शादी के बाद औरत पर किस की इता'अत वाजिब (ज़रूरी) है

शादी के बाद औरत पर किस की इता'अत वाजिब (ज़रूरी) है

लेखक: हाफ़िज़ मोहम्मद ताहिर 

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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   शैख़-उल-इस्लाम इब्न तैमियाह रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया कि एक औरत अपने वालिदैन (मां बाप) के घर से शादी के बाद ख़ाविंद (पति) के पास मुंतक़िल हो गई है अब इस पर मु'आमलात-ए-ज़िंदगी में किस की इता'अत ओ फ़रमाँ-बरदारी फ़र्ज़ है ?
इता'अत में किसे मुक़द्दम (आगे) रखेगी अपने वालिदैन को या ख़ाविंद को ?

   तो शैख़-उल-इस्लाम रहिमहुल्लाह ने जवाब दिया इस का ख़ुलासा यह है:
औलाद पर वालिदैन की इता'अत फ़र्ज़ होती है इस पर क़ुरआन-ओ-हदीस के बेशुमार दलाइल है लेकिन जब औरत की शादी हो जाती है तो जिस तरह उसकी तमाम-तर ज़िम्मेदारी वालिदैन के कंधों से उठकर ख़ाविंद पर आजाती है उसी तरह इता'अत ओ फ़रमाँ-बरदारी के वो तमाम अहकाम जो वालिदैन के लिए थे ख़ाविंद की तरफ़ मुंतक़िल हो जाते हैं लिहाज़ा (इसलिए) अब तमाम मु'आमलात में वो ख़ाविंद के साथ चलेगी इस पर क़ुरआन ओ हदीष में बेशुमार दलाइल है।

  ख़ाविंद अगर हुक़ूक़ ओ फ़राइज़ की अदाएगी में जान बूझ कर कोताही नहीं बरतता तो औरत उसकी बात मानेगी रिहाइश रखने के मुत'अल्लिक़ (बारे में) मु'आमला हो या दीगर (अन्य) ख़ानगी उमूर (काम) हो अपने वालिदैन की आरा (सलाह) को ख़ाविंद के घर में लाकर दाख़िल नहीं करेगी अपने ख़ाविंद के घर से इस की इजाज़त के बग़ैर वालिदैन (मां बाप) या किसी भी दूसरे के हुक्म पर बाहर नहीं निकलेगी।

ख़ाविंद अल्लाह-त'आला का ख़ौफ़ (डर) रखने वाला हो तो 'अलैहिदगी (जुदाई) वग़ैरा के मु'आमले में भी अपने वालिदैन (मां बाप) की बातों में आकर तलाक़ व ख़ुल' का मुतालबा नहीं करेगी बिला-वजह तलाक़ तलब करने वाली औरतों को हदीष में ख़ुशबू ए जन्नत (जन्नत की ख़ुशबू) से महरूम और बिना सबब ख़ुल' लेने वालियों को मुनाफ़िक़ क़रार दिया गया है।

ख़ाविंद अगर हुक़ूक़ की अदाएगी का ख़याल रखते हुए रिहाइश (घर) तब्दील करना चाहे और किसी दूसरे शहर मुंतक़िल होने का इरादा करे तो औरत उसकी इता'अत करे उसके वालिदैन को रोकने का कोई हक़ नहीं बल्कि अगर रोकते हैं तो ज़ुल्म करते हैं बाक़ी रहा नेकी-ओ-ख़ैर के मु'आमलात जैसे नमाज़ की अदाएगी, सच बोलना, अमानत की हिफ़ाज़त, फ़ुज़ूल-ख़र्ची से परहेज़ वग़ैरा तो इस में ख़ाविंद और वालिदैन या कोई भी हो उसकी बात माननी चाहिए और बुराई व गुनाह के उमूर (काम) में चाहे ख़ाविंद हो या कोई दूसरा उसकी बात नहीं माननी चाहिए जैसा कि नबी ﷺ ने फ़रमाया:
" अल्लाह-त'आला की मा'सियत में मख़्लूक़ की कोई इता'अत नहीं "

शैख़-उल-इस्लाम रहिमहुल्लाह ने इस मस'अले में जिन दलाइल से इस्तिदलाल किया वो यह है अल्लाह-त'आला फ़रमाता है:
" नेक औरतें वो है जो (शौहरों की) फ़रमाँ-बरदार हो और उनकी 'अदम-मौजूदगी (ग़ैर-हाज़िरी) में अल्लाह की हिफ़ाज़त व निगरानी में उनके हुक़ूक़ (माल व आबरू) की हिफ़ाज़त करने वाली हो
( सूरा अन्-निसा:34)

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
" दुनिया सारी ही मता' (संपत्ति) है और बेहतरीन मता' नेक बीवी है जब आप उसे देखें तो ख़ुश करदे हुक्म देतो इता'अत करे ग़ैरमौजूदगी में अपने नफ़्स और आप के माल की मुहाफ़िज़ (रखवाली) हो "
और फ़रमाया: जब औरत पाँचों नमाज़ अदा करे माह-ए-रमज़ान के रोज़े रखे अपनी शर्म-गाह की हिफ़ाज़त करे और अपने ख़ाविंद की इता'अत करे तो वो जन्नत के जिस दरवाज़े से दाख़िल होना चाहे दाख़िल हो जाए "
सय्यदना मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु शाम से आए तो उन्होंने नबी ﷺ को सज्दा किया आप ﷺ ने फ़रमाया:
मुआज़ यह क्या ? इन्होंने कहा: मैं शाम (सीरिया) गया तो मैंने वहां के लोगों को देखा कि वो अपने पादरियों और सरदारों को सज्दा करते हैं मुझे अपने दिल में यह बात अच्छी लगी कि हम लोग आपके साथ (ता'ज़ीम और एहतिराम का)
यह तरीक़ा इख़्तियार करे तो रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
ऐसा न करें अगर मैं किसी को अल्लाह-त'आला के 'अलावा किसी और के लिए सज्दा करने का हुक्म देता तो औरत को हुक्म देता कि वो अपने ख़ाविंद को सज्दा करे
इस जात की क़सम जिसके हाथ में मोहम्मद ﷺ की जान है जब तक औरत अपने ख़ाविंद का हक़ अदा नहीं करती वो अपने रब के हुक़ूक़ भी अदा नहीं कर सकती और अगर ख़ाविंद उससे इज़दिवाजी ख़्वाहिश का इज़हार करे और वो (सफ़र के लिए) कजावे पर भी बैठ चुकी हो तो उसे इंकार नहीं करना चाहिए।
(मुस्नद अहमद:1661/ सुनन इब्न माजा:1853)

आप ﷺ ने मज़ीद फ़रमाया:
" अगर मैं किसी को हुक्म देता कि किसी इंसान को सज्दा करे तो औरत को हुक्म देता कि वो अपने ख़ाविंद को सज्दा करे अगर कोई मर्द औरत को हुक्म दे कि सुर्ख़ (लाल) पहाड़ से (पत्थर उठाकर) सियाह (काले) पहाड़ पर ले जाए और सियाह (काले) पहाड़ से सुर्ख़ पहाड़ पर ले जाए तो औरत के लिए यही मुनासिब है कि वो यह काम करे " 
(सुनन इब्न माजा:1852)

नीज़ (और) फ़रमाया:
" इंसान के लिए किसी भी इंसान को सज्दा करना सहीह नहीं और अगर इंसान के लिए किसी दूसरे इंसान के सामने सज्दा करना सहीह होता तो मैं औरत को हुक्म देता कि वो अपने ख़ाविंद को सज्दा करती इस लिए कि उसका औरत पर बहुत 'अज़ीम हक़ है और उस जात की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है अगर शौहर के पांवों से लेकर सर तक ज़ख़्म पीप से भरे हो और बीवी उसके पास आए और उसे चाटले फिर भी उसका हक़ अदा नहीं कर सकती "

(मुस्नद अहमद:12614)

मज़ीद फ़रमाया:
" जब आदमी अपनी बीवी को बुलाएं तो वो उसके पास आए अगरचे वो तंदूर पर (काम कर रही) हो "

(सुनन तिर्मिज़ी:1160)

इसी तरह फ़रमाया:
" जब आदमी अपनी बीवी को बिस्तर पर बुलाएं और वो आनेसे इंकार कर दे तो सुब्ह तक फ़रिश्ते उस पर ला'नत करते रहते हैं "

(सहीह बुख़ारी:5193 / मुस्लिम:1436)

सय्यदना ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ ख़ाविंद सरदार होता है और उन्होंने यह आयत तिलावत की:
(وَأَلۡفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا ٱلۡبَابِۚ)
 (सूरा यूसुफ़:25)

सय्यदना उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है उन्होंने फ़रमाया:
" निकाह ग़ुलामी की तरह होता है इस लिए तुम देखा करो कि अपनी ज़ेर ए शफ़क़त औरत को किस की ग़ुलामी में दे रहे हो " 
और नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया:
सुनो ! औरतों के साथ ख़ैर-ख़्वाही करो इस लिए कि वो तुम्हारे पास क़ैदी (की तरह) है।

(सुनन तिर्मिज़ी:1163)

[ مجموع الفتاوى : ٢٦٠/٣٢-٢٦٣ ملخصا ]

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