इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा क्यों पढ़ना ज़रूरी है?
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अल्लाह तआला ने फ़रमाया
“ हमने तुमको बार बार दुहराई जाने वाली सात (आयतें) और क़ुरआन अज़ीम अता किया है.” (सूरह हिज्र आयत 87)
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इसकी वज़ाहत करते हुए रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया “ सूरह फ़ातिहा ही बार बार दुहराई जाने वाली सात (आयतें) हैं.” (बुख़ारी ह० 4704)
(इससे पता चला कि सूरह फ़ातिहा को नमाज़ में बार बार दुहराया जाना चाहिए और यह तब ही मुमकिन है जब हम हर नमाज़ में इसको पढ़ें चाहे वह अकेले हो या जमात मे. अगर इमाम के पीछे चुप रहा जाए और सूरह फ़ातिहा न पढ़ी जाए तो इस आयत की मुख़ालिफ़त होगी)
📎 रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया " जिस शख़्स ने (नमाज़ में) सूरह फ़ातिहा नहीं पढ़ी उसकी नमाज़ नहीं हुई." (बुख़ारी ह० 756; मुस्लिम ह० 874, 876, अबू दाऊद ह० 837)
📎 आएशा (रज़िo) बयान करती हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया " हर वह नमाज़ जिसमे सूरह फ़ातिहा न पढ़ी जाए वह नाक़िस (Defective) है." (इब्न माजा ह० 840; मुस्नद अहमद ह0 26888)
📎 उबादा बिन सामित (रज़िo) रिवायत करते हैं कि “ हम फ़ज्र की नमाज़ में रसूलुल्लाह ﷺ के पीछे थे, आपने क़ुरआन पढ़ा तो आप पर पढ़ना भारी हो गया. जब नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो फ़रमाया ‘शायद तुम अपने इमाम के पीछे कुछ पढ़ते हो ?’हमने कहा हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! आपने फ़रमाया ‘ सिवाए सूरह फ़ातिहा के कुछ न पढ़ा करो क्योंकि उस शख़्स की नमाज़ नहीं जो नमाज़ में सूरह फ़ातिहा न पढ़े." (अबू दाऊद ह० 823, तिरमिज़ी ह० 311, मुस्नद अहमद 5/322, सहीह इब्न ख़ुज़ैमा ह० 1581)
📎 अबू हुरैरह (रज़िo) बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया " जिस शख़्स ने नमाज़ पढ़ी और उसमें सूरह फ़ातिहा न पढ़ी बस वह (नमाज़) नाक़िस है , वह (नमाज़) नाक़िस है , वह (नमाज़) नाक़िस है, पूरी नहीं है " अबू हुरैरह (रज़िo) से पूछा गया ‘हम इमाम के पीछे होते हैं’ (फिर भी पढ़ें?)" अबू हुरैरह (रज़िo) ने कहा ‘(हाँ) तुम उसे दिल में पढ़ो.’ (मुस्लिम ह० 878, अबू दाऊद ह0 821 )
📎 जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़ि0) बयान करते हैं कि हम लोग इमाम के पीछे ज़ुह्र और अ़स्र की नमाज़ों में पहली 2 रकअ़तों में सूरह फ़ातिहा और कोई और सूरह पढ़ते थे और बाद की 2 रकअ़तों में (सिर्फ़) सूरह फ़ातिहा पढ़ते थे." (इब्न माजा ह0 843, बैहक़ी 2/170)
▪ इमाम तिरमिज़ी (रह0) फ़रमाते हैं ▪
“ उबादा (रज़ि0) की हदीस हसन सहीह है और इसी पर अक्सर अहले इल्म सहाबा जैसे उमर इब्न ख़त्ताब (रज़ि0) जाबिर इब्न अब्दुल्लाह (रज़िo) और इमरान इब्न हुसैन (रज़ि0) वग़ैरह अमल करते हैं. ये हज़रात कहते हैं कि कोई भी नमाज़ सूरह फ़ातिहा के ब़गैर सहीह नहीं है. इमाम इब्न मुबारक, इमाम शाफ़ई, इमाम अहमद और इमाम इस्हाक़ (रह0) का यही क़ौल है. इस बाब (अध्याय, chapter) में अबू हुरैरह (रज़ि0) आइशा (रज़ि0), अनस (रज़ि0), क़तादा (रज़ि0) और अब्दुल्लाह इब्न अम्र (रज़ि0) से रिवायात हैं.” (तिरमिज़ी ह0 247 के तहत)
▪ सहाबा (रज़ि 0) से इसका सुबूत ▪
इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा पढ़ने का सुबूत क़ौली और अमली तौर पर कई सहाबा से मिलता है, जैसे…..
📎 उमर (रज़िo) : बैहक़ी 2/67,तारीख़ अल कबीर ह0 3239, दारक़ुत्नी ह0 1197,1198,
📎 अबू हुरैरह (रज़िo) : जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 73,283, किताबुल क़िराअत इमाम बैहक़ी ह0 68
📎 अब्दुल्लाह इब्न मसऊद (रज़िo) : मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा ह0 3752
📎 अब्दुल्लाह इब्न अब्बास (रज़िo) : मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा ह0 3773
📎 अब्दुल्लाह इब्न उमर (रज़िo): सहीह इब्न ख़ुज़ैमा 1/572
📎 अनस (रज़िo) : किताबुल क़िराअत इमाम बैहक़ी ह0 231
📎 अब्दुल्लाह इब्न अम्र इब्न आस (रज़िo) : मुसन्नफ़ अब्दुर्रज्ज़ाक़ ह0 2775, जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 60
📎 जाबिर इब्न अब्दुल्लाह (रज़िo) : इब्न माजा ह0 843
📎 उबई इब्न कअब (रज़िo) : जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 52,53, दार क़ुत्नी ह0 1199
📎 अबू सईद ख़ुदरी (रज़िo) : जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 57,107
📎 उबादा इब्न सामित (रज़िo) : मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा ह0 3770
▪अइम्मा-ए-किराम और उलमा हज़रात की गवाही ▪
📎 मशहूर ताबई सईद इब्न जुबैर (रह0) से पूछा गया कि " क्या मैं इमाम के पीछे भी (सूरह फ़ातिहा) पढ़ू ?" तो उन्होंने जवाब दिया "हाँ तब भी जब तुम इमाम की क़िराअत सुन रहे हो." (जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 273)
📎 हसन बसरी (रह0) फ़रमाते हैं " इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा हर नमाज़ में पढ़ा करो." (मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा ह0 3762, किताबुल क़िराअत इमाम बैहक़ी ह0 242)
📎 इमाम शाफ़ई (रह0) फ़रमाते हैं "उस शख़्स की नमाज़ जायज़ नहीं है जो हर रकअ़त में सूरह फ़ातिहा नहीं पढ़ता, भले ही वह इमाम हो या मुक़्तदी, भले ही इमाम बुलंद आवाज़ से पढ़े या ख़ामोशी से." (जुज़ क़िराअत इमाम बुख़ारी ह0 226)
📎 मौलाना अब्दुल हई फ़रंगी महली लखनवी (रह0) फ़रमाते हैं "इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा पढ़ने की मनाही किसी भी सहीह और मर्फ़ूअ हदीस से साबित नहीं है. इसकी मनाही करने वाली कोई भी मर्फ़ूअ हदीस सहीह नहीं है और वो बेबुनियाद है." (तअलीक़ुल मुमज्जद पेज 101)
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