इस्लाम कबूल किए जाने वाला धर्म
प्रोफेसर अब्दुल्लाह बैनिल अमरीका
प्रोफेसर बैनिल हैविट अमरीका के एक मशहूर विचारक और लेखक रहे हैं। उनकी गिनती अमरीका के इस्लाम कबूल करने वाले अहम लोगों में की जाती है। उनका इस्लामी नाम अब्दुल्लाह हसन बैनिल है। इस लेख में उन्होंने इस्लाम की उन खूबियों का जिक्र किया है जिनसे वे बेहद प्रभावित हुए।
मेरा इस्लाम कबूल करना कोई ताज्जुब की बात नहीं है न ही इसमें किसी तरह के लालच का कोई दखल है। मेरे खयाल में यह जहन की फितरती तब्दीली और उन धर्मों का ज्यादा अध्ययन करने का नतीजा है जो इंसानी अक्लों पर काबिज है। मगर यह बदलाव उसी शख्स में पैदा हो सकता है जिसका दिल व दिमाग धार्मिक पक्षपात और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठा हुआ हो और साफ दिल से अच्छे और बुरे में अंतर कर सकता हो।
मैं मानता हूं कि ईसाइयत में भी कुछ सच्चे और मुफीद उसूल मौजूद हैं लेकिन इस धर्म में पादरियों ने कई गलत चीजों को मिला दिया। उन्होंने इस तरह इस धर्म की सूरत को बिगाड़ कर रख दिया और इसे बिलकुल बेजान कर डाला। इसके विपरीत इस्लाम उसी मूल शक्ल में मौजूद है जिसमें वह प्रकट हुआ। चूंकि मैं एक ऐसे धर्म की तलाश में था जो मिलावट से पवित्र हो इसलिए मैंने इस्लाम कबूल कर लिया।
आप किसी चर्च में चले जाइए वहां नक्श व निगार, तस्वीरों और मूर्तियों के सिवा आपको कुछ नहीं मिलेगा। इसके अलावा पादरियों के चमकते दमकते वस्त्रों पर नजर डालिए, फिर ननों की भीड़ को देखिए तो उनका रूहानियत से दूर का संबंध भी दिखाई नहीं देता। ऐसा मालूम होता है कि हम किसी इबादत खाने में नहीं बल्कि एक ऐसे बुतखाने में खड़े हैं जो सिर्फ बुतों की पूजा के लिए बनाया गया है। उसके बाद मस्जिद पर नजर डालिए। वहां आपको न कोई मूरत दिखाई देगी और न तस्वीर। फिर नमाजियों की लाइनों पर नजर डालिए। हजारों छोटे बड़े इंसान कंधे से कंधा मिलाए खड़े नजर आएंगे। सच तो यह है कि नमाज में रूकू और सजदों का मंजर इस कदर दिल और नजर को खींचने वाला होता है कि कोई इंसान इससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता।
मस्जिद का पूरा माहौल और उसकी तमाम चीजें रूहानियत (अध्यात्म) की तरफ इंसान की रहनुमाई करती है। न वहां बनावट है और न बुनियादी सजावट।। इसके विपरीत चर्च की तमाम चीजों में भौतिक चमक-दमक का दिखावा बहुत ज्यादा है। हो सकता है कि कुछ लोग ऐतराज करें कि प्रोटेसटेंट धर्म तो इन बुराइयों से पवित्र है और उसने तो अपने गिरजों से बुत और तस्वीरें निकाल फैंकी है, तुमने इस्लाम के बजाय इसे कबूल क्यों नहीं किया। बेशक प्रोटेसटेंट धर्म सच्चे ईसाई मजहब के करीब जरूर है मगर मैं इस विश्वास के बावजूद कि की ईसा मसीह एक पैगम्बर थे हर्गिज उनकी उलूहियत का काइल नहीं। वे मेरी ही तरह एक इंसान थे और मेरी यह आस्था कोई नई नहीं है बल्कि शुरू से ही मैं इसका इजहार करता रहा हूं। जो न सिर्फ हजरत मसीह अलैहिस्सलाम का ही आदर सिखाता है बल्कि दुनिया के तमाम धर्मों और धर्म के मानने वालों के आदर की दावत देता है।
मेरा एक लंबे समय से इस्लाम की तरफ झुकाव था, लेकिन मेरा ईमान इतना मजबूत नहीं हुआ था कि बेधड़क अपने मुसलमान होने का ऐलान कर सकता। यह संकोच किसी समाज या इंसान के डर के कारण नहीं था बल्कि उसकी वजह यह थी कि मैं पूरी तरह इस्लाम की खूबियों से परिचित नहीं था। लेकिन इस्लाम के बारे में जैसे- जैसे इस्लामिक विद्वानों की किताबें पढ़ता गया, मेरी आंखें खुलती गईं। मुझे साफ तौर पर इस धर्म की खूबियां और इसके आखरी पैगंबर मुहम्मद सल्ल. का इंसानों पर एहसान मालूम हो गया और आखिर में मैंने इस मजहब को अपना लिया।
इस्लाम जैसी तौहीद परस्ती (ईश्वर को एक मानना, एकेश्वरवाद) मैंने देखी है, वह किसी दूसरे धर्म में नहीं पाई जाती। इस्लाम के इसी एकेश्वरवाद ने सबसे पहले मुझे इस धर्म की तरफ खींचा। इस्लाम में जो सबसे बड़ी खूबी मैंने पाई वह यह है कि वह सिर्फ रूहानी तरक्की (आध्यात्मिक विकास) की ही बात नहीं करता बल्कि वह दुनियावी तरक्की में भी बहुत बड़ा मददगार है। इस्लाम इंसान को दुनिया छोडऩे और संन्यासी की जिंदगी गुजारने की तालीम नहीं देता बल्कि वह इंसान को दुनियावी जिंदगी को बेहतर बनाने और इसमें कामयाबी हासिल करने की प्रेरणा देता है। इस्लाम धार्मिक मामलों में ही इंसान का मार्गदर्शन नहीं करता बल्कि दुनिया के हर मामले में इंसान को बेहतर रास्ता दिखाता है और उसके हर कदम पर रहनुमाई करता है। इस्लाम ने दुनिया को आखिरत (परलोक) की खेती करार दिया है और इंसान को हुक्म दिया है कि वह धार्मिक कर्तव्यों को निभाने के साथ-साथ दुनिया से जुड़े अपने कर्तव्यों को निभाने में भी कोताही न बरते। सच तो यह है कि मौजूदा वैज्ञानिक दौर में इस्लाम ही अकेला ऐसा धर्म है जो तरक्की पसंद इस दुनिया की सही तौर पर रहनुमाई कर सकता है, इसे सही राह दिखा सकता है।
इस्लाम की बड़ी खूबियों में से एक खूबी यह है कि यह संकुचित सोच और पक्षपात का सख्त विरोधी है। इस्लाम सिर्फ अपने धर्म के मानने वालों के साथ ही मोहब्बत और अच्छे बर्ताव की हिदायत नहीं देता बल्कि वह सब इंसानों के साथ चाहे वह किसी भी धर्म के साथ ताल्लुक रखते हों, हमदर्दी, बराबरी और अच्छे बर्ताव का हुक्म देता है। वह इंसानों को बांटने नहीं बल्कि जोडऩे का पक्षधर है। सच तो यह है कि इस्लाम ने ही इंसानों को पहली बार इंसानियत का सबक सिखाया है।
मैं पिछले पांच सालों से इस्लाम की शिक्षाओं पर अमल कर रहा हूं, इस धर्म से जुड़ी उपासना कर रहा हूं। जिस बात ने मेरे ईमान और यकीन को मजबूती दी है वह इस्लाम के पवित्र और बुलंद उसूल हैं। इसकी विश्वव्यापी भाईचारगी है। उसकी बेमिसाल बराबरी है और उसका इल्म और सादगी है जिसने मेरे दिल व दिमाग में एक नई रोशनी पैदा कर दी है।
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो सिर से पांव तक इल्म व अमल है बल्कि मैं तो कहूंगा कि इस्लाम कबूल किए जाने वाला धर्म है। दूसरी तरफ ईसाइयत ऐसा धर्म है जो न सिर्फ ईश्वर के एक होने यानी एकेश्वरवार का इनकार करने वाला है बल्कि इंसान को दुनिया और उसकी नेमतों से फायदा उठाने से मना करता है। कोई शख्स अगर सही मायने में ईसाई बनना चाहे तो उसे दुनिया से किनारा करके एकांत को अपनाना पड़ेगा। मगर इस्लाम में रहकर हम दुनिया की तमाम राहतों और खुशियों से फायदा उठा सकते हैं। ना हमें मस्जिद के किसी कोने में हरदम बैठे रहने की जरूरत है और न वीरानों में जिंदगी बसर करने की मजबूरी होगी।
अगर इंसान को दुनिया में इसिलिए भेजा गया है कि दुनिया को छोड़कर संन्यासी जिंदगी अपनाए तो उसकी पैदाइश का मकसद समझ में नहीं आता। इंसानी जिंदगी का मकसद क्या है, यह सिर्फ इस्लाम ने समझाया है कि इंसान दुनिया में रहकर कुदरत की हर चीज से फायदा उठाए मगर साथ ही अपने पालनहार और उसकी सृष्टि का भी खयाल रखें।
मैंने जबसे इस्लाम कबूल किया है, दिली सुकून महसूस कर रहा हूं। मेरी दुनिया भी दुरुस्त हो गई है और आखिरत (परलोक) भी। (इंशाअल्लाह)।
(साभार: 'विफाक' एक जून 76
ISLAM QABUL KIYE JANE WALA DHARM
IS ISAI PADRI NE AKHIR APNAYA DHARM KYU BADAL LIYA?
इस इसाई पादरी ने आखिर अपना धर्म क्यों बदल लिया?
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ब्रिटेन के पूर्व कैथोलिक ईसाई पादरी इदरीस तौफीक कुरआन से इतने हुए कि उन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया।
ईमानवालों के साथ दुश्मनी करने में यहूदियों और बहुदेववादियों को तुम सब लोगों से बढ़कर सख्त पाओग। और ईमानवालों के साथ दोस्ती के मामले में सब लोगों में उनको नजदीक पाओगे जो कहते हैं कि हम नसारा (ईसाई) हैं। यह इस वजह से है कि उनमें बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं और इस वजह से कि वे घमण्ड नहीं करते।
जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें आंसुओं से छलकने लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है। वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। (सूरा:अल माइदा ८२-८३)
कुरआन की ये वे आयतें है जिन्हें इंग्लैण्ड में अपने स्टूडेण्ट्स को पढ़ाते वक्त इदरीस तौफीक बहुत प्रभावित हुए और उन्हें इस्लाम की तरफ लाने में ये आयतें अहम साबित हुईं।
काहिरा के ब्रिटिश परिषद में दिए अपने एक लेक्चर में तौफीक ने साफ कहा कि उसे अपनी पिछली जिंदगी और वेटिकन में पादरी के रूप में गुजारे पांच साल को लेकर किसी तरह का अफसोस नहीं है। मै एक पादरी के रूप में लोगों की मदद कर खुशी महसूस करता था लेकिन फिर भी दिल में सुकून नहीं था। मुझे अहसास होता था कि मेरे साथ सब कुछ ठीकठाक नहीं है। अल्लाह की मर्जी से मेरे साथ कुछ ऐसे संयोग हुए जिन्होंने मुझे इस्लाम की तरफ बढ़ाया। ब्रिटिश परिषद के खचाखच भरे हॉल में तौफीक ने यह बात कही।
तौफीक के लिए दूसरा अच्छा संयोग यह हुआ कि उन्होंने वेटिकन को छोड़कर इजिप्ट का सफर करने का मन बनाया।
मैं इजिप्ट को लेकर अकसर सोचता था-एक ऐसा देश जिसकी पहचान पिरामिड, ऊंट, रेगिस्तान और खजूर के पेड़ों के रूप में है। मैं चार्टर उड़ान से हरगाडा पहुंचा। मैं यह देखकर हैरान रह गया कि यह तो यूरोपियन देशों के दिलचस्प समुद्री तटों की तरह ही खूबसूरत था। मैं पहली बस से ही काहिरा पहुंचा जहां मैंने एक सप्ताह गुजारा। यह सप्ताहभर का समय मेरी जिंदगी का अहम और दिलचस्प समय रहा। यहीं पर पहली बार मेरा इस्लाम और मुसलमानों से परिचय हुआ। मैंने देखा कि इजिप्टियन कितने अच्छे और व्यवहारकुशल होते हैं,साथ ही साहसी भी।
ब्रिटेन के अन्य लोगों की तरह पहले मुसलमानों को लेकर मेरा भी यही नजरिया था कि मुसलमान आत्मघाती हमलावर,आतंकवादी और लड़ाकू होते हैं। दरअसल ब्रिटिश मीडिया मुसलमानों की ऐसी ही इमेज पेश करता है। इस वजह से मेरी सोच बनी हुई थी कि इस्लाम तो उपद्रवी मजहब है। काहिरा में मुझे अहसास हुआ कि इस्लाम तो बहुत ही खूबसूरत धर्म है। इसको जिंदगी में अपनाने वाले मुस्लिम बहुत ही सीधे और सरल होते हैं। मस्जिद से नमाज की अजान सुनते ही वे अपना काम-धंधा छोड़कर अल्लाह की इबादत के लिए दौड़ पड़ते हैं। वे अल्लाह की इच्छा और इसकी रहमत पर जबरदस्त भरोसा रखते हैं। वे पाँच वक्त नमाज अदा करते हैं,रोजे रखते हैं,जरूरतमंद लोगों की मदद करते हैं और हज के लिए मक्का जाने की ख्वाहिश रखते हैं। वे यह सब इस उम्मीद में करते हैं कि अल्लाह उन्हें मौत के बाद दूसरी जिंदगी में जन्नत में दाखिल करेगा।
'काहिरा से लौटने के बाद मैं धार्मिक शिक्षा देने के अपने पुराने काम में फिर से जुट गया। ब्रिटेन में धार्मिक विषयों का अध्ययन अनिवार्य विषय के रूप में है। मैं ईसाइयत,इस्लाम,यहूदी,बोद्ध और अन्य धर्मों के बारे में स्टूडेण्ट्स को पढ़ाता था। इस वजह से मुझे इन धर्मों के बारे में अध्ययन करना पड़ता था कि मैं इन्हें इन धर्मों के बारे में बता सकूं । मेरी क्लास में कुछ अरब के मुस्लिम छात्र भी थे। यूं समझिए की इस्लाम के बारे में पढ़ाने के लिए खुद अध्ययन करते वक्त मैंने इस्लाम के बारे में काफी कुछ जाना।'
'अरब के वे मुस्लिम छात्र बहुत ही नम्र,शालीन और व्यवहारकुशल थे। मेरी उनसे दोस्ती हो गई। उन्होंने मुझसे मेरे क्लासरूम में रमजान के महीने के दौरान नमाज पढऩे की इजाजत मांगी। दरअसल मेरे क्लासरूम में कारपेट बिछा होता था। वे नमाज अदा करते और मैं उनको पीछे बैठकर देखता रहता। उनसे प्रेरित होकर मैंने भी रोजे रखे हालांकि अभी मैं मुसलमान नहीं हुआ था।
'एक बार कुरआन का अध्ययन करते वक्त मेरे सामने यह आयत आई-
जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें आंसुओं से छलकने लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है। वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले।
यह आयत पढऩे के बाद मैं यह देखकर हैरान हो गया कि मेरी आंखों से आंसू निकल रहे हैं। मैंने मुश्किल से स्टूडेण्ट्स के सामने अपने आंसू छिपाए।'
और जिंदगी बदल गई
अमेरिका पर 11 सितम्बर 2001 को आतंकी हमला होने के बाद तौफीक की जिंदगी में एक बहुत बड़ा बदलाव आया।
'उन दिनों मैं भी बाहर नहीं निकला और मैंने देखा कि लोग काफी भयभीत थे। मैं भी काफी डरा हुआ था और आशंका थी कि इस तरह के आतंकी हमले ब्रिटेन में भी हो सकते हैं। उस वक्त पश्चिम के लोग इस्लाम से घबराने लगे और उन्होंने आतंकवाद के लिए इस्लाम को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया।'
'हालांकि मेरा तो मुसलमानों के साथ अलग तरह का अनुभव था और मैं इसके लिए इस्लाम को कतई जिम्मेदार नहीं मानता था। मुझे हैरत हुई-इस्लाम इसके लिए जिम्मेदार कैसे हुआ? कुछ सिरफिरे मुस्लिमों द्वारा किए गए इस कुकृत्य के लिए आखिर इस्लाम को दोषी कैसे माना जा सकता है? जब ऐसी ही किसी घटना को कोई ईसाई अंजाम देते हैं तब तो इसके लिए ईसाइयत को जिम्मेदार नहीं माना जाता?
एक दिन मैं इस्लाम के बारे में और भी जानने के लिए लंदन की सबसे बड़ी मस्जिद लन्दन सैन्ट्रल मस्जिद पहुंचा। वहां इस्लाम कबूल कर चुके पूर्व पॉप स्टार यूसुफ इस्लाम एक सर्किल में बैठकर लोगों से इस्लाम के बारे में चर्चा कर रहे थे। वहां पहुंचने के थोड़ी देर बाद मैंने उनसे पूछा- आखिर आपने इस्लाम क्यों कबूल किया?
उन्होंने जवाब दिया-एक मुस्लिम एक ईश्वर में भरोसा करता है। पांच वक्त नमाज अदा करता है। रमजान के रोजे रखता है। मैंने बीच में ही उनको रोकते हुए कहा-मैं भी इन सब में भरोसा रखता हूं और रमजान के दौरान रोजे रखता हूं।,उन्होंने कहा-फिर तुम किस बात का इन्तजार कर रहे हो? कौनसी बात तुम्हें मुसलमान होने से रोके हुए है? मैंने कहा-नहीं, मेरा धर्म-परिवर्तन का कोई इरादा नहीं है।
इसी पल नमाज के लिए अजान हुई और सभी वुजू बनाकर नमाज अदा करने के लिए लाइन में जाकर खड़े हो गए। मैं पीछे की तरफ बैठ गया। मैं मन ही मन चिल्लाया। मन ही मन सोचा आखिर मैं ऐसी बेवकूफी क्यों कर रहा हूं? जब वे नमाज पढ़ चुके तो मैं यूसुफ इस्लाम के पास गया और इस्लाम कबूल करने के लिए कलमा पढ़ाने के लिए उनसे कहा। यूसुफ इस्लाम ने पहले मुझे अंग्रेजी में अरबी कलमे के मायने बताए और फिर मैंने भी कलमा पढ़ लिया- 'अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक नहीं और मुहम्मद सल्ल. अल्लाह के पैगम्बर हैं।'
यह कहते हुए तौफीक की आंखों में आंसू निकल पड़े।
इस तरह तौफीक की जिंदगी ने एक नई दिशा ली। इजिप्ट में रहते हुए तौफीक ने इस्लाम के उसूलों पर एक किताब गार्डन ऑफ डिलाइट लिखी। अपनी इस किताब के बारे में तौफीक ने कहा-हर कोई यह कहता है कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई ताल्लुक नहीं है और इस्लाम नफरत पैदा करने वाला मजहब नहीं है लेकिन वे लोगों को नहीं बताते कि इस्लाम कितना खूबसूरत मजहब है और इसमें इंसानियत से जुड़े कितने अच्छे उसूल हैं। इस वजह से मैंने इस्लाम के आधारभूत उसूलों पर किताब लिखना तय किया। मैं लोगों को बताता हूं कि इस्लाम तो इंसानियत को बढ़ावा देने वाला मजहब है जिसमें सबके साथ बेहतर सलूक करने पर जोर दिया गया है। पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. फरमाते हैं-अपने भाई को देखकर मुस्कराना भी नेकी है।
तौफीक ने बताया कि वे पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. पर एक किताब लिख रहे हैं जो उन पर पहले से लिखी गई किताबों से अलग हटकर होगी। तौफीक का मानना है कि अपनी जिंदगी में इस्लाम के उसूलों को अपनाकर ही दुनिया के सामने इस्लाम को अच्छे अंदाज में रखा जा सकता है। यही अच्छा तरीका है दुनिया के सामने इस्लाम को सही तरीके से पेश करने का।
यह आर्टिकल इजिप्टियन गजट में २ जुलाई २००७ को अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था।
ISAI PADRI APNA RAHE HAI ISLAM
ईसाई पादरी अपना रहे हैं इस्लाम
शायद आप यकीन ना करें लेकिन हकीकत यही है कि इस्लाम की गोद में आने वाले लोगों में एक बड़ी तादाद ईसाई पादरियों की है। यह किताब इसी सच्चाई को आपके सामने पेश करती है। यह ईसाई किसी एक मुल्क या इलाके विशेष के नहीं है, बल्कि दुनिया के कई देशों के हैं। अंगे्रजी की इस किताब में 18 ईसाई पादरियों का जिक्र हैं जिन्होंने सच्चे दिल से इस्लाम की सच्चाई को कुबूल किया और ईसाईयत को छोड़कर इस्लाम को गले लगा लिया।
इस किताब में इनके वे इंटरव्यू शामिल किए गए हैं जिसमें उन्होंने बताया कि आखिर उन्होंने इस्लाम क्यों अपनाया। उनकी नजर में इस्लाम में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्होंने पादरी जैसे सम्मानित ओहदे का त्यागकर इस्लाम को अपना लिया।
पुस्तक में शामिल ये अट्ठारह पादरी ग्यारह देशों के हैं। इनमें शामिल हैं अमेरिका के यूसुफ एस्टीज, उनके पिता, मित्र पेटे, स्यू वेस्टन, जैसन कू्रज, राफेल नारबैज, डॉ. जेराल्ड डिक्र्स, एम. सुलैमान, कनाडा के डॉ. गैरी मिलर, ब्रिटेन के इदरीस तौफीक, ऑस्ट्रेलिया के सेल्मा ए कुक, जर्मनी के डॉ. याह्या ए.आर. लेहमान, रूस के विचैसलव पॉलोसिन, इजिप्ट के इब्राहीम खलील, स्पैन के एंसलम टोमिडा, श्रीलंका के जॉर्ज एंथोनी , तंजानिया के मार्टिन जॉन और ब्रूंडी की मुस्लिमा।
इस्लाम अपनाने वाले ये पादरी वे हैं जिन्होंने हाल ही के दौर में इस्लाम को अपनाया। पढि़ए इस किताब को और जानिए इस्लाम की सच्चाई इन पूर्व पादरियों की जुबान से।
इस किताब को यहां पेश करने का मकसद इस्लाम से जुड़ी लोगों की गलतफहमियां दूर करना और इस्लाम की सच्चाई को बताना है, मकसद किसी भी मजहब का मजाक उड़ाना नहीं है।
क्लिक कीजिए और रूबरू होइए इस किताब से
PRIESTS ACCEPT ISLAM
Eighteen Priests Journey From Church to Mosque
AAKHIR YE TICHER MAHILA MUSLIM KYU HO GAYI?
आखिर ये शिक्षित महिलाएं मुसलमान क्यों हो गईं?
इस्लाम पर आरोप लगाया जाता है कि यह महिलाओं को उनका हक नहीं देता। अगर आप भी ऐसी ही सोच रखते हैं तो आपको यह किताब जरूर पढऩी चाहिए। यह किताब पढि़ए और जानिए आखिर विकसित देशों की इन पढ़ी लिखी महिलाओं ने इस्लाम क्यों अपना लिया?
आखिर इस्लाम में इनको ऐसा क्या लगा कि इन्होंने अपना मूल धर्म छोड़कर इसे कबूल किया और कई तरह की परेशानियों के बावजूद वे इस्लाम पर डटी रहीं। इनको कई तरह से प्रताडि़त किया गया और इनको काफी कुछ खोना भी पड़ा लेकिन इन्होंने इस्लाम का दामन नहीं छोड़ा।इस किताब में जिक्र है दुनिया के विकसित मुल्कों से ताल्लुक रखने वाली अस्सी शिक्षित महिलाओं का जिन्होंने इस्लाम अपनाया।
किताब का नाम है- हमें खुदा कैसे मिला।
पढि़ए इस किताब को और सच्चाई से रूबरू होइए।
हमें खुदा कैसे मिला by islamicwebdunia
SHIRILANKAI ISAI PADRI NE ISLAM QABUL KYA
श्रीलंकाई ईसाई पादरी इस्लाम की शरण में
जॉज एंथोनी श्रीलंका में कैथोलिक पादरी थे। एंथोनी की इस्लाम कबूल करने और अपना नाम अब्दुल रहमान रखने की दास्तां बड़ी रोचक और दिलचस्प है। एक ईसाई पादरी के रूप में उनकी बाइबिल की शिक्षा पर अच्छी पकड़ थी। वे आज भी फर्राटे से बाइबिल की कई आयतों को कोट करते हैं। बाइबिल अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि बाइबिल में कई विरोधाभास हैं। वे सिंहली भाषा में बाइबिल की उन आयतों का जिक्र करते हैं जो संदेहास्पद और विरोधाभाषी हैं।
वे कहते हैं कि बाइबिल में पैगम्बर मुहम्मद सल्ल.की भाविष्यवाणी की गई है। अब्दुल रहमान कहते हैं कि ईसाई ईसा मसीह को गॉड मानते हैं जबकि इसके विपरीत पवित्र बाइबिल में उन्हें एक इंसान के रूप में बताया गया है।
अब्दुल रहमान कहते हैं कि ईसाइयत, बौद्ध धर्म और अन्य दूसरे धर्मों में ईश्वर द्वारा पैगम्बर भेजे जाने की अवधारणा इतनी स्पष्ट और प्रभावी नहीं है बल्कि कई पैगम्बारों के मामले में ये धर्म खामोश हैं जबकि इस्लाम में सभी पैगम्बरों को मानना और उन्हें पूरा-पूरा सम्मान देना जरूरी है। इस्लाम की यह अवधारणा और नजरिया हर किसी को प्रभावित करता है और उस पर अपना असर छोड़ता है।
अब्दुल रहमान कहते हैं कि रोमन कैथोलिक पादरी पर शादी का प्रतिबंध लगाने के पीछे कोई कारण समझ में नहीं आता जबकि ईसाइयों के अन्य कई दूसरे वर्गों के पादरी शादी कर सकते हैं। अब्दुल रहमान ईसाइयत से जुड़े ऐसे ही विरोधाभास और शंकाओं पर विचार मग्र और सोच विचार कर रहे थे कि इस बीच उन्हें एक ऑडियो कैसेट हासिल हुई। यह ऑडियो कैसेट श्रीलंका के ईसाई पादरी शरीफ डी. एल्विस के बारे में थी जिन्होंने ईसाइयत छोड़कर इस्लाम अपना लिया था। इस्लामिक विद्वान अहमद दीदात की कई ऑडियो कैसेट्स से भी अब्दुल रहमान बेहद प्रभावित हुए। वे लगातार सच्चाई की तलाश में जुटे रहे और फिर एक दिन फादर जॉर्ज एंथनी इस्लाम अपनाकर अब्दुल रहमान बन गए।
अब्दुल रहमान श्रीलंका के राथ्नापुरा गांव के बांशिदे हैं और वे काटूमायाका चर्च में पादरी के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। दस साल तक पादरी का प्रशिक्षण लेने के बाद ही जॉर्ज को पादरी का यह पद हासिल हुआ था।
अब्दुल रहमान ने अपनी मां को एक खत लिखा जिसमें उन्होंने अपनी मां को इस्लाम से रूबरू कराया। इस्लाम का कई महीनों तक अध्ययन करने के बाद उनकी मां ने भी इस्लाम अपना लिया। अब्दुल रहमान की एकमात्र बहिन ग्रीस में काम करती है। उनके पिता और बहिन अभी तक ईसाई हैं।
अब्दुल रहमान ने सच्चाई अपनाने की खातिर ईसाई पादरी जैसे बेहद सम्मानजनक ओहदे को छोड़ दिया। उन्होंने आध्यात्मिक सुकून हासिल करने के लिए खुशी-खुशी दुनियावी सुख-सुविधाओं को कुर्बान कर दिया। फिलहाल अब्दुल रहमान इस्लाम प्रेजेंटेशन कमेटी ऑफ कुवैत से जुड़कर इस्लामी प्रशिक्षु के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।