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ज़कात के मसाइल

 ज़कात के मसाइल

तरतीब: शैख़ अस'अद आज़मी

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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ज़कात दीन ए इस्लाम का तीसरा रुक्न (खम्बा) है

इस्लाम का मख़्सूस (विशेष) शि'आर (पहचान) और अहम तरीन 'इबादत हैं क़ुरआन की नज़र में ज़कात देना मुसलमानों की इम्तियाज़ी (विशेष) शान और अहल-ए-हक़ और नेकू-कारों का ख़ास शि'आर (पहचान) है जबकि ज़कात न देना मुशरिकों और मुनाफ़िक़ों का शेवा (आदत) है ज़कात ईमान की कसौटी और इख़्लास ओ सदाक़त की निशानी है
क़ुरआन जहां ज़कात देने वालों के लिए ख़ैर-ओ-बरकत और अज्र ओ सवाब का वा'दा करता है वहीं ग़रीबों की हक़-तलफ़ी करने और अपनी तिजोरियां भर ने वालों के लिए हौल-नाक (भयानक) और सख़्त तरीन व'ईदों का ए'लान भी करता है
किताब-ओ-सुन्नत की नुसूस (स्पष्ट प्रमाण) में ज़कात के अहकाम ओ मसाइल को पूरी तफ़्सील के साथ बयान कर दिया गया है इसी रौशनी-में (सामने रख के) एक मुसलमान अपने माल-ओ-अस्बाब का हिसाब लगाता है और फ़रीज़ा-ए-ज़कात की अदाएगी करता है
इस मुख़्तसर तहरीर (लेख) में ज़कात से मुत'अल्लिक़ (बारे में) ब-कसरत (अधिक) पेश आने वाले मसाइल बिल-ख़ुसूस (खास तौर पर) करेंसी नोटों और तिजारती सामानों के त'अल्लुक़ से कुछ ज़रुरी मा'लूमात (जानकारी) इकट्ठा कर दी गई है जिन के सिलसिले में 'आम तौर से (अधिकतर) लोग तज़ब्ज़ुब (शक) और उलझन का शिकार रहा करते हैं

*निसाब*

सोने (gold) चांदी और रूपये पैसे में उस वक़्त ज़कात फ़र्ज़ होती है जब कि वो निसाब को पहुंच जाए और उन पर हौलन हौल हो चुका हो (या'नी जिस रोज़ (दिन) से आदमी निसाब का मालिक हुआ है उस रोज़ से एक साल की मुद्दत गुज़र चुकी हो)
" निसाब " से मुराद (मतलब) यह है कि माल इतनी मिक़दार (मात्रा) में हो जिस पर शरी'अत ने ज़कात फ़र्ज़ किया है
और वो हस्ब-ज़ेल (नीचे दिए गए विवरण के अनुसार) है:
(1) चांदी: चांदी का निसाब ब-मूजिब (मुताबिक़) हदीस-ए-रसूल 200 दिरहम है 'अस्र-ए-हाज़िर (मौजूदा-ज़माने) में राइज (चालू) पैमाने (माप) के ए'तिबार से एक दिरहम का वज़्न 2.975 ग्राम बताया गया है इस हिसाब से 200 दिरहम का वज़्न
(2.975 × 200=) 595 ग्राम चांदी क़रार पाएगा अब अगर किसी शख़्स के पास 595 ग्राम या उस से ज़ाइद (अधिक) ख़ालिस (शुद्ध) चांदी हो और उस पर साल गुज़र चुका हो तो उस पर ढाई फ़ीसद (प्रतिशत) या'नी चालीसवाँ हिस्सा ज़कात निकालेगा मसलन (जैसे) अगर ख़ालिस (शुद्ध) चांदी का दाम (भाव) बाज़ार में
70 000 (सत्तर-हज़ार) रूपया किलो है तो 595 ग्राम चांदी का दाम (भाव) (ब-हिसाब एक ग्राम बराबर = / 70 × 595 =) 41650, रूपया हुआ और इस पर ढाई फ़ीसद या'नी 1041 / = रूपया ज़कात हुई
(2) सोना: सोने (gold) का निसाब 20 दीनार या मिस्क़ाल है तहक़ीक़ के मुताबिक़ (अनुसार) एक दीनार का वज़्न 4.25 ग्राम बताया जाता है इस हिसाब से 20 दीनार का वज़्न (4.25 × 20 =) 85 ग्राम सोना क़रार पाएगा
अब अगर किसी शख़्स के पास 85 ग्राम या उस से ज़ाइद (अधिक) ख़ालिस (शुद्ध) सोना हो और उस पर साल गुज़र चुका हो तो उस पर ढाई फ़ीसद या'नी चालीसवाँ हिस्सा ज़कात होगी मिसाल के तौर पर अगर ख़ालिस सोने का दाम बाज़ार में 5200 फ़ी (प्रति) ग्राम है तो 85 ग्राम सोने का दाम (भाव) (ब-हिसाब 5200 × 85 =) 442000 रूपया हुआ अब इस पर ढाई फ़ीसद या'नी 11050, रूपया ज़कात हुई
(3) करेंसी नोट: आज के दौर में कारोबार (व्यापार) और लेन-देन वग़ैरा में करेंसी नोटों का रिवाज (चलन) 'आम (अधिक) है रूपया,पौंड,डॉलर,रियाल और बहुत सारी करेंसीयां राइज (प्रचलित) है सोने के दीनार और चांदी के दिरहम के बदल के तौर पर यह करेंसीयां इस्ते'माल होती है इन करेंसीयों का सोने या चांदी की क़ीमत से मुवाज़ना (बराबरी) किया जाएगा पस (इसलिए) अगर ब-क़द्र-निसाब हो तो ब-तफ़्सील मज़कूर (उल्लेखित) उन करेंसीयो की भी ज़कात निकाली जाएगी
*तंबीह* (चेतावनी): वाज़ेह (स्पष्ट) रहे कि इस वक़्त सोना और चांदी के दाम (भाव) में काफ़ी (बहुत) तफ़ावुत (फ़र्क़) है जैसा कि ऊपर की मिसालों में आप ने मुलाहज़ा किया होगा कि चांदी का निसाब (सत्तर-हज़ार रूपया फ़ी (प्रति) किलों अगर दाम है तो) 41650, रूपया होता है जबकि सोने (gold) का निसाब (अगर 5200/= रूपया फ़ी (प्रति) ग्राम है तो) 442000, रूपया होता है
ऐसी सूरत (स्थिति) में जम' (इकट्ठा) कर्दा रूपये निसाब को कब पहुंचेंगे 41560/ = पर या 442000, पर ?
इस सिलसिले में अहल-ए-'इल्म के दोनों तरह के अक़्वाल (कथन) मिलते है कुछ लोगों ने काग़ज़ी नोटों के निसाब के सिलसिले में सोने (gold) के निसाब को अस्ल क़रार दिया है लेकिन अकसरिय्यत (बहुसंख्यक) इस बात के क़ाइल है कि चूंकि चांदी का निसाब मुत्तफ़क़-'अलैह (सर्वमान्य) और साबित " بالسنۃ المشہورۃ " है और इस को इख़्तियार करने से फ़क़ीरों और मोहताजों की ज़रूरत पूरी करने में ज़ियादा मदद मिलेगी साथ ही साथ एहतियात (सावधानी) का भी यही तक़ाज़ा है कि इख़्तिलाफ़ (मतभेद) और
शक-ओ-शुब्हा से बचते हुए चांदी के निसाब को अस्ल माना जाए या वक़्त और ज़माने का लिहाज़ करते हुए यह काग़ज़ी नोट सोने और चांदी में से जिस निसाब को पहले पहुंच जाए उन की ज़कात निकाली जाए
(4) सामान-ए-तिजारत: तिजारती मक़ासिद (उद्देश्य) से जम' (इकट्ठा) किए हुए सामानों में भी निसाब को पहुंचने और हौलान हौल (साल गुज़र ने) पर ज़कात वाजिब होती है मौजूदा दौर में इस जानिब (तरफ़) से बड़ी ग़फ़लत है और 'आम तौर पर (ज़्यादातर) दुकानदार हज़रात इस तरफ़ तवज्जोह (ध्यान) नहीं देते
तिजारती सामानों की ज़कात अदा करने का तरीक़ा यह है कि दुकानदार अपनी पूँजी (संपत्ति) का तख़मीना (अनुमान) लगाएं और दुकान या और जहां भी दुकान का सामान है इस की क़ीमत लगाएं अगर यह क़ीमत निसाब को पहुंचती है तो साल पूरा होने पर इस में ढ़ाई फ़ीसद ज़कात अदा करे लिहाज़ा (इसलिए) हर दुकानदार को चाहिए कि साल में एक बार बित्तफ़्सील (विस्तार से) दुकान का हिसाब करे और अपने पास मौजूद सामान ए तिजारत की मालिय्यत (क़ीमत) मुक़र्रर (निश्चित) कर के इस को नोट कर लें और फिर साल पूरा होने के बाद (अगर निसाब में है तो) इस में ढाई फ़ीसद ज़कात निकाले 
दुकानदार का मु'आमला बड़ा पुर-पेच (पेचीदा) होता है नक़्द (कैश) उधार, बक़ाया (बचा हुआ) और इस तरह के दसियों मसाइल दर-पेश (सामने) होते हैं जिन की वजह से दुकान की मालिय्यत (क़ीमत) का अंदाज़ा लगानें में काफ़ी दुश्वारी (मुश्किल) पेश (सामने) आतीं हैं
मौलाना अब्दुल्लाह सऊद सलफ़ी (नाज़िम जामि'आ सलफ़िआ बनारस) ने इन मसाइल को सामने रखते हुए बड़ी 'उम्दा तहक़ीक़ फ़रमाइ है और दुकानदारों के मसाइल को बड़ी हद तक 'अमल के लिए आसान बना दिया है ज़ैल-में (नीचे) इन की तहरीर (लेख) मुलाहज़ा फ़रमाए :
" तिजारत में अपनी अस्ल पूँजी या सरमाया पर ही ज़कात है आजकल कारोबार उधार लेन देन पर भी चलता है जिस की वजह से दूसरे की रक़म भी अपने सरमाया के साथ कारोबार में लगी होती है इस को अलग कर ने के बाद जो अपनी ख़ास अस्ल रक़म हो उसी पर ज़कात है
मसलन: (जैसे) आप ने कुछ रूपये से कारोबार शुरू' किया इस से कुछ माल ख़रीदा और कुछ उधार लिया और गाहक (ग्राहक) को माल बेच दिया गाहक (ग्राहक) से आप को कुछ (payment) मिला इस से फिर माल ख़रीदा और फिर किसी को बेचा इस तरह से कारोबार चलता है एक साल बाद जब ज़कात निकालने का वक़्त आया तो अब मसअला पैदा हुआ कि कितनी ज़कात होनी चाहिए और इस को कैसे निकाला जाए
तो आइए जरा जोड़ा जाए 
मुंदरिजा-ज़ेल (निम्नलिखित) बातें ध्यान में रखनी होगी
(1) आप के पास कुछ स्टॉक है मसलन (जैसे): (इस की क़ीमत है)
10,000 Rs/
(2) गाहक (ग्राहक) को माल बेचा है उस का पैसा अभी मिलना बाकी है मसलन (जैसे): 1,70,000 Rs 
(3) दूसरे से माल ख़रीदा है उस को पैसा देना बाकी है मसलन (जैसे):
1,00,000 Rs 
(4) आप के पास कुछ नक़्द (कैश) मौजूद है मसलन (जैसे):
2000 Rs 
(5) कुछ बैंक बैलेंस है मसलन:
10,000 Rs 
(6) कुछ payment में चेक मिला है जिस का वक़्त अभी नहीं आया है मसलन (जैसे): Rs 25000
(7) कुछ रक़म किसी को उधार दी है जो मिलनी बाकी है मसलन:
  Rs.5000
(8) कुछ माल ख़राब हो गया इस के बिकने की उम्मीद नहीं मसलन:
30000 Rs 
(9) कुछ माल ख़राब हो गया है जो कम दाम में बिकेगा मसलन:
1000 Rs चार हजार का 25% में
(10) कुछ गाहक (ग्राहक) बे-ईमान हो गए रक़म डुबने का ख़तरा है मसलन: 10,000 Rs
(11) कुछ दूसरे की रक़म भी अपने कारोबार में लगा रखी है मसलन:
40,000 Rs
(12) कुछ अपनी रक़म दूसरी जगह भी invest कर रखीं हैं मसलन: 30,000 Rs
मुंदरिजा-ए-बाला (ऊपर लिखा हुआ) तमाम कारोबारी चीज़ों को और नक़्द (कैश) वग़ैरा को दो हिस्सों में बाँटा जाएगा एक लेना या'नी जो हम को मिलना है या हमारा है दूसरा देना जो दूसरे का है या मिलने की उम्मीद नहीं आगे मज़कूरा सीरियल नंबर के मुताबिक़ (अनुसार) लिख रहा हो ताकि समझने में आसानी हो

*देना*

(3) दूसरे का देना: 100,000 Rs
(8) डेड स्टॉक: नहीं बिकेगा: 30,000 Rs
(10) गाहक (ग्राहक) के यहां फँस गया : 10,000 Rs
(11) दूसरे की रक़म जो अपने कारोबार में लगी है: 40,000 Rs
टोटल देना: 1,80,000 Rs

*लेना*

(1) स्टोक: 10,000
(2) गराह (ग्राहक) से लेना:
1,70,000
(4) नक़्द (कैश) मौजूद: 2000
(5) बैंक बैलेंस: 10,000
(6) पोस्ट डेट चेक: 25,000
(7) रक़म उधार दी है: 5000
(9) चार हजार रूपये का ख़राब माल जो चौथाई में बिकेगा: 1000
(12) रक़म जो दूसरी जगह लगी है: 30,000
टोटल लेना: 2,53,000
देना की रक़म कम किया: 1,80,000
कुल अपनी रक़म हुई: 73,000
जिस पर ढाई फ़ीसद या'नी 1825, रूपये ज़कात हुई
जो रक़म गाहक (ग्राहक) के यहां फंस गई है अगर दो तीन साल बाद मिल जाए तो इस साल की ज़कात निकालते वक़्त इस को अपने सरमाया (पूंजी) में सामिल कर के इसी साल की ज़कात देंगे वक़्फ़ा के साल की ज़कात नहीं होनी चाहिए क्यूंकि हमारे इख़्तियार में नहीं थी

*मसारिफ़-ए-ज़कात*

ज़कात किन किन लोगों को दी जाएगी इस को क़ुरआन में सराहत से (खोल कर) बयान कर दिया गया है सूरा अत्-तौबा की आयत नंबर "60" में कहा गया है " सदक़ात (ज़कात) (1) फ़क़ीरों के लिए है
(2) मिस्कीनों के लिए है और
(3) उन लोगों के लिए है जो ज़कात की बाबत काम करते है (मसलन वुसूल करना इसे लिखना पढ़ना या इस की हिफ़ाज़त व तक़सीम वग़ैरा का काम) और (4) उन लोगों के लिए जिन के दिल को ढारस बाँधनी हो (मसलन नौ-मुस्लिम या वह काफ़िर जिस को इस्लाम की तरफ़ माएल (आकर्षित) करना मक़्सूद हो) और (ज़कात सर्फ़ (ख़र्च) की जाएगी) (5) गर्दन आज़ाद कराने में और (6) क़र्ज़-दार के क़र्ज़ अदा करने में और (7) अल्लाह के रास्ते में और (8) मुसाफ़िर (की मुसीबत दूर करने) के लिए यह अल्लाह की तरफ़ से बाँधा हुआ फ़रीज़ा है और अल्लाह जानने वाला और हिकमत वाला है ( सूरा अत्-तौबा आयत नंबर: 60)

मसारिफ़-ए-ज़कात के सिलसिले में चंद उमूर (मसले) क़ाबिल-ए-तवज्जोह (ध्यान देने योग्य) है:
(1) ज़कात के अव्वलीन हक़दार वहीं के लोग है जहां की ज़कात है अलबत्ता (लेकिन) अगर वहां की ज़रूरत से ज़ाइद (अधिक) हो या यह कि दूसरी जगह के लोगों को कोई सख़्त ज़रूरत पेश आ जाए मसलन (जैसे) क़हत-साली (अकाल) और भुक-मरी वग़ैरा तो ऐसी सूरत (स्थिति) में इसे उन दूसरे इलाकों में मुंतक़िल किया जा सकता है
(2) अपने अ'इज़्ज़ा-ओ-अक़ारिब (relatives) अगर ज़कात के मुस्तहिक़ (हकदार) है तो सदक़ा,ख़ैरात व ज़कात में सबसे पहले उन ही का हक़ है और इस तरह सदक़ा करने वालों को दोहरे (double) सवाब की बशारत (ख़ुशख़बरी) दी गई है एक सदक़ा का सवाब दूसरे सिला-ए-रहिमी का 
(3) अलबत्ता (लेकिन) ज़कात उन रिश्तेदारों को नहीं दे सकते जिन की कफ़ालत (परवरिश) की ज़िम्मेदारी ख़ुद ज़कात देने वाले पर है जैसे औलाद, बीवी,वालिदैन (मां बाप) 
(4) ग़ैर-मुस्लिम को ज़कात का माल नहीं दिया जाएगा इल्ला (लेकिन) यह कि वो "مؤلفۃ القلوب"
में से हो या'नी इसे इस्लाम की तरफ़ राग़िब (आकर्षित) करना हो
(5) अगर शौहर फ़क़ीर होतो बीवी अपने माल की ज़कात शौहर को दे सकती है
(6) अगर किसी शख़्स ने किसी आदमी को मुस्तहिक़ (हक़दार) समझ कर ज़कात दे दिया और उसे बाद में मा'लूम हुआ कि वो मुस्तहिक़ (हक़दार) नहीं था तो वो अपने फ़र्ज़ से सुबुक-दोश (मुक्त) हो गया अलबत्ता (लेकिन) ज़कात देने से पहले मा'लूमात (जानकारी) कर लेनी चाहिए
(7) अगर किसी मुसलमान का किसी ग़रीब शख़्स पर क़र्ज़ हो तो यह जाइज़ नहीं कि इसे ज़कात में शुमार (गिनती) कर के उसे क़र्ज़ से बरी कर दे

*क़र्ज़*

अगर किसी शख़्स का माल दूसरों के पास बतौर क़र्ज़ के हो ख़्वाह (चाहे) वो नक़्द (कैश) हो या सामान ए तिजारत की शक्ल में तो ऐसा शख़्स अपने पास मौजूदा माल की ज़कात निकालते वक़्त देखेगा कि दूसरों के ज़िम्मा इस का जो क़र्ज़ है उस के मिलने की उम्मीद है या नही अगर उम्मीद होतो इस क़र्ज़ को शुमार (गिनती) कर के अपने पास मौजूदा माल या सामान ए तिजारत में सामिल कर लेगा और कुल की ज़कात निकालेगा
लेकिन अगर इस का क़र्ज़ ऐसी जगह है जहां से मिलने की उम्मीद कम है मसलन ऐसे शख़्स के यहां है जो इस का इंकार कर रहा है या इंकार नहीं कर रहा है मगर इस-क़दर मफ़लूक-उल-हाल (ग़रीब) है कि इस से क़र्ज़ अदा करने की तवक़्क़ो' (उम्मीद) नहीं है तो ऐसे क़र्ज़ की ज़कात उस रोज़ अदा करेगा जब वो इस के हाथ में आजाएं और कई साल के बाद मिलने पर भी सिर्फ़ एक साल की ज़कात अदा करेगा
 वल्लाहु-आ'लम

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