क्या हमारी मुस्लिम ख़वातीन (औरतें) यह जानती है कि बाज़ार उन जगहों में से एक है जहां फ़ित्नों की कसरत (भीड़) और अल्लाह के ज़िक्र से ए'राज़ होता है नबी-ए-करीम ﷺ का इरशाद हैं:
" अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त के नज़दीक सबसे पसंदीदा जगहें मसाजिद (मस्जिदें) और सबसे ना-पसंदीदा (ख़राब) जगहें बाज़ार है " (सहीह जामे': 165)
*आजकल बाज़ारों में क्या होता है ?
इस का जवाब दर्ज ज़ैल सुतूर में मुलाहज़ा फ़रमाए:
(1) बे-पर्दगी
(2) मर्दों और औरतों का इख़्तिलात (मेल-जोल) और बाहमी (आपस का) लेन-देन
(3) बा'ज (कुछ) दुकानदार अल्लाह-त'आला के ख़ौफ़ से 'आरी (ख़ाली) और इंतिहाई (बहुत) गंदे और ख़बीस मक़ासिद (इरादे) के हामिल होते हैं बिल-ख़ुसूस (खास तौर पर) वो दुकानदार जो ख़वातीन (औरतों) के बाज़ारों में काम करते हैं लेकिन बसा-औक़ात (कभी-कभी) ख़वातीन,औरतों से मुत'अल्लिक़ अश्या (चीज़ों) की ख़रीदारी के लिए बाज़ार जाने पर मजबूर होती है इस सिलसिले में दर्ज ज़ैल उमूर (काम) का एहतिमाम (बंदोबस्त) ज़रूरी है :
(1) ख़वातीन (औरतें) बाज़ार न जाए इल्ला (मगर) यह कि कोई बहुत ही सख़्त ज़रूरत हो
(2) अगर कोई ख़ातून (महिला) बाज़ार जाए तो मुकम्मल इस्लामी पर्दे में मलबूस (छिपी) हो कर अपने किसी महरम मसलन (जैसे) शौहर,बाप और भाई वग़ैरा के साथ जाए
(3) दुकानदार से भाव-ताव न करें बल्कि (किंतु) यह काम अपने महरम के सुपुर्द (हवाले) कर दे
(4) शौहर पर कोई ऐसा बोझ न डालें जिस की वो ताक़त न रखता हो
नोट: यक़ीनन यह बात निहायत (बहुत) ही अफ़सोस-नाक (दुखद) है कि रमज़ान की रातों में बिल-ख़ुसूस (खास तौर पर) आख़िरीं अश्रे में बाज़ार औरतों से भरें रहते हैं !
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