✍🏻... शैख़ असअद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
(क़िस्त:1)
*तेहवार जैसा माहौल*
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ईद और बक़र'ईद की तरह शब-ए-बरात भी बहुत सारे मुसलमानों के यहां त्यौहार के तौर पर मनाई जाती है कैलेंडरों और जंतरीओ में शब-ए-बरात की तारीख़ मख़्सूस और निशान-ज़द होती है सरकारी सत्ह पर यह दिन छुट्टी का दिन क़रार दिया गया है हत्ता कि इस्लामी मदारिस व जामि'आत भी इस मौक़ा' (अवसर) पर एहतिमाम के साथ बंद होते हैं जिन मुलाज़मत-पेशा (नौकरियां करने वालें) लोगों के यहां छुट्टी नहीं होती वो छुट्टी लेकर यह दिन अपने घर पर बाल-बच्चों के साथ गुजारते हैं बहुत सारे मु'आशरों (समाज) में ईद व बक़र'ईद की तरह इस दिन के लिए नए-नए कपड़े और दीगर (अन्य) लवाज़िमात (सामान) तैयार किए जाते हैं और उन मोहल्लों में वाक़ि'ई (सचमुच) उस रोज़ (दिन) त्यौहार जैसा ही माहौल रहता है जैसा कि लोग अच्छी तरह जानते हैं !
लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस्लाम में ईद और बक़र'ईद के 'अलावा (सिवा) किसी तीसरे त्यौहार का कोई वुजूद नहीं मौलाना अब्दुल हई फिरंगी रहिमहुल्लाह ’’الآثار المرفوعة‘‘ में लिखते हैं:
'आम जाहिलो ने इस रात (रजब की सताईस्वें और शा'बान की पंद्रहवीं) को गोया (जैसे) दो 'ईदें बना रखी है और शि'आर इस्लाम समझ रखा है हालांकि यह सरीह (साफ़) बिद'अत है इस में चराग़ और रौशनी करना बिल्कुल ख़िलाफ़-ए-सुन्नत है त'अज्जुब है कि लोग किस तरह बिद'अतो से चिमटे हुए हैं और सुन्नतों के मुत'अल्लिक़ (बारे में) परवाह नहीं करते "
(الآثار المرفوعة، ص: 62)
और अहसन-उल-फ़तावा में है:
सवाल: शब-ए-बरात में ईद (ख़ुशी) मनाना और हलवा पकाना कैसा है ?
जवाब: शब-ए-बरात में ईद (ख़ुशी) मनाने और हलवा पकाने का शरी'अत में कोई सुबूत नहीं लिहाज़ा (इसलिए) यह उमूर (काम) नाजाएज़ और बिद'अत है
(احسن الفتاوی :۱/۳۸۵ )
(जारी)
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(क़िस्त:2)
*रस्म-ए-आतिश-बाज़ी
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शब-ए-बरात की आमद (आगमन) से हफ़्तों पहले से ही मुस्लिम मोहल्लों में पटाखों के दिल हिला देने वाले धमाकों की गूँज सुनाई देने लगती है हर गली में और हर बच्चे के हाथ में पटाखे और आतिश-बाज़ी के सर-ओ-सामान (सामग्री) की मौजूदगी शब-ए-बरात की आमद (आने) का एक तरह से ए'लान हुआ करती है दूकानों और फ़ुटपाथों पर आतिश-बाज़ी के नौ'-ब-नौ' (तरह तरह के) सामान बड़े एहतिमाम (बंदोबस्त) से सजा दिए जाते है और उम्मत-ए-मुहम्मदिय्या के अफ़राद (आदमी) उन पर पानी की तरह पैसे ख़र्च करते हैं यह रस्म क़बीह (ख़राब) भी सरासर (बिल्कुल) हिंदुवानाँ रस्म (रिवाज) है दीवाली के मौक़ा' पर हिंदूओं के यहां जिस तरह आतिश-बाज़ी और पटाख़ों की हुक्म-रानी (हुकूमत) होती है ठीक वैसे ही (उसी तरह) नादान मुसलमान शब-ए-बरात के मौक़ा' पर करते हैं और अपनी जान और माल दोनों को दाव पर लगा देते हैं एक तरफ़ तो यह दा'वा कि यह रात इंतिहाई (बहुत) मुतबर्रिक (पाक) रात है जिसे ख़ुशू'-ओ-ख़ुज़ू' ('आजिज़ी) इनाबत इलल्लाह और 'इबादत-ओ-रियाज़त में बसर (गुज़ारना) चाहिए दूसरी तरफ़ इस-क़दर बे-हयाई, ग़ुल-ग़पाड़ा (हंगामा) और दहशत-अंगेज़ी ? (ख़ौफ़नाकी)
मौलाना अशरफ़ अली थानवी अलैहिर्रहमा आतिश-बाज़ी की क़बाहत ओ मज़र्रत (बुराई और नुक़्सान) को बयान करते हुए लिखते हैं:
" मिन-जुमला (कुल मिलाकर) इन रुसूम के आतिश-बाज़ी है इस में भी मुत'अद्दिद (अनेक) ख़राबिया जम' (इकट्ठा) है "
(1) माल का ज़ाए' (बर्बाद) करना जिस का हराम होना क़ुर'आन-ए-मजीद में मंसूस है
(2) अपनी जान को या अपने बच्चों को या पास-पड़ोस वालों को ख़तरा में डालना सदहा (बेशुमार) वाक़ि'आत (घटनाएं) ऐसे हो चुके हैं जिनमें आतिश-बाज़ो का हाथ उड़ गया मुँह जल गया या किसी के घर में आग लग गई जिस की हुरमत क़ुर'आन-ए-मजीद में मंसूस है फ़रमाया अल्लाह-त'आला ने: मत डालो अपनी जानों को हलाकत में
इस वास्ते (लिए) हदीष शरीफ़ में बिला ज़रूरत आग के तलब्बुस व क़ुर्ब से मुमान'अत आई है चुनांचे (इसलिए) खुली आग और जलता चराग़ छोड़ कर सोने को मना' फ़रमाया है
(3) बा'ज़ (चंद) आलात (औज़ार) आतिश-बाज़ी में काग़ज़ भी सर्फ़ (इस्तेमाल) होता है जो आलात 'इल्म से है और आलात-ए-'इल्म की बे-अदबी ख़ुद क़बीह (बुरा) अम्र है जैसा कि ऊपर बयान हुआ फिर ग़ज़ब यह है कि लिखें हुए काग़ज़ भी इस्ते'माल होते हैं ख़्वाह (चाहे) उस पर कुछ भी लिखा हो कुरआन या हदीष चुनांचे (जैसा कि) मुझसे एक मो'तबर (भरोसेमंद) शख़्स ने बयान किया कि मैंने काग़ज़ के बने हुए खेल देखे देखने से मा'लूम हुआ कि क़ुर'आन-ए-मजीद के वरक़ (पेज) है
(4) बच्चों को इब्तिदा (शुरुआत) से ता'लीम मा'सियत (गुनाह) की होती है जिन के वास्ते (लिए) शर'ई हुक्म है कि उन को 'इल्म-ओ-'अमल सिखाओ गोया (जैसे) "न'ऊजु-बिल्लाह" हुक्म-ए-शर'ई का पूरा मुक़ाबला है बिल-ख़ुसूस (खास तौर पर) शब-ए-बरात में यह ख़ुराफ़ात (बुराई) करना जो कि निहायत मुतबर्रिक शब (पाक रात) है यह बात मुक़र्रर (निश्चित) है कि औक़ात मुतब्बर में जिस तरह इता'अत करने से अज्र (सवाब) बढ़ता है इसी तरह मा'सियत (गुनाह) करने से गुनाह भी ज़ाइद (बहुत) होता है
(5) बा'ज़ (चंद) आलात (औज़ार) आतिश-बाज़ी ऊपर को छोड़े जाते हैं जैसे बेल और उड़न-अनार व ख़तंगा वग़ैरा अव्वल (पहले) तो बाज़ों के सर पर आकर गिरते हैं और लोगों को चोट लगती है 'अलावा इस के इस में याजूज-माजूज की मुशाबहत (बराबरी) है जिस तरह वह आसमान की तरफ़ तीर चलाएगे और कुफ़्फ़ार की मुशाबहत हराम है
(اصلاح الرسوم ، ص: ۱۹-۲۰)
*घरों की सफ़ाई*
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सफ़ाई-सुथराई पर इस्लाम ने बड़ा जोर दिया है बदन की सफ़ाई कपड़ों की सफ़ाई घर और बाहर की सफ़ाई हर एक का ताकीदी-हुक्म आया है यहां तक कि एक हदीस में सफ़ाई और पाकी (स्वच्छता) को निस्फ़ (आधा) ईमान कहा गया है लेकिन बेशतर (अधिकतर) मुस्लिम अफ़राद घराने और मु'आशरे (समाज) इस मु'आमले में बड़े बे-हिस (ग़ाफ़िल) वाक़े' हुए हैं और नापाकी और गंदगी ही को उन्होंने ग़ैर-इरादी तौर पर अपना शि'आर (आदत) बना रखा है मगर ऐसे ही लोगों ने शब-ए-बरात के मौक़ा' पर एक रस्म (रिवाज) यह भी ईजाद कर रखी है कि उस दिन सफाई का ख़ूब-ख़ूब (बहुत ज़ियादा) एहतिमाम करते हैं इस दिन ख़ुसूसियत से कपड़े धुलना, एहतिमाम से ग़ुस्ल करना घरों की सफ़ाई लीपा-पोती और चूना किली,रंग-ओ-रोग़न कराना ज़रूरी समझते हैं अगर ग़ौर किया जाए तो इस रस्म-ए-बद (बुरी परंपरा) का सिरा (किनारा) भी हिंदूओं से ही जा कर मिलता है हिंदू दिवाली के मौक़ा' (अवसर) पर अपने दूकान व मकान की सफ़ाई और तज़ईन ओ आराइश अपने मज़हबी 'अक़ीदे की रू से (अनुसार) करते हैं इस मौक़े' पर यह लोग नए बर्तन भी ख़रीदते है उन के ए'तिक़ाद (विश्वास) के मुताबिक़ (अनुसार) ऐसा करने से उन की
देवी ख़ुश होती है मुसलमानों ने भी अपने इस बनावटी तेहवार पर यह रस्में मुकम्मल तौर से अपना ली और इसे मज़हबी रंग में रंग दिया
मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहिमहुल्लाह लिखते हैं:
"बा'ज़ (चंद) लोगों ने इस (शा'बान की पंद्रहवीं तारीख़) में बर्तनों का बदलना और घर लीपना और ख़ुद इस शब (रात) में चराग़ों का ज़ियादा रौशन करना आदत कर ली है यह बिल्कुल रस्म कुफ़्फ़ार की नक़्ल है और हदीष तशब्बुह (हदीष में है कि:من تشبه بقوم فهو منهم
जो किसी क़ौम से मुशाबहत इख़्तियार करेगा वो उन्ही में से होगा) से हराम है "
(اصلاح الرسوم ،ص :۱۳۴)
(जारी...)
(क़िस्त:3)
*अनवा'-ओ-अक़साम के खाने*
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शब-ए-बरात के दिन यह भी देखा जाता है कि बहुत सारे घरों में लज़ीज़ (स्वादिष्ट) मुरग़्ग़न (घी में तरबतर) और मर्ग़ूब (पसंदीदा) खाने तैयार किए जाते हैं और दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां भेजे जाते हैं कुछ ग़ुरबा ओ मसाकीन (ग़रीब लोगों) के लिए भी हिस्सा लगता है हत्ता कि बेशतर (अधिकतर) नादार (ग़रीब) और ग़ैर-मुस्तती' (धनहीन) लोग क़र्ज़ लेकर इस काम को अंजाम देते हैं और इस में किसी किस्म की कोताही (ख़ामी) या कमी को बा'इस-ए-नंग-ओ-'आर (बदनामी और शर्म) समझते हैं और साथ ही सवाब से महरूमी (नाकामी) का सबब भी
अनवा'-ओ-अक़साम के इन खानो की तैयारी के पीछे जो मक़ासिद (मुरादें) पिंहाँ (पोशीदा) होते हैं उन में से एक अहम (ख़ास) और बुनियादी मक़्सद यह होता है कि हमारे बुज़ुर्गों और घर के मर्द लोगों की रूहें पंद्रहवीं शा'बान की रात में आती है उन के इस्तिक़बाल (स्वागत) और ज़ियाफ़त (दावत) के लिए यह एहतिमाम (बंदोबस्त) किया जाना चाहिए
चुनांचे (इसलिए) मौलाना अशरफ़ अली थानवी लिखते हैं:
" बा'ज़ (कुछ) लोग ए'तिक़ाद रखते हैं कि शब-ए-बरात वग़ैरा में मुर्दों की रूहें घरों में आती है और देखती है कि किसी ने हमारे लिए कुछ पकाया है या नहीं ज़ाहिर है (सब जानते हैं) कि ऐसा अम्र ए ख़फ़ी ब-जुज़ (सिवा) दलील नक़ली के और किसी तरह साबित नहीं हो सकता और वो यहां नदारद (खाली) है "
(اصلاح الرسوم ، ص:۱۳۲)
और खाना वग़ैरा तक़सीम करने के बारे में लिखते हैं:
" जो लोग मुस्तहिक़ ए इ'आनत (मदद के हक़दार) है उन को कोई भी नहीं देता या अदना दर्जा (सामान्य स्तर) का पका कर उन को दिया जाता है अक्सर अहल-ए-सरवत व बरादरी के लोगों को बतौर मु'आवज़ा के देते लेते हैं और निय्यत इस में यह होती है कि फ़ुलाँ शख़्स ने हमारे यहां भेजा है अगर हम न भेजेंगे तो वो क्या कहेगा ग़रज़ कि (मतलब ये है कि) इस में भी वही रिया ओ तफ़ाख़ुर (दिखावा और अभिमान) हो जाता है बा'ज़ (कुछ) लोग इस तारीख़ में मसूर की दाल ज़रूर पकाते हैं इस ईजाद (खोज) की वजह आज तक मा'लूम नहीं हुई लेकिन इस-क़दर ज़ाहिर (स्पष्ट) है कि मुअक्कद (पक्का) समझना बिला-शुब्हा (यक़ीनन) मा'सियत (गुनाह) है यह तो खाना पकाने में मफ़ासिद (बुराईयां) ईजाद करते हैं
(اصلاح الرسوم ، ص: ۱۳۳-۱۳۴)
फ़तावा महमूदिया में है:
मसअला: खाना तक़सीम करने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) इस शब (रात) (शब-ए-बरात) में ख़ास तौर पर कोई रिवायत मेरी नज़र-से नहीं गुज़री
(فتاوی محمودیہ :۱/۷۵)
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(क़िस्त:4)
हल्वा-ख़ोरी
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इस मौक़ा' (अवसर) पर जो पकवान पकाएं जाते हैं उनमें हल्वा को बुनियादी हैसियत हासिल होती है इस लिए इस का एहतिमाम कुछ ज़ियादा ही होता है इस हल्वे से मुत'अल्लिक़ (बारे में) जो पोच-लचर (बे-अस्ल) दलीलें दी जाती है उनके बारे में मौलाना अशरफ़ अली थानवी कहते हैं:
" बा'ज़ (कुछ) लोग कहते हैं कि हुज़ूर सरवर-ए-'आलम ﷺ का दंदान (दाँत) मुबारक जब शहीद हुआ था आप ने हल्वा नोश फ़रमाया था यह बिल्कुल मौज़ू' (बनावटी) और ग़लत क़िस्सा है इस का ए'तिक़ाद (यक़ीन) करना हरगिज़ जाइज़ नहीं यह 'अक़्लन (बौद्धिक रूप से) भी मुमकिन (संभव) नहीं इस लिए कि यह वाक़ि'आ शव्वाल में हुआ न कि शा'बान में
बा'ज़ (कुछ) लोग कहते हैं कि हज़रत अमीर हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत इन-दिनों में हुई थी यह उन की फ़ातिहा है यह महज़ (सिर्फ) बे-अस्ल (बेबुनियाद) है अव्वल तो त'अय्युन तारीख़ की ज़रूरत नहीं दुसरे ख़ुद यह वाक़ि'आ भी ग़लत है आप की शहादत भी शव्वाल में हुई थी शा'बान में नहीं हुई "
मज़ीद लिखते हैं:
" हल्वा की ऐसी पाबंदी है कि बदून (बिना) इस के समझते हैं कि शब-ए-बरात ही नहीं हुई इस पाबंदी में अक्सर (अधिकतर) फ़साद 'अक़ीदा भी हो जाता है कि इस को मुअक्कद ज़रूरी समझने लगते है फ़साद 'अमल भी हो जाता है
फ़राइज़ ओ वाजिबात से ज़ियादा इस का एहतिमाम (बंदोबस्त) करने लगते हैं इन ख़राबियों के 'अलावा वो तज्रिबा से एक और ख़राबी साबित होती है वो यह है कि निय्यत भी फ़ासिद हो जाती है सवाब वग़ैरा मक़्सूद नहीं रहता है ख़याल हो जाता है कि अगर अब की (इस बार) न किया तो लोग कहेंगे कि अब की (इस बार) ख़िस्सत व नादारी (कंजूसी और ग़रीबी) ने घेर लिया है इस इल्ज़ाम के रफ़' (ख़त्म) करने के लिए जिस तरह बन पड़ता है मन मार करता है इसी निय्यत से सर्फ़ (ख़र्च) करना महज़ (केवल) इसराफ़ व तफ़ाख़ुर (फ़ुज़ूल-ख़र्ची और अभिमान) है जिस का गुनाह होना बारहा (अनेक बार) मज़कूर हो चुका है कभी ऐसा भी होता है कि इस के लिए सूदी क़र्ज़ लेना पड़ता है यह जुदा (अलग) गुनाह है "
(اصلاح الرسوم، ص:۱۳۲-۱۳۳)
जस्टिस मौलाना तकी 'उस्मानी लिखते हैं:
वैसे तो (इस तरह तो) सारे साल के किसी भी दिन हल्वा पकाना जाइज़ हैं और हलाल है जिस शख़्स का जब दिल चाहे पका कर खाले लेकिन शब-ए-बरात से इस का क्या त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) ?
न क़ुरआन में इस का सुबूत हैं न हदीष में इस के बारे में कोई रिवायत न सहाबा के आसार में न ताबि'ईन के 'अमल में और बुज़ुर्गान-ए-दीन के 'अमल में कहीं इस का कोई तज़्किरा (ज़िक्र) नहीं लेकिन शैतान ने लोगों को हल्वा पकाने में लगा दिया "
रूहों की हाज़िरी का 'अक़ीदा
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तमाम एहतिमाम (व्यवस्था) में घरों की सफ़ाई वह आराइश (सजावट) नौ'-ब-नौ' (तरह तरह के) खाने और उनके साथ 'उम्दा क़िस्म की ख़ुशबूदार अगरबत्तियों से घरों को मो'अत्तर (ख़ुशबूदार) करना दरअस्ल इस नुक़्ता-ए-नज़र (विचार) से किए जाते हैं कि इस दिन गुज़रे हुए लोगों की रूहें तशरीफ़ लाती है और रात भर घरों में रह कर फिर सवेरे 'आलम-ए-अर्वाह की तरफ़ रख़्त-ए-सफ़र बाँधती है चुनांचे (इसलिए) इन्हीं रूहों का इस्तिक़बाल (स्वागत) करने के लिए घरों को सँवारते रौशनियों से सजाते और फ़ातिहा में उन को वो पसंदीदा अश्या (चीजें) पेश करते हैं जो ज़िंदगी में उन्हें मर्ग़ूब (पसंद) रही हो
रूहों के आने का यह तसव्वुर (ख़याल) सरासर (बिल्कुल) हिंदुवाना (हिंदूओं जैसा) और मुशरिकाना (काफिरों जैसा) है हिंदूओं का 'अक़ीदा हैं कि "पित्तर-पख" वग़ैरा के मौक़ा' (अवसर) पर पूर्वजों की आत्माएं (रूहें) आती है और उन्हें पिंड नज़र किया जाता है जिससे उन्हें शांति मिल जाती है और वापस हो जाती है यह पिंडाल के नाम से नदी में डाल दिए जाते है
इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र से रूहों की वापसी का 'अकीदा सरासर (बिल्कुल) ग़लत है इंसान के मर जाने के बाद दोबारा इस की रूह लौट कर दुनिया में नहीं आ सकती जैसा कि मौलाना अशरफ़ अली थानवी का यह क़ौल गुज़र चुका है कि:
" बा'ज़ (कुछ) लोग ए'तिक़ाद (विश्वास) रखते हैं कि शब-ए-बरात वग़ैरा में मुर्दों की रूहें घरों में आती है और देखती है कि किसी ने हमारे लिए कुछ पकाया है या नहीं ज़ाहिर (स्पष्ट) है कि ऐसा अम्र ए ख़फ़ी ब-जुज़ दलील नक़ली के और किसी तरह साबित नहीं हो सकता और वो यहां नदारद है "
(اصلاح الرسوم ، ص:۱۳۲)
इस 'अलावा (सिवा) दर्ज ज़ैल फ़तावा भी मुलाहज़ा फ़रमाए :
सवाल: मय्यत की रूह मकान में आती है या नहीं ?
अगर नहीं आती तो ख़्वाब में क्यूं नज़र आती है ?
जवाब: ख़्वाब में किसी मय्यत का नज़र आना इस को मुक़तज़ी नहीं है कि इस की रूह मकान में आए बल्कि (किंतु) ख़्वाब में नज़र आना ब-सबब त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) रूहानियत के है
मकान से इस को कुछ त'अल्लुक़ आने का नहीं बहुत से ज़िंदा
लोगों को जो दूर-दराज़ (बहुत दूर) पर है ख़्वाब में देखा जाता है पस (इसलिए) ख़्वाब का क़िस्सा जुदा है अज्साम (शरीर) ज़ाहिरी का इत्तिसाल (मिलना) इस के लिए ज़रुरी नहीं है 'आलम-ए-अर्वाह दुसरा 'आलम (संसार) है "
(فتاوی دارالعلوم : ۵/۴۶۰)
सवाल: अर्वाह (रूहें) मोमिनीन हर जुम'आ की शब (रात) को अपने अहल-ओ-'अयाल में आती है यह सहीह हैं या नहीं ?
इस तरह का 'अक़ीदा (ईमान) रखना दुरुस्त (ठीक) है या नहीं ?
जवाब: अर्वाह (रूहें) मोमिनीन का शब जुम'आ (जुम'आ की रात) वग़ैरा को अपने घर आना कही साबित नहीं हुआ यह रिवायत वाहिया (ग़लत) है इस पर हरगिज़ 'अक़ीदा नहीं करना चाहिए "
(فتاوی رشیدیہ، ص:۲۶۹)
(जारी...)
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(क़िस्त:5)
रूह मिलाने का 'अक़ीदा
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रूहों से त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से कुछ मुसलमानों का यह भी 'अकीदा होता है कि जो शख़्स शब-ए-बरात से पहले इंतिक़ाल कर जाता है उस की रूह दुसरी रूहों में नहीं मिलती आवारा भटकती रहती है लिहाज़ा (इसलिए) जब शब-ए-बरात आती है तो रूह को रूहों में मिलाने का ख़त्म दिलाया जाता है हर क़िस्म के 'उम्दा खाने,मेवे,फल और कपड़े वग़ैरा मजलिस में रख कर इमाम मस्जिद ख़त्म पढ़ते हैं और रूहों में मिला देते हैं बा'दहु खाने,मेवे,फल और क़ीमती कपड़े वग़ैरा उठाकर ले जाते है मय्यत के घर वाले शुक्र अदा करते हैं कि उन के मरने वाले 'अज़ीज़ की रूह रूहों में शामिल हो गई अगर न होती तो उस की बद-दु'आ से घर वालों पर तबाही आनी थी
इस 'अक़ीदा का बुतलान (खंडन) अज़हर-मिनश्शम्स (जग ज़ाहिर) है चुनांचे (इसलिए) मौलाना अशरफ़ अली थानवी लिखते हैं:
" बा'ज़ (कुछ) लोग समझते हैं कि जब शब-ए-बरात से पहले कोई मर जाए तो जब तक कि उस के लिए फ़ातिहा शब-ए-बरात न किया जाए वो मुर्दों में शामिल नहीं होता यह भी महज़ (सिर्फ) तसनीफ़ याराँ और बिल्कुल लग़्व (झूठ) है बल्कि (किंतु) रिवाज है कि अगर तेहवार से पहले कोई मर जाए तो कुंबा (परिवार) भर में पहला तेहवार नहीं होता हदीसों में साफ़ मज़कूर (उल्लेखित) है कि जब मुर्दा मरता है तो मरते ही अपने जैसे लोगों में जा पहुंचता है यह नहीं कि शब-ए-बरात तक अटका रहता है "
(اصلاح الرسوم ، ص:۱۳۲-۱۳۳)
रूह मिलाने का एक दिल-चस्प वाक़ि'आ एक गांव का ज़मीन-दार चौधरी फ़ौत हो गया जब शब-ए-बरात आई तो धूम-धाम से चौधरी साहब की औलाद ने रूह मिलाने के ख़त्म का एहतिमाम (बंदोबस्त) किया दस बारह जोड़े बेशक़ीमत (क़ीमती) कपड़े अनवा'-ओ-अक़साम के खाने और बहुत से क़ीमती बर्तन वग़ैरा ख़त्म में रखें गए और बरादरी इकट्ठी हुई मियाँ-साहब ने ख़त्म कहना शुरू' किया जब हाथ उठाकर दु'आ मांगी तो हाथों को मुंह पर फेरने के बजाए उन्हें यूहीं छोड़ दिया और एक ही साँस लेकर कहा: आह रूह रूहों में में मिलना नहीं चाहती यह सुनकर चौधरी साहब के सब घर वाले घबरा गए और कहने लगे कि अब क्या होगा अगर रूह रूहों में न मिली तो हम पर वबाल (मुसीबत) ज़रुर आजाएगा मियाँ-जी जिस तरह हो सके रूह को मिला दो रूहों से
मियाँ-जी ने फिर बहुत कुछ पढ़ा और हाथ उठाकर मुंह पर न फेरे यूँही है छोड़ दिए और कहा कि रूह रूहों में नहीं मिलना चाहती सब घर वाले बहुत परेशान हो गए और रो-रो कर कहने लगे: मियाँ-जी ख़ुदा के वास्ते रूह मिलाने की कोशिश करो फिर मियाँ-जी ने कुछ पढ़ा और आसमान की तरफ़ देखा और कहा कि चौधरी साहब की रूह कहती हैं कि इस ख़त्म में जब तक 'उम्दा (श्रेष्ठ) सेहत-मंद भैंस ला कर न रखोगे मैं रूहों में नहीं मिलूंगी घर वाले एक सेहत-मंद नौजवान दूध वाली भैंस भी खोलकर लाए और उसे ख़त्म की दुसरी चीज़ों में शामिल कर दिया अब के (फिर) मियाँ-जी ने दु'आ के लिए हाथ उठाया और जल्द ही ख़ुशी से मुंह पर फेर कर कहा: मुबारक हो रूह रूहों में मिल गई है घर वाले बड़े ख़ुश हुए और ख़त्म की सब चीज़े उठाकर मा' (समेत) भैंस मियाँ-जी के घर छोड़ आए
(خانہ سازشریعت، ص:۲۵۰)
(जारी...)
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(क़िस्त:6)
हज़ारी नमाज़
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एक ख़तरनाक बिद'अत यह भी है कि पंद्रहवीं शा'बान की शब (रात) में कुछ लोग एक मख़्सूस क़िस्म की नमाज़ पढ़ते हैं जिसे "صلاة الالفية"
(हज़ारी नमाज़) के नाम से मौसूम (मशहूर) करते हैं इस का तरीक़ा यह इख़्तियार करते हैं कि सो रक'अते पढ़ते हैं हर रक'अत में दस दस बार सूरा-ए-इख़लास की क़िरात
करते हैं
इस बिद'अत का आग़ाज़ कहा से हुआ इस के बारे में इमाम 'इज़्ज़ बिन अब्दुल सलाम लिखते हैं:
"बैत-उल-मुक़द्दस में सलात-उल-रग़ाइब (यह माह-ए-रजब में पढ़ी जाने वाली एक मुब्तदि'आना नमाज़ है) या निस्फ़ शा'बान की नमाज़ नहीं होती थी लेकिन हुआ यह कि 488 हिज्री में इब्न अल-हई नामी नाबलुस का एक शख़्स यहां आया इस की तिलावत कुरआन बहुत अच्छी थी इस ने मस्जिद-ए-अक़्सा में शब निस्फ़ शा'बान को नमाज़ शुरू' की उस
के पीछे एक शख़्स आ कर नमाज़ के लिए खड़ा हो गया फिर दो-चार (कुछ) और आ गए और नमाज़ ख़त्म होते-होते (धीरे-धीरे) पुरी जमा'अत बन गई अगले साल वो फिर आया तो बहुत से लोगों ने इस के पीछे नमाज़ पढ़ी और इस तरह यह मस्जिद-ए-अक़्सा और 'आम लोगों के घरों में फैल गई और आज-तक इस तरह से बरक़रार (मौजूद) है जैसे कोई सुन्नत हो
(ब-हवाला माह-नामा दारुल-'उलूम देवबंद शुमारा नवम्बर 2000 सन-ए-'इसवी पेज नंबर :28)
और मुल्ला अली क़ारी इस मन-घड़त नमाज़ की फ़ित्ना-अंगेज़ियां बयान करते हुए लिखते हैं:
"बा'ज़ (कुछ) रसाइल (पत्रिका) में है: अली बिन इब्राहीम ने कहा इस नमाज़ ने 'अवाम में एक बड़ा फ़ित्ना जनम दिया है इस के सबब (कारण)
कसरत से चराग़ाँ करने का एहतिमाम (बंदोबस्त) होता है इस-क़दर (इतना) फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर और बे-हुरमती होती कि नाक़ाबिल-ए-बयान है हत्ता कि औलिया-अल्लाह इस डर से जंगलों को भागे कि कहीं ज़मीन धँस न जाए
मसाजिद के जाहिल अइम्मा ने इस नमाज़ और "صلاة الرغائب"
वग़ैरा नमाज़ों को 'अवाम को फाँसने का जा'ल बनाया है इस से इक़्तिदार क़ाएम करते हैं दुनियावी ठेकरे इकट्ठा करते हैं लेकिन अल्लाह-त'आला ने अइम्मा ए हिदायत को इस के ख़ातिमा की कोशिश करने की तौफ़ीक़ (हिम्मत) दी बिल-आख़िर मिस्री व शामी शहरों से आठवीं सदी हिजरी के शुरू' में इस का बिल-कुल्लिया (पूरे तौर पर) ख़ातिमा हो गया "
(مرقاۃ المفاتیح:۳/۱۹۷-۱۹۸)
इस नमाज़ से मुत'अल्लिक़ (बारे में)
रिवायत की इस्तिनादी हैसियत बयान करते हुए मुल्ला अली क़ारी लिखते हैं: ’’اللٓالی‘‘ में लिखा है कि शब निस्फ़ शा'बान में सो रक'अत और हर रक'अत में दस बार सूरा-ए-इख़लास पढ़ने के बारे में देल्मी वग़ैरा में लम्बे चौड़े फ़ज़ाइल का ज़िक्र है यह रिवायत मौज़ू' (मन-घड़त) है "
(مرقاۃ المفاتیح:۳/۱۹۷)
(जारी...)
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(क़िस्त:7)
क़ब्रिस्तान की ज़ियारत
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क़ब्रिस्तान की ज़ियारत के लिए जाते रहना नबी करीम ﷺ की सुन्नत है और बा'इस अज्र-ओ-सवाब है
मुख़्तलिफ़ हदीषो में इस की तर्ग़ीब (प्रेरणा) दिलाई गई है और इस के दो अहम मक़ासिद और फ़वाइद (फ़ाइदे) की तरफ़ तवज्जोह दिलाई गई है:
(1) क़ब्रिस्तान की ज़ियारत से मौत की याद ताज़ा होती है क़ब्र की वहशत ओ तन्हाई का ख़याल कर के आदमी के अंदर इस दुनिया-ए-फ़ानी से बे रग़बती पैदा होती है और सलाह-ओ-ता'अत के कामों की तरफ़ मिलान बढ़ता है
(2) मुर्दों के लिए दु'आ व इस्तिग़फ़ार किया जाता है इस तरह ज़िंदा लोगों की ज़ियारत से मुर्दों को फ़ाइदा पहुंचता है नबी करीम ﷺ अक्सर-ओ-बेशतर मदीना के बक़ी' नामी क़ब्रिस्तान जाया करते थे ख़ास तौर से रात की तारीकी व तन्हाई में
हज़रत आइशा कहती हैं कि एक रात मैंने अल्लाह के रसूल ﷺ को देखा कि मौजूद नहीं है मैं आप को तलाश करने लगी तो पता चला कि बक़ी' क़ब्रिस्तान में है आप ﷺ ने कहा: ऐ आइशा क्या तुम्हें डर था कि अल्लाह और उसके रसूल तुम पर ज़ुल्म करेंगे
मैंने कहा कि अल्लाह के रसूल मैंने सोचा कि शायद आप किसी दुसरी बीवी के पास चले गए हैं आप ने फ़रमाया: पंद्रहवीं शा'बान की रात अल्लाह-त'आला आसमान दुनिया पर नुज़ूल फ़रमाता है और क़बीला बनू कल्ब की बकरियों के बालों की ता'दाद (संख्या) से ज़ियादा लोगों को बख़श देता है "
(तिर्मिज़ी, इब्ने माजा)
हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की इस हदीष में शा'बान की पंद्रहवीं शब (रात) को बक़ी' क़ब्रिस्तान जाने का तज़्किरा (ज़िक्र) मिल गया और हम ने इसी को बुनियाद (आधार) बना कर इस शब (रात) क़ब्रिस्तान जाना एक तरह से ज़रूरी और फ़र्ज़ क़रार दे दिया और इस पर बड़ी पाबंदी से 'अमल-पैरा हो गए लेकिन इस मौक़ा' पर चंद बातें संजीदगी (गंभीरता) से ग़ौर करने की है:
1: इसे रिवायत में ज़ो'फ़ (कमज़ोरी) है चुनांचे (जैसा कि) मौलाना मोहम्मद यूसुफ़ बनुरी लिखते हैं:
" हदीष बाब सेहत के दर्जा को नहीं पहुंचती इस लिए कि इस की सनद में हज्जाज बिन अर्तात है इस की सनद में दो जगहों पर इन्क़िता' है जिन को इमाम तिर्मिज़ी ने बयान किया है अलबत्ता (लेकिन) इब्ने मु'ईन ने यहया के लिए अरवा' से समा' (सुनना) साबित क़रार दिया है और किसी चीज़ को साबित करने वाला इंकार करने वाले पर मुक़द्दम होता है लिहाज़ा (इसलिए) अब सिर्फ़ एक जगह इन्क़िता' रह गया यह बात अल्लामा 'ऐनी ने "العمدة"
में है: (معارف السنن :۵/۴۲۰-۴۲۱)
मौसूफ़ आगे लिखते हैं:
" इस शब (रात) की फ़ज़ीलत में बेहतरीन हदीष यही हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हो सकती है इस को इब्ने अबि शैबा, इमाम बैहकी और इब्ने माजा ने भी रिवायत किया है ताहम (फिर भी) यह हदीष मुनक़ते' है शब-ए-बरात की फ़ज़ीलत में कोई मुसनद, मरफ़ू,' सहीह हदीष मेरी वाक़फ़ियत (जानकारी) में नहीं है
(معارف السنن: ۵/ ۴۱۹)
अगर हदीष मज़कूर (उल्लेखित) सहीह सनद से भी मर्वी होती तब भी दर्ज ज़ैल सवालात पैदा होते है
2: क्या सिर्फ़ शब-ए-बरात में ही आप ﷺ से ज़ियारत क़ुबूर साबित है या इस के अलावा भी आप क़ब्रिस्तान की ज़ियारत करते थे ?
अगर वाक़ि'ई सुन्नत समझकर इस काम को अंजाम देते हैं तो फिर अपनी तरफ़ से इस में त'यीन ओ तख़सीस का क्या मतलब ?
3: हमारे क़ब्रिस्तान जाने का जो सालाना मा'मूल (रस्म) है इस में 'आम तौर से (अक्सर) यही देखा जाता है कि मग़रिब की नमाज़ से फ़ारिग़ होते ही इस काम को अंजाम दे कर अपने आप को फ़रिग कर लेते हैं क्या मज़कूरा हदीष में ऐसा ही साबित है ? या यह कि अल्लाह के रसूल ﷺ रात की तारीकियों में जब लोग ग़फ़लत की नींद सो रहे होते तब जाते थे ?
4: क्या अल्लाह के रसूल तन्हा (अकेले) क़ब्रिस्तान गए थे या अहल-ओ-'अयाल और दोस्त व अहबाब के साथ जैसा कि हमारा मा'मूल (रिवाज) है ? हदीष के अलफ़ाज़ साफ़ बतला रहे हैं कि अहल-ओ-'अयाल को ले जाना तो दूर की बात है उन को इस "शब-ए-बरात" और इस में की जाने वाली ख़ुसूसी ज़ियारत का पहले से कोई 'इल्म सिरे (शुरू') से था ही नही वर्ना (नहीं तो) हज़रत आइशा के दिल में दुसरे जो ख़यालात पैदा हुए थे न होते
5: इस दिन ख़ास तौर से क़ब्रिस्तान में रौशनी का एहतिमाम (बंदोबस्त) किया जाता है कहीं कम कहीं ज़ियादा जब कि एक हदीष में अल्लाह के रसूल ﷺ ने क़बरों पर चराग़ जलानें वाले पर सराहत से ला'नत भेजी है
(अबू दाऊद,नसाई,तिर्मिज़ी)
6: रौशनी के एहतिमाम (बंदोबस्त) के अलावा और भी बहुत सारे मफ़ासिद (बुराईयां) इस मौक़ा' पर मुलाहज़ा किए जाते हैं जो ज़ियारत क़ुबूर को इस के हक़ीक़ी (अस्ली) मक़ासिद (लक्ष्य) से हटा देते हैं और बा'इस-ए-अर्ज़-ओ-सवाब बनने के ब-जाए बा'इस-ए-ज़हमत-ओ-'अज़ाब बना देते है मसलन (जैसे) मर्द-ओ-ज़न (मर्द और औरत) का इख़्तिलात (मेल-जोल) 'उर्यानियत व बे-पर्दगी मेलों जैसा
समाँ (नज़ारा) ग़ैर-मशरू' अंदाज़ की फ़रियाद ओ पुकार वग़ैरा-वग़ैरा
इन मा'रूज़ात (बयानात) को पेश करने से हमारा मक़्सद हरगिज़ यह नहीं है कि किसी को क़ब्रिस्तान की ज़ियारत से रोका जाए और इस पर किसी तरह का कोई हुक्म लगाया जाए बल्कि (किंतु) मक़्सद सिर्फ़ इतना है कि अगर वाक़ि'ई (सचमुच)
हम इस काम को सुन्नत समझकर और अज्र-ओ-सवाब की निय्यत से करते हैं तो इन हुदूद ओ क़ुयूद का ज़रूर इल्तिज़ाम करे और अपनी तरफ़ से किसी भी मनमानी से परहेज़ करे यह मेरा ज़ाती मशवरा या गुज़ारिश हरगिज़-नहीं बल्कि 'उलमा ए 'इज़ाम ही की नसीहतों और हिदायतों का इ'आदा (दोहराना) है चुनांचे (इसलिए) मोहम्मद तक़ी 'उस्मानी लिखते हैं:
" इस रात में एक और 'अमल (काम) है जो एक रिवायत से साबित है वो यह है कि हुज़ूर नबी करीम ﷺ जन्नत-उल-बक़ी' में तशरीफ़ ले गए थे इस लिए मुसलमान इस बात का एहतिमाम (बंदोबस्त) करने लगे कि शब-ए-बरात में क़ब्रिस्तान जाए लेकिन मेरे वालिद-ए-माजिद हज़रत मुफ़्ती मोहम्मद शफ़ी साहिब एक बड़े काम की बात बयान फ़रमाया करते थे हमेशा याद रखना चाहिए फरमाते थे कि जो चीज़ रसूल करीम ﷺ से जिस दर्जें में साबित हो इसी दर्जा में इसे रखना चाहिए इस से आगे नहीं बढ़ना चाहिए लिहाज़ा (इसलिए) सारी हयात-ए-तय्यिबा में रसूल करीम ﷺ से एक मर्तबा जन्नत-उल-बक़ी' भी जाना मर्वी है (या'नी पंद्रहवीं शा'बान के त'अल्लुक़ से) कि आप शब-ए-बरात में जन्नत-उल-बक़ी' तशरीफ़ ले गए चूँकि (इसलिए कि) एक मर्तबा जाना मर्वी है इस लिए तुम भी अगर ज़िंदगी में एक मर्तबा चले जाओ तो ठीक है लेकिन हर शब-ए-बरात में जाने का एहतिमाम (बंदोबस्त) करना इल्तिज़ाम करना और इस को ज़रूरी समझना और इस को शब-ए-बरात के अरकान में दाख़िल करना और इस को शब-ए-बरात का लाज़िमी हिस्सा समझना और इस के बग़ैर यह समझना कि शब-ए-बरात नहीं होती यह इस को इस के दर्जा से आगे बढ़ाने वाली बात है लिहाज़ा (इसलिए) अगर कभी कोई शख़्स इस नुक़्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण) से क़ब्रिस्तान चला गया कि हुज़ूर नबी करीम ﷺ तशरीफ़ ले गए थे मैं भी आप की इत्तिबा' (पैरवी) में जाता हूं तो इंशा-अल्लाह अज्र-ओ-सवाब मिलेगा लेकिन इस के साथ यह करो कि कभी न जाओ लिहाज़ा (इसलिए) एहतिमाम (बंदोबस्त) और इल्तिज़ाम न करो पाबंदी न करो यह दर-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) दीन की समझ की बात है कि जो चीज़ जिस दर्जा में रखो उस से आगे मत बढ़ाओ "
(اصلاحی خطبات :۴/۲۴۱-۲۴۲)
और मौलाना मोहम्मद रिफ़'अत कासमी फरमाते हैं:
" इस शब (रात) मुबारक में एक 'अमल यह मज़कूर (उल्लेखित) है कि हज़रत रसूलुल्लाह ﷺ क़ब्रिस्तान (बक़ी') में तशरीफ़ ले गए और उन असहाब-ए-क़ुबूर के लिए दु'आ फ़रमाइ जिस से इस 'अमल का मसनून होना मा'लूम हुआ और हज़रात 'उलमा-ए-किराम ने इस को मसनून फ़रमाया और जो इस से ज़ाइद (अधिक) उमूर (काम) दाख़िल किए गए वो तमाम बिद'अत व मकरूहात है मसलन (जैसे कि) इज्तिमा' क़ब्रिस्तान में जा कर ईसाल-ए-सवाब करना और किसी क़िस्म का एहतिमाम (बंदोबस्त) मसलन (जैसे) रौशनी का एहतिमाम करना जिससे क़ब्रिस्तान को रौशन किया जाए खाने वग़ैरा का एहतिमाम (बंदोबस्त) करना बल्कि (किंतु) सिर्फ़ किसी भी क़ब्रिस्तान में जा कर बिला किसी क़िस्म के एहतिमाम व फ़ुज़ूलियात के इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) तौर पर दु'आएँ मग़्फ़िरत व ईसाल-ए-सवाब कर के जल्द वापस आ जाएं और दुसरी 'इबादत में मशग़ूल हो जाए बस इस-क़दर काम सुन्नत के मुताबिक़ होगा यह है मुताबिक़ सुन्नत 'अमल फिर क्यूं बिला-वज्ह (अकारण) ज़ाइद (अधिक) उमूर (काम) को शामिल कर के ख़िलाफ-ए-सुन्नत रिवाज दिया जाए "
(مسائل شب برات و شب قدر ، ص:۷۳)
(जारी...)
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