लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
जामि'आ सलफ़िया बनारस
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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हक़-ओ-बातिल (सत्य और असत्य) के दरमियान (बीच में) कश्मकश (संघर्ष) का सिलसिला जारी है और न जाने कब तक जारी रहेगा इसी कश्मकश का एक मज़हर (नमूना) इस्लाम, नबी और क़ुरआन पर ए'तिराज़ात (विरोध) और उन की मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) तरीक़ों से तौहीन (अपमान) भी है जिस का इधर चंद सालों से कुछ ज़ियादा ही इर्तिकाब किया जा रहा है जहां तक ए'तिराज़ात (विरोध) और शुकूक-ओ-शुब्हात (संदेह) का मु'आमला है तो उनके मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) मक़ासिद (इरादे) होते हैं अगर हक़ीक़त की मा'रिफ़त (पहचान) और शक (संदेह) का इज़ाला (निवारण) मक़्सूद (उद्देश्य) होतो 'इल्मी दलाइल व हक़ाइक़ (सच्चाई) से साइल (पूछने वाला) या मो'तरिज़ (आलोचक) को मुतमइन (संतुष्ट) किया जा सकता है और अगर ए'तिराज़ (आलोचना) बराए ए'तिराज़ है और इस के पीछे महज़ (केवल) हिक़्द (दुश्मनी) व हसद (जलन) और बुग़्ज़-ओ-'अदावत (दुश्मनी) के जज़्बात (भावनाएं) कार-फ़रमा है तो ऐसे मु'आनिदीन (विरोधी) के सामने दलाइल व शवाहिद (सुबूत) के अम्बार से कुछ फ़ाइदा नहीं अलबत्ता (लेकिन) दिफ़ा' (रक्षा) के फ़रीज़ा (ज़िम्मेदारी) की अदाएगी बहर-हाल (हर हाल में) ज़रुरी है।
हमें चाहिए कि नबी, इस्लाम और कुरआन पर होने वाले हर हमले के अग़राज़-ओ-मक़ासिद को समझने की कोशिश करे और मंसूबा-बंद तरीक़े से इन हमलों को नाकाम बनाने की स'ई (कोशिश) करें
ऐसा न हो कि हम दुश्मनान-ए-इस्लाम की साज़िशो (षड्यंत्र) का शिकार हो जाए और उनके बिछाए हुए जाल में ख़ुद अपने आपको फँसा ले इधर एक 'अर्से से देखा यह जाता है कि इस्लाम और नबी पर होने वाले ए'तिराज़ात (विरोध) और गुस्ताखियों के वक़्त मुसलमानों की अकसरिय्यत (बहुसंख्यक) मुज़ाहरा (protest) करके जुलूस निकाल कर के मीटिंगें कर के अख़बारी बयानात (भाषण) दे कर और जोशीले ना'रे लगा कर अपने ग़म-ओ-ग़ुस्सा (नाराज़ी) का इज़हार करतीं है दीनी जलसों में और जुम'आ के ख़ुत्बो में मुख़ालिफ़ीन (विरोध करने वालों) का दंदान-शिकन (मुंह बंद कर देने वाला) जवाब दिया जाता है उर्दू अख़बारात व रसाइल (पत्रिकाएं) व मजल्लात (समाचारपत्र) में मुरासलात (पत्र व्यवहार) और मज़ामीन (articles) में जज़्बाती तहरीरें शाए' (प्रकाशित) की जाती हैं।
इस्लाम की रक्षा की यह शक्लें और यह तरीक़े अपने आप में कितने ही तशफ़्फ़ी (तसल्ली) बख़श लगते हो मगर दर-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) इन मसाइल का पाइदार (मज़बूत) हल (समाधान) और मुअस्सिर (प्रभावी) जवाब नहीं मुशाहदात (अनुभव) और तजरिबात की रोशनी में देखा जाए तो दर्ज ज़ैल बातें हमें ग़ौरो-ओ-फ़िक्र की दा'वत देती हैं।
* एहतजाजी (प्रदर्शनकारी) मुज़ाहिरो (प्रदर्शनों) और जुलूसों का जहां तक मु'आमला है तो देखा जाता है कि मुंतज़िमीन की तमाम तर कोशिशों और तंबीहो (चेतावनियों) के बावुजूद (तब भी) बसा-औक़ात (कभी-कभी) यह पुर-अम्न (शान्तिपूर्ण) मुज़ाहिरे अफ़रा-तफ़री, बद-अमनी (अशांति) और इंतिशार (परेशानी) का शिकार हो जाते हैं कभी तो इस में अपने ही जोशीले नौजवान और लड़कों की ना-'आक़िबत-अंदेशी (लापरवाही) का दख़्ल होता है और अक्सर (कई बार) वो मुख़ालिफ़ीन (विरोध करने वाले) जो ताक में बैठे रहते हैं और इसी तरह की भीड़-भाड़ में वो काम कर जाते हैं जिससे मुसलमानों की बदनामी हो उनकी शबीह (तस्वीर) ख़राब हो और उन्हें एक जुनूनी और फ़िरका-परस्त क़ौम की हैसियत से मीडिया में पेश किया जाए ऐसे मवाक़े' (मौक़े') पर मुत'अद्दिद (अनेक) क़ीमती जाने भी मुसलमानों को क़ुर्बान करनी पड़ती है और बहुत सारी तकलीफ़े भी झेलनी पड़ती हैं इसी तरह मुसलमान दोनों तरफ़ से घाटे ही में रहता है नबी की तौहीन की गई तो भी इस्लाम और अहल-ए-इस्लाम का ख़सारा (नुक़्सान) हुआ फिर इस पर एहतिजाज (विरोध) करने निकले तो भी इस्लाम और अहल-ए-इस्लाम (मुसलमान) ही ख़सारे में पड़े यह अम्र-ए-वाक़ि'ई (हक़ीक़त) है इस के इज़हार का मक़्सद (उद्देश्य) किसी पर ए'तिराज़ (आलोचना) करना या किसी को रोकना हरगिज़-नहीं बल्कि (किंतु) इस तरह के कामों के नताएज (अंजाम) और सूद-ओ-ज़ियाँ (नफ़ा और नुक़्सान) को समझने की फ़क़त (केवल) दा'वत देना मक़्सूद (उद्देश्य) है।
* जहां तक अख़बारी बयानात, मुरासलात (पत्र व्यवहार) और मज़ामीन (articles) का मु'आमला है और इसी तरह अपने जलसों (सभा) और ख़ुत्बो में इस्लाम, क़ुरआन व नबी पर होने वाले ए'तिराज़ात के जवाब देने का मु'आमला है तो इन सब कामों से ख़ुद मुसलमान हाज़िरीन-व-क़ारिईन (उपस्थित और अध्ययन करने वाले) तो सुन कर और पढ़ कर ख़ुश हो सकते हैं और बोलने वाले और लिखने वाले को दाद (अभिनंदन) दे सकते हैं मगर इस तरह न तो ए'तिराज़ (विरोध) करने वालों तक हमारे जवाब पहुंचेंगे और न ही उन लाखों करोड़ों (बेशुमार) लोगों तक जिनके ज़ेहन-ओ-दिमाग़ (मन और बुद्धि)
ज़राए'-इबलाग़ (मीडिया) के तवस्सुत (माध्यम) से गुमराह-कुन (भटकाने वाले) ए'तिराज़ात से मसमूम (ज़हरीले) किए गए थे अब नतीजा (अंजाम) यह हुआ ब-क़ौल बा'ज़ अकाबिर " हम ख़ुद ही लिखते बोलते, ख़ुद ही पढ़ते सुनते और ख़ुद ही ख़ुश हो ते हैं "
* इस क़िस्म के जवाबी या दिफ़ा'ई (हिफ़ाज़ती) कोशिशों का एक मंफ़ी (negative) पहलू (मतलब) यह भी सामने आता है कि हमारी सारी तक़रीरें और तहरीरें उर्दू या उन 'इलाक़ाई (स्थानीय) ज़बानों में होती हैं जो बड़ी हद तक मुसलमानों की ज़बाने बन चुकी हैं या बनादी गई है इस की वज्ह (कारण) से भी हमारी आवाज़ जिन कानों तक पहुंचनी चाहिए उन तक नहीं पहुंच पातीं और मु'आमला जहां से शुरू' होता है वहीं आ कर ख़त्म हो जाता है।
तो अब क्या किया जाना चाहिए ?
नबी पाक, इस्लाम और क़ुरआन के तहफ़्फ़ुज़ व दिफ़ा' (हिफ़ाज़त) के सिलसिले में हमारे करने के जो काम है वो दो तरह के हैं:
(1) त'आरुफ़ी (परिचय)
(2) दिफ़ा'ई (रक्षात्मक)
* त'आरुफ़ी काम से मुराद (मतलब) यह है कि हम अपनी दा'वती ज़िम्मेदारियां निभाते हुए इस्लाम पर किसी हमले या गुस्ताख़ी का इंतिज़ार (प्रतीक्षा) किए बग़ैर इस के बारे में सहीह मा'लूमात (जानकारी) लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करें त'आरुफ़ी कोशिशों की ज़रूरत इस लिए है कि बहुत सारे लोगों के ज़ेहनो में बहुत सारे शुकूक-ओ-शुब्हात (संदेह) और ए'तिराज़ात, ला-'इल्मी (अज्ञानता) ग़लत-फ़हमी (ना-समझी) या ग़लत प्रोपेगंडे की वज्ह (कारण) से पैदा हो जाते हैं मसल (कहावत) मशहूर है कि ’’الإنسان عدو لما جھل‘‘
इस क़िस्म के मो'तरिज़ीन (आलोचना करने वाले लोग) 'आम तौर से (अधिकतर) इस्लाम,नबी और क़ुरआन वग़ैरा के बारे में मोटी-मोटी (महत्वपूर्ण) और बुनियादी बातें भी नहीं जानते रहते हैं और महज़ (केवल) सुनी-सुनाई बातों पर यक़ीन (भरोसा) कर के या मुस्तश्रिक़ीन वग़ैरा की ज़िक्र कर्दा मा'लूमात (जानकारी) पर भरोसा कर के ए'तिराज़ (आलोचना) कर बैठते हैं यहां हमें ए'तिराफ़ करना होगा कि अपने दीन का सहीह त'आरुफ़ (परिचय) लोगों के सामने पेश करने में हमसे ज़बरदस्त कोताही (कमज़ोरी) हो रही है हिंदुस्तान के नव्वे (ninety) करोड़ ग़ैर-मुस्लिम आबादी को इस्लाम की सहीह तस्वीर दिखाने के लिए हमारे पास क्या प्रोग्राम है इस का जवाब कहां मिल सकता है।
हमें इस त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से की जाने वाली कोशिशों से इंकार क़त'अन (हरगिज़) नहीं है यक़ीनन (अवश्य) मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) छोटी बड़ी तंज़ीमे,जमा'अते और अंजुमने (संगठन) अपनी अपनी बिसात (ताक़त) के मुताबिक़ (अनुसार) काम करते रहते हैं और आज भी कर रहे हैं मगर अपने सामने मुख़ातिबीन (बोलनेवाले) या उम्मत-ए-दा'वत के अफ़राद (लोगों) की बड़ी ता'दाद (संख्या) को देखा जाए और अपनी उन तमाम कोशिशों को देखा जाए तो ऊंट के मुंह में ज़ीरा या पहाड़ के सामने राई नज़र आती है सीरत-ए-नबवी और तराजिम ए क़ुरआन के 'अलावा (सिवा) क़ुरआनी ता'लीमात (शिक्षाएं) के बयान पर मुश्तमिल (आधारित) छोटे छोटे रिसाले (पत्रिकाएं) किताबचे (पुस्तिकाएं) फ़ोल्डरस वग़ैरा मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) ज़बानों में बड़े-पैमाने-पर शाए' (प्रकाशित) करने की ज़रूरत है।
कांफ्रेंसों और सेमिनारों का भी इस सिलसिले में अहम (मुख्य) रौल होगा जिनमें बिरादरान-ए-वतन को ख़ास तौर से मद'ऊ (invited) किया जाए और इस्लाम, क़ुरआन और नबी के महासिन (ख़ूबियां) और उनकी इंसानियत नवाज़ ता'लीमात (शिक्षाएं) व हिदायात (सुझाव) उनके सामने हकीमाना ('अक़्ल-मंदाना) अंदाज़ में पेश की जाए और मौज़ू' (विषय) से मुत'अल्लिक़ (बारे में) 'आम तौर पर (अधिकतर) किए जाने वाले ए'तिराज़ात (विरोध) को सराहतन (स्पष्ट रूप से) ज़िक्र (वर्णन) किए बग़ैर उनका जवाब देने की कोशिश की जाए।
इन क़लमी व लिसानी कोशिशों में उन इंसाफ़-पसंद (न्यायप्रिय) ग़ैर-मुस्लिम दानिशवरों (बुद्धिमानों) के बयानात (भाषण) व ए'तिराफ़ात का तज़्किरा (ज़िक्र) भी फ़ाइदा (लाभ) से ख़ाली न होगा जिन्होंने ग़ैर-जानिबदार (तटस्थ) हो कर इस्लाम का मुताल'अ (निरीक्षण) किया और इस की ता'लीमात (शिक्षाएं) की पाकीज़गी (पवित्रता) से मुतअस्सिर (प्रभावित) हुए और अपनी ज़बान व क़लम से हक़ाइक़ (सच्चाई) का इज़हार भी किया क्यूंकि ’’شھد شاھد من أھلہا‘‘
और ’’الفضل ما شھدت بہ الأعداء‘‘
जैसी मिसालों की अहमियत मुसल्लम (प्रमाणित) है।
यहां इस अम्र (बात) का तज़्किरा (ज़िक्र) भी बेजा (बे-तुका) न होगा कि इस्लाम के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से तमाम ग़ैर-मुस्लिम यकसाँ (एक जैसा) तसव्वुर (ख़याल) नहीं रखते चुनांचे (इसलिए) कुछ तो ऐसे होंगे जो मुसबत (सकारात्मक) और मंफ़ी (negative) हर तरह के तासीर (प्रभाव) से ख़ाली-अज़-ज़ेहन होंगे कुछ मुसबत (सकारात्मक) तअस्सुर (प्रभाव) रखते होंगे कुछ मंफ़ी (negative) तअस्सुर (प्रभाव) रखते होंगे कुछ कम रखतें होंगे कुछ ज़ियादा अल-ग़रज़ (संक्षेप) सब पर एक हुक्म नहीं लगाया जा सकता
(لَیۡسُوۡا سَوَآءً -آل عمران:۱۱۳)
तर्जुमा: वो सब बराबर नहीं "
के ए'लान पर हमें ग़ौर करना चाहिए और इसी तरह अबू-तालिब और अबू-लहब के दरमियान जो फ़र्क़ है उसे मलहूज़ (ध्यान) रखना चाहिए इस्लाम,नबी और क़ुरआन के त'आरुफ़ (परिचय) और दिफ़ा' (रक्षा) के लिए की जाने वाली कोशिशों में हमें जदीद (आधुनिक) ज़राए'-इबलाग़ (रेडियो, टेलीविजन, अख़बार) और वसाइल (माध्यम) इत्तिला'आत को भी नज़र-में (ध्यान में) रखना होगा बिल-ख़ुसूस (खास तौर पर) इंटरनेट और सोशल मीडिया को क्यूंकि जिस तेज़ी से दुनिया सिमट सिम्टा कर कंप्यूटर और इंटरनेट के इर्द-गिर्द (आस पास) चक्कर काट रही है इस का तक़ाज़ा (ज़रूरत) यही है कि रहमत-उल-'आलमीन को भी इस इबलाग़ी वसीले (माध्यम) में आप के शायान-ए-शान जगह मिले और ब-यक-वक़्त (एक वक़्त में) करोड़ों इंसान इस से फ़ैज़ (नफ़ा) हासिल करें।
* दिफ़ा'ई (रक्षात्मक) कोशिशें:
इस्लाम के सिलसिले में किए जाने वाले ए'तिराज़ात हो या नबी की तौहीन व इस्तिख़फ़ाफ़ (अपमान) के वाक़ि'आत (घटनाएं) इनके त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से हमें यह ज़ेहन (मन) बनाना होगा कि यह हक़-ओ-बातिल (सत्य और असत्य) की कश्मकश का ही एक हिस्सा हैं इनमें हमारे सब्र-ओ-सबात (बरदाश्त) और तहम्मुल-व-बसीरत (बुद्धिमत्ता) का इम्तिहान भी है और हमारी ग़ैरत व हमिय्यत (आत्म सम्मान) और बेदारी (होशियारी) को challenge भी इस लिए ऐसे मवाक़े' (मौक़े') व वाक़ि'आत पर हम न तो ख़ामोश तमाशाई (दर्शन) बनें रहें और बे-ग़ैरती (बे-हयाई) और बे-हिसी (लापरवाही) का मुज़ाहरा करें और न ही मुश्त'इल (आक्रोशित) हो कर और जज़्बात में आकर ऐसे आ'माल ओ हरकात का सहारा लें जो आगे चलकर हमारी तज़हीक (मज़ाक़) का सबब बने अल्लाह-त'आला ने अपने नबी जनाब मोहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ को मुख़ातिब कर के फ़रमाया:
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ (سورہ روم:۶۰]
तर्जुमा: आप सब्र करे यक़ीनन अल्लाह का वा'दा सच्चा है आप को वो लोग हल्का (बे-सब्रा) न करें जो यक़ीन नहीं रखते (सूरा अर्-रूम:60)
इसी तरह अल्लाह-त'आला ने एक जगह नबी को मुख़ातिब कर के फ़रमाया:
तर्जुमा: आप को जो हुक्म दिया जा रहा है इसे खोल कर बयान कर दीजिए और मुशरिकों से मुंह फेर लीजिए मज़ाक़ उड़ाने वालों से निमटने के लिए हम आप की तरफ़ से काफ़ी है जो अल्लाह के साथ दूसरे मा'बूद मुक़र्रर करते हैं उन्हें 'अन-क़रीब मा'लूम हो जाएगा हमें ख़ूब इल्म है कि इन की बातों से आप परेशान और तंग-दिल होते हैं आप अपने परवरदिगार की तस्बीह और हम्द बयान करते रहे और सज्दा करने वालों में से हो जाएँ और अपने रब की 'इबादत करते रहे यहां तक कि आप को मौत आ जाए।
(सूरा अल्-ह़िज्र:93/99)
आप को याद होगा कि चंद साल क़ब्ल (पहले) हॉलैंड के Geert Wilders नामी एक शक़ी-उल-क़ल्ब (संग-दिल) ने "फ़ित्ना" नाम से एक फ़िल्म बनाई थी जिसमें इस्लाम, मुसलमान,नबी और क़ुरआन के बारे में ख़ूब ज़हर-अफ़्शानी (ग़लत-फ़हमी) की थी होलैंड के मुसलमान बड़ी आज़माइश में थे मगर उन्होंने इस के रद-ए-आ'माल में कोई जज़्बाती क़दम नहीं उठाया मा'क़ूल (उचित) अंदाज़ में अपने ग़म-ओ-ग़ुस्सा का इज़हार किया और ऐसी हिक्मत-ए-'अमली (रणनीति) अपनाईं कि वो मु'आमला फ़िल्म-साज़ (फ़िल्म बनाने वाला) और मुसलमानों के दरमियान (बीच में) का न होकर फ़िल्म-साज़ और पूरे होलैंडी मु'आशरे (समाज) का मसअला बन गया और बहुत से ग़ैर-मुस्लिम सियासत-दाँ (राजनेता) 'अवाम (जनता) हत्ता कि कनीसा (चर्च) से वाबस्ता लोगों ने भी फ़िल्म-साज़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और इसे मुल्क के लिए ख़तरा क़रार दिया इस फ़ित्ना-अंगेज़ फ़िल्म पर मुसलमानों के मुसबत (सकारात्मक) और हकीमाना ('अक़्ल-मंदाना) रद्द-ए-'अमल की वज्ह से वहां के लोग सोचने पर मजबूर हुए और उन्हें इस्लाम और कुरआन के बारे में जानकारी हासिल करने का शौक़ हुआ होलैंड के दार-उल-हुकूमत (राजधानी) "एम्स्टर्डम" में उन मकतबात (पुस्तकालय) और दुकानों पर भीड़ लग गई जो इस्लामी किताब व मुत'अल्लिक़ा अश्या (चीजें) फ़रोख़्त करती थी और फ़िल्म पेश किए जाने के सिर्फ़ दो दिन के अंदर मार्केट से होलैंडी ज़बान में मुतर्जम (इलेक्ट्रोनिक) क़ुरआन के नुस्ख़े ख़त्म हो गए और मुत'अद्दिद (अनेक) लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया कुवैत के मशहूर हफ़्त-रोज़ा (साप्ताहिक) " अल-मुजतमा' " ने अपनी 12/4/2008 'ईस्वी की इशा'अत (प्रकाशन) में इससे मुत'अल्लिक़ (बारे में) तफ़सीलात शाए' (प्रकाशित) करते हुए मज़मून (आर्टिकल) की सुर्ख़ी (हेड-लाइन) इस तरह लगाई है:
"الھولندیون یتعرفون علی الإسلام بعد بث الـــ ’’فتنۃ‘‘
या'नी " फ़ित्ना " नामी फ़िल्म की इशा'अत (प्रकाशन) के बाद होलैंड के लोग इस्लाम से मुत'आरफ़ (परिचित) हो रहे हैं "
मज़मून (लेख) के शुरू' में एक शे'र भी दर्ज किया गया है इस शे'र के पैग़ाम पर भी ग़ौर करना चाहिए शे'र इस तरह है:
"لو کل کلب عوی ألقمتہ حجرا لأصبح الصخر مثقالا بدینار"
" अगर तुम हर कुत्ते के भौंकने पर पत्थर चलाओगे तो ऐसी सूरत (स्थिति) में पत्थर सोने की तरह क़ीमती और नापैद (नायाब) हो जाएगा "।
बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है अभी चंद साल क़ब्ल (पहले) एक अमरीकी पादरी ने ए'लान किया कि 11, सितंबर की बरसी के मौक़ा' (अवसर) पर इस साल बड़े-पैमाने-पर क़ुरआन नज़्र-ए-आतिश (आग के हवाले) किया जाएगा सरापा शर-ओ-फ़साद मबनी इस ए'लान से मुसलमानों बल्कि (किंतु) तमाम अम्न-पसंद (शांतिप्रिय) तबक़ों में बेचैनी की कैफ़ियत (हालत) पैदा होना फ़ितरी (क़ुदरती) बात थी मगर अल्लाह का करना ऐसा हुआ कि न सिर्फ़ वो पादरी अपने इस नापाक मंसूबे को 'अमली-जामा न पहना सका बल्कि उसके इश्ति'आल-अंगेज़ (भड़काने वाले) ए'लान की वजह से यूरप के इंसाफ़-पसंद (न्यायप्रिय) हल्क़ो में एक बार फिर इस क़ुरआन के बारे में जानकारी की ख़्वाहिश (इच्छा) हुई और बिल-फ़े'ल (तत्काल) बहुतों ने इसी मौक़ा' (अवसर) पर क़ुरआन का मुताल'अ (निरीक्षण) किया और उनमें से एक अच्छी-ख़ासी ता'दाद (संख्या) मुशर्रफ़ ब-इस्लाम हो गई।
11, सितंबर 2001, को रूनुमा-होने वाला " वर्ल्ड-ट्रेड सेंटर " का हादिसा (घटना) पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिए कितनी आज़माइश और मुश्किलात (मुश्किलें) लेकर आया था और इस हादिसा (घटना) को बहाना बनाकर किस तरह सलीबियो ('ईसाईयों) और सहयूनियो (यहूदियों) ने इस्लाम और मुसलमानों पर चौतरफ़ा (चारों तरफ़) यलग़ार (चढ़ाई ) कर रखी थी मगर इस वाक़ि'आ (घटना) का एक मुस्बत-पहलू यह सामने आया कि पूरे मग़रिब (पश्चिम) में इस्लाम और कुरआन के बारे में जानकारी हासिल करने का रुजहान (आकर्षण) पैदा हुआ बताया जाता है कि इस हादिसा (घटना) के बाद मग़रिब (west) के मुत'अद्दिद (अनेक) शहरों में किताबों की मार्केट का यह हाल रहा कि कई हफ्तों तक सबसे ज़्यादा फ़रोख़्त (sale) होने वाली किताब यही किताब-ए-इलाही (क़ुरआन) थी और ज़ाहिर (स्पष्ट) बात है हक़-शनासी के जज़्बे (भावना) से और ग़ैर-जानिबदार (तटस्थ) हो कर अल्लाह के कलाम पर ग़ौर किया जाएगा तो दिल बिला-इख़्तियार:
" ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मद रसूलुल्लाह " पुकार उठेगा इस साल सिर्फ़ एक अमरीकी शहर "ओक्लाहोमा" में चारसों पचास लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया अमरीका में इस साल जितने क़ुर'आन-ए-मजीद फ़रोख़्त (बिक्री) हुए पिछले सात साल में नहीं हुए थे इस वाक़ि'आ (घटना) ने वहां के मुसलमानों को अपनी दीनी हालत (स्थिति) का जाइज़ा (समीक्षा) लेने पर मजबूर किया यहां तक कि अमरीकी ख़ुफ़्या एजेंसी " FBI " को व्हाइट हाउस में सद्र-ए-अमरीका को यह रिपोर्ट देनी पड़ी कि ग्यारह सितंबर के हादिसे से पहले जो मुसलमान अमरीकी व यूरोपी (European) ममालिक में आवारगी और त'अय्युश ('ऐश-ओ-'इशरत) के दिल-दादा थे अब उनमें बड़ी तब्दीली आई है और अपने मज़हब से उनकी वाबस्तगी (सम्बन्ध) में इज़ाफ़ा हो गया है।
(अल-बलाग़, मुंबई: मार्च, 2011,
सफ़्हा नंबर: 27-28)
लेकिन ऐसे मवाक़े' (मौक़े) पर हमें हाथ बांधे सिर्फ़ क़ुदरत-ए-इलाहिया के ज़ुहूर का ही इंतिज़ार नहीं करना चाहिए बल्कि लोगों के खुले हुए अज़हान व क़ुलूब (बुद्धि और दिल) को इस्लाम की बा-बरकत ता'लीमात (शिक्षाएं) और हिदायत (मार्ग-दर्शन) से मुनव्वर कर देना चाहिए यूरोप व अमरीका में मौजूद बा'ज़ (कुछ) इस्लामी तंज़ीमात ऐसे मवाक़े' (मौक़े) पर बड़ी ता'दाद (संख्या) में क़ुरआन के तर्जमे (अनुवाद) इस्लामी किताबें, रसाइल (पत्रिकाएं) pamphlet (पुस्तिका) वग़ैरा तक़सीम करती है और इस्लाम की मा'रिफ़त (पहचान) का शौक़ रखने वालों को सहीह मा'लूमात (जानकारी) बहम (आपस में) पहुंचाने की कोशिश करती हैं कुछ सालों क़ब्ल (पहले) जब क़ुरआन के नुस्ख़े जलाने का अमरीकी पादरी ने ए'लान किया था तो अमरीका की सिर्फ़ एक मुस्लिम तंज़ीम (संस्था) ने ए'लान किया था कि उसी दिन क़ुरआन-ए-करीम (अनुवाद) के एक लाख नुस्ख़े तक़सीम किए जाएंगे।
(अल-फ़ुरक़ान, कुवैत: 9,8,2010, पेज नंबर:28)
मो'तरिज़ीन (एतिराज़ करने वालों) के ए'तिराज़ात (विरोध) का जवाब देते वक़्त इस अम्र (बात) का ज़रूर लिहाज़ (ख़याल) रखना चाहिए कि जिस वास्ते और ज़री'आ (माध्यम) से ए'तिराज़ात पेश किए गए हैं या नश्र (प्रसार) किए गए हैं हमारे जवाब भी उसी ज़री'आ (माध्यम) से नश्र (प्रसार) हो ताकि जितने लोगों के ज़ेहनो को ए'तिराज़ (आलोचना) के ज़री'आ मसमूम (ज़हरीला) किया गया है उन तक हमारे जवाब भी पहुंच जाए ऐसा न हो कि सवाल या ए'तिराज़ (विरोध) बीबीसी रेडियो से या टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, दैनिक जागरण और दीगर (अन्य) कसीर-उल-इशा'अत (बहुत ज़्यादा प्रकाशित होने वाले) अख़बारात के ज़री'आ नश्र (प्रसार) किया गया हो और हम उसका जवाब राश्ट्रीय सहारा उर्दू में शाए' (प्रकाशित) कराएं या जुम'आ के ख़ुत्बो और एहतजाजी (प्रदर्शनकारी) जलसों में जवाब दे यक़ीनन (अवश्य) मज़्कूरा-बाला ज़राए'-इबलाग़ (रेडियो टेलीविजन अख़बार)
से अपनी बात कहना आसान नहीं होगा मगर नामुमकिन (असंभव) भी नहीं होगा इस के लिए कुछ जिद्द-ओ-जहद (दौड़-धूप) ज़रुर करनी पड़ेगी और कुछ अख़राजात (ख़र्चे) भी बरदाश्त करने पड़ेंगे मगर यह काम इतना मुश्किल नहीं है जितना हम लोग सोचते हैं
ज़बान की तनव्वो' (नवीनता) की रि'आयत (हिफ़ाज़त) भी बेहद ज़रूरी है जैसा कि इस की तरफ़ इशारा किया गया था हमारे बेशतर (अधिकतर) काम उर्दू ज़बान में होता है यह ज़बान दिन-ब-दिन (धीरे-धीरे) सिमटती जा रही है अब तो यह पूरे तौर पर मुसलमानों की ज़बान भी नहीं रह गई है मुसलमानों की नई-नस्ल ख़ास तौर से हिंदी और अंग्रेजी की तरफ़ माएल (आकर्षित) है इस लिए हमारे दीनी ता'लीमी इदारों में इन ज़बानों की तरफ़ तवज्जोह (ध्यान) देने की ज़रूरत है ऐसे 'उलमा व द'आत की सख़्त ज़रूरत है जो इस्लामी 'उलूम-ओ-म'आरिफ़ में महारत (होशियारी) के साथ इन ज़बानों में दा'वत-ओ-तबलीग़ का काम अंजाम देने के अह्ल (योग्य) हो।
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