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Firka bandi ka khaatma

फिरकाबंदी का खात्मा और हक कि दावत

शुरु करता हु मैं अल्लाह के नाम से जो बड़ा महेरबान और बहुत रहेम वाला है.

सब तारीफे अल्लाह के लिए है जो तमाम जहाँ का पालने वाला है, हम उसी की तारीफ़ करते है और उसी का शुक्र अदा करते है. अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक (पूजनीय) नहीं है, वह अकेला है और उसका कोई साझी और शरीक (भागीदार) नहीं है. मुहम्मद (स.अ.व.) अल्लाह के बंदे (गुलाम) और रसूल (पयगम्बर / संदेशवाहक) है.

अल्लाह कि बेशुमार रहेमते और सलामती नाझिल जो उनके रसूल (स.अ.व.) पर और उनकी आल-औलाद और उनके साथियो पर.

अम्मा बाद,

फिरकाबंदी क्या है?

फिरकाबंदी का मतलब है कि किसीकी सोच, राय, बात या आमाल कि बुनियाद पर सबसे अलग होकर अपना एक गिरोह या जमात बना लेना.

आजके इस माहोल में अगर आप नजर करे तो आपको मुस्लिम उम्मह में बहोत सारे फिरके मिलेंगे. कोई अपने आपको सुन्नी कहता है, कोई हनफ़ी, हम्बली, मालिकी, शाफई, देवबंदी, बरेलवी, कादरियाह, चिश्तियाह, अहमदिया, जाफरियाह, वगैरह वगैरह. हर एक फिरका एक दूसरे से मुहं मोड़कर अपना अपना मझहब बना लिया है. जबके उनके मझहब के सिद्धांत और आमाल देखे तो वह एक दूसरे से बिलकुल अलग है फिरभी अपने आपको मुसलमान कहते है. हर एक ने अपने अपने इमाम, किताबें, मस्जिदे, मदरसे, और मुसल्ली (नमाजी) बाँट लिए है और यहाँ तक कि अपनी पहेचान के लिए पहनावेमें कुछ ना कुछ खास बातें रख ली है जिसकी बुनियाद पर वह फिरका लोगो से अलग पहेचान लिया जाए. बड़े हैरत कि बात यह है कि हर एक फिरका अपने आपको सिराते मुस्तकीम (सीधे रास्ते) पर जनता है और कहेता है. उनके पास जो इस्लामी सोच है उससे वह खुश है. इस बात को अल्लाहताला ने कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है, “जिन्हों ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरको) में बंट गए, हर गिरोह (फिरका) उसीसे खुश है जो उसके पास है” (सुरह अर् रूम:३२) हर फिरका दूसरे को गुमराह मानता है और अपने आपको सीधे रह पर जानता है. येही बात यहूद और नसारा में भी थी जिसे अल्लाहताला ने कुरआन में बताया है, “यहूद ने कहा ‘नसारा किसी बुनियाद पर नहीं’ और नसारा ने कहा ‘यहूद किसी बुनियाद पर नहीं’ हालाकि वे दोनों अल्लाहताला कि किताब पढते है” (सुरह बकरह:११३)

फिरकाबंदी कि वजह (सबब)
मुस्लिम उम्महमें जो फिरकाबंदी पैदा हुई उसकी तहकिक अगर कि जाए तो यह बुनियादी वजह मिलती है कि हमने अल्लाहताला के कुरआन को और रसूल (स.अ.व.) के फरमान को छोड दिया है. इन दोनों चीजों को छोडकर हमने अपने अपने इमाम, आलिम, मौलवी कि बातों को अपना लिया है और उनके कॉल और हुक्मो को उस हद तक का दरज्जा दिया है कि उनकी तमाम बातो को सच समझ लिया है. आम मुसलमान ने कभी यह कोशिश नहीं कि के इन बातो को कुरआन और हदीस के मुकाबले में रखे या उसकी तहेकिक करे. अगर दूसरे अल्फाज में कहा जाए तो हमने अपने आलिमो को ‘रब’ बना लिया है. अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है, “उन्होंने अपने आलिमो और दरवेशों (संतो) को ‘रब’ बना लिया है.(सुरह तौबा:३१) यह आयत का साफ़ मतलब होता है कि किसी शख्श को इज्जत में वोह मक़ाम देना के उसके हर कौल (शब्द) को आखरी कौल माना जाए तो वह उसकी इबादत करने के बराबर हुआ. क्योकि आखरी कौल तो सिर्फ अल्लाहताला का कौल होता है और उसी की इबादत की जाती है. जब अल्लाहताला कोई फैसला कर देता है और उसे अपने रसूल (स.अ.व.) के जरिये उम्मत में उतरता है तो उसमे तबदील (बदलने) करने और शरई हद कायम करने का किसी और को हक नहीं.

अरब के अइम्मा इमाम अबू हनीफा (र.अ.), इमाम शाफई (र.अ.), इमाम मालिक (र.अ.) और इमाम इब्ने हम्बल (र.अ.) जिनकी ओर हम अपनी निस्बत करते है उन्होंने क्या इस्लाम को छोडकर अपना अलग मजहब बनाया था या बनाने का हुक्म दिया था? हरगिज नहीं बल्कि सभी इमामों का येही कौल था कि अगर हमारी बात कुरआन या हदीस कि बात से टकराये तो हमारी बातो को छोडकर कुरआन या हदीस कि बातों को सीने से लगा लेना. फिर हम उम्मत को क्या हुआ है कि हमें कुरआन कि आयत या सहीह हदीस मिलने के बावजूद सिर्फ अपनी जिद कि वजह से अपने इमामों और आलिमो कि बातों को अपनाये हुए है.

फिरकाबंदी के नुक्शानात
फिरकाबंदी का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि हम अल्लाहताला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर हो जायेंगे. इस बात को कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है.

“जिन लोगो ने अपने दीन के टुकडे टुकडे कर दिए और गिरोह (फिरकों) में बंट गए, (अय नबी) तुमको उनसे कुछ काम नहीं. उनका मामला बस अल्लाह के हवाले है. वही उन्हें बतलायेगा कि वे क्या कुछ करते थे.” (सुरह अल अनाम:१५९)

तो कुरआन कि इस आयत से मालुम हुआ कि अगर हम फिरके बनायेंगे तो अल्लाहताला और उसके रसूल(स.अ.व.) से दूर होकर गुमराह हो जायेंगे और गुमराही का मतलब है हंमेशा के लिए जहन्नम.

फिरकाबंदी कि वजह से हमारे अंदर हक(सच) को तलाश करने का जझबा(तमन्ना) खतम हो जाता है और हम अपने इमाम, पीर या आलिम की बातो को बिना कुरआन और हदीस कि दलाइल के बगैर हक(सच) मानने लगते है. फिर ना हम कुरआन समजने के लिए तैयार होते है और नाही हदीस समजकर उस पर अमल करेने के लिए.

लोग फिरकाबंदी के घरों में अपने आप को बन्द करके अपने इमाम, पीर साहब या आलिम के कौल कि कुंडी लगा लेते है, फिर चाहे आप बाहर से उन्हें कितनी भी कुरआन कि आयत सुनाये या फरमाने रसूल(स.अ.व.) सुनाओ मगर वह उसको मानने के लिए तैयार नहीं होता और अपने बडो के कौल कि कुंडी खोलकर फिरकाबंदी के घर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता.

फिरकाबंदी की वजह से हम मुसलमान लोग आपस में एक दूसरे से नफ़रत करने लगते है और फिर शैतान अपनी चल चलकर हमें आपस में लड़ाता है. हालाकि हम मुसलमान एक उम्मत है और अल्लाहताला नेे हमें एक दीन “इस्लाम” दिया है जो बिलकुल सीधासादा दीन है जिसे कुरआन में कुछ इस तरह बयान किया है,

“तुम इब्राहीम के दीन को अपनाओ जो हर एक से अलग होकर एक (अल्लाहताला) के हो गए थे और मुशरिको में से ना थे” (सुरह आले इमरान:९५) और दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है,

“इब्राहीम न यहूदी थे न नसरानी बल्के सीदे सादे मुसलमान थे और मुशरिक भी न थे.”(सुरह आले इमरान:६७)

फिरकाबंदी का हल (उपाय)
फिरकाबंदी का हल बताते हुए अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है,

“अय एहले किताब, आओ एक ऐसी बात कि ओर जो तुममे और हम में एक सामान है. वह यह कि हम अल्लाहताला के सिवा किसी और कि इबादत ना करे और ना उसके साथ किसी चीज को शरीक करे और ना हममें से कोई एक दूसरे को अल्लाहताला के सिवा किसी को रब बनाये. फिर यदि वोह इससे मुंह मोड ले तो कह दो गवाह रहो हम तो ‘मुस्लिम’ है.” (सुरह आले इमरान:६४)

दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है, “सब मिलकर अल्लाहताला कि रस्सी को मजबूती से पकडो और आपसमे फूंट पैदा न करो” (सुरह आले इमरान:१०३)

अल्लाहताला के रसूल(स.अ.व.) ने भी हमें एक रहने को कहा है और उनकी बुनियादी बात भी बतलाते हुए फरमाया है कि, “मै तुम्हारे दरमियान दो चीजे छोड़े जा रहा हू अगर तुम उनपर अमल करोगे तो कभी गुमराह नहीं होंगे, वह दो चीजे है अल्लाह कि किताब (कुरआन) और मेरी सुन्नत यानी मेरा तरीका (हदीस)” (मोत्ता मालिक:२२५१, रिवायात अबू हुरैरह(रदी.)

अल्लाहताला ने हमें सिर्फ दो लोगो के हुक्म मानने के लिए कहा है, जिसे कुरआन में बताया है कि,

“अल्लाहताला कि इताअत करो और उसके रसूल (स.अ.व.) कि इताअत करो ताकि तुम पर रहम किया जाए.”(सुरह आले इमरान:१३२)

दूसरी जगह फरमाते है, “अय ईमानवालो, अल्लाहताला का हुक्म मानो और रसूल(स.अ.व.) का हुक्म मानो और तुममे जो अधिकारी (सत्ताधीश) है उनकी बात मानो. फिर अगर तुममे किसी बात पर इख्तिलाफ (मतभेद) हो जाए तो उसे अल्लाहताला और रसूल(स.अ.व.) कि ओर लौटा दो अगर तुम अल्लाहताला और आखिरत पर ईमान (यकीन) रखते हो. यह तरीका सर्वश्रेष्ठ है और इसका अंजाम बहेतर है (सुरह निशा:५९)

कुरआन कि यह आयत हमारे बिच के गिरोहबंदी के हल का तरीका बयान करती है.

फिरकाबंदी का अंजाम
अल्लाहताला के कुरआन कि यह आयतें और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के बावजूद अगर हम फिरकाबंदी पर कायम रहे तो अल्लाहताला कुरआन में लोगो को डराते हुए कहते है,

“उस वक़्त को ध्यान(याद) करो जब कि वे लोगो (पीर/इमाम/आलिमो) के पीछे चले थे अपने मुरीदो से अलग हो जायेंगे और अजाब उनके सामने होगा और उनके आपस के सारे नाते टूट जायेंगे. (सुरह अल बकरह:१६६)

याद रखो ! क़यामत के दीन कोई किसी के काम न आएगा. सिर्फ जिद, अहम् और माहौल कि वजह से हक बात का इनकार ना करो और तुम खूब जानते हो कि हक बात सिर्फ कुरान और हदीस है.

आज यह माहोल है कि अगर मैं कोई फिरके में सिर्फ इसलिए हू कि मैंने अपने बाप-दादा को येही करते और कहते देखा है तो जान लो अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है,

“जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाहताला ने जो कुछ उतारा (कुरआन और हदीस) है उसके मुताबिक चलो, तो कहेतें है, नहीं! हमतो उसी के मुताबिक चलेंगे जिस पर हमने बाप-दादा को पाया है, क्या इस हाल में भी के उनके बाप-दादा ना-समज और गुमराह हो? (सुरह अल बकरह:१७०)

और दूसरी जगह अल्लाहताला फरमाते है, “जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज कि तरफ आओ जो अल्लाहताला ने उतारी है (कुरआन) और रसूल (स.अ.व.) कि ओर (हदीस) तो वह कहेते है ‘हमारे लिए वोही काफी है जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है. क्या यदि उनके बाप दादा कुछ भी ना जानते हो और ना रास्ते पर हो तब भी?” (सुरह अल माइदा:१०४)

हमारी दावत
उम्मत के हर फिरके को हमारी दावत है कि हम अपने बनाये हुए मजहब को छोडकर अल्लाहताला के उस दीन कि ओर लौट आए जिस दीन के सिद्धांत और नियम खालिस(सम्पूर्ण) है. जिसे कुरआन और हदीस कि शक्ल में महेफुझ किया गया है और हर फिरका उसे हक जनता है. इसलिए हम अपने आमाल सिर्फ और सिर्फ कुरआन और सुन्नह के मुताबिक बनाये. हर एक फिरका अपना अपना लेबल छोडकर अपने आपको सिर्फ “मुसलमान” कहे और हर एक फिरका अपना अपना बनाया हुआ मजहब छोडकर अल्लाहताला कॉ दीन जो कि इस्लाम है उसे अपनाए.

दिन में पांच बार हम अल्लाहताला से हर नमाज में दुआ करते है कि “हमें सीधे रास्ते पर चला” (सुरह फातिहा:५) तो जब अल्लाहताला ने सीधा रास्ता दिखाया है उससे हटकर हम क्यों फिरकाबंदी करके अपने आपको गुमराह कर रहे है और सीधे रास्ते से दूर हो रहे है.

अल्लाहताला कुरआन में फरमाते है, “उस चीज (कुरआन) को मजबूती से पकडे रहो जो तुम्हारी ओर वही कि जाती है, बेशक तुम सीधे रास्ते पर हो.” (सुरह अज जुखरुफ़:४३)

और दूसरी जगह, “बेशक तुम रसूलों में से हो, निहायत सीधे रास्ते पर.” (सुरह यासीन:३-४)

जब अल्लाहताला ने अपने रसूल (स.अ.व.) को सीधे रास्ते पर होने कि गवाही दी है तो हमें चाहिए कि हम भी अपने आपको रसूल(स.अ.व.) के हुक्मों और आमालो के मुताबिक चलकर सीधे रास्ते पर रहने कि कोशिश करनी चाहिए. हमारे लिए यही बेहतर है, दुनिया और आखिरत में कामयाब होने के लिए. कुरआन को समजो जिसे अल्लाहताला ने आसान किया हुआ है. “हमने कुरआन को समजने के लिए आसान किया है, तो है कोई समजनेवाला?” (सुरह अल कमर:१७,२२,३२,४०) और अल्लाहताला के रसूल(स.अ.व.) के फरमानो को मानो जो हदीस कि शक्ल में है. इसे बुखारी शरीफ, मुस्लिम शरीफ, अबू दावूद शरीफ, तिरमिझी शरीफ, इब्ने माझा शरीफ कहेते है. अल्लाहताला ने हमें दो हाथ दिए और रसूल(स.अ.व.) ने उसी दो हाथों में दो चीजे (कुरआन और हदीस) दी है. अल्लाहताला ने न हमें तीसरा हाथ दिया और नाही रसूल(स.अ.व.) ने हमें तीसरी चीज दी है.

लौट आओ कुरआन और हदीस कि ओर अगर कामयाब होना चाहते हो.
तोड़ दो वोह तमाम बंदिशे जो हमें एक दूसरे से अलग करती है.
छोड़ दीजिए वोह तमाम बाते और अमल जो अल्लाहताला के कुरआन और रसूल(स.अ.व.) के फरमान के खिलाफ हो.
छोड़ दीजिए अपने-अपने आलिमों और मौलवियों कि किताबें और पकड़ लीजिए अल्लाहताला कि किताब (कुरआन)
हम इसी बुनियाद पर एक उम्माह बन सकते है और हमारे बिच मोहब्बत कायम हो सकती है.
अल्लाहताला से दुआ करते है कि हमें इस उम्मत के बिच से फिरकाबंदी खत्म करने कि समज दे और दिने ‘इस्लाम’ पर हमें कायम रखे…. आमीन.

KITNE PANTHO ME BANTA HAI MUSLIM SAMAZ

कितने पंथों में बंटा है मुस्लिम समाज?
सलाहुद्दीन ज़ैन

चरमपंथ और इस्लाम के जुड़ते रिश्तों से परेशान भारत में इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफ़ियों और नुमाइंदों ने एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ हैं. सिर्फ़ इतना ही नहीं बरेलवी समुदाय ने इसके लिए वहाबी विचारधारा को ज़िम्मेदार ठहराया.

इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी की दिलचस्पी इस बात में बढ़ गई है कि आख़िर ये वहाबी विचारधारा क्या है. लोग जानना चाहते हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं.

बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो मुसलमानों को दो हिस्सों-सुन्नी और शिया में बांटा जा सकता है.
हालांकि शिया और सुन्नी भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं.
बात अगर शिया-सुन्नी की करें तो

😊👌👉दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह एक है, मोहम्मद साहब उनके दूत हैं और क़ुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है.

😏लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं. इन दोनों के इस्लामिक क़ानून भी अलग-अलग हैं.
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सुन्नी
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सुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया के लगभग 80-85 प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं जबकि 15 से 20 प्रतिशत के बीच शिया हैं.
सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद के बाद उनके ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) मुसलमानों के नए नेता बने, जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया.
इस तरह से अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी), हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और हज़रत अली (656-661 ईसवी) मुसलमानों के नेता बने.
इन चारों को ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है. इसके बाद से जो लोग आए, वो राजनीतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक एतबार से उनकी अहमियत कोई ख़ास नहीं थी.
जहां तक इस्लामिक क़ानून की व्याख्या का सवाल है सुन्नी मुसलमान मुख्य रूप से चार समूह में बंटे हैं. हालांकि पांचवां समूह भी है जो इन चारों से ख़ुद को अलग कहता है.
इन पांचों के विश्वास और आस्था में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन इनका मानना है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है.
दरअसल सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख स्कूल हैं.
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए. उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए.
ये चार इमाम थे- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी), इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी), इमाम हंबल (780-855 ईसवी) और इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
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🔶हनफ़ी
इमाम अबू हनीफ़ा के मानने वाले हनफ़ी कहलाते हैं. इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून के मानने वाले मुसलमान भी दो गुटों में बंटे हुए हैं. एक देवबंदी हैं तो दूसरे अपने आप को बरेलवी कहते हैं.

👉देवबंदी और बरेलवी
दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, देवबंद और बरेली के नाम पर है.
दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की.
अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था.
मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी थी. देवबंदी विचारधारा को परवान चढ़ाने में मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही, मौलाना क़ासिम ननोतवी और मौलाना अशरफ़ अली थानवी की अहम भूमिका रही है.
उपमहाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है.
देवबंदी और बरेलवी विचारधारा के मानने वालों का दावा है कि क़ुरान और हदीस ही उनकी शरियत का मूल स्रोत है लेकिन इस पर अमल करने के लिए इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है. इसलिए शरीयत के तमाम क़ानून इमाम अबू हनीफ़ा के फ़िक़ह के अनुसार हैं.

वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए तरीक़े को ज़्यादा सही मानते हैं. बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है.
दोनों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन कुछ चीज़ों में मतभेद हैं. जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी. वह हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं.
वहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते. देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं लेकिन उन्हें इंसान मानते हैं. बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदियों के पास इन मज़ारों की बहुत अहमियत नहीं है, बल्कि वो इसका विरोध करते हैं.
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🔶मालिकी
इमाम अबू हनीफ़ा के बाद सुन्नियों के दूसरे इमाम, इमाम मालिक हैं जिनके मानने वाले एशिया में कम हैं. उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 'इमाम मोत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है.
उनके अनुयायी उनके बताए नियमों को ही मानते हैं. ये समुदाय आमतौर पर मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाए जाते हैं.
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🔶शाफ़ई
शाफ़ई इमाम मालिक के शिष्य हैं और सुन्नियों के तीसरे प्रमुख इमाम हैं. मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा उनके बताए रास्तों पर अमल करता है, जो ज़्यादातर मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में रहता है.
आस्था के मामले में यह दूसरों से बहुत अलग नहीं है लेकिन इस्लामी तौर-तरीक़ों के आधार पर यह हनफ़ी फ़िक़ह से अलग है. उनके अनुयायी भी इस बात में विश्वास रखते हैं कि इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
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🔶हंबली
सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, मध्य पूर्व और कई अफ्रीकी देशों में भी मुसलमान इमाम हंबल के फ़िक़ह पर ज़्यादा अमल करते हैं और वे अपने आपको हंबली कहते हैं.
सऊदी अरब की सरकारी शरीयत इमाम हंबल के धार्मिक क़ानूनों पर आधारित है. उनके अनुयायियों का कहना है कि उनका बताया हुआ तरीक़ा हदीसों के अधिक करीब है.
इन चारों इमामों को मानने वाले मुसलमानों का ये मानना है कि शरीयत का पालन करने के लिए अपने अपने इमाम का अनुसरण करना ज़रूरी है.
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🔶सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता और उसका कहना है कि शरीयत को समझने और उसका सही ढंग से पालन करने के लिए सीधे क़ुरान और हदीस (पैग़म्बर मोहम्मद के कहे हुए शब्द) का अध्ययन करना चाहिए.
इसी समुदाय को सल्फ़ी और अहले-हदीस और वहाबी आदि के नाम से जाना जाता है. यह संप्रदाय चारों इमामों के ज्ञान, उनके शोध अध्ययन और उनके साहित्य की क़द्र करता है.
लेकिन उसका कहना है कि इन इमामों में से किसी एक का अनुसरण अनिवार्य नहीं है. उनकी जो बातें क़ुरान और हदीस के अनुसार हैं उस पर अमल तो सही है लेकिन किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस का मानना चाहिए.
सल्फ़ी समूह का कहना है कि वह ऐसे इस्लाम का प्रचार चाहता है जो पैग़म्बर मोहम्मद के समय में था. इस सोच को परवान चढ़ाने का सेहरा इब्ने तैमिया और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब हुआ और उनके नाम पर ही यह समुदाय वहाबी नाम से भी जाना जाता है.
मध्य पूर्व के अधिकांश इस्लामिक विद्वान उनकी विचारधारा से ज़्यादा प्रभावित हैं. इस समूह के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि यह सांप्रदायिक तौर पर बेहद कट्टरपंथी और धार्मिक मामलों में बहुत कट्टर है. सऊदी अरब के मौजूदा शासक इसी विचारधारा को मानते हैं.
अल-क़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन भी सल्फ़ी विचाराधारा के समर्थक थे
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🔶सुन्नी बोहरा
गुजरात, महाराष्ट्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुसलमानों के कारोबारी समुदाय के एक समूह को बोहरा के नाम से जाना जाता है. बोहरा, शिया और सुन्नी दोनों होते हैं.
सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं जबकि सांस्कृतिक तौर पर दाऊदी बोहरा यानी शिया समुदाय के क़रीब हैं.
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🔶❌अहमदिया👊🏻👊🏻
हनफ़ी इस्लामिक क़ानून का पालन करने वाले मुसलमानों का एक समुदाय अपने आप को अहमदिया कहता है. इस समुदाय की स्थापना भारतीय पंजाब के क़ादियान में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी.
इस पंथ के अनुयायियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ख़ुद नबी का ही एक अवतार थे.
उनके मुताबिक़ वे खुद कोई नई शरीयत नहीं लाए बल्कि पैग़म्बर मोहम्मद की शरीयत का ही पालन कर रहे हैं लेकिन वे नबी का दर्जा रखते हैं. मुसलमानों के लगभग सभी संप्रदाय इस बात पर सहमत हैं कि मोहम्मद साहब के बाद अल्लाह की तरफ़ से दुनिया में भेजे गए दूतों का सिलसिला ख़त्म हो गया है.
लेकिन अहमदियों का मानना है कि मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ऐसे धर्म सुधारक थे जो नबी का दर्जा रखते हैं.
बस इसी बात पर मतभेद इतने गंभीर हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानता. हालांकि भारत, पाकिस्तान और ब्रिटेन में अहमदियों की अच्छी ख़ासी संख्या है.
पाकिस्तान में तो आधिकारिक तौर पर अहमदियों को इस्लाम से ख़ारिज कर दिया गया है.

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शिया
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शिया मुसलमानों की धार्मिक आस्था और इस्लामिक क़ानून सुन्नियों से काफ़ी अलग है. वह पैग़म्बर मोहम्मद के बाद ख़लीफ़ा नहीं बल्कि इमाम नियुक्त किए जाने के समर्थक हैं.
उनका मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके असल उत्तारधिकारी उनके दामाद हज़रत अली थे. उनके अनुसार पैग़म्बर मोहम्मद भी अली को ही अपना वारिस घोषित कर चुके थे लेकिन धोखे से उनकी जगह हज़रत अबू-बकर को नेता चुन लिया गया.
शिया मुसलमान मोहम्मद के बाद बने पहले तीन ख़लीफ़ा को अपना नेता नहीं मानते बल्कि उन्हें ग़ासिब कहते हैं. ग़ासिब अरबी का शब्द है जिसका अर्थ हड़पने वाला होता है.
उनका विश्वास है कि जिस तरह अल्लाह ने मोहम्मद साहब को अपना पैग़म्बर बनाकर भेजा था उसी तरह से उनके दामाद अली को भी अल्लाह ने ही इमाम या नबी नियुक्त किया था और फिर इस तरह से उन्हीं की संतानों से इमाम होते रहे.
आगे चलकर शिया भी कई हिस्सों में बंट गए.

🔷इस्ना अशरी
सुन्नियों की तरह शियाओं में भी कई संप्रदाय हैं लेकिन सबसे बड़ा समूह इस्ना अशरी यानी बारह इमामों को मानने वाला समूह है. दुनिया के लगभग 75 प्रतिशत शिया इसी समूह से संबंध रखते हैं. इस्ना अशरी समुदाय का कलमा सुन्नियों के कलमे से भी अलग है.
उनके पहले इमाम हज़रत अली हैं और अंतिम यानी बारहवें इमाम ज़माना यानी इमाम महदी हैं. वो अल्लाह, क़ुरान और हदीस को मानते हैं, लेकिन केवल उन्हीं हदीसों को सही मानते हैं जो उनके इमामों के माध्यम से आए हैं.
क़ुरान के बाद अली के उपदेश पर आधारित किताब नहजुल बलाग़ा और अलकाफ़ि भी उनकी महत्वपूर्ण धार्मिक पुस्तक हैं. यह संप्रदाय इस्लामिक धार्मिक क़ानून के मुताबिक़ जाफ़रिया में विश्वास रखता है. ईरान, इराक़, भारत और पाकिस्तान सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस्ना अशरी शिया समुदाय का दबदबा है.
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🔷ज़ैदिया
शियाओं का दूसरा बड़ा सांप्रदायिक समूह ज़ैदिया है, जो बारह के बजाय केवल पांच इमामों में ही विश्वास रखता है. इसके चार पहले इमाम तो इस्ना अशरी शियों के ही हैं लेकिन पांचवें और अंतिम इमाम हुसैन (हज़रत अली के बेटे) के पोते ज़ैद बिन अली हैं जिसकी वजह से वह ज़ैदिया कहलाते हैं.
उनके इस्लामिक़ क़ानून ज़ैद बिन अली की एक किताब 'मजमऊल फ़िक़ह' से लिए गए हैं. मध्य पूर्व के यमन में रहने वाले हौसी ज़ैदिया समुदाय के मुसलमान हैं.
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🔷इस्माइली शिया
शियों का यह समुदाय केवल सात इमामों को मानता है और उनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं और इसी वजह से उन्हें इस्माइली कहा जाता है. इस्ना अशरी शियों से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माईल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे.
इस्ना अशरी समूह ने उनके दूसरे बेटे मूसा काज़िम को इमाम माना और यहीं से दो समूह बन गए. इस तरह इस्माइलियों ने अपना सातवां इमाम इस्माइल बिन जाफ़र को माना. उनकी फ़िक़ह और कुछ मान्यताएं भी इस्ना अशरी शियों से कुछ अलग है.
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🔷दाऊदी बोहरा
बोहरा का एक समूह, जो दाऊदी बोहरा कहलाता है, इस्माइली शिया फ़िक़ह को मानता है और इसी विश्वास पर क़ायम है. अंतर यह है कि दाऊदी बोहरा 21 इमामों को मानते हैं.
उनके अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे जिसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा है. इन्हें दाई कहा जाता है और इस तुलना से 52वें दाई सैय्यदना बुरहानुद्दीन रब्बानी थे. 2014 में रब्बानी के निधन के बाद से उनके दो बेटों में उत्तराधिकार का झगड़ा हो गया और अब मामला अदालत में है.
बोहरा भारत के पश्चिमी क्षेत्र ख़ासकर गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं जबकि पाकिस्तान और यमन में भी ये मौजूद हैं. यह एक सफल व्यापारी समुदाय है जिसका एक धड़ा सुन्नी भी है.
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🔷खोजा
खोजा गुजरात का एक व्यापारी समुदाय है जिसने कुछ सदी पहले इस्लाम स्वीकार किया था. इस समुदाय के लोग शिया और सुन्नी दोनों इस्लाम मानते हैं.
ज़्यादातर खोजा इस्माइली शिया के धार्मिक क़ानून का पालन करते हैं लेकिन एक बड़ी संख्या में खोजा इस्ना अशरी शियों की भी है.
लेकिन कुछ खोजे सुन्नी इस्लाम को भी मानते हैं. इस समुदाय का बड़ा वर्ग गुजरात और महाराष्ट्र में पाया जाता है. पूर्वी अफ्रीकी देशों में भी ये बसे हुए हैं.
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🔷❌नुसैरी😳
शियों का यह संप्रदाय सीरिया और मध्य पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है. इसे अलावी के नाम से भी जाना जाता है. सीरिया में इसे मानने वाले ज़्यादातर शिया हैं और देश के राष्ट्रपति बशर अल असद का संबंध इसी समुदाय से है.
इस समुदाय का मानना है कि अली वास्तव में भगवान के अवतार के रूप में दुनिया में आए थे. उनकी फ़िक़ह इस्ना अशरी में है लेकिन विश्वासों में मतभेद है. नुसैरी पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते हैं और कुछ ईसाइयों की रस्में भी उनके धर्म का हिस्सा हैं.
इन सबके अलावा भी इस्लाम में कई छोटे छोटे पंथ पाए जाते हैं.