बेटियां हमारी 'इज़्ज़त हैं | Betiya Hamari Izzat
(وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُمْ بِالْأُنْثَىٰ ظَلَّ وَجْهُهُ مُسْوَدًّا وَهُوَ كَظِيمٌ *يَتَوَارَىٰ مِنَ الْقَوْمِ مِنْ سُوءِ مَا بُشِّرَ بِهِ ۚ أَيُمْسِكُهُ عَلَىٰ هُونٍ أَمْ يَدُسُّهُ فِي التُّرَابِ ۗ أَلَا سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ)[سورہ ٔ النحل:58۔59]
तर्जमा: इन में से जब किसी को लड़की होने की ख़बर दी जाए तो उस का चेहरा सियाह (काला) हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है इस बुरी ख़बर की वजह से लोगों से छुपा छुपा फिरता है सोचता है कि क्या इस को ज़िल्लत के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे आह क्या ही बुरे फ़ैसले करते हैं ?
(सूरा अन्-नह़्ल:58/59)
नीज़ (और) अल्लाह-त'आला ने फ़रमाया:
(وَإِذَا الْمَوْءُودَةُ سُئِلَتْ * بِأيّ ذَنْبٍ قُتلَتْ)[سورہ ٔ التکویر:۸۔۹]
तर्जमा: और जब ज़िंदा गाड़ी जाने वाली (लड़की) के बारे में सवाल किया जाएगा (कि आख़िर) किस गुनाह के बदले में इस को क़त्ल किया गया था।
(सूरा अत्-तक्वीर:8/9)
लेकिन इस्लाम की आमद-आमद (आगमन) हुई तो औरतों को 'इज़्ज़त मिली वक़ार (गौरव) हासिल हुआ मक़ाम-ए-बुलंद (ऊँची चगह) 'अता की गई रिफ़'अत (बुलंदी) मिली 'अज़मत ('इज़्ज़त) 'इनायत (प्रदान) की गई और घर की मलिका (रानी) क़रार पाई बा'इस-ए-सुकून क़रार दिया गया कि लोग उसे देख कर सुकून-ए-क़ल्ब (दिल की शांति) हासिल करें दिमाग़ को ठंडक पहुंचाए इस्लाम की आमद (आगमन) से ख़वातीन (औरतों) पर ज़ुल्म-ओ-इस्तेहसाल (अत्याचार) का ख़ातिमा (अंत) हुआ जौर-ओ-जब्र (ज़्यादती) रुख़्सत हुई और औरत को 'अज़ीम (बहुत बड़ा) मक़ाम (स्थान) मिला।
बेटियों का क्या मक़ाम-ओ-मर्तबा (स्थान) है ज़रा इस हदीष को पढ़े और अंदाज़ा (अनुमान) कीजिए नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया:
( مَن عالَ جارِيَتَيْنِ حتَّى تَبْلُغا، جاءَ يَومَ القِيامَةِ أنا وهو وضَمَّ أصابِعَهُ)[مسلم حدیث نمبر:2631]
तर्जमा: जिस ने दो लड़कियों की परवरिश की यहां तक कि वो बुलूग़ (जवानी) को पहुंच गई तो क़यामत के रोज़ (दिन) मैं और वो इस तरह आएंगे रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी शहादत की उँगली को साथ वाली उंगली से मिला कर दिखाया।
(सहीह मुस्लिम हदीष नंबर:2631)
नीज़ (और) नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया:
( مَن كانَ لَهُ ثلاثُ بَناتٍ فصبرَ عليهنَّ، وأطعمَهُنَّ، وسقاهنَّ، وَكَساهنَّ مِن جِدَتِهِ كنَّ لَهُ حجابًا منَ النَّارِ يومَ القيامَةِ)[صحیح ابن ماجہ حدیث نمبر:3669]
तर्जमा: जिस की तीन बेटियां हो वो उन पर सब्र करे जो कुछ मुयस्सर (मौजूद) हो उस में से उन्हें खिलाए पिलाएं और पहनाए क़यामत के दिन वो उस के लिए जहन्नम से रुकावट बन जाएगी।
(सहीह इब्ने माजा हदीष नंबर:3669)
यह हदीष भी मुलाहज़ा फ़रमाले:
( مَنِ ابْتُلِيَ مِن هذِه البَنَاتِ بشيءٍ كُنَّ له سِتْرًا مِنَ النَّارِ)[بخاری حدیث نمبر:1418 مسلم حدیث نمبر:2629]
तर्जमा: जो शख़्स बच्चियों के ज़रिए आज़माया गया या'नी (मतलब) उसके घर सिर्फ़ बच्चियां ही पैदा की गई और उसने उन को ख़ुश-दिली से पाल पोस कर जवान कर दिया तो वो बच्चियां क़यामत के दिन उसके और आग के दरमियान (बीच में) पर्दा बन जाएगी।
(बुख़ारी हदीष नंबर:1418, मुस्लिम हदीष नंबर:2629)
अम्माँ 'आइशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु त'आला अन्हा फ़रमाती हैं:
(جَاءَتْنِي مِسْكِينَةٌ تَحْمِلُ ابْنَتَيْنِ لَهَا، فأطْعَمْتُهَا ثَلَاثَ تَمَرَاتٍ، فأعْطَتْ كُلَّ وَاحِدَةٍ منهما تَمْرَةً، وَرَفَعَتْ إلى فِيهَا تَمْرَةً لِتَأْكُلَهَا، فَاسْتَطْعَمَتْهَا ابْنَتَاهَا، فَشَقَّتِ التَّمْرَةَ الَّتي كَانَتْ تُرِيدُ أَنْ تَأْكُلَهَا بيْنَهُمَا، فأعْجَبَنِي شَأْنُهَا، فَذَكَرْتُ الَّذي صَنَعَتْ لِرَسُولِ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عليه وَسَلَّمَ، فَقالَ: إنَّ اللَّهَ قدْ أَوْجَبَ لَهَا بهَا الجَنَّةَ، أَوْ أَعْتَقَهَا بهَا مِنَ النَّارِ)[مسلم حدیث نمبر:2630،صحيح ابن حبان حديث نمبر:448]
तर्जमा: मेरे पास एक मिस्कीन औरत आई जिस के साथ उसकी दो बेटियां भी थी मैंने उसे तीन खजूरे दी उसने हर एक को एक एक खजूर दी फिर जिस खजूर को वो ख़ुद खाना चाहती थी उसके दो टुकड़े कर के वो खजूर भी उन (या'नी दोनों बेटियों) को खिला दी मुझे इस वाक़िए से बहुत त'अज्जुब (आश्चर्य) हुआ मैंने नबी-ए-करीम ﷺ की बारगाह में उस ख़ातून (औरत) के ईसार (बलिदान) का बयान किया तो आप ﷺ ने फ़रमाया:
अल्लाह 'अज़्ज़-ओ-जल ने इस (बलिदान) की वजह से उस औरत के लिए जन्नत वाजिब (अनिवार्य) कर दी।
(मुस्लिम हदीष नंबर:2630, सहीह इब्ने हिब्बान हदीष नंबर:448)
इस्लाम में औरत को मर्द की हम-जिंस हम-नस्ल क़रार दिया है कि वो दोनों एक ही अस्ल (मूल) से पैदा किए गए हैं ताकि दोनों इस दुनिया में एक दूसरे से उंस-ओ-मोहब्बत पाए मोहब्बत-ओ-प्यार के साथ जिया करें और ख़ैर-ओ-सलाह (सही-सलामत) के साथ स'आदत-व-ख़ुशी (भलाई) से सरफ़राज़ (बुलंद) हो
नबी-ए-करीम ﷺ का इरशाद-ए-गिरामी है:
" औरतें मर्दों की हम-जिंस व हम-नस्ल हैं "
(अबू दाऊद हदीष नंबर:236, सहीह अल-जामे' हदीष नंबर:1983)
इस्लामी ता'लीमात की रू से शर'ई-अहकाम में औरत भी मर्द की तरह है जो मुतालबा मर्दों से है वही औरतों से और जिन अफ़'आल के करने या न करने पर जो मर्द को है वही औरत को भी है।
इस्लाम में बेटी ब-तौर-ए-मां भी है ब-तौर-ए-बहन भी है ब-तौर-ए-बहू भी है ब-तौर-ए-बीवी है और हर एक का अपना किरदार है अपना रोल है और हर एक अपने में एक अंजुमन (कमेटी) है उन्हीं मांओं ने इमाम बुख़ारी, इमाम मुस्लिम, इमाम अबू दाऊद, इमाम नसाई, इमाम इब्ने माजा, इमाम तिर्मिज़ी, इमाम अहमद, इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम मालिक, इमाम शाफ़ि'ई, इमाम दार्मी, इमाम क़ुर्तुबी, इमाम इब्ने कसीर, इमाम जरीर तबरी, इमाम इसहाक़ बिन राहवेह, इमाम अब्दुल्लाह बिन मुबारक, और तो और उन्हीं मांओं ने अंबिया-व-रसूल जने उन्हीं मांओं ने सुलहा-व-अत्क़िया (सदाचारी) पैदा किए उन्हीं मांओं के बत्न (पेट) से मुहद्दिसीन-व-मुफ़स्सिरीन ने जन्म लिए उन्हीं मांओं की कोख (पेट) से इब्ने तैमिया और इब्ने कय्यम जैसे सूरमा (बहादुर) पैदा हुए सहाबा-ए-किराम जैसे 'अज़ीम-उल-मर्तबत (बड़े पद वाले) शख़्सियात वुजूद-पज़ीर (नुमूदार) हुए और इस्लाम की ख़िदमत की दीन की ख़िदमत की हदीष की ख़िदमत की तफ़्सीर की ख़िदमत की क़ुरआनी 'उलूम पर दस्तरस (पहुंच) हासिल की 'अक़ीदा-ओ-मनहज के नश्र-ओ-इशा'अत (प्रचार-प्रसार) में भरपूर हिस्सा लिया और ख़ूब-ख़ूब (बहुत अच्छी तरह से) किरदार अदा किया
कितनी बेहतर बात कही है मुनव्वर राना ने
" महकता रहता है दिल का जहान बेटी से
ज़माने भर में बढ़ी मेरी शान बेटी से
ज़रुरी यह नहीं बेटियों से नाम रौशन हो
मेरे नबी ﷺ का चला ख़ानदान बेटी से "
आज की बेटी कल की मां होगी, किसी की बीवी होगी, किसी की बहू होगी, किसी के घर की 'इज़्ज़त होगी, किसी क़ौम को सँवारेगी, सजाएगी उस के मुक़द्दर को बनाएंगी और मो'अत्तर-व-मु'अंबर (ख़ुशबूदार) करेगी
यही बेटी अगर इस्लाह-व-इंक़िलाब के मैदान-में उतर जाए तो 'आइशा होगी, फ़ातिमा होगी, अगर तज़्किया-व-ततहीर (पवित्रता) के लिए मैदान-ए-'अमल में उतर जाए तो हफ़सा होगी सुमय्या होगी अगर दा'वत-ओ-तबलीग़ के लिए कमर-ए-हिम्मत कस ले तो उम्मे रमला होगी ज़ैनब होगी उम्मे अल-मसाकीन होगी ख़दीजा होगी उम्मे सलमा होगी सफ़िया होगी उम्मे हबीबा होगी मैमूना होगी अगर शे'र-ओ-शा'इरी के ज़री'आ तरवीज-ए-इस्लाम के लिए पाबंद 'अहद हो जाए तो तमादुर होगी उमामा होगी खनसा होगी 'इफ़्फ़त-ओ-'इस्मत (आबरू) की पासदारी (निगरानी) के लिए हिम्मत कर ले तो मरियम बतूल (पवित्र) होगी 'आतिका होगी खोला होगी सकीना होगी वग़ैरा-वग़ैरा।
लिहाज़ा (इसलिए) उन्हें भी अपने मक़ाम-ओ-मर्तबा का ख़याल होना चाहिए अपनी 'अज़मत-ओ-तक़द्दुस ('इज़्ज़त) का लिहाज़ (ख़याल) करना चाहिए और जब उन्हें उन सब मक़ाम-ओ-मर्तबा ('इज़्ज़त) का पास-ओ-लिहाज़ नहीं होता है तो फ़साद-ओ-बिगाड़ पैदा होती है जब उन्हें अपनी 'इज़्ज़त का ख़याल नहीं रहता अपने मां-बाप की पगड़ी उछालने का पास-ओ-लिहाज़ नहीं रहता है तो इस्लाह (सुधार) की बजाए बिगाड़ पैदा होता है
فاللہ المستعان و علیہ التکلان
यह हक़ाइक़ (सच्चाई) बेटियों को भी समझना चाहिए कि हम ही हैं जिनसे जहान (संसार) महकता है और वही गुलशन-ए-हयात महका सकती हैं।
नबी-ए-करीम ﷺ को अपनी लख़्त-ए-जिगर से इतनी मोहब्बत थी कि जब हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा आप ﷺ के घर तशरीफ़ लाती तो आप ﷺ खड़े हो जाते मोहब्बत से बिठाते उन को 'इज़्ज़त देने के लिए खड़े हो जाया करते थे और उनके लिए अपनी चादर मुबारक बिछा दिया करते थे एक बाप और बेटी की मोहब्बत इस तरह के वाक़ि'आत किस तरह हमारे ज़ेहनों (बुद्धि) में नक़्श राह (निशान) छोड़ जाते हैं कि वक़्त के रसूल ﷺ के साथ साथ आप एक वालिद (बाप) भी थे और वालिद ऐसे की मुरब्बी (सहायक) कामिल उस्वा (पेशवा) सादिक़ (सच्चे) नमूना (आदर्श) हक़ किस तरह जज़्बो (भावनाओं) में वारफ़्तगी (लगन) और दूर तक फैली हुई अपनाइयत (रिश्तेदारी) के साथ बेटी से पेश आते थे और अगर हम अपना जाइज़ा ले कि क्या वाक़'ई में हम भी अपनी बेटियों के साथ ऐसी ही मोहब्बत करते हैं ? हम ज़रा एक लिहाज़ के लिए सोचे कि हमारा त'आमुल (मु'आमला) हमारी बेटियों के साथ कैसा होता है ? हम कैसे बरताव करते हैं ? हम किस अंदाज़ से उनके साथ पेश आते हैं ? लिहाज़ा (इसलिए) ज़रुरत इस बात की है कि ज़ोहद-ओ-इत्तिक़ा (परहेज़-गारी) वरा'-ओ-तक़श्शुफ़ (नेकी) ख़ुदा-तरसी (अल्लाह से डरना) और रब शनासी ईमान-व-इस्लाम से
क़रीब-व-नज़दीकी किताब-ओ-सुन्नत की ता'लीमात और उसके उसूलों से वाबस्तगी (प्यार) यौम-ए-आख़िरत और फ़िक्र-ए-आख़िरत में रुसूख़-व-पुख़्तगी तरवीज (फैलाना) दीन-ओ-तौहीद के लिए दीवानगी, ख़िदमत, सुन्नत-ओ-हदीष के लिए बलंद हौसलगी (हिम्मत) ता'लीम क़ुरआन-ओ-सुन्नत के लिए बुलंद-हिम्मती जैसे औसाफ़-व-कमालात (खूबियां) से हमारी बेटियां सरशार हो उन्हें यह धुन सवार हो कि तरवीज-ओ-इशा'अत-ए-दीन (प्रचार) का फ़रीज़ा (ज़िम्मेदारी) क्यूँकर और कैसे अदा किया जा सकता है ? और हम उनमें यह औसाफ़-व-कमालात (गुण) कूट कूट कर भरने की कोशिश करे साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सोशल-मीडिया से इंहिमाक-व-मसरूफ़ ब-क़द्र-ए-ज़रूरत व हाजत हो उस में इस्तिग़राक़-व-इंहिमाक (मशग़ूलियत) ने बहुत हद तक (बल्कि काफ़ी हद तक) दीन से बेज़ारी (निराशा) फ़िक्र-ए-आख़िरत से लापरवाही ईमान बिल्लाह से दूरी ता'लीमात-ए-इलाहिया से महरूमी (निराशा) इरशादात-ए-नबविय्या से आज़ादगी (रिहाई) 'इफ़्फ़त-ओ-'इस्मत (पाक-दामनी) से आवारगी रब की चौखट से सरकशी (बग़ावत) मा'सियतों (गुनाहों) से क़ुर्ब-व-नज़दीकी क़ुरआन-ओ-हदीष से दूरी नाफ़रमानियों से मोहब्बत-व-शेफ़्तगी (प्यार) ख़ामियों और ख़राबियों में ख़ूब-ख़ूब (बहुत ज़ियादा) कोह-पैमाई (बहुत अधिक) दरवाज़े खोले हैं सोशल-मीडिया का इस्ते'माल हो मगर (लेकिन) ब-क़द्र-ए-हाजत व ज़रूरत ऐसा न हो कि दुनिया-ओ-मा-फ़ीहा (संसार) से यकसर (बिल्कुल) ला-त'अल्लुक़ (अलग) हो कर शबाना-रोज़ (रात-दिन) उसी में ग़र्क़ (मगन) रहा जाए जिससे न सिर्फ़ उनकी आंखें ख़राब होती हैं उनकी नज़रें मुतअस्सिर (प्रभावित) होती हैं बल्कि हमारी नस्लें बर्बाद होती हैं और उस पर मुस्तज़ाद (अधिक) यह कि हम (guardian और सर-परस्त) उसके नक़्ल-ओ-हरकत (आने-जाने) से यकसर (बिल्कुल) ग़ाफ़िल-व-लापरवाह हो यह भी एक मुसल्लमा-हक़ीक़त है कि हमारी ग़फ़लत ने हमारी बेटियों को हम से छीना है हम से हमारी मोहब्बतें सल्ब की हैं उनके प्यार-ओ-शेफ़्तगी (मोहब्बत) हमसे दूर की है।
हमारी बेटियां हमारे सरो की दस्तार-ए-'इज़्ज़त व तौक़ीर (सम्मान) है वो हमारी बावक़ार (श्रेष्ठ) पगड़ियां हैं हमारी पेशानियों का एहतिराम ('इज़्ज़त) हैं लेकिन हम भी समझते कि वो हमारी 'इज़्ज़त-ओ-वक़ार (गौरव) हैं ताज हैं हमें चाहिए हम उनके जज़्बात समझें उनके एहसासात (भावनाओं) की क़द्र (आदर) करे उनकी 'उम्र का ख़याल करते हुए उन की शादियां वक़्त पर करे और उसमें कोई तसाहुल (लापरवाई) न बरतें पढ़ाई के हीले (बहाने) से ता'लीम के बहाने डॉक्टर और इंजिनियर बनाने के बहाने job देने दिलाने के हीले (बहाने) से उनकी शादियां क़त'ई (हरगिज़) मुअख़्ख़र न करे क्यूंकि उनके भी जज़्बात (भावनाएं) होते हैं उनकी भी ख़्वाहिशात (चाहते) होती हैं वो भी अपने दिलों में तमन्नाएँ लिए हुए होती हैं आरज़ूए सजाएं वो भी ज़िंदगी के गाम-ब-गाम (क़दम क़दम पर) चलने की कोशिश करती हैं लिहाज़ा (इसलिए) सर-परस्तों के लिए इंतिहाई (बहुत) ज़रुरी और अज़-बस (अत्यंत) लाज़िमी (ज़रुरी) है कि उनके ख़्वाहिशात-व-एहसासात (आरज़ूओं) का ख़याल फ़रमाए और शादी जल्दी और वक़्त से करने की स'ई (कोशिश) फ़रमाए।
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