज़ा (या हिलाल कमेटी) को बा-ख़बर (आगाह) करने की इस्तिता'अत (पहुंच) नहीं रखता तो क्या उस के उपर रोज़ा फ़र्ज़ हो जाएगा ?

जवाब 81: इस मसअला में 'उलमा का इख़्तिलाफ़ है बा'ज़ (कुछ) लोग कहते हैं कि उस के उपर रोज़ा फ़र्ज़ है और बा'ज कहते हैं कि फ़र्ज़ नहीं है इस बुनियाद पर कि चांद (हिलाल) इस को कहते हैं जिस के नुमूदार (उदय) होने के वक़्त
शोर हो और लोगों के दरमियान (बीच में) उस की शोहरत हो जाए या यह कि चांद (हिलाल) वो है जिसे ग़ुरूब ए आफ़ताब के बाद देखा जाए चाहे लोगों में उस की शोहरत हो या न हो
मेरी अपनी राय (सलाह) यह है कि जिस ने चांद देखा और उस की रूयत (देखने) पर उसे मुकम्मल (पूरा) यक़ीन है और वो कही दूर-दराज़ (बहुत दूर) 'इलाक़ा में है उस के साथ चांद देखने में कोई और शरीक नहीं है तो उस पर रोज़ा वाजिब है क्यूंकि अल्लाह-त'आला का यह क़ौल 'आम है कि:
 { فَمَن شَہِدَ مِنکُمُ الشَّہْرَ فَلْیَصُمْہ ُ}
" तुम में से जो शख़्स इस महीने को पाले वो इस का रोज़ा रखे "
ऐसे ही नबी ﷺ का यह फ़रमान है: 
’’اِذَا رَاَیْتُمُوْہُ فَصُوْمُوْا‘‘
" कि जब तुम चांद देख लो तो रोज़ा रखो " अलबत्ता (लेकिन) अगर वो शहर में है और दारुल-क़ज़ा (या हिलाल कमेटी) में उस ने गवाही दी और उसकी गवाही रद कर दी गई तो ऐसी सूरत में वो सिर्री तौर पर रोज़ा रखेगा ता कि आम्मतुन्नास (अवाम) की 'अलल-ए'लान (खुल्लम-खुल्ला) मुख़ालिफ़त न हो
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*सौम-ए-विसाल और इस का हुक्म*

सवाल 82: सौम-ए-विसाल किस को कहते हैं ? क्या यह सुन्नत है ?

जवाब 82: सौम-ए-विसाल यह है कि आदमी दो दिन तक रोज़ा रखे और इफ़्तार ने करे दो दिन मुसलसल (लगातार) रोज़े से रहे अल्लाह के नबी ﷺ ने इस से मना फ़रमाया है और कहा है कि जिस को विसाल करना है वो सिर्फ़ सहर (सुब्ह) तक विसाल करे सहर (सुब्ह) तक विसाल करना या'नी रोज़े को जारी रखना महज़ (सिर्फ़)
जवाज़ के दर्जें में है मशरू' नहीं है अल्लाह के रसूल ﷺ ने इफ़्तार में जल्दी करनें की तर्ग़ीब (प्रेरणा) दिलाईं है और फ़रमाया है कि लोग इस-वक़्त तक भलाई में रहेंगे जब तक इफ़्तार में जल्दी करते रहेंगे अलबत्ता (लेकिन) आप ﷺ ने सिर्फ़ सहर (सुब्ह) के वक़्त तक रोज़ा जारी रखने को मुबाह (जाइज़) क़रार दिया है फिर जब सहाबा किराम ने 'अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल आप तो विसाल करते हैं तो आप ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं "
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*वित्र में दु'आ-ए-क़ुनूत छोड़ देना*

सवाल 83: रमज़ान की रातों में वित्र की नमाज़ में दु'आ-ए-क़ुनूत पढ़ने का क्या हुक्म है ? क्या इस को छोड़ना जाइज़ हैं ?

जवाब 83: वित्र में दु'आ-ए-क़ुनूत पढ़ना सुन्नत है अगर कभी इस को किसी ने छोड़ दिया तो कोई हरज नहीं
(शैख़ इब्न बाज़)

*ख़ुर्द-ओ-नोश (खाने पीने) के लिए मो'तकिफ़ (ए'तिकाफ़ करने वालें) का मस्जिद से बाहर जाना और दर्स वग़ैरा के लिए मस्जिद की छत पर जाना*

सवाल 84: जो शख़्स हरम-शरीफ़ में ए'तिकाफ़ करे उसके लिए खाने पीने की ज़रूरत से बाहर निकलना जाइज़ हैं या नहीं ? ऐसे ही दर्स सुनने के लिए उसे मस्जिद की छत पर जाना जाइज़ हैं या नहीं ?

जवाब 84: हां मस्जिद-ए-हराम या किसी और जगह भी कोई ए'तिकाफ़ करे और वो खाने पीने का सामान मस्जिद तक मँगाने पर क़ादिर न हो तो उस के वास्ते (लिए)
वो बाहर निकल सकता है क्यूंकि यह ज़रुरी चीज़ है ऐसे ही वो क़ज़ा-ए-हाजत के लिए निकलेगा और ब-वक़्त ए ज़रुरत ग़ुस्ल-ए-जनाबत के लिए निकलेगा रहा मस्जिद की छत पर जाना तो इस से भी कोई ख़राबी नहीं लाज़िम आएगी क्यूंकि मस्जिद के निचले दरवाज़े से बाहर निकल कर छत पर जाने के लिए महज़ (सिर्फ़) चंद क़दम की ज़रूरत होती है और फिर मस्जिद ही में वापस आना होता है लिहाज़ा (इसलिए) इस में कोई हरज नहीं है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*ग़ैर-मुस्लिमों को रोज़े-दारों के सामने खाने पीने से मना' करना*

सवाल 85: एक कंपनी है जिस के मालिक के पास काम करने वालों में ग़ैर-मुस्लिम भी है क्या कंपनी का मालिक रमज़ान के दिनों में ग़ैर-मुस्लिम मज़दूरों को कंपनी के मुसलमान मज़दूरों के सामने खाने पीने से रोक लगा सकता है ?

जवाब 85: सबसे पहली बात हमें यह कहनी है कि मुसलमानों से अगर काम लेना मुमकिन होतो ऐसी सूरत (स्थिति) में आदमी के लिए ग़ैर-मुस्लिमों से काम लेना मुनासिब नहीं है क्यूंकि मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बेहतर है अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
  { وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَیْْرٌ مِّن مُّشْرِکٍ وَلَوْ أَعْجَبَکُمْ }
" मुसलमान गुलाम भी मुशरिक से बेहतर है भले वो मुशरिक अच्छा मा'लूम हो " 
हां अगर ग़ैर-मुस्लिमों से काम लेने की ज़रुरत आ पड़े तो उस में कोई हरज नहीं अलबत्ता (लेकिन) ब-क़द्र-ए-ज़रुरत ही ऐसा करे रहा मसअला रमज़ान के दिनों में उनके मुसलमान रोज़े-दारों के सामने खाने पीने का तो इस में कोई हरज की बात नहीं क्यूंकि रोज़े-दार मुसलमान तो अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त का शुक्र-गुज़ार होता है कि उस ने इस को इस्लाम से सरफ़राज़ (बुलंद) किया जिस में इस के लिए दुनयवी व उख़रवी स'आदत (भलाई) है वो इस बात पर भी अल्लाह-त'आला का शुक्रिया अदा करता है कि उस ने इस को उन ज़लालतों से महफ़ूज़ रखा जिन में वो लोग मुब्तला हैं जिन्हें (जिनको) अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त के बताए हुए रास्ते पर चलना नसीब नहीं हुआ उस मुसलमान पर रमज़ान के दिनों में
इस दुनिया में खाना न पीना भले शर'अन हराम हुआ लेकिन उसे इस की जज़ा (बदला) क़यामत के दिन मिलेंगी जिस वक़्त उस से कहा जाएगा:
{ کُلُوْا وَاشْرَبُوْا ہَنِیْئاً بِمَا أَسْلَفْتُمْ فِی الْأَیَّامِ الْخَالِیَۃِ }
" मज़े से खाओ पियो अपने उन आ'माल के बदले जो तुम ने गुज़श्ता ज़माने में किए "
अलबत्ता (लेकिन) ग़ैर-मुस्लिमों को 'आम मक़ामात पर खुल्लम-खुल्ला खाने पीने से रोका जाएगा क्यूंकि यह चीज़ मुल्क (सऊदी अरब) की इस्लामी शनाख़्त (पहचान) से मेल नहीं खाती
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:86-90)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*ज़कात के मसाइल*

*फ़क़ीर और मिस्कीन कौन है*

सवाल 86: मिस्कीन (ग़रीब) की क्या ता'रीफ़ (पहचान) है जिसे ज़कात दी जा सकती हैं ?
नीज़ (और) मिस्कीन और फ़क़ीर में क्या फ़र्क़ है ?

जवाब 86: मिस्कीन वो फ़क़ीर है जो अपने अख़राजात (ख़र्चे) पूरे न कर सकता हो और फ़क़ीर उस से ज़ियादा हाजतमंद (ज़रूरतमंद) को कहते हैं और यह दोनों अहल-ए-ज़कात की क़िस्म में से हैं जिन का ज़िक्र अल्लाह-त'आला ने अपने कलाम-ए-पाक में फ़रमाया है: 
 { إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاء وَالْمَسَاکِیْنِ وَالْعَامِلِیْنَ عَلَیْْہَا}
" (ज़कात व ख़ैरात) तो फ़ुक़रा,मसाकीन और उस पर काम करने वालों के लिए है "
और जिस शख़्स की आमदनी (कमाई) इतनी हों कि उस के खाने पीने पोशाक और रिहाइश (घर) को काफ़ी हो ख़्वाह (चाहे) यह वक़्फ़ से हो या कमाई से हों या वज़ीफ़ा से या इसी तरह का कोई और आमदनी का ज़री'आ हो तो इसे फ़क़ीर कहा जा सकता है न मिस्कीन ऐसे शख़्स को ज़कात नहीं दी जा सकती
(शैख़ इब्न बाज़)

*ग़ैर-मुस्तहक़ (ग़ैर-हक़दार) को ज़कात दे दी*

सवाल 87: फ़क़ीर व मोहताज जिसे ज़कात दी जाती है उस के हालात बदलते रहते हैं ऐसी सूरत (स्थिति) में ज़ाबिता क्या है ? और अगर ज़कात अदा करने के बाद यह पता चल जाए कि यह ज़कात तो ग़ैर-मुस्तहक़ (ग़ैर-हक़दार) को दे दी गई तो क्या ऐसी सूरत में दोबारा ज़कात निकाली जाएगी ?

जवाब 87: ज़कात के माल से फ़क़ीर को इतना दिया जाए कि उस के पूरे साल भर के लिए काफ़ी हो अगर ज़कात देने वाले को यह पता चले कि जिसे ज़कात दी गई है वो मुस्तहिक़ (हकदार) नहीं था तो ऐसी सूरत (स्थिति) में उस पर क़ज़ा लाज़िम (ज़रुरी) नहीं है अगर वो शख़्स जिसे ज़कात दी गई है ज़ाहिरी ए'तिबार से फ़क़ीर है
इस सिलसिले में एक हदीष वारिद है कि साबिक़ा (पहली) उम्मतो में से एक शख़्स ने एक आदमी को फ़क़ीर व मोहताज समझकर सदक़ा दिया ख़्वाब में देखा कि वो तो मालदार आदमी है उस ने कहा:
 ’’اَللّٰہُمَّ لَکَ الْحَمْدُ عَلیٰ غِنًی‘‘
नबी-ए-अकरम ﷺ ने यह वाक़ि'आ बयान करने के बाद उस पर कोई नकीर नहीं की और बतलाया कि इस आदमी का सदक़ा मक़बूल है
एक उसूली (बुनियादी) क़ा'एदा (नियम) है कि 
" हम से पहले लोगों की शरी'अत हमारे लिए भी शरी'अत है ब-शर्त-ए-कि (इस शर्त के साथ) हमारी शरी'अत इस के ख़िलाफ़ न वारिद हुई हो "
दूसरे यह कि एक मर्तबा नबी-ए-करीम ﷺ के पास दो आदमी सदक़ा तलब करने के लिए आए आप ﷺ ने देखा कि वो दोनों आदमी तंदुरुस्त और तवाना है आप ने फ़रमाया: अगर तुम चाहो तो मैं दूँ लेकिन यह जान लो कि मालदार तंदुरुस्त और कमाने के लाइक़ आदमी के लिए सदक़ा में कोई हिस्सा नहीं है " 
तीसरे यह कि जुमला पहलूओ से फ़क़ीर के हालात मा'लूम करना बड़ा मुश्किल काम है इस लिए ज़ाहिरी हालत पर इक्तिफ़ा किया जाएगा अगर फ़क़्र (ग़रीबी) का दावा करने वाला ब-ज़ाहिर (देखने में) तंदुरुस्त और कमाने के लाइक़ हो और ज़कात देने वाले के पास इस के फ़क़्र (ग़रीबी) के दा'वा के ख़िलाफ़ कोई दलील न हो तो मज़कूरा हदीष की रू से (वजह से) उस को मुतनब्बे (सावधान) किया जाएगा और इस जैसे शख़्स के बारे में जो शर'ई हुक्म है उसे बयान किया जाएगा
(शैख़ इब्न बाज़)

*मां को ज़कात देना*

सवाल 88: क्या कोई शख़्स अपनी मां को ज़कात दे सकता है ?

जवाब 88: कोई मुसलमान अपने वालिदैन (मां बाप) और अपनी औलाद को अपनी ज़कात नहीं दे सकता बल्कि (किंतु) अगर यह लोग ज़रूरतमंद है और वो उन पर ख़र्च करने पर क़ादिर है तो उन पर ख़र्च करना उस पर वाजिब (ज़रूरी) है
(शैख़ इब्न बाज़)

*भाई बहन और चचा वग़ैरा को ज़कात देना*

सवाल 89: क्या एक भाई का दूसरे मोहताज भाई को ज़कात देना जाइज़ हैं जो 'अयाल-दार (बीवी बच्चों वाला) है और काम तो करता है लेकिन उस की आमदनी (कमाई) उस की ज़रूरत के लिए नाकाफ़ी है
इसी तरह फ़क़ीर चचा को ज़कात देना जाइज़ हैं ?
इसी तरह औरत अपने माल की ज़कात अपने भाई या चचा या बहन को दे सकती है ?

जवाब 89: अगर कोई मर्द या औरत अपनी ज़कात अपने मोहताज भाई या मोहताज बहन या मोहताज चचा या फूफी और बाकी मोहताज रिश्तेदारों को अदा करे तो उस में कोई हरज नहीं क्यूंकि दलाइल में 'उमूम पाया जाता है बल्कि रिश्तेदारों को ज़कात अदा करना सदक़ा भी है और सिला-ए-रहिमी भी चुनांचे (इसलिए) नबी ﷺ ने फ़रमाया:
’’الصَّدَقَۃُ فِی الْمِسْکِیْنَ صَدَقَۃٌ، وَفِیْ ذِی الرَّحِمِ صَدَقَۃٌ وَصِلَۃٌ۔‘‘
" मिस्कीन को सदक़ा देना सिर्फ़ सदक़ा है जब कि रिश्तेदारों को सदक़ा देना सदक़ा भी है और सिला-ए-रहिमी भी "
मा-सिवाए वालिदैन के कि उन्हें ज़कात नहीं दी जा सकती ख़्वाह (चाहे) कितने ऊपर तक चले जाए
(जैसे दादा,पर-दादा वग़ैरा)
और औलाद को भी ज़कात नहीं दी जा सकती ख़्वाह (चाहे) लड़के हो या लड़कियां ख़्वाह वो कितने निचे तक चले जाए
(जैसे पोते पोतियां वग़ैरा) अगरचे वो मोहताज हो बल्कि आदमी पर लाज़िम (ज़रुरी) है कि अपने असल माल से उन पर ख़र्च करे जबकि वो इस की ताक़त रखता हो इस के सिवा कोई मौजूद न हो जो उन पर ख़र्च कर के उन की गुज़र औक़ात (रोज़ी) का ज़री'आ बने
(शैख़ इब्न बाज़)

*भाई बहन को ज़कात देना*

सवाल 90: मेरे कुछ छोटे भाई बहन हैं जिन की तर्बियत ओ कफ़ालत मेरे वालिद साहब की वफ़ात के बाद मेरी वालिदा करतीं हैं क्या उन छोटे भाई बहनों को ज़कात या सदक़ा-ए-फ़ितर दे सकता हूं ?
ऐसे ही मेरे कुछ बड़े भाई बहन भी है जिन के बारे में मुझे मालूम है कि वो उन लोगों से ज़ियादा ज़रूरतमंद है जिन को मैं ज़कात का माल देता हूं तो क्या उन भाईयों को ज़कात दे सकता हूं ?

जवाब 90: जो रिश्तेदार ज़कात के मुस्तहिक़ (हकदार) हो उन को ज़कात देना ज़ियादा अफ़ज़ल हैं ब-निसबत उन लोगों के जो तुम्हारे रिश्तेदार नहीं है क्यूंकि रिश्तेदार पर सदक़ा करना सदक़ा भी है और सिला-ए-रहिमी भी अलबत्ता (लेकिन) जो रिश्तेदार ऐसे हो जिन पर ख़र्च करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है और तुम ने ख़र्च से पैसा बचाने के लिए उन को ज़कात का माल दे दिया तो जाइज़ नहीं पस (इसलिए) अगर तस्लीम (स्वीकार) कर लिया जाए कि तुम्हारे यह भाई बहन जिन का तुम ने तज़्किरा (ज़िक्र) किया वो ज़रूरतमंद है और तुम्हारे पास इतनी गुंजाइश नहीं कि अपने माल से उन पर ख़र्च कर सको तो ऐसी सूरत (स्थिति) में उन को ज़कात का माल देने में कोई हरज नहीं ऐसे ही उन भाई बहनों पर अगर लोगों का क़र्ज़ हो और तुम ने अपनी ज़कात से उन का क़र्ज़ अदा कर दिया तो उस में भी कोई हरज की बात नहीं क्यूंकि किसी शख़्स की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वो अपने रिश्तेदार की जानिब से इस का क़र्ज़ अदा करे पस (इसलिए) ज़कात से इस की अदाएगी दुरुस्त होगी हत्ता कि अगर तुम्हारे बेटे या वालिद के ऊपर क़र्ज़ हो और वो इस की अदाएगी नहीं कर पा रहे है तो अपनी ज़कात के माल से इस क़र्ज़ की अदाएगी तुम्हारे लिए जाइज़ हैं या'नी तुम अपनी ज़कात से अपने वालिद और अपनी औलाद का क़र्ज़ अदा कर सकते हो ब-शर्त-ए-कि वो क़र्ज़ उन ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी की तकमील की ख़ातिर न लिया गया हो जिन की ज़िम्मेदारी ख़ुद तुम्हारे उपर है क्यूंकि ऐसी सूरत (स्थिति) में अपनी ज़कात के माल से यह क़र्ज़ अदा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं इस लिए कि जिस शख़्स पर उस के मातहतों के अख़राजात (ख़र्चे) की ज़िम्मेदारी है वो उन पर ख़र्च करने से परहेज़ करने लगेगा और इस 'अमल (कार्य) को वो हीला (बहाने) के तौर पर इस्ते'माल करेगा कि उस के मातहत क़र्ज़ लेकर अपना काम चलाए फिर उन के क़र्ज़ की अदाएगी यह अपनी ज़कात के माल से करे
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:91-95)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*मक़रूज़ (क़र्ज़-दार) शौहर को ज़कात देना*

सवाल 91: क्या बीवी अपने इस शौहर को अपने ज़ेवरात की ज़कात दे सकती है जो (सरकारी) मुलाज़िम (नौकर) है और इस की तनख़्वाह (पगार) चार हजार रियाल है लेकिन वो तीस हजार रियाल का मक़रूज़ (क़र्ज़-दार) है ?

जवाब 91: 'उलमा के सहीह क़ौल के मुताबिक़ (अनुसार) औरत को अपने ज़ेवरात वग़ैरा की ज़कात अपने शौहर को देने में कोई हरज नहीं अगर वो ग़रीब या ऐसा मक़रूज़ (क़र्ज़-दार) है कि अदाएगी से क़ासिर (मजबूर) है इस की दलील इस बाब में वारिद (मौजूद) होने वाले दलाइल का 'उमूम ('आम) है उन में से अल्लाह-त'आला का यह फ़रमान है:
 { إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاء وَالْمَسَاکِیْنِ وَالْعَامِلِیْنَ عَلَیْْہَا وَالْمُؤَلَّفَۃِ قُلُوْبُہُمْ وَفِی الرِّقَابِ وَالْغَارِمِیْنَ وَفِیْ سَبِیْلِ اللّہِ وَابْنِ السَّبِیْلِ فَرِیْضَۃً مِّنَ اللّہِ } (سورہ توبہ:60)
" दरअस्ल यह सदक़ात ग़रीबों और मिस्कीनों के लिए है और उन लोगों के लिए जो सदक़ात के काम पर मामूर (तैनात) है और उन लोगों के लिए जिन की तालीफ़-ए-क़ल्ब मतलूब हो और गर्दनों को छुड़ाने के लिए (या'नी गुलामों को आज़ाद कर ने के लिए) और क़र्ज़-दारों के लिए और अल्लाह की राह में और मुसाफ़िरों के लिए अल्लाह की तरफ़ से फ़र्ज़ है "
(शैख़ इब्न उसैमीन)

*बीवी के माल की ज़कात निकालना भांजे को ज़कात देना*

सवाल 92: क्या मेरी तरफ़ से मेरे शौहर मेरे माल की ज़कात निकाल सकते हैं यह माल इन्होंने ही मुझे दिया है और क्या मुझे अपनी बेवा (विधवा) बहन के लड़के को ज़कात देना जाइज़ हैं जो नौजवान है और शादी करना चाहता है ?

जवाब 92: अगर आप के पास सोने या चांदी या इस के 'अलावा दूसरे अमवाल ज़कात हो और वो निसाब को पहुंच गए हो या उस से ज़ियादा हो तो उन में ज़कात वाजिब (ज़रूरी) है अगर आप के शौहर आप की तरफ़ से और आप की इजाज़त से ज़कात निकाल दें तो कोई हरज नहीं और ऐसे ही अगर आप की तरफ़ से और आप की इजाज़त से आप के बाप या भाई वग़ैरा ज़कात निकाल दें तो कोई हरज नहीं भांजे को शादी की ख़ातिर ज़कात देना जाइज़ हैं ब-शर्त-ए-कि वो शादी के अख़राजात (ख़र्चे) बरदाश्त कर ने से क़ासिर (मजबूर) हो 
(शैख़ इब्न बाज़)

*मा'मूली ज़कात एक ही ख़ानदान को देना*

सवाल 93: जब इंसान अपने माल की ज़कात निकालें और वो थोड़ी सी हो मसलन (जैसे) दो सो रियाल तो उसे एक ही मोहताज ख़ानदान को देना अफ़ज़ल हैं या कई एक मोहताज ख़ानदानों को ?

जवाब 93: ज़कात अगर थोड़ी हो तो एक ही मोहताज ख़ानदान को दे देना औला (बेहतर) और अफ़ज़ल हैं क्यूंकि ज़ियादा ख़ानदानों में बांटने से उस का नफ़ा' कम रह जाएगा
(शैख़ इब्न बाज़)

*दूकानों, टैक्सियों और उन से होने वाली आमदनी (कमाई) पर ज़कात का हुक्म*

सवाल 94: एक शख़्स के पास दूकान और टैक्सियां है जिन की आमदनी (कमाई) से वो अपने बाल-बच्चों पर ख़र्च करता है और साल-भर (पूरे साल) में कुछ भी नहीं बचा पाता क्या इस माल में उस पर ज़कात है और टैक्सियों और दूकानों में कब ज़कात वाजिब होगी और इस की मिक़दार (मात्रा) क्या होगी ?

जवाब 94: जब यह दूकानें और टैक्सियां कमाई का ज़री'आ हो और उनके किराये (rent) से फ़ाइदा उठाया जाता हो तो उन में ज़कात नहीं मगर जब यह चीज़ें या उन में से कुछ तिजारत के लिए हों तो आप पर ज़कात वाजिब (ज़रूरी) है यह ज़कात तिजारती क़ीमत पर होगी जब कि इस पर साल का 'अर्सा (समय) गुज़र जाए यही सूरत (स्थिति) उन ग़ैर-मनक़ूला जाइदादों के किरायों की है जो तिजारत के लिए हों जब कि उन पर साल का 'अर्सा (समय) गुज़र जाए और अगर आप उस आमदनी (कमाई) को साल पूरा होने से पेशतर (पहले) घर की ज़रूरियात पर ख़र्च कर डालें तो फिर आप पर कोई ज़कात नहीं क्यूंकि इस बारे में जो आयात व अहादीस से दलाइल (दलील) वारिद है उन में 'उमूम ('आम) है
(शैख़ इब्न बाज़)

*बैंक में वक़्तन-फ़-वक़्तन (कभी कभी) जम' (इकट्ठा) की जानें वालीं रक़म की ज़कात का तरीक़ा*

सवाल 95: बैंक में मेरा खाता है उस में एक मुत'अय्यन (निश्चित) रक़म जम' है इस पर में हर माह (महीने) कुछ न कुछ रक़म जम'कर के अस्ल रक़म में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) करता हूं ऐसी सूरत (स्थिति) में क्या अस्ल रक़म की ज़कात के साथ इज़ाफ़ा शुदा रक़म की ज़कात निकालना भी वाजिब (ज़रूरी) है ? अगर वाजिब है तो इस की ज़कात निकालने की क्या सूरत है ?

जवाब 95: जब माल मिक़दार ए निसाब को पहुंच जाए और उस पर एक साल गुज़र जाए तो उस पर ज़कात वाजिब है या'नी उस पर ढाई फ़ीसद (प्रतिशत) ज़कात निकालना वाजिब है और अगर आप ने बैंक के खाते (account) में हर माह कुछ न कुछ रक़म जम' (इकट्ठा) किया है और हर रक़म का 'अलाहिदा-'अलाहिदा (अलग-अलग) तौर पर एक साल होने का हिसाब लगाना मुश्किल है तो आप को चाहिए कि साल के किसी एक माह (महीने) में पूरी
रक़म की ज़कात निकाल दें या'नी एक साल से कम मुद्दत में जम' रक़म की भी फिर आइंदा साल इसी माह में सब की ज़कात निकालें यह सबसे आसान तरीक़ा है
(शैख़ इब्न उसैमीन)

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रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:96-100)

✍...शैख़ अस'अद आज़मी 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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(आख़िरी क़िस्त)
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*जम' (इकट्ठा) किए गए सिक्कों (coins) की ज़कात*

सवाल 96: एक शख़्स 'अरबी और ग़ैर 'अरबी हर तरह के सिक्के महज़ (सिर्फ़) शौक़ के तौर पर जम' (इकट्ठा) करता है उन में से कुछ क़ीमती सिक्के है और कुछ दूसरे भी क्या साल गुज़र जाने पर उन में ज़कात है ?

जवाब 96: जब उन की क़ीमत हद ए निसाब को पहुंच जाए और उन पर साल गुज़र जाए तो उन की ज़कात की अदाएगी लाज़िम (ज़रुरी) है क्यूंकि किताब-ओ-सुन्नत के दलाइल में 'उमूम ('आम) है और यह सिक्के या पैसे नक़दी (कैश) के हुक्म में है जो कि चांदी के सिक्कों के क़ाएम मक़ाम (स्थान) पर होते हैं
(शैख़ इब्न बाज़)

*शादी के लिए जम' (इकट्ठा) की गई रक़म की ज़कात*

सवाल 97: एक शख़्स चंद सालों से अपने बेटे की शादी के लिए रक़म जम' कर रहा है क्या इस के इस माल में ज़कात है ? यह ख़याल रहे कि इस से उस का इरादा महज़ (सिर्फ़) अपने बेटे की शादी करना है ?

जवाब 97: उस पर लाज़िम (ज़रुरी) है कि जो कुछ नक़दी (कैश) उस ने जम' (इकट्ठा) की है उस की ज़कात अदा करे जब कि उस पर साल गुज़र चुका हो अगरचे इस रक़म से उस की निय्यत अपने बेटे की शादी करना हो क्यूंकि जब तक यह रक़म उस के पास है उस की मिलकिय्यत (संपत्ति) है लिहाज़ा (इसलिए) हर साल इस की ज़कात अदा करना लाज़िम है ता-आंकि (यहां तक कि) रक़म शादी में ख़र्च हो जाए इस लिए कि किताब-ओ-सुन्नत के दलाइल में 'उमूम ('आम) है जो इसी बात पर दलालत करतीं है 
(शैख़ इब्न बाज़) 

*मकान के किराया (rent) पर ज़कात का हुक्म*

सवाल 98: एक शख़्स का शहर में अपना मकान है वो इस में रहता नहीं बल्कि (किंतु) उसे किराया पर दिया है और एक दूसरा किराया (rent) का मकान लेकर उस में रहता है जिस का किराया उस के अपने मकान से कम है तो क्या उस के अस्ल मकान पर ज़कात होगी ?

जवाब 98: उस के अपने अस्ल मकान पर ज़कात नहीं क्यूंकि उसने इसे फ़रोख़्त (बिक्री) करने के लिए नहीं बनाया लेकिन इस मकान के किराया पर ज़कात होगी जब कि वो निसाब को पहुंच जाए और इस पर साल गुज़र जाए और इस से पेशतर (पहले) उस ने इसे ख़र्च न किया हो
(शैख़ इब्न बाज़)

*क़ित'अ-ए-ज़मीन (ज़मीन का टुकड़ा) पर ज़कात का हुक्म*

सवाल 99: अगर किसी के पास एक क़ित'अ-ए-ज़मीन हो और वो इस पर मकान ता'मीर करने की ताक़त न रखता हो न ही इस से इस्तिफ़ादा (नफ़ा') कर सकता हो तो क्या इस में ज़कात वाजिब होगी ?

जवाब 99: अगर यह क़ित'अ-ए-ज़मीन (ज़मीन का टुकड़ा) फ़रोख़्त (बिक्री) करने के लिए छोड़ा है तो इस में ज़कात वाजिब है और अगर फ़रोख़्त करने के लिए न हो या इस सिलसिले में तरद्दुद (हिचकिचाहट) हो और कोई बात तय-शुदा (निश्चित) न हो या वो किराया (rent) पर देने के लिए हो तो इस में ज़कात नहीं जैसा कि अहल-ए-'इल्म की इस बारे में सराहत (तफ़्सील) है चुनांचे (जैसा कि) इमाम अबू दाऊद ने समुरा बिन जुंदुब से रिवायत की है वो कहते है कि हमें अल्लाह के रसूल ﷺ ने हुक्म दिया है कि:
’’اَنْ نُخْرِجَ الصَّدَقَۃَ مِمَّا نُعِدُّہٗ لِلْبَیْعِ ‘‘
हम हर उस माल से ज़कात निकालें जिसे हम फ़रोख़्त (बिक्री) करने के लिए तैयार रखते हैं
(शैख़ इब्न बाज़)

*सोने (gold) के क़लम (Pen) का इस्ते'माल और इस की ज़कात*

सवाल 100: मुझे सोने के क़लम (Pen) तोहफ़ा में मिलें हैं उन के इस्ते'माल का क्या हुक्म है ? और उन क़लमों पर ज़कात है या नहीं ?

जवाब 100: सहीह बात तो यह है कि उन का इस्ते'माल मर्दों के लिए हराम है क्यूंकि नबी ﷺ के इस इरशाद में 'उमूम ('आम) है :
’’اُحِلَّ الذَّھَبُ وَالْحَرِیْرُ لِاِنَاثِ اُمَّتِیْ وَ حُرِّمَ عَلیٰ ذُکُوْرِھِمْ‘‘
" सोना और रेशम मेरी उम्मत की औरतों के लिए हलाल और मर्दों पर हराम किए गए है "
रहा उन की ज़कात का मसअला तो अगर यह क़लम हद-ए-निसाब को पहुंच जाए या मालिक के पास और सोना हैं तो उस के साथ मिलकर हद-ए-निसाब पूरा कर दें तो उन पर ज़कात वाजिब (ज़रूरी) होगी ब-शर्त-ए-कि (इस शर्त के साथ) उन पर साल गुज़र चुका हो
(शैख़ इब्न बाज़)

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