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बाबा साहब द्वारा इस्लाम और मुसलमानों की प्रशंसा PART 6

                     بسم اللہ الرحمن الرحيم
Part-6
बाबा साहब द्वारा इस्लाम और मुसलमानों की प्रशंसा
जहां मुसलमानों ने दलित वर्ग की क़दम-क़दम पर सहायता की है वहीं बाबा साहब ने भी इस्लाम धर्म और मुसलमानों की दिल खोल कर प्रशंसा की है। बाबा साहब यदि किसी धर्म को दिल से सबसे ज़्यादा पसंद करते थे तो वह केवल इस्लाम धर्म ही है। उदाहरण के लिए उन्हीं के शब्द आगे अंकित किए जा रहे हैं-
"ईसाई धर्म में, इस्लाम धर्म में जो समानता की शिक्षा दी गई है उसका संबंध विद्या, धन-दौलत, अच्छे कपड़े और बहादुरी ऐसे बाह्य कारणो से कुछ भी नहीं है। मनुष्य का मनुष्यतम (इंसानियत) यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। यह (इंसानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है और यह इंसानियत सबको मान्य होनी चाहिए। किसी को असमान नहीं मानना चाहिए। यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं।"(‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 23 से)
"धार्मिक संबंध के कारण तुर्कों का गठजोड़ अरबों से रहा। इस्लाम धर्म का सहयोग मानवता के लिए बहुत प्रबल है, यह बात सबको याद है। इस्लाम् बंधुत्व की दृष्टता की प्रतियोगिता कोई अन्य सामाजिक संघ नहीं कर सकता।"(पृष्ठ-244 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर)
बाबा साहब ने कहा है कि तीन धर्म हैं इस्लाम, ईसाई और सिख धर्म जिनमें से दलित वर्ग को अपनाना है। फिर साथ ही कहते हैं कि तीनों की तुलना करने पर इस्लाम दलित वर्ग को वह सब कुछ देता हुआ प्रतीत होता है जिसकी उसको आवश्यकता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म को बड़े ही श्रद्धा भाव से देखते थे। वे इसकी बुनियाद इंसानियत मानते थे। वे इस्लामी संघ को संसार में सुदृढ़ भाई-चारे का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक एवं गतिशील संघ मानते थे। फिर क्यों न हम अपनी मूल समस्या के समाधान के लिए लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्ण रूप से सक्षम, सामाजिक दासता की बेड़ियों को काटकर फेंकने के लिए और बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के सपनों को साकार बनाने के लिए इस्लाम जैसे प्यारे धर्म को अपनाएं जिससे कि सुख शांति एवं समृद्धि को प्राप्त कर ले और अपने परलोक को भी सुधार लें। आइए हम भी इस्लाम की शीतल छाया की ओर चल पड़ें।
‘राष्ट्रीयता के नाम पर हिन्दु लोग दलित वर्ग को धोखा दे सकते हैं। लेकिन मुसलमानों को मूर्ख नहीं बना सकते।'
कुछ लोग बाबा साहब की उस उक्ति को सामने रखना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘हम लोग यदि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आ जाएगा। याद रखिए धर्म परिवर्तन के साथ राष्ट्रीयता में कोई अन्तर नहीं आता। यदि ऐसा ही वे देश भी सोच लेते जहां के लोग आज बौद्ध धर्म को मानते हैं तो बौद्ध धर्म किसी अन्य देशवासियों ने न अपनाया होता, क्योंकि वह उनके देश में पैदा हुआ धर्म नहीं है। इस स्पष्टीकरण के साथ ही बाबा साहब की ही यह उक्ति अधिक ध्यान देने योग्य है कि वे (सवर्ण हिन्दु) राष्ट्रीयता के नाम पर निम्न हिन्दु (दलित वर्ग) को धोखा दे सकते हैं परन्तु अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए वे मुस्लिम क्षेत्र की मुस्लिम जनता को मूर्ख नहीं बना सकते। इसके साथ ही वहीं पर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘लिंकन का यह कथन सटीक है कि तमाम समय सब सोगों को मूर्ख बना सकना संभव नहीं है।'(पृष्ठ-114-115 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर, जुलाई 1972 संस्करण)
कुछ लोगों का कहना है कि इस्लाम विज्ञान को अपना शत्रु मानता है परन्तु बाबा साहब इसके उत्तर में कहते हैं कि "यह सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि इसमें यथार्थता होती तो जगत के अन्य मुस्लिम देशों में परिवर्तन, पूछताछ तथा सामाजिक सुधार की भावना की हलचल क्यों दिखाई देती ?"
यदि इन मुस्लिम देशों के सामाजिक सुधार में इस्लाम ने कोई व्यवधान नहीं डाला तो भारतीय मुसलमानों के सुधारवादी मार्ग में कोई बाधा क्यों पड़नी चाहिए? भारत में मुस्लिम जाति की उक्त गतिशून्यता को कोई विशेष कारण अवश्य है। यह विशेष कारण क्या हो सकता है ? मेरी समझ में भारतीय मुसलमानों में उक्त गतिशून्यता का मुख्य कारण उनकी वह विशिष्ट स्थिति है जिसमें वे रह रहे हैं। वे एक ऐसे सामाजिक वातावरण में रह रहे हैं जो मुख्य रूप से हिन्दु है और जो उन पर चुपचाप परन्तु दृढ़तापूर्वक अपना प्रभाव डाल रहा है।‘ (पृष्ठ-267 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर)

मुसलमानों में भी जातिवाद है ?
बाबा साहब ने इस संबंध में कहा है-
"धर्मांतरण के रास्ते में और भी एक अड़ंगा डाला जाता है। जाति भेद ग्रस्त होकर धर्मांतरण करने में कुछ भी लाभ नहीं है। इस प्रकार का युक्तिवाद कुछ मूर्ख हिन्दु लोग ही करते हैं। वे तर्क देते हैं- कहीं भी जाइए वहां पर भी जाति भेद ही है। ईसाईयौं में भी जातिभेद और मुसलमानों में भी है। अफ़सोस यह बात क़बूल करनी पड़ती है कि इस देश के अन्य धर्म समाजों में भी जातिभेद का प्रवेश हुआ है किन्तु इस अपराध के अपराधी हिन्दु लोग ही हैं। मूल में यह रोग उन्हीं से उत्पन्न हुआ है। उसका संसर्ग फिर अन्य समाजों को लगा है। यह उसकी दृष्टि से नाक़ाबिल बात है। ईसाई और मुसलमानों में यदि जाति भेद है भी तब भी वह जाति भेद हिन्दुओं के जाति भेद जैसा ही है, यह कहना ‘चोरों को सारे नज़र आते हैं चोर' वाली बात है। हिन्दुओं में जाति भेदभाव और मुस्लिम तथा ईसाईयों में जाति भेद इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। सबसे पहले तो यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मुसलमानों और ईसाईयों में जाति भेद होने पर भी वह उनके समाज का प्रमुख अंग नहीं है। हिन्दुओं को छोड़ कर यदि दूसरों से आप यह पूछते हैं कि आप कौन हैं तो वे कहेंगे- मैं मुसलमान हूं, या ईसाई। इतना ही उत्तर मिलने पर सबका (उत्तर देने वाले का और प्रश्न पूछने वाले का) समाधान हो जाएगा। तेरी जाति क्या है? यह पूछने या बताने की किसी को भी आवश्यकता नहीं है। किन्तु यदि आप किसी हिन्दु से पूछते हैं- "तुम कौन हो?" तो वह उत्तर देता है कि मैं हिन्दु हूं' तो इससे किसी का भी समाधान होने वाला नहीं है। न ही प्रश्न पूछने वाले का और न ही उत्तर देने वाले का। फिर प्रश्न पूछा जाता है कि तुम्हारी जाति क्या है? जब तक वह अपनी जाति का नाम न बताए किसी को भी उसकी वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलेगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दु समाज में जाति-पांति को कितनी प्रधानता दी गई है और ईसाई और मुस्लिम समाज में जाति को कितना गौण स्थान दिया गया है। यह बात स्पष्ट हो जाति है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 40 से)
"इसके अतिरिक्त हिन्दु और अन्य समाजों में और भी एक महत्वपूर्ण फ़र्क है। हिन्दुओं के जाति भेद के मूल में स्वयं उनका हिन्दु धर्म है। मुस्लिम और ईसाईयों के जाति भेद के मूल में उनके धर्म की स्थापना नहीं है। हिन्दुओं में जाति भेद समाप्त करने में उनका धर्म इसमें अड़ंगा बन जाता है हिन्दु ईसाई और मुसलमान लोगों ने अपना आपस का जाति भेद नष्ट करने का प्रयास किया तो उनका धर्म इसमें अड़ंगा नहीं बनता, बल्कि उनका धर्म जाति भेद को हतोत्साहित करता है। हिन्दुओं को अपने धर्म का विध्वंस किए बिना जाति विध्वंस करना संभव नहीं है। मुस्लिमों और ईसाईयों में जाति विध्वंस करने के लिए अपना धर्म विध्वंस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जाति विध्वंस के काम में उनका धर्म अड़ंगा बनने वाला नहीं है। जाति भेद सब में और सभी ओर है, यह क़बूल करने पर भी हिन्दु धर्म में ही रहो, ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। जाति भेद यह चीज़ यदि बुरी है तो जिस समाज में जाने पर जाति भेद की तीव्रता, जाति भेद का विनाश, शीघ्र, सहजता से और मूल रूप से नष्ट किया जा सकता है, यही वास्तव में तर्क सिद्ध सिद्धांत है, ऐसा मानना पड़ेगा।"(‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 41 से)
यद्यपि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि मुसलमानों में जाति-पांति केवल सुविधा के लिए है। ईर्ष्या, द्वेष या घृणा के लिए नहीं है, फिर भी यदि हम दोष के रूप में ले तो भी मुसलमानों में जाति वाद इतना गहरा नहीं जितना हिन्दुओं में है, क्योंकि इस्लाम धर्म में इसके लिए कोई स्थान नहीं है, जबकि हिन्दुओं में जातिवाद उनके धर्म का अभिन्न अंग है।
अत्यंत गंभीरता से सोचने की बात यह है कि क्या सिर्फ जाति वाद ही हमको परेशान कर रहा है ? ऐसी बात बिल्कुल निराधार है। केवल जातिवाद ही किसी को परेशान नहीं कर सकता। यदि हमारे लोगों को चमार कहा होता और हमें पूरी मुहब्बत और इज़्ज़त दी होती तो हमें क्या परेशानी थी ? यदि केवल जातिवाद ही परेशान करने वाला हो तो सवर्ण हिन्दुओं में भी तो अलग-अलग जातियां हैं और यहां तक की उनकी भी शादियां आपस में एक दूसरी जाति में नहीं होती हैं ऐसा होने पर भी बताइए ब्राह्मण से क्षत्रिय या वैश्य कहां परेशान हैं? या क्षत्रिय से ब्राह्मण और वैश्य कहां दुखी हैं? आदि-आदि। बल्कि ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य तो बेहद सौहार्द, प्रेम एवं सहयोग के साथ रहते हैं।
स्वयं अपनी तरफ़ देखिए - दलित वर्ग में भी तो अनेक जातियां हैं और उनमें भी एक दूसरे में शादियां नहीं होती हैं। इसके बावजूद भी बताइए भंगी चमार से कहां परेशान है ? चमार, भंगी से या खटीक से कहां परेशान है? रैगर चमार से या धानक से कहां परेशान है ? कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अलग-अलग जातियां होने से ही कोई परेशान नहीं है। केवल आप चमार जाति को ही देख लें। इसमें भी कई जातियां बन गई है और यहां तक कि इनमें भी आपस में शादियां नहीं होती हैं। चमड़ा रंगने वाले चमार के साथ नौकरी पेशा या खेती करने वाला चमार कभी शादी-सम्बंध नहीं करता है। लेकिन यदि चमड़ा रंगने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म ढाया जाता है तो नौकरी पेशेवाला चमार व्याकुल हो उठता है और उसकी सामर्थ्य अनुसार सहायता के लिए भी तैयार रहता है। ठीक इसी प्रकार यदि नौकरी या खेती करने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म या अत्याचार होता है तो चमड़ा रंगने वाला चमार या अन्य चमार बहुत दुखी होते हैं और उसे अपने ऊपर हुआ ज़ुल्म या अत्याचार समझते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि उनमें आपस में ईर्ष्या, घृणा या द्वेष नहीं है, बल्कि उसके स्थान पर प्यार, लगाव व सहानुभूति है।
कुछ भाई इस प्रकार की शंका पैदा करने लगते हैं कि धर्मांतरण के बाद हमारी या हमारे बच्चों की शादियां कैसे होंगी? इस सिलसिले में यह समझ लेना चाहिए कि सबसे पहले तो मुसलमान ही ब्याह शादियों के लिए तैयार रहते हैं और सदियों से भारतीय मुस्लिम समाज में यह सिलसिला जारी है। दूसरे हम आपस में भी तो रिश्ते कर सकते हैं।
मुसलमान में जब किसी बढ़ई, लुहार या सक्के के बेटे की बारात सज-धज कर शान से निकाली जाती है तो कोई भी शेख़, सैयद, मुग़ल या पठान उसमें बाधा नहीं डालता है, लेकिन हिन्दुओं में यदि किसी चमार या भंगी के बेटे की बारात सज-धज कर निकाली जाती है तो उसमें विघ्न डाला जाता है, उन पर पत्थर फेंके जाते है, कहीं उन्हें पीटा जाता है, और कहीं उनको ज़िंदा जला दिया जाता है। कफल्टा में दूल्हे के घोड़ी पर चढ़े होने के कारण ही 14 बारातियों को ज़िंदा जला दिया गया था। तात्पर्य यह है कि मुसलमानों में जाति के नाम पर घृणा, द्वेष या ईर्ष्या नहीं है जबकि हिन्दुओं में जाति के नाम पर हमसे घृणा, द्वेष और ईर्ष्या है जिसकी वजह से हम पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। अत्याचारों के इस सिलसिले को केवल इस्लाम ही समाप्त कर सकता है। मुसलमान होकर व्यर्थ की घृणा, द्वेष व अत्याचारों से बचा जा सकता है, जो हमारी मूल समस्या है। इस्लाम क़बूल करने से जहां एक दुनियावी समस्या हल हो जाती है वहीं हम अपने परलोक को को सुधारने का रास्ता भी पा लेते हैं।

इस्लाम की प्रमुख शिक्षाएं
ईश्वर एक है, उसका कोई साझी नहीं। वह अकेला है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह अत्यंत कृपाशील और दयावान है।
ईश्वर अपने बन्दों के प्रति इतना उदार है कि उनकी ग़लतियों और भूलों को क्षमा कर देता है बशर्ते कि वे उसकी ओर रुजू करें।
जिन लोगों ने ईश्वर का भय रखा और परहेज़गारी का जीवन बिताया उनके लिए स्वर्ग है। और जिन्होंने ईश्वर का इनकार किया और सरकशी का जीवन बिताया .उनका ठिकाना निश्चित रूप से नरक है।
जो व्यक्ति झूठ न बोले, वादा कर के न तोड़े, अमानत में ख़ियानत न करे, आंखें नीची रखे, गुप्त अंगों की रक्षा करे और अपने हाथ को दूसरों के दुख और कष्ट पहुंचाने से रोके, वह जन्नत में जाएगा।
घमण्ड से बचो। घमण्ड ही वह पाप है जिसने सबसे पहले शैतान को तबाह किया।
आपस में छल-कपट और वैर न रखो। डाह और इर्ष्या न करो, पीठ पीछे किसी की बुराई न करो। तुम सब भाई-भाई हो।
शराब कभी न पियो।
जीव-जन्तुओं को अकारण मत मारो।
माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो। मां-बाप की ख़ुशी में ईश्वर की ख़ुशी है।
बाल-बच्चों की अच्छी देखभाल करो, उनको अच्छी शिक्षा दो।
किसी इंसान को किसी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। हां, वह इंसान सर्वश्रेष्ठ है जिसके कर्म अच्छे हैं। चाहे उसका संबंध किसी भी देश अथवा संप्रदाय से हो।
ब्याज खाना और ब्याज का कारोबाकर हराम (अवैध) है।
नाप-तौल में कमी न करो।
सब के साथ न्याय करो, चाहे तुम्हारे रिश्तेदार हों या दुश्मन।
अगर कोई किसी इंसान को नाहक़ क़त्ल करता है तो मानो उसने सारे इंसानों की हत्या कर दी। और अगर कोई इंसान की जान बचाता है तो मानो उसने सारे इंसानों को ज़िंदगी बख़्शी।
सफ़ाई-सुथराई आधा ईमान है।
वह आदमी मुसलमान नहीं जो ख़ुद तो पेट भर खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे।
सारे इंसानों को मरने के बाद ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है और अपने कर्मों का हिसाब देना है। यह दुनिया तो इम्तेहान की जगह है। यहां हर इंसान अपने कर्म करने के लिए स्वयं है और इसी लिए अपने किए के लिए वह ख़ुद ज़िम्मेदार होगा। अल्लाह किसी को ज़ुल्म करने के लिए नहीं कहता।
ख़ुदा इंसानों के मार्ग दर्शन के लिए अपने पैग़म्बर भेजता रहा है और अंत में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को अपना आख़िरी पैग़म्बर बनाकर भेजा है। रहती दुनिया तक सारे इंसानों के लिए ज़रूरी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का अनुसरण करें।
क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई किताब है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के ज़रिए समस्त इंसानों की रहनुमाई के लिए भेजी गई। इसमें पूरी ज़िंदगी के लिए हिदायतें दी गई हैं।
जाति, रंग, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्र, राष्ट्रीयता के आधार पर किसी के साथ ऊंच-नीच, छूआछूत, भेदभाव और पक्षपात का व्यवहार न करो।
ग़लत तरीक़े से दूसरों का माल न खाओ। हलाल (वैध) कमाई करो।
मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मज़दूरी दे दो।

बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम PART 5

            بسم اللہ الرحمن الرحيم
Part-5
इस्लाम धर्म अपनाएं या ईसाई मत ?
फिर भी हम इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि कुछ लोग ईसाई धर्म अपनाने की भी सलाह देते हैं तो वे अपनी मूल समस्याओं को भूल जाते हैं अतः हमें अपनी मूल समस्याओं को फिर से याद कर लेना चाहिए क्योंकि अच्छा विचारक वही होता है जो अपनी मूल समस्याओं से न हटे, उसका पूरा ध्यान रखे। यदि रोग को तय कर लिया जाता है तो रोगी का ईलाज करने में अधिक कठिनाई नहीं होती है।
समस्याएं तो हमारे सामने बहुत-सी हैं, आर्थिक भी है, शिक्षा संबंधी भी हैं, लेकिन यह समस्याएं तो अन्य लोगों की भी हैं, सवर्णों की भी हैं। रोटी तो तभी मिलेगी जब हम काम करेंगे। शिक्षा की समस्याएं तो तभी हल होंगी जब हम अपने बच्चों को पढ़ाने की ठान लेंगे वर्ना तो शिक्षा की समस्त सुविधाएं होते हुए भी आज भी चेतना शून्य लोग अपने बच्चों को जूते पॉलिश करने के लिए भेज देते हैं ताकि शाम को दस रूपये कमा कर ले आए। कहने का मतलब यह है कि हमें पहले अपनी मूल समस्या की तरफ़ ध्यान देना चाहिए।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों गांव में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं, जिन्हें बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी आए दिन मारा-काटा और अपमानित किया जाता है। यह तरह-तरह के ज़ुल्म और अत्याचार और रोज़ाना की बेइज़्ज़ती कैसे रुके और बराबरी के साथ कैसे जीवन व्यतीत करें यह मूल समस्या है।
यद्यपि समस्या को सही रूप में लेना बहुत महत्वपूर्ण बात है, लेकिन कुछ निहित स्वार्थी लोग जिनमें कुछ हमारे अज्ञानी भाई भी शामिल हो सकते हैं, हमें हमारी मूल समस्या और हल की तरफ़ से हटाकर दूसरी ओर ले जाना चाहते हैं जहां हम व्यर्थ भटकते ही रहें और अपनी मंज़िल तक न पहंच पाएं।
हमें अपनी मूल समस्या का निदान ढूंढते हुए यह देखना चाहिए कि हम पर तरह-तरह के अत्याचार लाखों गांव में रोजाना कहीं न कहीं होते ही रहते हैं, इसलिए हमें उन्हीं लाखों गांव में रहने वाले मददगार चाहिएं। और हमें धन-दौलत की मदद देने वाला नहीं, बल्कि बेक़सूर होते हुए भी हमें निर्दयतापूर्वक क़त्ल करने वाले उन अत्याचारियों के हाथ रोकने वाला मददगार और मार्शल चाहिए, ताकि पहले अत्याचारी से हमारी जान बच सके।
ईसाई भारत देश के बहुत थोड़े से गांव में हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि वे हमारी रक्षा कर सकें। लेकिन मुसलमान इस देश के सत्तर फ़ीसदी गांव में हैं और वे ख़ुद में मार्शल हैं। वे अपनी क़ौम पर, धर्म बंधुओं पर अत्याचार होते हुए सहन नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि हम इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेते हैं तो निश्चय ही हमारी मूल समस्या हल हो जाएगी।

बाबा साहब इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे
बाबा साहब तो इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे तभी तो बाबा साहब ने कहा था कि "इस्लाम धर्म अपनाने से ही हमको वह सबकुछ मिल सकता है जो हमें चाहिए।" बाबा साहब कहते हैं "तीन धर्म हैं जिनमें से दलित वर्ग (एक को) चुन सकता है (1) इस्लाम धर्म (2) ईसाई धर्म (3) सिख धर्म। इन तीनों की तुलना करने पर इस्लाम धर्म दलित वर्ग का उद्देश्य पूरा करने वाला बताया और उसकी कलमतोड़ प्रशंसा की।"
पतित पावन दास महाराष्ट्र के दलित वर्ग में पैदा हुआ एक संत था जो की डॉ. अम्बेडकर का विश्वसनीय अनुयायी था। वह महाराष्ट्र मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन का अध्यक्ष था। अर्थात बाबा साहब के बहुत ही क़रीब था। अपने भाषणो में से एक भाषण में पतित पावन दास ने कहा "इस्लाम धर्म संपूर्ण (पूरा) एवं सार्वभौमिक धर्म है जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात उनको समान समझता है)। यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दु धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और यही कारण था कि गांधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। यह तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है।" (From page 144-145 of Thus Spoke Ambedkar Vol-IV by Bhagwan Das)
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के समकालीन दलितों के परम हितैषी डॉ. अम्बेडकर के मित्र और समर्थक महान विचारक पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर ने कहा कि-
"मित्रों! शूद्रपन की बीमारी हमारी बहुत भयंकर बीमारी है। यह कैंसर के समान है। बहुत पुराना मर्ज़ है। इसके लिए केवल एक ही औषधि है और वह है ‘इस्लाम'। इसके अलावा कोई औषधि नहीं है। यदि हमने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो हमको कष्ट सहना पड़ेगा। अपनी बीमारी को भूलने के लिए या बीमारी को दबाने के लिए नींद की गोलियां लेते रहना पड़ेगा और दुर्गंधयुक्त मुर्दों के रूप जीवन जीना पड़ेगा। इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने के लिए खड़े हो जाओ और उत्तम मानव की तरह चलो, केवल इस्लाम ही एक मार्ग है।" (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-13)
वहीं पर अन्तिम पैरे में ई. वी. रामास्वामी जी ने कहा है कि "मैं इस्लाम की वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं इस (इस्लाम) का प्रचार नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच्चाई है। मेरा मुसलसमानों से आपकी तुलना में कोई असाधारण प्रेम, मित्रता या विश्वास नहीं है। मैं आपके सामने क्या प्रस्तुत करना चाहता हूं वह है कि ब्राह्मणवाद के ज़हरीले सांप को मारने के लिए या इसकी भयंकर जकड़ से छुटकारा पाने के लिए केवल ‘इस्लाम' ही एक औषधि है। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-16)
इस्लाम की अन्य धर्मों से तुलना करते हुए ई. वी. रामास्वामी ने कहा है कि "इस देश में ईसाईयों में भी अछूत ईसाई हैं। उनमें से कुछ को बस कुछ शिक्षा दे दी गई है और वे अध्यापक के रूप में नियुक्त कर दिए गए हैं। ईसाई उनके साथ उस तरह का व्यवहार नहीं करते जैसा (अच्छा) कि मुसलमान करते हैं। इसलिए आर्य (हिन्दु) लोग ईसाईयों और सिखों से एक प्रकार की दोस्ती महसूस करते हैं। बौद्ध और जैन भी इस्लाम धर्म का विरोध करते हैं इस प्रकार यह आर्य लोग इस्लाम धर्म को अलग-थलग करने के लिए एक-दूसरे के साथ हैं। (इनकी) इस्लाम से घृणा स्वार्थ-वश, अपने बड़प्पन और जाति के आधार पर लाभ उठाने के कारण है। शूद्र लोग जो आख़िरकार ब्राह्मणों के ग़ुलाम हैं इस्लाम और मुसलमानों को दोषी सिद्ध करने में ब्राह्मणों का साथ देते हैं। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
रामास्वामी ने कहा है कि "इस्लाम् की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। एक ईश्वर और मानव समानता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हुई थी।" सारे अंधविश्वास, और मूर्तिपूजा को ख़त्म करने के लिए और युक्ति संगत, बुद्धिपूर्ण जीवन (Rational) जीने के लिए नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
दलित वर्ग में बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के विरोधी नेता मिस्टर जी. ए. गवई (M. L. C) ने एक वक्तव्य (Statement) जारी करके कहा था कि डॉ. अम्बेडकर ने इस्लाम धर्म ग्रहण करना तय कर लिया है। (From page no. 116 ‘Thus Spoke Ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
हिन्दु महासभा और अन्य प्रमुख हिन्दु नेताओं का भी यही कहना था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने जा रहा है । जिससे उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अतः यह सारे नेता बाबा साहब के पास गए और उन पर यही दबाव डाला कि वे इस्लाम धर्म न अपनाएं। जिसमें वे सफल हुए। (From page no. 145 ‘Thus Spoke ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
साथियों ! किसी भी मुद्दे पर किसी भी विद्वान के जो कि जीवित न हो विचार जानने का एक ही तरीक़ा है। और वह यह है कि उस विद्वान का स्वयं का कोई लेख या कथन मिल जाए तो यह सबसे उत्तम तथ्य या साक्ष्य माना जाएगा। उस विद्वान के उन विचारों को और अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए यह देखना होगा कि उस विद्वान के साथ रहने वाले उसके नज़दीकी और उसके पक्के किसी समर्थक ने भी उसी के सामने क्या ऐसे ही विचार उस मुद्दे पर रखे थे। और यदि उनके समकालीन उनके विरोधी भी उसी बात की पुष्टि करते हों तो फिर किसी भी प्रकार का संदेह बाक़ी नहीं रह सकता है। और उन्हें हम पूर्ण रूप से प्रामाणिक मान लेते हैं।
जब हम इसे सर्वमान्य सिद्धांत की दृष्टि से देखते हैं तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे।
आपने देखा कि प्रथम तो बाबा साहब ने स्वयं इस्लाम स्वीकार करने की वकालत की है दूसरे उनके परम सहयोगी सन्त पतित पावन दास ने उन्हीं के जीवन काल में इस्लाम धर्म ग्रहण करने की वकालत की थी। तीसरे उनके समय के दलित वर्ग में ही उनके विरोधी श्री जी. ए. गवई और एम. सी. राजा ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म गर्हण करने जा रहा है। इसके अलावा सवर्ण हिन्दुओं के नेताओं ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने जा रहा है। अतः इसके बाद कोई शक की गुंजाइश बाक़ी नहीं रह जाती है कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे। लेकिन ऐसा क्यों न कर सके इसको आगे स्पष्ट किया जाएगा।
इस्लाम मध्यम मार्ग है
आप इस बात से सहमत होंगे कि धर्म बेहतर जीवन जीने की कला (साधन) मात्र है। इसके संसार में हमें तीन रूप मिलते हैं। घोर ईश्वरवादी और घोर अनिश्वरवादी तथा बुद्धि परक ईश्वरवादी। घोर ईश्वरवादी इंसान को कोई अहमियत ही नहीं देते। घोर अनिश्वरवादी केवल मनुष्य को ही सब कुछ मानते हैं। यह दोनों रास्ते अतिवादी रास्ते हैं। हमने भी इन्हीं में से एक बौद्ध धर्म को चुना था। लेकिन एक तीसरा मध्यम मार्ग इस्लाम धर्म का है जो अल्लाह में भी विश्वास करता है लेकिन यह इंसान को भी अहमियत देता है। वह कहता है कि सारे संसार की तरह ही इंसान को भी अल्लाह ने ही बनाया है, लेकिन इंसान को अल्लाह ने स्वतंत्र छोड़ दिया कि वह जो भी भला-बुरा कर्म करना चाहे कर सकता है, और इस प्रकार अपने कर्मों के लिए ख़ुद इंसान ही ज़िम्मेदार है अल्लाह नहीं। अल्लाह नहीं कहता है कि कमज़ोरों पर अत्याचार करो, उनका शोषण करो, बल्कि उनसे तो ऐसे मज़लूमों के साथ हमदर्दी करने का आदेश दिया है। हमने ईश्वर को इस लिए मानना छोड़ा था कि हिन्दु धर्म में कहा गया है कि इंसान जो भी कर्म करता है ईश्वर के ही आदेश से करता है। अतः जो अत्याचार ग़रीबों के साथ हो रहे हैं वे ईश्वर के आदेश से ही हो रहे हैं। और इस प्रकार अत्याचार करने वाले का कोई दोष नहीं होता है। यह ईश्वरवादी दर्शन हमें पसंद नहीं था।
इसके अलावा हमारी समस्या दर्शन की नहीं है। जो हमारे लोगों को गांव में धूं-लट्ठ मारता है वह कोई दर्शन-फ़र्शन नहीं जानता है उसे तो यह पता है कि यह नीच हैं इन्हें मारना मेरा अधिकार है।

मुसलमानों द्वारा दलितों की सहायता
दूसरी तरफ़ आम मुसलमानों ने मानवीय आधार पर अछूतों की सदा ही कुछ-न-कुछ मदद की है। जब धर्म परिवर्तन करने की कोई भी बात न थी तब भी मुसलमानों ने अछूतों की मदद की। महाद तालाब के आंदोलनों में जब हिन्दुओं ने अछूतों को बेरहमी से मारा तब अछूतों ने मुसलमानों के ही घरों में शरण ली थी। जब महाद तालाब का जल पीने के लिए दोबारा आंदोलन करने के लिए पंडाल के लिए किसी भी हिन्दु ने जगह- नहीं दी थी तब मुसलमानों ने ही जगह दी थी। (पृष्ठ 74-75 जीवन संघर्ष)
बाबा साहब ने सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना की तो इसके निर्माण के लिए बंबई के मुसलमान सेठ हुसैन जी भाई लाल जी ने 50 हज़ार रूपया चंदा दिया और सर काउसजी जहांगीर ने भी सहयोग प्रदान किया किन्तु सखेद कहना पड़ता है कि श्री गोविंद मालवीय जी ने इसकी कटु आलोचना की। (पृष्ठ 125 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
"दूसरी गोल मेज़ कांफ़्रेंस में हिंदुस्तान के नेताओं में काफ़ी ले-दे हुई। अछूतों की मांग को कुचलने के लिए गांधी जी ने गुप्त संधि करने की कोशिश की और जिन्नाह साहब से गांधी जी ने कहा- ‘मैं तुम्हारी सब शर्तें मानने को तैयार हूं यदि तुम मेंरे साथ मिलकर अछूतों की मांग का विरोध करो।' परन्तु जिन्नाह साहब ने इस बात को स्वाकार नहीं किया और कहा ‘हम स्वयं अल्पसंख्यक होने के कारण जब विशेषाधिकार चाहते हैं' तो फिर हम दूसरे अल्पसंख्यकों की मांग का विरोध कैसे कर सकते हैं।" (पृष्ठ 13, पूना पैक्ट बनाम गांधी, लेखल शंकरानंद शास्त्री)
"हिन्दुओं ने बाबा साहब को विधान परिषद में न आने देने के लिए पूरे प्रबंध कर लिए थे। कहा जाता था कि हमने डॉ. अम्बेडकर के लिए विधान परिषद में आने के लिए तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं, तब बाबा साहब ने यूरोपियन वोट प्राप्त कर विधान परिषद में आना चाहा तो गांधी जी ने यह अड़ंगा लगाया कि बंगाल असेंबली के यूरोपियन सदस्यों को अपने वोट देने का अधिकार नहीं है। तब बाबा साहब योगेन्द्र नाथ मंडल और मुस्लिम लीग की सहायता से अछूतों के प्रतिनिधि निर्वाचित हो कर विधान परिषद में आ सके थे।" (पृष्ठ 141 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि हिन्दुओं ने दलित वर्ग के राजनेताओ को कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। जब जगजीवन राम का प्रधानमंत्री बनने का पूरा हक़ था उन्हें नहीं बनाया गया और इस तरह से अपमानित किया। दूसरी तरफ़ देखिए, गुजरात का हसन नाम का एक अछूत ग़ुलाम था। जो कि दिल्ली का सुलतान बना और सुलतान ख़ुसरो शाह के नाम से जाना गया। जिसे सभी मुस्लिम बादशाहों ने बादशाह के रूप में स्वीकार किया और किसी ने भी एतराज़ नहीं किया।