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क़ुरआन-ओ-हदीष की रौशनी-में क़ुर्बानी के अहकाम-ओ-मसाइल

क़ुरआन-ओ-हदीष की रौशनी-में क़ुर्बानी के अहकाम-ओ-मसाइल

लेखक: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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अश्रा-ए-ज़िलहिज्जा की बड़ी फ़ज़ीलत है इस में बड़े बड़े आ'माल अंजाम दिए जाते हैं उन आ'माल में एक अहम तरीन 'अमल (काम) अल्लाह की क़ुर्बत (नज़दीकी) की निय्यत से क़ुर्बानी करना है क़ुर्बानी जानवर ज़ब्ह करने और गोश्त खाने का नाम नहीं है यह ईसार (बलिदान) व जाँ-निसारी, तक़्वा ओ तहारत, मोमिनाना सूरत-ओ-सीरत और मुजाहिदाना किरदार का हामिल है इस लिए क़ुर्बानी करने वालों को अपनी निय्यत ख़ालिस और क़ुर्बानी लि-वजहिल्लाह (अल्लाह के वास्ते) करनी चाहिए।

अल्लाह-त'आला का फ़रमान (हुक्म) है:

لَنْ يَّنَالَ اللّٰهَ لُحُوْمُهَا وَلَا دِمَاۗؤُهَا وَلٰكِنْ يَّنَالُهُ التَّقْوٰي مِنْكُمْ(الحج :37) 
तर्जमा: अल्लाह तक तुम्हारी क़ुर्बानियों का गोश्त या ख़ून हरगिज़ नहीं पहुंचता बल्कि तुम्हारा तक़्वा पहुंचता है।
(सूरा अल्-ह़ज्ज:37)

और नबी ﷺ का फ़रमान है:

إنَّ اللَّهَ لا ينظرُ إلى أجسادِكُم ، ولا إلى صورِكُم ، ولَكِن ينظرُ إلى قلوبِكُم
(صحیح مسلم:2564)
तर्जमा: बेशक (यक़ीनन) अल्लाह तुम्हारे जिस्मों और तुम्हारी सूरतों को नहीं देखता बल्कि (किंतु) तुम्हारे दिलों को देखता है।
(सहीह मुस्लिम:2564)

*क़ुर्बानी का हुक्म*

क़ुर्बानी के हुक्म में अहल-ए-'इल्म के दरमियान (बीच में) इख़्तिलाफ़ (मतभेद) पाया जाता है इमाम अबू हनीफ़ा रहिमहुल्लाह को छोड़ के बक़िया (बाकी) अइम्मा-ए-सलासा और जमहूर अहल-ए-'इल्म से सुन्नत-ए-मुवक्किदा होना मनक़ूल (उल्लेखित) है दलाइल की रू से यही मस्लक क़वी (मज़बूत) मा'लूम होता है।

नबी ﷺ का फ़रमान है:

إذا رأيتم هلالَ ذي الحجةِ ، وأراد أحدكم أن يُضحِّي ، فليُمسك عن شعرِهِ وأظفارِه
ِ(صحيح مسلم:1977)
तर्जमा: जब ज़िलहिज्जा का महीना शुरू' हो जाए और तुममें से जो क़ुर्बानी करने का इरादा करे तो वो अपने बाल और नाख़ून न काटे।
(सहीह मुस्लिम:1977)

इस हदीष में "من اراد" का लफ़्ज़ इख़्तियारी है या'नी जो क़ुर्बानी करना चाहे वो क़ुर्बानी करे गोया (जैसे) क़ुर्बानी वाजिबी हुक्म नहीं इख़्तियारी मु'आमला है ।
(तिर्मिज़ी हदीष नंबर:1506)
में क़ुर्बानी के 'अदम-ए-वुजूब से मुत'अल्लिक़ (बारे में) एक रिवायत है जिसे शैख़ अल्बानी ने ज़'ईफ़ कहा है इस हदीष को इमाम तिर्मिज़ी ने हसन सहीह कहने के बाद लिखा है कि अहल-ए-'इल्म का इसी पर 'अमल है कि क़ुर्बानी वाजिब नहीं है बल्कि रसूलुल्लाह ﷺ की सुन्नतों में से एक सुन्नत है और इस पर 'अमल करना मुसतहब है सुफ़्यान सौरी और इब्न मुबारक का यही क़ौल है।

शैख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह ने तिर्मिज़ी की इस रिवायत को ज़िक्र कर के मशरू'इय्यत का ही हुक्म लगाया है लेकिन याद रहे क़ुर्बानी मशरू' और इख़्तियारी या'नी वाजिब न होने के बावुजूद (तब भी) जो इस की ताक़त रखे और क़ुर्बानी न करे उसके लिए बड़ी व'ईद है।

नबी ﷺ का फ़रमान है:

 من كانَ لَه سَعةٌ ولم يضحِّ فلا يقربنَّ مصلَّانا
(صحيح ابن ماجه:2549)
तर्जमा: जिसको क़ुर्बानी देने की गुंजाइश हो और वो क़ुर्बानी न दे तो वो हमारे 'ईद-गाह में न आए।
(सहीह इब्न माजा:2549)
तिर्मिज़ी में ज़िक्र है कि आप ﷺ मदीना में दस साल क़ियाम किया और हर साल क़ुर्बानी की इस रिवायत को शैख़ अल्बानी ने ज़'ईफ़ कहा है।

क़ुर्बानी की फ़ज़ीलत:

क़ुर्बानी इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है अल्लाह-त'आला ने इसे बाद वालों के लिए भी बाक़ी रखा
अल्लाह का फ़रमान है:
وَتَرَكْنَا عَلَيْهِ فِي الْاٰخِرِيْنَ(الصافات:108)
तर्जमा: और हमने इस (चलन) को बाद वालों के लिए बाकी रखा।
 (सूरा अस्-साफ़्फ़ात:108)

ज़िलहिज्जा के दस अय्याम (दिन) अल्लाह को बेहद 'अज़ीज़ (पसंद) हैं इन अय्याम में अंजाम दिया जाने वाला हर नेक 'अमल अल्लाह को पसंद है इन में एक बेहतरीन व महबूब 'अमल क़ुर्बानी भी है।

नबी ﷺ का फ़रमान है:

أعظمُ الأيامِ عند اللهِ يومُ النَّحرِ ، ثم يومُ القُر
ِّ(صحيح الجامع:1064)
तर्जमा: अल्लाह के नज़दीक सबसे 'अज़ीम दिन यौमुन्नहर (क़ुर्बानी का दिन) और यौम अल-क़र (मिना में हाजियों के ठहरने का दिन) है।
(सहीह अल जामे:1064)
एक हदीष में नबी ﷺ का फ़रमान इस तरह है:
 أفضلُ أيامِ الدنيا أيامُ العشْرِ(صحيح الجامع:1133)
तर्जमा: दुनिया के अफ़ज़ल दिनों में ज़िलहिज्जा के इब्तिदाई (शुरू'आती) दस दिन अफ़ज़ल दिन हैं।
(सहीह अल जामे:1133)

अल्लाह-त'आला ने दस रातों की क़सम खाई है उनमें से एक रात दस ज़िलहिज्जा की भी है इससे भी क़ुर्बानी की फ़ज़ीलत ज़ाहिर होती है। 

क़ुर्बानी की हिकमत:

क़ुर्बानी की बहुत सारी हिकमते हैं उन सबसे अहम (ख़ास) तक़्वा और अल्लाह का तक़र्रुब (नज़दीकी) हासिल करना है।

अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
 قُلْ إِنَّ صَلاَتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ(الأنعام :162)

तर्जमा: आप फ़रमा दीजिए कि बेशक मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी, मेरा जीना और मेरा मरना सब ख़ालिस अल्लाह ही के लिए है जो सारे जहां का मालिक है।
(सूरा अल्-अन्आम:162)

जो क़ुर्बानी इस मक़्सद को पूरा करने से कासिर हो वो 'इंदल्लाह (अल्लाह के यहां) मक़बूल नहीं है।

क़ुर्बानी करने वालों के हक़ में:

जो क़ुर्बानी का इरादा करे वो यकुम (पहली) ज़िलहिज्जा से क़ुर्बानी का जानवर ज़ब्ह होने तक अपने बाल और नाख़ून न काटे।

नबी ﷺ का फ़रमान है:

إذا دخل العَشْرُ ، وعندَهُ أضحيةٌ ، يريدُ أن يُضحِّي ، فلا يأخذَنَّ شعرًا ولا يُقَلِّمَنَّ ظفرًا
(صحيح مسلم:1977)
तर्जमा: जब ज़िलहिज्जा का अश्रा आ जाए और किसी के पास जानवर हो जो इस की क़ुर्बानी देना चाहता हो तो अपने बाल और नाख़ून न काटे।
(सहीह मुस्लिम:1977)
जो लोग क़ुर्बानी करने की ताक़त न रखें अगर वो भी बाल व नाख़ून की पाबंदी करे तो बि-इज़निल्लाह क़ुर्बानी का अज्र पाएगा।
(नहाई, अबू दाऊद, इब्न माजा, दार कुतनी, बैहकी, और हाकिम समेत मुत'अद्दिद (अनेक) किताब हदीष में यह हदीष मौजूद है)

अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा बयान करते हैं कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:

أمرت بيوم الأضحى عيدا جعله الله عز وجل لهذه الأمة قال الرجل أرأيت إن لم أجد إلا أضحية أنثى أفأضحي بها قال لا ولكن تأخذ من شعرك وأظفارك وتقص شاربك وتحلق عانتك فتلك تمام أضحيتك عند الله عز وجل
(سنن أبي داود:2789)
तर्जमा: मुझे अज़हा (क़ुर्बानी) के दिन के मुत'अल्लिक़ (बारे में) हुक्म दिया गया है कि इसे बतौर 'ईद मनाऊं जैसे कि अल्लाह 'अज़्ज़-ओ-जल ने इस उम्मत के लिए ख़ास किया है एक आदमी ने कहा: फ़रमाइए कि अगर मुझे दूध के जानवर के सिवा कोई जानवर न मिले तो क्या मैं इस की क़ुर्बानी कर दूं ? आप ﷺ ने फ़रमाया: नहीं बल्कि अपने बाल काट लो नाख़ून और मूँछें तराश लो और ज़ेर-ए-नाफ़ की सफाई कर लो अल्लाह के यहां तुम्हारी यही कामिल क़ुर्बानी हो गई।
(सुनन अबू दाऊद:2789)

इस हदीष को शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह ने एक रावी 'ईसा बिन हिलाल सदफी की वजह से ज़'ईफ़ कहा है मगर दूसरे मुहद्दिसीन से इन की तौसीक़ (पुष्टि) भी साबित है।
बाल व नाख़ून की पाबंदी से मुत'अल्लिक़ (बारे में) एक बात यह जान लें कि यह पाबंदी सिर्फ़ क़ुर्बानी करने वालों की तरफ़ से है घर के दूसरे अफ़राद मुस्तसना (मुक्त) है लेकिन सभी पाबंदी करना चाहें तो अच्छी बात है
दूसरी बात यह है कि वो आदमी जिसने ग़फ़लत (बेख़बरी) में चालीस दिनों से बाल व नाख़ून नहीं काटा था और उसको क़ुर्बानी देनी है इस हाल में कि ज़िलहिज्जा का चांद भी निकल आया है ऐसा शख़्स वाक़ि'ई (वास्तव में) बहुत बड़ा ग़ाफ़िल है अगर बाल व नाख़ून तकलीफ़ की हद तक बढ़ गए हो तो ज़ाइल कर ले अल्लाह मु'आफ़ करने वाला है वगरना (नहीं तो) छोड़ दे।

क़ुर्बानी देने वाले ने भूल कर अपना बाल या नाख़ून काट लिया तो इस पे कोई गुनाह नहीं लेकिन जिस ने क़स्दन (जान बूझ कर) बाल या नाख़ून काटा है उस पर तौबा लाज़िम (ज़रूरी) है।

*क़ुर्बानी का जानवर* 

8/ क़िस्म के जानवर की क़ुर्बानी जाइज़ है उन में बकरी,भेड़,गाय और ऊंट का नर व मादा शामिल है इन जानवरों को चार क़िस्म के 'ऐबों से पाक होना ज़रूरी है।

नबी ﷺ का फ़रमान है:

لا يجوزُ مِنَ الضحايا : العَوْرَاءُ الَبيِّنُ عَوَرُهَا ، والعَرْجَاءُ البَيِّنُ عَرَجُهَا ، والمريضةُ البَيِّنُ مَرَضُهَا ، و العَجْفَاءُ التي لا تُنْقِي.
(صحيح النسائي:4383)
तर्जमा: चार क़िस्म के जानवर क़ुर्बानी में जाइज़ नहीं: काना जिसका काना पन ज़ाहिर हो लँगड़ा जिसका लंगड़ा पन वाज़ेह (स्पष्ट) हो मरीज़ (बीमार) जिसका मरज़ (बीमारी) वाज़ेह हो और इतना कमज़ोर जानवर कि उसमें गूदा तक न हो।
इस हदीष से मा'लूम होता है कि क़ुर्बानी का जानवर क़वी (मोटा ताज़ा) व सेहत-मंद हो ख़स्सी,गाभन और दूध देने वाले जानवर की क़ुर्बानी जाइज़ है जानवर ख़रीदने के बाद उसमें 'ऐब पैदा हो जाए मसलन (जैसे) टाँग या सींग या दांत या हड्डी टुट जाए कान कट जाए मरीज़ हो जाए तो इस की क़ुर्बानी की जा सकती है क्यूँकि यह होनी (घटना) है इसे कोई टाल नहीं सकता इस हाल में आदमी मा'ज़ूर है लेकिन अगर कोई दोबारा ख़रीदने की ताक़त रखता हो और हदीष में मज़कूर (उल्लेखित) चार 'ऐबों में से कोई 'ऐब ख़रीदने के बाद पैदा हो जाए तो दोबारा ख़रीद लें क़ुर्बानी के लिए मुत'अय्यन (मुक़र्रर) जानवर बेचना हदिया (तोहफ़ा) करना या गिरवी रखना जाइज़ नहीं है और न ही इसे बार-बरदारी (भारवाहक) के तौर पर इस्ते'माल करना जाइज़ है।
क़ुर्बानी का जानवर मुसिन्ना (दाँता) होना चाहिए मुसिन्ना कहते हैं ऐसा जानवर जिसके दूध के अगले दो दांत टुट कर निकल आए हों।

*एक जानवर पूरे घराने की तरफ़ से काफ़ी:

क़ुर्बानी का एक जानवर ख़्वाह (चाहे) बकरा/बकरी ही क्यूं न हो एक घराने के पूरे अफ़राद की तरफ़ से काफ़ी है एक घराने का मतलब यह है कि घर के पूरे अफ़राद क़ुर्बानी करने वाले
के साथ ही रहते हो और क़ुर्बानी देने वाला उन सबके ख़र्च का ज़िम्मेदार हो नीज़ (और) वो सारे रिश्तेदार हो जिस का चूल्हा अलग हो वो अलग क़ुर्बानी करेगा।
अता बिन यसार कहते हैं कि मैंने अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा:

كيفَ كانتِ الضَّحايا علَى عَهدِ رسولِ اللَّهِ صلَّى اللَّهُ عليهِ وسلَّمَ فقالَ كانَ الرَّجلُ يُضحِّي بالشَّاةِ عنهُ وعن أهلِ بيتِه فيأكلونَ ويَطعمونَ حتَّى تَباهى النَّاسُ فصارت كما تَرى
(صحيح الترمذي:1505)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ के ज़माने में क़ुर्बानियां कैसे होती थी ?
उन्होंने कहा: एक आदमी अपनी और अपने घर वालों की तरफ़ से एक बकरी क़ुर्बानी करता था वो लोग ख़ुद खाते थे और दूसरों को खिलाते थे यहां तक कि लोग
(कसरत क़ुर्बानी पर) फ़ख़्र (गर्व) करने लगे और अब यह सूरत-ए-हाल हो गई जो देख रहे हो।
(सहीह तिर्मिज़ी:1505)

*क़ुर्बानी के बड़े जानवर में शिरकत (हिस्से-दारी):

बड़े जानवर गाय, बैल और ऊंट में सात अश्ख़ास (लोग) या सात घरानों के लोग एक एक हिस्सा लेकर शरीक (शामिल) हो सकतें हैं।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं:

اشتركْنا مع النبيِّ صلَّى اللهُ عليه وسلَّمَ في الحجِّ والعمرةِ . كلُّ سبعةٍ في بدَنةٍ . فقال رجلٌ لجابرٍ : أيشتركُ في البدنةِ ما يشترك في الجَزورِ ؟ قال : ما هي إلا من البُدنِ .
(صحيح مسلم:1318)
तर्जमा: हज के मौके पर हम नबी ﷺ के साथ थे और हम फ़ी (हर एक) ऊंट सात आदमी शामिल हुए एक शख़्स ने जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से दरियाफ़्त किया क्या गाय में भी सात आदमी शरीक (शामिल) हो सकते हैं ? तो जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा कि गाय भी इसी के हुक्म में है।
(सहीह मुस्लिम:1318)
जहां तक मेढ़ा (दुंबा) और बकरा,बकरी का मसअला है तो यह एक घर के पूरे अफ़राद के लिए काफ़ी है जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया गया है लेकिन इस में दूसरे घर वाले की तरफ़ से शिरकत नहीं होगी।

*भैंस की क़ुर्बानी का हुक्म:

क़ुर्बानी के जानवर के मुत'अल्लिक़ (बारे में) अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:

ثَمَانِيَةَ أَزْوَاجٍ ۖ مِّنَ الضَّأْنِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْمَعْزِ اثْنَيْنِ ۗ قُلْ آلذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ أَمِ الْأُنثَيَيْنِ أَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْهِ أَرْحَامُ الْأُنثَيَيْنِ ۖ نَبِّئُونِي بِعِلْمٍ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ، وَمِنَ الْإِبِلِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْبَقَرِ اثْنَيْنِ ۗ(الانعام:143-144)
तर्जमा: आठ अक़्साम भेड़ में से दो और बकरी में से दो कह दीजिए क्या इस ने दोनों नर हराम किए या दोनों मादा या वो जिस पर दोनों मादाओं के रहम (गर्भ) लिपटे हुए हैं ? मुझे किसी 'इल्म के साथ बताओं अगर तुम सच्चे हो और ऊंटों में से दो और गायों में से दो।
(सूरा अल्-अन्आम:143-144)

अल्लाह-त'आला ने नाम लेकर आठ क़िस्म के क़ुर्बानी के जानवर की त'यीन कर दी जबकि (हालाँकि) खाए जाने वाले जानवर बेशुमार है आठ क़िस्म: दो क़िस्म बकरी नर व मादा, दो क़िस्म भेड़ नर व मादा, दो क़िस्म ऊंट नर व मादा, और दो क़िस्म गाय नर व मादा गोया (जैसे) इन आठ अक़्साम (प्रकार) में क़ुर्बानी के लिए नवें किसी जानवर को शामिल नहीं किया जाएगा इन अक़्साम में भैंस का ज़िक्र नहीं कहा यह जाता है कि अरब में उस वक़्त भैंस नहीं मा'रूफ़ थी और यह गाय की जिंस (जाती) से है इस का हुक्म वहीं है जो गाय का ख़्वाह (चाहे) ज़कात के लिए हो क़ुर्बानी के लिए हो या गोश्त खाने और दूध पीने के तौर पर हो यह बात सहीह है कि भैंस अरब में मुत'आरिफ़ (परिचित) नहीं थी मगर भैंस दुनिया में मौजूद थी अल्लाह इसका ख़ालिक़ है वो कोई बात भूलता नहीं अगर चाहता तो क़ुर्बानी के जानवर की फ़ेहरिस्त (लिस्ट) में इसे भी ज़िक्र कर सकता था।

ख़ुलासा के तौर पर मेरा यह कहना है कि भैंस हलाल जानवर है इस को क़ुर्बानी के तईं (लिए) वजह-ए-निज़ा' (झगड़े का कारण) न बनाया जाए सीधी सी बात है अगर हमारे यहां क़ुरआन में मज़कूर (उल्लेखित) आठ अक़्साम में से किसी क़िस्म का जानवर पाया जाता है तो इस की क़ुर्बानी करें जिसमें कोई शक नहीं और न इख़्तिलाफ़ है अलबत्ता (लेकिन) मुत'अद्दिद (कई) अहल-ए-'इल्म ने भैंस को गाय की जिंस (क़िस्म) से माना है और इस बुनियाद पे इस की क़ुर्बानी का जवाज़ (जाइज़ होना) फ़राहम (जमा) किया है अरब के 'उलमा भी जवाज़ के क़ाइल हैं लिहाज़ा (इसलिए) किसी का दिल इस पे मुतमइन (संतुष्ट) होतो इस पे किसी क़िस्म का जब्र नहीं किया जाए।

*हिंदुस्तान में गाय की क़ुर्बानी का मसअला:

हिंदुस्तान में गाय के ज़बीहा पर पाबंदी है और पकड़े जाने पर सख़्त सज़ा है बल्कि आज कल गाय के नाम पर मुसलमानों को काफ़ी परेशान किया जा रहा है इस इल्ज़ाम में मुसलमानों को क़त्ल कर देना 'आम सी बात हो गई है गाय अल्लाह की तरफ़ से हलाल है और इस की क़ुर्बानी करना भी सहीह हदीष से साबित है इस लिए जहां गाय की क़ुर्बानी से कोई फ़ित्ना नहीं वहां बिला हरज इस की क़ुर्बानी कर सकते हैं लेकिन जहां इस की
क़ुर्बानी से फ़ित्ना,हंगामा,निज़ा' (झगड़ा) और क़त्ल की नौबत (हालत) आने का ख़द्शा (डर) हो वहां इस की क़ुर्बानी से बचने में ही मुसलमानों की 'आफ़ियत (सलामती) है।

*क़ुर्बानी का वक़्त और इसके अय्याम (दिन):

क़ुर्बानी का वक़्त 'ईद की नमाज़ के फ़ौरन बाद शुरू' हो जाता है ख़ुत्बा ख़त्म होना ज़रूरी नहीं और यह भी ज़रूरी नहीं कि पहले इमाम साहब ही क़ुर्बानी दे।
बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने बयान किया कि नबी-ए-करीम ﷺ ने 'ईद-उल-अज़हा की नमाज़ के बाद ख़ुत्बा देते हुए फ़रमाया:

من صلى صلاتنا، ونسك نسكنا، فقد أصاب النُّسُكَ، ومن نسكَ قبلَ الصلاةِ، فإنه قبلَ الصلاةِ ولا نُسُكَ له.
(صحيح البخاري:955)
तर्जमा: जिस शख़्स ने हमारी नमाज़ की सी नमाज़ पढ़ी और हमारी क़ुर्बानी की तरह क़ुर्बानी की इस की क़ुर्बानी सहीह हुई लेकिन जो शख़्स नमाज़ से पहले क़ुर्बानी करे वो नमाज़ से पहले ही गोश्त खाता है मगर वो क़ुर्बानी नहीं।
(सहीह बुखारी:955)

यह हदीष बतलाती है कि 'ईद की नमाज़ से पहले क़ुर्बानी सहीह नहीं है लेकिन 'ईद की नमाज़ के बाद क़ुर्बानी करना सहीह है।
'ईद की नमाज़ के बाद से क़ुर्बानी का वक़्त शुरू' हो कर तेरह ज़िलहिज्जा के मग़रिब का सूरज डूबने पर ख़त्म हो जाता है या'नी क़ुर्बानी के चार दिन किताब अल्लाह और सुन्नत-ए-रसूलुल्लाह से साबित है इस सिलसिले में बहुत सारे दलाइल हैं हुज्जत (सुबूत) के लिए एक दलील ही काफ़ी है।

*नबी ﷺ का फ़रमान है:

كُلُّ عَرَفَةَ مَوْقِفٌ ، وارفعوا عن عُرَنَةَ ، وكُلُّ مزدلِفَةَ موقِفٌ ، وارفعوا عن بطنِ مُحَسِّرٍ ، وكلُّ فجاجِ مِنًى منحرٌ ، وكلُّ أيامِ التشريقِ ذبحٌ( صحيح الجامع:4537)
तर्जमा: पूरा अर्फ़ात वुक़ूफ़ (ठहराव) की जगह है और अरना से हट कर वुक़ूफ़ करो और पूरा मुज़दल्फ़ा वुक़ूफ़ की जगह है और वादी मुहसिर से हट कर वुक़ूफ़ करो और मिना का हर रास्ता क़ुर्बानी की जगह है और तशरीक़ के तमाम दिन ज़ब्ह (क़ुर्बानी) करने के दिन हैं।
अय्याम-ए-तशरीक़ कहते हैं ग्यारह, बारह और तेरह ज़िलहिज्जा।

*ज़ब्ह करने के आदाब व तरीक़ा:

ज़ब्ह करते वक़्त जानवर ‌को क़िबला-रुख़ लेटाया जाए यह सुन्नत है अगर ग़ैर-क़िबला पे ज़ब्ह कर लिया गया हो तो भी कोई हरज नहीं क़ुर्बानी देने वाला ख़ुद से ज़ब्ह करे अगर ज़ब्ह करना इस के लिए मुश्किल होतो कोई भी इस की जगह ज़ब्ह करदे जब जानवर ज़ब्ह करने लगे तो छुरी को तेज़ करले ताकि जानवर को ज़ब्ह की कम-से-कम तकलीफ़ महसूस हो।
ज़मीन पर क़िबला रूख़ जानवर लिटा कर तेज़ छुरी इस की गर्दन पे चलाते हुए बोलें " बिस्मिल्लाह अल्लाहु अकबर " इतनी दु'आ भी काफ़ी है और निय्यत का त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) दिल से है यह दु'आ भी कर सकते हैं:

"بِاسْمِ اللهِ وَاللهُ أَكْبَرْ أَللهُمَّ هذا مِنْكَ وَلَكَ اَللھُم َّھذَا عَنِّيْ وَ عْن أهْلِ بَيْتِيْ "
मुंदरिजा-ज़ेल (निम्नलिखित) दु'आ भी पढ़ना सुन्नत से साबित है:

"إنِّي وَجَّهْتُ وَجْهِيَ لِلَّذِي فَطَرَالسَّمَاْوَاتِ وَاْلأَرْضِ حَنِيْفًا وَمَاْأَنَاْمِنَ الْمُشْرِكِيْنَ، إِنَّ صَلاْتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَاْيَ وَمَمَاتِيْ لِلّهِ رَبِّ اْلعَاْلَمِيْنَ، لَاْشَرِيْكَ لَه’وَبِذالِكَ أُمِرْتُ وَأَنَاْ مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ، بِاسْمِ اللهِ وَاللهُ أَكْبَرْ أَللهُمَّ هَذا مِنْكَ وَلَكَ أَللهُمَّ تَقَبَّلْ مِنِّيْ ( وَمِنْ أَهْلِ بَيْتِيْ)"
*इस हदीष को शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह ने मिश्कात की तख़रीज में सहीह क़रार दिया है और शु'ऐब अरनौत ने इस की तहसीन (तारीफ़) की है।

ज़ब्ह करने में चंद बातें मलहूज़ (ध्यान) रहे:
ज़ब्ह करने वाला 'आक़िल-व-बालिग़ मुसलमान हो किसी ख़ून बहाने वाले आला (औज़ार) से ज़ब्ह किया जाए ज़ब्ह में गला या'नी साँस की नली और खाने की रगें काटनीं है और ज़ब्ह करते वक़्त अल्लाह का नाम लेना है बे-नमाज़ी की क़ुर्बानी और उसके ज़बीहा बाबत जवाज़ व 'अदम-जवाज़ से मुत'अल्लिक़ (बारे में) 'उलमा में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) है मैं यहां इतना ज़रूर कहूंगा कि तर्क ए नमाज़ बिल-इत्तिफ़ाक़ कुफ़्र है क़ुर्बानी देने वाला या ज़ब्ह करने वाला अपने इस 'अमल से पहले तौबा करे और आइंदा पाबंदी ए नमाज़ का 'अहद करे औरत अपनी क़ुर्बानी अपने हाथों से कर सकतीं है और क़ुर्बानी दिन की तरह रात में भी की जा सकती है।

*गोश्त की तक़सीम:

क़ुर्बानी का गोश्त तीन हिस्सों में तक़सीम करना ज़रूरी नहीं है बल्कि मुसतहब है क्यूंकि क़ुर्बानी की अस्ल खाना और खिलाना है बचे हुए गोश्त को ज़ख़ीरा करने में भी कोई हरज नहीं ग़ैर-मुस्लिम को क़ुर्बानी का गोश्त दिया जा सकता है इस सिलसिले में जय्यद 'उलमा के फ़तावे हैं।

*क़र्ज़ लेकर जो मक़रूज़ (क़र्ज़-दार) हो इस का क़ुर्बानी देना:

जिसे क़ुर्बानी की वुस'अत व ताक़त हो वही क़ुर्बानी करे और जो क़ुर्बानी की ताक़त नहीं रखता उसे रुख़्सत है इस लिए क़ुर्बानी की ख़ातिर (लिए) क़र्ज़ लेने की ज़रूरत नहीं है जो हमेशा से क़ुर्बानी
देते आ रहे है अचानक ग़रीब हो जाए या क़र्जे में डूब जाए उसे मायूस नहीं होना चाहिए और क़र्ज़ के बोझ से क़ुर्बानी नहीं करना चाहिए बल्कि फ़राख़ी व वुस'अत के लिए अल्लाह से दु'आ करना चाहिए अगर कोई मा'मूली तौर पर मक़रूज़ (क़र्ज़-दार) हो क़र्ज़ चुकाने और क़ुर्बानी देने की ताक़त रखता हो उसे क़ुर्बानी देना चाहिए इसी तरह अचानक 'ईद-उल-अज़हा के मौक़ा' से किसी का हाथ खाली हो जाए और कहीं से पैसे की आमद (आने) की आस (भरोसा) हो और ऐसे शख़्स को ब-आसानी (आसानी से) क़र्ज़ मिल जाए तो क़ुर्बानी देना चाहिए क्यूंकि इस के पास पैसा है मगर हाथ में मौजूद नहीं है।

*हाजी की तरफ़ से क़ुर्बानी:

हाजियों के उपर 'ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानी ज़रूरी नहीं है उनके लिए हज की क़ुर्बानी ही काफ़ी है लेकिन 'ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानी देना चाहें तो दे सकता है या एक सूरत (स्थिति) यह हो सकती है कि हाजी अपने पीछे घर वालों के लिए इतना पैसा छोड़ जाए ताकि वो लोग क़ुर्बानी दे सकें।

*नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी:

नबी-ए-करीम ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी देने का कोई सुबूत नहीं मिलता है सहाबा किराम से ज़ियादा नबी ﷺ से कोई मोहब्बत नहीं कर सकता मगर उनमें से किसी से भी नबी ﷺ के नाम से क़ुर्बानी करना साबित नहीं है जो लोग नबी ﷺ के नाम से क़ुर्बानी करने का जवाज़ पेश करते हैं उनका इस्तिदलाल (दलील) उन रिवायत से है जिन में नबी ﷺ ने अपनी जानिब (तरफ़ से) और उम्मत की जानिब से क़ुर्बानी की है।

ثم أخذها ، وأخذ الكبشَ فأضجَعَه . ثم ذبحَه . ثم قال ( باسمِ اللهِ . اللهم ! تقبل من محمدٍ وآلِ محمدٍ . ومن أُمَّةِ محمدٍ ) ثم ضحَّى به 
(صحيح مسلم:1967)
तर्जमा: और आप ﷺ ने मेंढा पकड़ा और उस को लिटाया फिर इस को ज़ब्ह किया फिर फ़रमाया अल्लाह के नाम के साथ ऐ अल्लाह क़ुबूल फ़रमा मोहम्मद ﷺ की तरफ़ से और आल-ए-मोहम्मद की तरफ़ से और उम्मत-ए-मुहम्मदिया ﷺ की तरफ़ से फिर क़ुर्बानी की।
(सहीह मुस्लिम:1967)

यह रिवायत मुस्लिम शरीफ़ की है इससे यूँ इस्तिदलाल (दलील) किया जाता है कि उम्मत ए मोहम्मद में ज़िंदा मुर्दा दोनों शामिल हैं लिहाज़ा (इसलिए) नबी ﷺ की तरफ़ से भी क़ुर्बानी कर सकते हैं हालांकि यह इस्तिदलाल (दलील) दुरुस्त नहीं है क्यूंकि यहां उम्मत ए मोहम्मद से मुराद (मतलब) ज़िंदा लोग हैं इस बात की ताईद उन रिवायत से होती है जिनमें ’’عمن لم یضح من امتی‘‘
के अलफ़ाज़ वारिद (मौजूद) हैं गोया (जैसे) आप ﷺ ने अपनी उम्मत के उन अश्ख़ास (लोगों) की तरफ़ से क़ुर्बानी की जो क़ुर्बानी न कर सके थे अगर उम्मत ए मोहम्मद में फ़ौत शुदगान को भी शामिल कर लिया जाए तब भी नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी नहीं साबित होती ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जा सकता है कि ज़िंदा की तरफ़ से क़ुर्बानी करते हुए मय्यत का नाम लिए बग़ैर ऐसे 'आम कलिमात (अलफ़ाज़) इस्ते'माल किए जा सकते हैं।

नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी करने की एक और रिवायत है जो हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से है।

عَن عليٍّ : أنَّهُ كانَ يُضحِّي بِكَبشينِ أحدُهُما عَنِ النَّبيِّ صلَّى اللَّهُ عليهِ وسلَّمَ ، والآخرُ عن نفسِهِ ، فقيلَ لَهُ : فقالَ : أمرَني بِهِ - يَعني النَّبيَّ صلَّى اللَّهُ عليهِ وسلَّمَ - فلا أدعُهُ أبَدًا
(ضعيف الترمذي:1495)
तर्जमा: अली रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है कि वो दो मेंढे की क़ुर्बानी करते थे एक नबी ﷺ की तरफ़ से और दूसरा अपनी तरफ़ से इस बाबत उनसे कलाम किया गया तो उन्होंने कहा कि आप या'नी नबी ﷺ ने मुझे इस का हुक्म किया है मैं इसे तर्क (छोड़) नहीं कर सकता।
(ज़'ईफ़ तिर्मिज़ी:1495)

यह रिवायत साबित नहीं है इस की सनद में शरीक बिन अब्दुल्लाह बिन शरीक कसीर-उल-ख़ता (बहुत ज़ियादा गलती करने वाला) होने की वजह से ज़'ईफ़ और इस का शैख़ अबू अल हस्ना हसन कूफ़ी मजहूल (ना-मा'लूम) है।
इसी लिए शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह ने इस रिवायत को ज़'ईफ़ क़रार दिया है इससे भी दलील नहीं पकड़ी जा सकती
गोया नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी करना सुन्नत से साबित नहीं किसी के लिए जाइज़ नहीं है कि नबी ﷺ के नाम से 'ईद-उल-अज़हा पे क़ुर्बानी करे।

*मय्यत की तरफ़ से क़ुर्बानी:

मय्यत की तरफ़ से क़ुर्बानी देने के लिए वही सुबूत पेश किए जाते हैं जो नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी देने के लिए पेश किए जाते हैं और नबी ﷺ की तरफ़ से क़ुर्बानी देने का हुक्म ऊपर मा'लूम हो गया हां कोई अपनी क़ुर्बानी में मय्यत को शरीक कर ले तो इस सूरत (स्थिति) को 'उलमा ने जाइज़ कहा है इस सिलसिले में मेरा नुक़्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण) यह है कि जो लोग मय्यत की तरफ़ से क़ुर्बानी देना चाहते हैं वो क़ुर्बानी का पैसा मय्यत की तरफ़ से सदक़ा करदे यह ऐसी सूरत (स्थिति) है जिसमें किसी का इख़्तिलाफ़ नहीं है और इस की दलील मौजूद है मय्यत ने अगर क़ुर्बानी करने की वसिय्यत की हो तो फिर इसका नफ़ाज़ (लागू करना) ज़रूरी है।

'अरब ममालिक में रहने वाले अपने मुल्क में क़ुर्बानी दे सकते हैं:

बहुत सारे लोग अपना घर, वालिदैन (मां बाप) बीवी बच्चे, अपने वतन में छोड़ के 'अरब ममालिक में नौकरी करते हैं उन में बहुत से लोग क़ुर्बानी देना चाहते हैं मगर इस शश-ओ-पंज (तनाव) में मुब्तला रहते हैं कि क़ुर्बानी लाज़िमन (यक़ीनन) हमे Gulf में ही देनी होगी या फिर अपने वतन में भी दे सकते हैं ?

इस सिलसिले में अफ़ज़ल यही है कि क़ुर्बानी देने वाला वही क़ुर्बानी दे जहां रहता हो क्यूंकि क़ुर्बानी से अल्लाह का तक़र्रुब (नज़दीकी) हासिल होता है क़ुर्बानी का जानवर अपने हाथ से ज़ब्ह करे ख़ुद खाए और दूसरों को अपने हाथों से तक़सीम करे ताहम (फिर भी) 'उलमा ने कहा है कि क़ुर्बानी अपने वतन में भी दे सकते हैं ख़ास तौर से उस वक़्त जब क़ुर्बानी के गोश्त से मोहताजों और मिस्कीनों की मदद करना चाहते हैं जैसा कि आजकल देखा जाता है कि हमारे मुल्कों में बाहरी ममालिक से क़ुर्बानी के पैसे भेजें जातें हैं ताकि उन क़ुर्बानियों से ग़रीब व मिस्कीन फ़ाइदा उठा सके गोया कि इसमें इंसाफ़ कम बरता जाता है क़ुर्बानी के जानवर मुस्तहक़ीन (ज़रूरतमंद) को देने की ब-जाए (बदले) मालदार को दिया जाता है इस लिए इस में अमानत-दारी बरतनें की ज़रूरत है।

अगर हम गल्फ में रहते हैं और अपने वतन में क़ुर्बानी देना चाहते हैं तो हमें अपने वतन में क़ुर्बानी के हिसाब से बाल व नाख़ून की पाबंदी करनी है
क़ुर्बानी का वक़्त नमाज़-ए-'ईद से शुरू' होता है और तेरहवीं ज़िलहिज्जा की शाम तक रहता है यह वक़्त तमाम मुल्क वालों के लिए अपने अपने मुल्क की क़मरी-महीने के हिसाब से है।

*हदिया में दिया गया क़ुर्बानी का जानवर या पैसा:

आजकल मालदार लोग या ख़ैराती-इदारे जानवर ख़रीद कर या उस की क़ीमत मिस्कीनों में तक़सीम करते हैं ताकि वो भी क़ुर्बानी दे सकें ऐसी क़ुर्बानी का जानवर या पैसा मसाकीन को क़ुबूल करने में कोई हरज नहीं है अल्लाह की तौफ़ीक़ से हदिया करने वाले और क़ुर्बानी देने वाले दिनों को अज्र ओ सवाब मिलेगा नबी ﷺ ने भी सहाबा को क़ुर्बानी अता फ़रमाई है।

उक़बा बिन आमिर जुहनी रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया:

قَسمَ النبي صلَّى اللهُ عليه وسلَّم بين أصحابِهِ ضَحايا، فصارَتْ لِعُقبَةَ جَذَعَةٌ ، فقلت : يا رسولَ اللهِ ، صارت جَذَعَةٌ ؟ قال ضَحِّ بها) .
(صحيح البخاري:5547)
तर्जमा: नबी-ए-करीम ﷺ ने अपने सहाबा में क़ुर्बानी के जानवर तक़सीम किए हज़रत उक़बा रज़ियल्लाहु अन्हु के हिस्से में एक साल से कम का बकरी का बच्चा आया उन्होंने बयान किया कि उस पर मैंने 'अर्ज़ किया या रसूलुल्लाह मेरे हिस्से में तो एक साल से कम का बच्चा आया है ? आँ-हज़रत ﷺ ने फ़रमाया कि तुम इसी को क़ुर्बानी करलो।

*ऐसे शख़्स की तरफ़ से क़ुर्बानी जिसका 'अक़ीक़ा नहीं दिया गया:

अगर क़ुर्बानी करने वाले के पास वुस'अत (ताक़त) हो तो क़ुर्बानी के साथ 'अक़ीक़ा भी दे दे ताकि दोनों सुन्नते पूरी हो जाए लेकिन अगर माली वुस'अत (ताक़त) न हो तो बहर-हाल क़ुर्बानी का वक़्त है इस वजह से क़ुर्बानी देना ही औला (बेहतर) है और इस में कोई हरज की बात नहीं कि बचपन में इसका 'अक़ीक़ा नहीं हुआ था क्यूंकि 'अक़ीक़ा सुन्नत-ए-मुवक्किदा है इस वज्ह (कारण) से ज़रूरी नहीं है कि पहले 'अक़ीक़ा देना वाजिब है तभी क़ुर्बानी दे सकते या'नी बग़ैर 'अक़ीक़ा किए भी क़ुर्बानी दे सकते हैं।

*मुसाफ़िर की क़ुर्बानी*

मुसाफ़िर हालत-ए-सफ़र में क़ुर्बानी दे सकता है नबी ﷺ ने सफ़र में क़ुर्बानी दी है चुनांचे (जैसा कि) मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत सौबान रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:

ذبح رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ ضحيتَه ثم قال ( يا ثوبانُ ! أصلِحْ لحمَ هذه ) فلم أزلْ أُطْعِمُه منها حتى قدمَ المدينةَ .
(صحيح مسلم:1975)
तर्जमा: रसूलुल्लाह ﷺ ने क़ुर्बानी का एक जानवर ज़ब्ह कर के फ़रमाया: सौबान इस के गोश्त को दुरुस्त कर लो या'नी साथ ले जाने के लिए तैयार कर लो फिर मैं वो गोश्त आप को खिलाता रहा यहां तक कि आप मदीना तशरीफ़ ले आए।
(सहीह मुस्लिम:1975)

*क़ुर्बानी के बड़े जानवर में 'अक़ीक़ा का हिस्सा*

बड़े जानवर में 'अक़ीक़ा देना अहादीस (हदीष) से साबित नहीं है सिर्फ़ क़ुर्बानी देना साबित है वो भी सिर्फ़ गाय,बैल और ऊंट में जब बड़े जानवर में 'अक़ीक़ा देना साबित नहीं तो इस में कई बच्चों के 'अक़ीक़ा का हिस्सा डालना कैसे सहीह होगा ? बा'ज़ 'उलमा ने बड़े जानवर में 'अक़ीक़ा को जाइज़ कहा है उन के यहां भी एक जानवर में कई बच्चों का हिस्सा डालना सहीह नहीं हैं क्यूंकि 'अक़ीक़ा में हर बच्चे की तरफ़ से ख़ून बहाने का हुक्म है।
सलमान बिन 'आमिर ज़बी रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
معَ الغُلامِ عقيقةٌ فأَهريقوا عنهُ دَمًا وأميطوا عنهُ الأذَى
(صحيح الترمذي:1515)
तर्जमा: लड़के की पैदाइश पर 'अक़ीक़ा है लिहाज़ा (इसलिए) जानवर ज़ब्ह कर के उस की तरफ़ से ख़ून बहाओं और उससे गंदगी दूर करो।
(सहीह तिर्मिज़ी:1515)

अक्सर मुसलमानों के यहां 'ईद-ए-क़ुर्बां (बक़रीद) के मौक़ा' पर एक बड़े जानवर में क़ुर्बानी के साथ बच्चे का 'अक़ीक़ा भी हिस्सा लिया जाता है जो कि सुन्नत की सरीह (खुल्लम-खुल्ला) मुख़ालिफ़त है अगर ताक़त है तो बच्चे की तरफ़ से मुस्तक़िल (मुकम्मल) जानवर का 'अक़ीक़ा दे ऐसा करने से सुन्नत पूरी होगी और ताक़त नहीं हो तो न दे इस पर अल्लाह-त'आला मुवाख़ज़ा (पकड़) नहीं करेगा।

*क़ुर्बानी से मुत'अल्लिक़ (बारे में) आख़िरी चंद बातें*

पहली बात: क़ुर्बानी के जानवर की फ़ज़ीलत में कोई सहीह हदीष साबित नहीं है लिहाज़ा (इसलिए) बालों वाले और मोटे-ताज़े जानवरों की फ़ज़ीलत वाली ज़'ईफ़ अहादीस (हदीष) बयान न करें पुल-सिरात पे मोटा जानवर तेज़ी से गुज़रने वाली हदीष भी ज़'ईफ़ है।

दूसरी बात: क़ुर्बानी के वुजूब (वाजिब) के लिए लोगों में जो ज़कात का निसाब मशहूर है वो साबित नहीं है बस इतनी सी बात है कि क़ुर्बानी का जानवर ख़रीदने की ताक़त हो।

तीसरी बात: क़ुर्बानी का जानवर ज़ब्ह करने की ब-जाए (बदले में) इस की रक़म सदक़ा करना सहीह नहीं है न ही इस का गोश्त या इस की खाल (चमड़ा) बेचीं जाएगी अलबत्ता (लेकिन) ज़ाती (निजी) मसरफ़ (उपयोग) में ला सकते हैं फ़क़ीर व मिस्कीन हदिया में मिला गोश्त बेच सकते है उजरत (मज़दूरी) में क़स्साब (क़साई) को क़ुर्बानी का गोश्त देना जाइज़ नहीं तोहफ़ा में कुछ देना मम्नू' (मना) नहीं।

चौथी बात: हज की क़ुर्बानी और 'ईद की क़ुर्बानी दोनों अलग-अलग है इस लिए दोनों का एक समझना ग़लत है।

पाँचवीं बात: क़ुर्बानी को सहीह होने के लिए इख़्लास के साथ मज़ीद पांच शराइत है:
(1) मंसूस जिंस (जाती) में से हो
(2) मुसिन्ना (दाँता हो)
(3) अपनी मिलकिय्यत हो 
(4) हदीष में बयान कर्दा चार 'उयूब ('ऐब) से पाक हो
(5) क़ुर्बानी के जाइज़ औक़ात (समय) में क़ुर्बानी दी गई हो।

छट्टी बात: क़ुर्बानी के जानवर से मुत'अल्लिक़ (बारे में) मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) बिद'आत ओ ख़ुराफ़ात है अलग-अलग 'इलाक़े में अलग क़िस्म की बिद'अत राइज (प्रचलित) है कहीं जानवर को सजाना कहीं जानवर की नुमाइश करना (और यह शहर व गांव हर जगह 'आम हो रहा है) बल्कि टीवी और अख़बार पर इस की ख़बरें शाए' (प्रकाशित) करना ज़ब्ह के वक़्त जानवर ‌को वुज़ू व ग़ुस्ल कराना इस के ख़ून को मुतबर्रिक (पाक) समझकर घरों, सवारियों और बच्चों के जिस्मों पर लीपना या इसी जानवर के बालों और पेशानी पर मलना वग़ैरा इस क़िस्म के कामों को सवाब की निय्यत से करना गुनाह का बा'इस (सबब) है क्यूंकि जो दीन नहीं उसे दीन बना लेना बिद'अत है और हर बिद'अत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वालीं है।

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