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प्रश्नः मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों का अपमान करते हुए उन्हें ‘‘काफ़िर’’ क्यों कहते हैं?उत्तरः शब्द ‘‘काफ़िर’’ वास्तव में अरबी शब्द ‘‘कुफ्ऱ’’ से बना है। इसका अर्थ है ‘‘छिपाना, नकारना या रद्द करना’’। इस्लामी शब्दावली में ‘‘काफ़िर’’ से आश्य ऐसे व्यक्ति से है जो इस्लाम की सत्यता को छिपाए (अर्थात लोगों को न बताए) या फिर इस्लाम की सच्चाई से इंकार करे। ऐसा कोई व्यक्ति जो इस्लाम को नकारता हो उसे उर्दू में ग़ैर मुस्लिम और अंग्रेज़ी में Non-Muslim कहते हैं।
यदि कोई ग़ैर-मुस्लिम स्वयं को ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर कहलाना पसन्द नहीं करता जो वास्तव में एक ही बात है तो उसके अपमान के आभास का कारण इस्लाम के विषय में ग़लतफ़हमी या अज्ञानता है। उसे इस्लामी शब्दावली को समझने के लिए सही साधनों तक पहुँचना चाहिए। उसके पश्चात न केवल अपमान का आभास समाप्त हो जाएगा बल्कि वह इस्लाम के दृष्टिकोण को भी सही तौर पर समझ जाएगा।
(इति)
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MUSALMAN GER MUSLIMO KA APMAN KARTE HUWE KAFIR KYU KEHTE HAI
ISLAM KI TALIM
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इस्लाम की शिक्षा और मुसलमानों के वास्तविक आचरण में अत्यधिक अंतर है
प्रश्नः यदि इस्लाम विश्व का श्रेष्ठ धर्म है तो फिर क्या कारण है कि बहुत से मुसलमान बेईमान और विश्वासघाती होते हैं। धोखेबाज़ी, घूसख़ोरी और नशीले पदार्थों के व्यापार जैसे घृणित कामों में लिप्त होते हैं।
उत्तरः
संचार माध्यमों ने इस्लाम का चेहरा बिगाड़ दिया है
(क) निसन्देह, इस्लाम ही श्रेष्ठतम धर्म है किन्तु विश्व संचार माध्यम ;डमकपंद्ध पश्चिम के हाथ में है जो इस्लाम से भयभीत है। यह मीडिया ही है जो इस्लाम के विरुद्ध दुराग्रह पूर्ण प्रचार-प्रसार में व्यस्त रहता है। यह संचार माध्यम इस्लाम के विषय में ग़लत जानकारी फैलाते हैं। ग़लत ढंग से इस्लाम का संदर्भ देते हैं। अथवा इस्लामी दृष्टिकोण को उसके वास्तविक अर्थ से अलग करके प्रस्तुत करते हैं।
(ख) जहाँ कहीं कोई बम विस्फोट होता है और जिन लोगों को सर्वप्रथम आरोपित किया जाता है वे मुसलमान ही होते हैं। यही बात अख़बारी सुर्ख़ियों में आ जाती है परन्तु यदि बाद में उस घटना का अपराधी कोई ग़ैर मुस्लिम सिद्ध हो जाए तो उस बात को महत्वहीन ख़बर मानकर टाल दिया जाता है।
(ग) यदि कोई 50 वर्षीय मुसलमान पुरुष एक 15 वर्षीय युवती से उसकी सहमति से विवाह कर ले तो यह ख़बर अख़बार के पहले पृष्ठ का समाचार बन जाती है। परन्तु यदि कोई 50 वर्षिय ग़ैर मुस्लिम पुरुष छः वर्षीया बालिका से बलत्कार करता पकड़ा जाए तो उस ख़बर को अख़बार के अन्दरूनी पेजों में संक्षिप्त ख़बरों में डाल दिया जाता है। अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की लगभग 2,713 घटनाएं होेती हैं परन्तु यह बातें ख़बरों में इसलिए नहीं आतीं कि यह सब अमरीकी समाज का सामान्य चलन ही बन चुका है।
प्रत्येक समाज में काली भेड़ें होती हैं
मैं कुछ ऐसे मुसलमानों से परिचित हूँ जो बेईमान हैं, धोखेबाज़ हैं, भरोसे के योग्य नहीं हैं। परन्तु मीडिया इस प्रकार मुस्लिम समाज का चित्रण करता है जैसे केवल मुसलमान ही बुराईयों में लिप्त हैं। काली भेड़ें अर्थात् कुकर्मी प्रत्येक समाज में होते हैं। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं और खुलेआम अथवा छिपकर शराब भी पी लेते हैं।
कुल मिलाकर मुसलमान श्रेष्ठतम हैं मुस्लिम समाज में इन काली भेड़ों के बावजूद यदि मुसलमानों का कुल मिलाकर आकलन किया जाए तो वह विश्व का सबसे अच्छा समाज सिद्ध होंगे। जैसे मुसलमान ही विश्व की सबसे बड़ी जमाअत है जो शराब से परहेज़ करते हैं। इसी प्रकार मुसलमान ही हैं जो विश्व में सर्वाधिक दान देते हैं। विश्व का कोई समाज ऐसा नहीं जो मानवीय आदर्शों (सहिष्णुता, सदाचार और नैतिकता) के संदर्भ में मुस्लिम समाज से बढ़कर कोई उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।
कार का फ़ैसला ड्राईवर से न कीजिए मान लीजिए कि आपने एक नए माॅडल की मर्सडीज़ कार के गुण-दोष जानने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को थमा देते हैं जो गाड़ी ड्राइव करना नहीं जानता। ज़ाहिर है कि व्यक्ति या तो गाड़ी चला ही नहीं सकेगा या एक्सीडेंट कर देगा। प्रश्न यह उठता है कि क्या ड्राईवर की अयोग्यता में उस गाड़ी का कोई दोष है? क्या यह ठीक होगा कि ऐसी दुर्घटना की स्थिति में हम उस अनाड़ी ड्राईवर को दोष देने के बजाए यह कहने लगें कि वह गाड़ी ही ठीक नहीं है? अतः किसी कार की अच्छाईयाँ जानने के लिए किसी व्यक्ति को चाहिए कि उसके ड्राईवर को न देखे बल्कि यह जायज़ा ले कि स्वयं उस कार की बनावट और कारकर्दगी इत्यादी कैसी है। जैसे वह कितनी गति से चल सकती है। औसतन कितना ईंधन लेती है। उसमें सुरक्षा के प्रबन्ध कैसे हैं, इत्यादि।
यदि मैं केवल तर्क के रूप में यह मान भी लूँ कि सारे मुसलमान बुरे हैं तब भी इस्लाम का उसके अनुयायियों के आधार पर फ़ैसला नहीं कर सकते। यदि आप वास्तव में इस्लाम का विश्लेषण करना चाहते हैं और उसके बारे में ईमानदाराना राय बनाना चाहते हैं तो आप इस्लाम के विषय में केवल पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों के आधार पर ही कोई राय स्थापित कर सकते हैं।
इस्लाम का विश्लेषण उसके श्रेष्ठतम पैरोकार अर्थात हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के द्वारा कीजिए
यदि आप पूर्ण रूप से जानना चाहते हैं कि कोई कार कितनी अच्छी है तो उसका सही तरीकष यह होगा कि वह कार किसी कुशल ड्राईवर के हवाले करें। इसी प्रकार इस्लाम के श्रेष्ठतम पैरोकार और इस्लाम की अच्छाईयों को जाँचने का सबसे अच्छी कसौटी केवल एक ही हस्ती है जो अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अतिरिक्त कोई और नहीं है। मुसलमानों के अतिरिक्त ऐसे ईमानदार और निष्पक्ष इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को श्रेष्ठतम महापुरुष स्वीकार किया है। ‘‘इतिहास के 100 महापुरुष’’ नामक पुस्तक के लेखक माईकल हार्ट ने अपनी पुस्तक में आप (सल्लॉ) को मानव इतिहास की महानतम विभूति मानते हुए पहले नम्बर पर दर्ज किया है। (पुस्तक अंग्रेज़ी वर्णमाला के अनुसार है परन्तु लेखक ने हुजूष्र (सल्लॉ) की महानता दर्शाने के लिए वर्णमाला के क्रम से अलग रखकर सबसे पहले बयान किया है) लेखक ने इस विषय में लिखा है कि ‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और महान है कि उनका स्थान शेष सभी विभूतियों से बहुत ऊँचा है इसलिए मैं वर्णमाला के क्रम को नज़रअंदाज़ करके उनकी चर्चा पहले कर रहा हूँ।’’
इसी प्रकार अनेक ग़ैर मुस्लिम इतिहासकारों ने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की प्रशंसा की है इन में थामस कारलायल और लामर्टिन इत्यादि के नाम शामिल हैं।
ISLAM HI KYU?
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सभी धर्म मनुष्यों को सच्चाई की शिक्षा देते हैं तो फिर इस्लाम ही का अनुकरण क्यों किया जाए?प्रश्नः सभी धर्म अपने अनुयायियों को अच्छे कामों की शिक्षा देते हैं तो फिर किसी व्यक्ति को इस्लाम का ही अनुकरण क्यों करना चाहिए? क्या वह किसी अन्य धर्म का अनुकरण नहीं कर सकता?
उत्तरः
इस्लाम और अन्य धर्मों में विशेष अंतर
यह ठीक है कि सभी धर्म मानवता को सच्चाई और सद्कर्म की शिक्षा देते हें और बुराई से रोकते हैं किन्तु इस्लाम इससे भी आगे तक जाता है। यह नेकी और सत्य की प्राप्ति और व्यक्तिगत एवं सामुहिक जीवन से बुराईयों को दूर करने की दिशा में वास्तविक मार्गदर्शक भी है। इस्लाम न केवल मानव प्रकृति को महत्व देता है वरन् मानव जगत की पेचीदगियों की ओर भी सजग रहता है। इस्लाम एक ऐसा निर्देश है जो अल्लाह तआला की ओर से आया है, यही कारण है कि इस्लाम को ‘‘दीन-ए-फ़ितरत’’ अर्थात ‘प्राकृतिक धर्म’ भी कहा जाता है।
उदाहरण
इस्लाम केवल चोरी-चकारी, डाकाज़नी को रोकने का ही आदेश नहीं देता बल्कि इसे समूल समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके भी स्पष्ट करता है।
(क) इस्लाम चोरी, डाका इत्यादि अपराध समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके सपष्ट करता है
सभी प्रमुख धर्मों में चोरी चकारी और लूट आदि को बुरा बताया जाता है। इस्लाम भी यही शिक्षा देता है तो फिर अन्य धर्मों और इस्लाम की शिक्षा में क्या अंतर हुआ? अंतर इस तथ्य में निहित है कि इस्लाम चोरी, डाके आदि अपराधों की केवल निन्दा करने पर ही सीमित नहीं है, वह एक ऐसा मार्ग भी प्रशस्त करता है जिस पर चलकर ऐसा समाज विकसित किया जाए, जिस में लोग ऐसे अपराध करें ही नहीं।
(ख) इस्लाम में ज़कात का प्रावधान है
इस्लाम ने ज़कात देने की एक विस्तृत व्यवस्था स्थापित की है। इस्लामी कानून के अनुसार प्रत्येक वह व्यक्ति जिसके पास बचत की मालियत (निसाब) अर्थात् 85 ग्राम सोना अथवा इतने मूल्य की सम्पत्ति के बराबर अथवा अधिक हो, वह साहिब-ए-निसाब है, उसे प्रतिवर्ष अपनी बचत का ढाई प्रतिशत भाग ग़रीबों को देना चाहिए। यदि संसार का प्रत्येक सम्पन्न व्यक्ति ईमानदारी से ज़कात अदा करने लगे तो संसार से दरिद्रता समाप्त हो जाएगी और कोई भी मनुष्य भूखा नहीं मरेगा।
(ग) चोर, डकैत को हाथ काटने की सज़ा
इस्लाम का स्पष्ट कानून है कि यदि किसी पर चोरी या डाके का अपराध सिद्ध हो तो उसके हाथ काट दिया जाएंगे। पवित्र क़ुरआन में आदेश हैः
‘‘और चारे, चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है, और अल्लाह की तरफ़ से शिक्षाप्रद सज़ा, अल्लाह की क़ुदरत सब पर विजयी है और वह ज्ञानवान एवं दृष्टा है।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह अल-मायदा, आयत 38)
ग़ैर मुस्लिम कहते हैं ‘‘इक्कीसवीं शताब्दी में हाथ काटने का दण्ड? इस्लाम तो निर्दयता और क्रूरता का धर्म है।
(घ) परिणाम तभी मिलते हैं जब इस्लामी शरीअत लागू की जाए
अमरीका को विश्व का सबसे उन्नत देश कहा जाता है, दुर्भाग्य से यही देश है जहाँ चोरी और डकैती जैसे अपराधों का अनुपात विश्व में सबसे अधिक है। अब ज़रा थोड़ी देर को मान लें कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू हो जाता है अर्थात प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति जो साहिब-ए-निसाब हो पाबन्दी से अपने धन की ज़कात अदा करे (चाँद के वर्ष के हिसाब से) और चोरी-डकैती का अपराध सिद्ध हो जाने के पश्चात अपराधी के हाथ काट दिये जाएं, ऐसी अवस्था में क्या अमरीका में
अपराधों की दर बढ़ेगी या उसमें कमी आएगी या कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा? स्वाभाविक सी बात है कि अपराध दर में कमी आएगी। यह भी होगा कि ऐसे कड़े कानून के होने से वे लोग भी अपराध करने से डरेंगे जो अपराधी प्रवृति के हों।
मैं यह सवीकार करता हूँ कि आज विश्व में चोरी-डकैती की घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि यदि तमाम चारों के हाथ काट दिये जाएं तो ऐसे लाखों लोग होंगे जिनके हाथ कटेंगे। परन्तु ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि जिस समय आप यह कानून लागू करेंगे, उसके साथ ही चोरी और डकैटी की दर में कमी आ जाएगी। ऐसे अपराध करने वाला यह कृत्य करने से पहले कई बार सोचेगा क्योंकि उसे अपने हाथ गँवा देने का भय भी होगा। केवल सज़ा की कल्पना मात्र से चोर डाकू हतोत्साहित होंगे और बहुत कम अपराधी अपराध का साहस जुटा पाएंगे। अतः केवल कुछ लोगों के हाथ काटे जाने से लाखों करोड़ो लोग चोरी-डकैती से भयमुक्त होकर शांति का जीवन जी सकेंगे। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि इस्लामी शरीअत व्यावहारिक है और उससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
उदाहरण
इस्लाम में महिलाओं का अपमान और बलात्कार हराम है। इस्लाम में स्त्रियों के लिये हिजाब (पर्दे) का आदेश है और व्यभिचार (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाने पर व्याभिचारी के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है
(क) इस्लाम में महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को रोकने का व्यावहारिक तरीकष स्पष्ट किया गया है
सभी प्रमुख धर्मों में स्त्री के साथ बलात्कार और ज़ोर-ज़बरदस्ती को अत्यंत घिनौना अपराध माना गया है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। तो फिर इस्लाम और अन्य धर्मों की शिक्षा में क्या अंतर है?
यह अंतर इस यर्थाथ में निहित है कि इस्लाम केवल नारी के सम्मान की प्ररेणा भर को पर्याप्त नहीं समझता, इस्लाम ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को अत्यंत घृणित अपराध कष्रार देकर ही संतुष्ट नहीं हो जाता बल्कि वह इसके साथ ही प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराता है कि समाज से इन अपराधों को कैसे मिटाया जाए।
(ख) पुरुषों के लिए हिजाब
इस्लाम में हिजाब की व्यवस्था है। पवित्र क़ुरआन में पहले पुरुषों के लिए हिजाब की चर्चा की गई है उसके बाद स्त्रियों के हिजाब पर बात की गई है। पुरुषों के लिए हिजाब का निम्नलिखित आयत में आदेश दिया गया हैः
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन पुरुषों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की हिफ़ाज़त करें। यह उनके लिए पाकीज़ा तरीकष है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उस से बाख़बर रहता है। (पवित्र क़ुरआन , 24ः30)
जिस क्षण किसी पुरुष की दृष्टि (नामहरम) स्त्री पर पड़े और कोई विकार या बुरा विचार मन में उत्पन्न हो तो उसे तुरन्त नज़र नीची कर लेनी चाहिए।
(ग) स्त्रियों के लिए हिजाब
स्त्रियों के लिए हिजाब की चर्चा निम्नलिखित आयत में की गई है।
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, अपना बनाव सिंघार न दिखाएं, केवल उसके जो ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों का आँचल डाले रहें।’’ (पवित्र क़ुरआन , 24ः31)
स्त्रियों के लिए हिजाब की व्याख्या यह है कि उनका शरीर पूरी तरह ढका होना चाहिए। केवल चेहरा और कलाईयों तक। हाथ वह भाग हैं जो ज़ाहिर किए जा सकते हैं फिर भी यदि कोई महिला उन्हें भी छिपाना चाहे तो वह शरीर के इन भागों को भी छिपा सकती है परन्त कुछ उलेमा-ए-दीन का आग्रह है कि चेहरा भी ढका होना चाहिए।
(घ) छेड़छाड़ से सुरक्षा, हिजाब
अल्लाह तआला ने हिजाब का आदेश क्यों दिया है? इसका उत्तर पवित्र क़ुरआन ने सूरह अहज़ाब की इस आयत में उपलब्ध कराया हैः
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) अपनी पत्नियों और पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें। यह उचित तरीकष है ताकि वह पहचान ली जाएं और सताई न जाएं। अल्लाह क्षमा करने वाला और दयावान है।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह अहज़ाब, आयत 59)
पवित्र क़ुरआन कहता है कि स्त्रियों को हिजाब करना इसलिए ज़रूरी है ताकि वे सम्मानपूर्वक पहचानी जा सकें और यह कि हिजाब उन्हें छेड़-छाड़ से भी बचाता है।
(ङ) जुड़वाँ बहनों का उदाहरण
जैसा कि हम पीछे भी बयान कर चुके हैं, मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। एक दिन वे दोनों एक साथ घर से निकलती हैं। एक बहन ने इस्लामी हिजाब कर रक्खा है अर्थात उसका पूरा शरीर ढंका हुआ है। इसके विपरीत दूसरी बहन ने पश्चिमी ढंग का मिनी स्कर्ट पहना हुआ है अर्थात उसके शरीर का पर्याप्त भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा है। गली के नुक्कड़ पर एक लफ़ंगा बैठा है जो इस प्रतीक्षा में है कि कोई लड़की वहाँ से गुज़रे अैर वह उसके साथ छेड़छाड़ और शरारत करे। सवाल यह है कि जब वे दोनों बहनें वहाँ पहुचेगी तो वह लफ़ंगा किसको पहले छेड़ेगा। इस्लामी हिजाब वाली को अथवा मिनी स्कर्ट वाली को? इस प्रकार के परिधान जो शरीर को छिपाने की अपेक्षा अधिक प्रकट करें एक प्रकार से छेड़-छाड़ का निमंत्रण देते हैं। पवित्र क़ुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि हिजाब स्त्री को छेड़-छाड़ से बचाता है।
(च) ज़ानी (कुकर्मी) के लिए मृत्युदण्ड
यदि किसी (विवाहित) व्यक्ति के विरुद्ध ज़िना (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो इस्लामी शरीअत के अनुसार उसके लिए मृत्युदण्ड है, आज के युग में इतनी कठोर सज़ा देने पर शायद ग़ैर मुस्लिम बुरी तरह भयभीत हो जाएं। बहुत से लोग इस्लाम पर निर्दयता और क्रूरता का आरोप लगाते हैं। मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरुषों से एक साधारण सा प्रश्न किया। मैंने पूछा कि ख़ुदा न करे, कोई आपकी पत्नी या माँ, बहन के साथ बलात्कार करे और आप को उस अपराधी को सज़ा देने के लिए जज नियुक्त किया जाए और अपराधी आपके सामने लाया जाए तो आप उसे क्या सज़ा देंगे? उन सभी ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि ‘‘हम उसे मौत की सज़ा देंगे।’’ कुछ लोग तो इससे आगे बढ़कर बोले, ‘‘हम उसको इतनी यातनाएं देंगे कि वह मर जाए।’’
इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई आपकी माँ, बहन या पत्नि के साथ बलात्कार का अपराधी हो तो आप उस कुकर्मी को मार डालना चाहते हैं। परन्तु यदि किसी दूसरे की पत्नी, माँ, बहन की इज़्ज़त लूटी गई तो मौत की सज़ा क्रूर और अमानवीय हो गई। यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?
(छ) अमरीका में बलात्कार की दर सब देशों से अधिक है
अब मैं एक बार फिर विश्व के सबसे अधिक आधुनिक देश अमरीका का उदाहरण देना चाहूँगा। एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1995 के दौरान अमरीका में 10,255 (एक लाख दो सौ पचपन) बलात्कार के मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार की समस्त घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत की ही रिपोर्ट्स दर्ज कराई गईं। अतः 1995 में अमरीका में बलात्कार की घटनाओं की सही संख्या जानने के लिए दर्ज मामलों की संख्या को 6.25 से गुणा करना होगा। इस प्रकार पता चलता है कि बलात्कार की वास्तविक संख्या 640,968 (छः लाख, चालीस हज़ार, नौ सौ अड़सठ) है।
एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की 1900 घटनाएं होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा विभाग के एक उप संस्थान ‘‘नैशनल क्राइ्रम एण्ड कस्टमाईज़ेशन सर्वे, ब्यूरो आफ़ जस्टिस’’ द्वारा जारी किए गए आँकड़ों के अनुसार केवल 1996 के दौरान अमरीका में दर्ज किये गए बलात्कार के मामलों की तादाद तीन लाख, सात हज़ार थी जबकि यह संख्या वास्तविक घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत थी। अर्थात सही संख्या जानने के लिए हमें इस तादाद को 3226 से गुणा करना होगा। गुणान फल से पता चलता है कि 1996 में अमरीका में बलात्कारों की वास्तविक संख्या 990,332 (नौ लाख, नब्बे हज़ार, तीन सौ बत्तीस) थी। अर्थात् उस वर्ष अमरीका में प्रतिदिन 2713 बलात्कार की वारदातें हुईं अर्थात् प्रति 32 सेकेण्ड एक बलात्कार की घटना घटी। कदाचित् अमरीका के बलात्कारी काफ़ी साहसी हो गए हैं। एफ.बी.आई की 1990 वाली रिपोर्ट में तो ये भी बताया गया था कि केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ़्तार हुए। यानी वास्तविक वारदातों के केवल 16 प्रतिशत अपराधी ही कानून के शिकंजे में फंसे। जिनमें से 50 प्रतिशत को मुकदमा चलाए बिना ही छोड़ दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि केवल 8 प्रतिशत बलात्कारियों पर मुकष्दमे चले। दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यदि अमरीका में कोई व्यक्ति 125 बार बलात्कार का अपराध करे तो संभावना यही है कि उसे केवल एक बार ही उसको सज़ा मिल पाएगी। बहुत-से अपराधी इसे एक अच्छा ‘‘जुआ’’ समझते हैं।
यही रिपोर्ट बताती है कि मुक़दमे का सामना करने वालों में 50 प्रतिशत अपराधियों को एक वर्ष से कम कारावास की सज़ा सुनाई गई। यद्यपि अमरीकी कानून में बलात्कार के अपराध में 7 वर्ष सश्रम कारावास का प्रावधान है। यह देखा गया है कि अमरीकी जज साहबान पहली बार बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार लोगों के प्रति सहानुभूति की भावना रखते हैं। अतः उन्हें कम सज़ा सुनाते हैं। ज़रा सोचिए! एक अपराधी 125 बार बलात्कार का अपराध करता है और पकड़ा भी जाता है तब भी उसे 50 प्रतिशत संतोष होता है कि उसे एक वर्ष से कम की सज़ा मिलेगी।
(ज) इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाए तो परिणाम प्राप्त
होते हैं
अब मान लीजिए कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाता है। जब भी कोई पुरुष किसी नामहरम महिला पर निगाह डालता है और उसके मन में कोई बुरा विचार उत्पन्न होता है तो वह तुरन्त अपनी नज़र नीची कर लेता है। प्रत्ेयक स्त्री इस्लामी कानून के अनुसार हिजाब करती है अर्थात अपना सारा शरीर ढाँपकर रखती है। इसके बाद यदि कोई बलात्कार का अपराध करता है तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जाए।
प्रश्न यह है कि यह कानून अमरीका में लागू हो जाने पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी अथवा कमी आएगी या स्थिति जस की तस रहेगी?
स्वाभाविक रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा कि इस प्रकार का कानून लागू होने से बलात्कार घटेंगे। इस प्रकार इस्लामी शरीअत के लागू होने पर तुरन्त परिणाम प्राप्त होंगे।
मानव समाज की समस्त समस्याओं का व्यावहारिक समाधान इस्लाम में मौजूद है
जीवन बिताने का श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस्लामी शिक्षा का अनुपालन किया जाए क्योंकि इस्लाम केवल ईश्वरीय उपदेशों का संग्रह मात्र नहीं है वरन् यह मानव समाज की समस्त समस्याओं का सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करता है। इस्लाम व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर सकारात्मक ओर व्यावहारिक मार्गदर्शन करता है। इस्लाम विश्व की श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है क्योंकि यह एक स्वाभाविक विश्वधर्म है जो किसी विशेष जाति, रंग अथवा क्षेत्र के लोगों तक सीमित नहीं है।
MUSALMANO KO AEKZUTH HONA CHAHYE
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प्रश्नः क्या कारण है कि मुसलमान विभिन्न समुदायों और विचाधाराओं में विभाजित हैं?
उत्तरः मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए।
यह सत्य है कि आज के मुसलमान आपस में ही बंटे हुए हैं। दुख की बात यह है कि इस प्रकार के अलगाव की इस्लाम में कोई अनुमति नहीं है। इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि उसके अनुयायियों में परस्पर एकता को बरक़रार रखा जाए।
‘‘सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूत पकड़ लो और अलगाव में न पड़ो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 3ः103)
वह कौन सी रस्सी है जिसकी ओर इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला ने इशारा किया है। पवित्र क़ुरआन ही वह रस्सी है, यही अल्लाह की वह रस्सी है जिसे समस्त मुसलमानों को मज़बूती से थामे रहना चाहि। इस पवित्र आयत में दोहरा आग्रह है, एक ओर यह आदेश दिया गया है कि अल्लाह की रस्सी को ‘‘मज़बूती से थामे रखें’’ तो दूसरी ओर यह आदेश भी है कि अलगाव में न पड़ो (एकजुट रहो)।
पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, आज्ञापालन करो अल्लाह का, और आज्ञापालन करो रसूल (सल्लॉ) का, और उन लोगों का जो तुम में साहिब-ए-अम्र (अधिकारिक) हों फिर तुम्हारे बीच किसी मामले में विवाद हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम वास्तव में अल्लाह और अंतिम दिन (किष्यामत) पर ईमान रखते हो। यही एक सीधा तरीकष है और परिणाम की दृष्टि से भी उत्तम है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4ः59)
सभी मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों का ही अनुकरण करना चाहिए और आपस में फूट नहीं डालनी चाहिए।
इस्लाम में समुदायों और अलगाव की मनाही है
पवित्र क़ुरआन का आदेश हैः
‘‘जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही तुम्हारा उनसे कोई वास्ता नहीं, उनका मामला तो अल्लाह के सुपुर्द है और वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 6ः159)
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर
(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे
ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे? नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
पवित्र क़ुरआन की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पवित्र सूरह की 67वीं आयत में पवित्र क़ुरआन बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’
कहने का आदेश देता है
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (पवित्र क़ुरआन , 41ः33)
ज्ञातव्य है कि यहाँ पवित्र क़ुरआन कह रहा है कि ‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’ दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64वीं आयत भी लिखवाते थेः
‘‘हे नबी! कहो, हे किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’
इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रहॉ), इमाम हम्बल (रहॉ) और ईमाम मालिक (रहॉ), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।
कुछ लोग फ़िरकषें (समुदायों) के तर्क में हुजूर (सल्ल.) की एक हदीस पेश करते हैं जो सुनन अबू दाऊद में (हदीस नॉ 4879) बयान की गई है जिसमें आप (सल्लॉ) का यह कथन बताया गया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी।’’
इस हदीस से स्पष्ट होता है कि रसूल अल्लाह (सल्लॉ) ने मुसलमानों में 73 फ़िरकष्े बनने की भाविष्यवाणी फ़रमाई थी। लेकिन आप (सल्लॉ) ने यह कदापि नहीं फ़रमाया कि मुसलमानों को फ़िरकषें में बंट जाने में संलग्न हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन हमें यह आदेश देता है कि हम फ़िरकषें में विभाजित न हों। वे लोग जो पवित्र क़ुरआन और सच्ची हदीसों की शिक्षा में विश्वास रखते हों और फ़िरकष्े और गुट न बनाएं वही सीधे रास्ते पर हैं।
तिर्मिज़ी शरीफ़ की 171वीं हदीस के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी, और वे सब जहन्नम की आग में जलेंगे, सिवाए एक फिरके के...।’’
सहाबा किराम (रज़ि.) ने इस पर रसूल अल्लाह (सल्लॉ) से प्रश्न किया कि वह कौन सा समूह होगा (जो जन्नत में जाएगा) तो आप (सल्लॉ) ने जवाब दिय ‘‘केवल वह जो मेरे और मेरे सहाबा का अनुकरण करेगा।’’
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में अल्लाह और अल्लाह के रसूल के आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है। अतः एक सच्चे मुसलमान को पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ का ही अनुकरण करना चाहिए। वह किसी भी आलिम (धार्मिक विद्वान) के दृष्टिकोण से सहमत भी हो सकता है जब कि उसका दृष्टिकोण पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ के अनुसार हो। यदि उस आलिम के विचार पवित्र क़ुरआन और हदीस के विपरीत हों तो उनका कोई अर्थ और महत्व नहीं, चाहे उन विचारों का प्रस्तुतकर्ता कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो।
यदि तमाम मुसलमान पवित्र क़ुरआन का अध्ययन पूरी तरह समझकर ही कर लें और मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसों का अनुकरण करें तो अल्लाह ने चाहा तो सभी परस्पर विरोधाभास समाप्त हो जाएंगे और एक बार फिर मुस्लिम समाज एक संयुक्त संगठित उम्मत बन जाएगा।