लेखक: शैख़ अब्दुल सलाम उमरी मदनी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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हिंदुस्तान के किसी भी 'इलाक़ा में क़त्ल होता, ख़ून बहता, घर ढाए जाते हैं तो और 'इलाक़ों के मुसलमान क्या करते हैं ?
सिवाए (सिवा) दु'आ या चंदा के कुछ और तो करते नहीं वही तो 'अरब कर रहे हैं फ़र्क़ यह है कि वहां हुक़ूमते हैं जी कौन-सी हुक़ूमत के पास अमरीका ब्रतानिया (ब्रिटेन) जैसी टेक्नोलॉजी है दुनिया में हिंदुस्तान, जापान और चीन भी उनसे दबते हैं बे-चारे 'अरब क्या कर सकेंगे ?
मुफ़्त में मशवरा (सलाह) देना आसान है लेकिन अमलन कुछ करना जू-ए-शीर लाने (बहुत मुश्किल काम अंजाम देने) से कम नहीं।
अपने घर, बस्ती (गांव) और मुल्क (देश) में हम कितने मुसलमानों को ज़ालिमाना जेलों और इन्काउन्टर से बचाने में लगे हुए हैं ?
क्या अभी तीन माह (महीने) क़ब्ल (पहले) हरियाणा में घर जल रहे थे और हम प्रोग्रामों में बिरयानी-व-फ़िर्नी नोश नहीं फ़रमा रहे थे ?
यही तो हमेशा होता रहा है हां तक़रीरें बड़ी दिल-सोज़ (भावुक) होती हैं और दौरान-ए-तक़रीर ही बिरयानी की बू (सुगंध) गुदगुदाहट (बेचैनी) पैदा करने लगती है
चीन, रशिया, ने कई मुस्लिम 'इलाक़े क़ब्ज़ कर लिए स्पैन, रोहिंग्या (अराकान) और कई मुस्लिम 'इलाक़े हम ने खो दिए रोहिंग्या मुसलमानों पर ज़ुल्म कुछ कम न था फ़िलिस्तीन भी एक दर्द की दास्तान (घटना) है और यह कोई अनोखा हादिसा (दुर्घटना) नहीं।
ऐसे हालात में हर शख़्स पर फ़र्ज़ (ज़रूरी) है कि वो अपनों की फ़िक्र, हमदर्दी, कोशिश, दु'आ, नसीहत करे उख़ुव्वत (दोस्ती) का ख़याल रखे 'अरब-ओ-'अजम की इस्लाह की बात करे इस के लिए दु'आ करे न कि एक दूसरे की पगड़ी उछाले (बे-'इज़्ज़त करें) और अपने दिल के फफोले फोड़े (ता'ना देना)
इख़्तिलाफ़ात (मतभेद) हैं रहेंगे लेकिन जब मुसीबत उम्मत पर आती है तो उस वक़्त इस्लामी उख़ुव्वत (भाईचारे) पर बात करनी चाहिए हत्तल-मक़दूर (जहाँ तक शक्ति है) नुसरत-ओ-त'आवुन (मदद) की बात होनी चाहिए ऐसे में एक दूसरे पर तंज़-ओ-ता'न (कटाक्ष) करना या तो बेवुक़ूफ़ी (मूर्खता) है या मुनाफ़क़त है।
यह एक हक़ीक़त है कि सलफ़ी 'उलमा या तो ख़ामोश (चुप) रहते हैं या दु'आ करते हैं चूँकि (क्यूँकि) हालात क़ाबू से बाहर हैं कोई सलफ़ी 'आलिम किसी मुल्क या किसी 'आलिम को मुत्तहम (बद-नाम) नहीं करता लेकिन जब लोग ख़्वाह-मख़ाह (ज़बरदस्ती) के सलफ़ी 'उलमा की पगड़ी उछालते हैं तो इंसाफ़-पसंद दिफ़ा' (बचाव) में उतरने पर मजबूर हैं।
फ़िलिस्तीन के मसअला (समस्या) में आज-तक जितना सउदिया और सऊदी 'उलमा के ख़िलाफ़ में लिखते हुए या बोलते हुए मैंने देखा इस का 'अशर-ए-'अशीर (दसवां हिस्सा) भी किसी दूसरे मुल्क या दूसरे मकतब-ए-फ़िक्र (संप्रदाय) के ख़िलाफ़ में नहीं कहा गया क्यूंकि कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी (राज़दारी) है अगर सऊदी में ग़लती हो रही है तो कौन दूध के धुले हैं ?
क्या आप ख़ुद ग़लतियों से मुबर्रा (पाक) हैं ? क्या आप फ़िक्र फ़िलिस्तीन में नट पर तफ़रीह (सैर-सपाटा) से बाज़ आ चुके हैं ?
दा'वतों और तेहवारों को ख़ैर-बाद कर चुके हैं ?
फिर दूसरों से उम्मीदें क्यूं ?
सिर्फ़ (केवल) सउदिया और सऊदी 'उलमा को मुत्तहम (बद-नाम) करना कौन सी अमानत-व-शराफ़त है ?
आप तो इक्कीसवीं सदी के इस्लाम के मज़े ले और सउदिया से हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के इस्लाम की तवक़्क़ो' (उम्मीद) रखें यह तो ज़ुल्म हुआ "تلك إذا قسمة ضيزى"
आपने यह क्यूं फ़ैसला कर लिया कि आप साहिब-ए-'इल्म (जानने वाले) और साहिब-ए-'अक़्ल (समझदार) हैं और सलफ़ी व सऊदी 'उलमा निकम्मे हैं ?
आप उम्मत के हमदर्द हैं और सलफ़ी और सऊदी 'उलमा उम्मत फ़रोश (व्यापारी) हैं ?
आप 'आलमी (दुनियावी) सियासत (राजनीति) पर नज़र रखते हैं और दूसरे हवन्नक़ (मूर्ख) हैं जबकि (हालाँकि) वाक़ि'आ इस के बर-'अक्स (विरुद्ध) है।
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