लेखक: शैख़ हाफ़िज़ शाहिद रफ़ीक़
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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क़ुर्बानी के मुबारक अय्याम में आज हमारे यहां कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस 'अज़ीम 'इबादत को अपने फ़िक्र ए ना-रसा (बे-कार) के पैमानों से माप कर बताया करते हैं कि क़ुर्बानी से पैसे ज़ाए' (बर्बाद) होते और जानवर तलफ़ (तबाह) होते हैं इस के ब-जाए (बदले में) अगर यही दौलत ग़रीब तबक़े पर ख़र्च की जाए तो ज़्यादा मुफ़ीद (उपयोगी) है।
चूँकि (इसलिए कि) यह सोच ही ईमानियात से 'आरी (ख़ाली) और उख़रवी फ़लाह (नजात) से ग़फ़लत पर मबनी (निर्धारित) है इस लिए इस पहलू (तरफ़) से भी अगर देखा जाए कि क़ुर्बानियो के मु'आशरती (सामाजिक) माद्दी (भौतिक) और मु'आशी (आर्थिक) फ़वाइद (फ़ाइदे) क्या है तो भी क़ुर्बानी करना ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के लिए बहुत नफ़ा'-बख़्श (लाभदायक) अम्र (कार्य) है ज़ैल-में (नीचे) फ़ज़ीलत-उल-शैख़ मौलाना मोहम्मद मुनीर क़मर حفظہ اللہ की किताब " 'ईदैन व क़ुर्बानी " (पेज नंबर: 204/210) से क़ुर्बानी के मु'आशी (आर्थिक) फ़वाइद (फ़ाइदे) के मुत'अल्लिक़ (बारे में) चंद हक़ाइक़ (सच्चाई) मुलाहज़ा कीजिए:
● 'अक़्ल-ए-बीमार के मालिक उन लोगों का यह वावैला (रोना पीटना) भी सरासर ग़लत और ख़िलाफ़-ए-वाक़ि'आ है कि क़ुर्बानियो पर ख़र्च आने वाले अमवाल (माल) ज़ाए' (बर्बाद) हो जाते हैं बल्कि (किंतु) हक़ीक़त इस के सरासर (बिल्कुल) बर-'अक्स (विरुद्ध) है क्यूंकि इन्फ़िरादी व इज्तिमा'ई (व्यक्तिगत और सामूहिक) क़ुर्बानियों में बहुत से मु'आशी (आर्थिक) मु'आशरती (सामाजिक) और क़ौमी व मिल्ली फ़वाइद (फ़ाइदे) भी मौजूद हैं अगरचे (हालाँकि) इहया ए सुन्नत के अज्र ओ सवाब और रज़ा-ए-इलाही के हुसूल (नफ़ा') के मुक़ाबले में इन फ़वाइद (फ़ाइदे) की हमारे नज़दीक कोई वक़'अत (अहमियत) नहीं है लेकिन महज़ (केवल) उन 'अक़्ल-परस्तो के इल्ज़ामी-जवाब की ख़ातिर (लिए) हम क़ुर्बानियो के माली व माद्दी (आर्थिक और भौतिक) फ़वाइद (फ़ाइदे) का पहलू भी वाज़ेह (स्पष्ट) किए देते हैं ताकि मा'लूम हो सके कि क़ुर्बानी के ज़री'आ किस तरह के माली (आर्थिक) फ़वाइद (फ़ाइदे) क़ौम-ओ-मुल्क को वापस लौटा दिए जाते हैं।
● इस सिलसिले में सबसे पहले किताब-ए-इलाही क़ुरआन-ए-करीम शाहिद-ए-'अदल है
(सूरा अल्-ह़ज्ज) की आयत (28) के अलफ़ाज़ (لِیَشْھَدُوْا مَنَافِعَ لَھُمْ)
क़ाबिल-ए-तवज्जोह (ध्यान देने योग्य) है जिन में हज्ज के फ़वाइद (फ़ाइदे) को (مَنَافِعَ) जम' के सीग़े से ज़िक्र फ़रमाया है इसी आयत में क़ुर्बानी के जानवरों का ज़िक्र भी मौजूद है जिससे वाज़ेह (स्पष्ट) होता है कि क़ुर्बानिया भी फ़ाइदो और मंफ़'अतो (लाभ) से ख़ाली नहीं नीज़ (और) इसी सूरत में इरशाद-ए-इलाही है:
(فَکُلُوْا مِنْھَا وَ اَطْعِمُوا الْبَآئِسَ الْفَقِیْرَ) [الحج: ٢٨]
तर्जुमा: (क़ुर्बानियों का गोश्त) ख़ुद भी खाएँ और तंग-दस्त मोहताज को भी खिलाए (सूरा अल्-ह़ज्ज:28)
आयत (36) में पहले तो फ़रमाया:
(لَکُمْ فِیْھَا خَیْرٌ) [الحج: ٣٦]
तर्जुमा: तुम्हारे लिए इन (क़ुर्बानियों के जानवरों) में भलाई है।
और फिर फ़रमाया:
(فَکُلُوْا مِنْھَا وَ اَطْعِمُوا الْقَانِعَ وَ الْمُعْتَرَّ) [الحج: ٣٦]
तर्जुमा: इन में से ख़ुद भी खाओ और उन को भी खिलाओ जो क़ना'अत किए बैठे हैं और उन को भी जो अपनी हाजत पेश करें।
(सूरा अल्-ह़ज्ज:36)
इन आयत में जिन मंफ़'अतो (लाभ) और भलाईयों का ज़िक्र है उन में सबसे पहले ग़रीबों, मिस्कीनों, बेवाओं और यतीमों के साथ मुवाख़ात व हमदर्दी (भाईचारा) का पहलू (उद्देश्य) आता है क्यूंकि इन क़ुर्बानियों की बदौलत (कारण से) ऐसे लोगों को भी अल्लाह-त'आला की ने'मत " गोश्त " खाने का मौक़ा' (अवसर) मुयस्सर आ जाता है जिन्हें साल-भर (पूरे साल) ख़रीद कर गोश्त खाने की हिम्मत नहीं होती इन कुर्बानियों की बरकत से नहीं मालूम इन में से कितने लोगों को साल-ब-साल (हर साल) सिर्फ़ 'ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानियों का गोश्त ही खाने को मिलता हो फिर यह इन पर कोई एहसान भी नहीं बल्कि ब-हुक्म इलाही उन्हें गोश्त देना ज़रूरी है क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने
(وَ اَطْعِمُوا الْبَآئِسَ الْفَقِیْرَ)
और (اَطْعِمُوا الْقَانِعَ وَ الْمُعْتَرَّ)
फ़रमा कर उन की ग़म-गुसारियो (सहानुभूति) को वाजिब (अनिवार्य) क़रार दे दिया है मगर ग़रीबों की हमदर्दी के बलंद-बाँग (ज़ोर-दार) दा'वे करने वालों की इस तरफ़ नज़र ही नहीं जाती कि आख़िर (आख़िर-कार) यह गोश्त जाता कहा है ? वो ग़रीबों में ही तो बटता है ख़ुद अल्लाह-त'आला की ज़ात तो इस से बे-नियाज़ है अल्लाह-त'आला ने तो " सूरा अल्-ह़ज्ज " में क़ुर्बानी का फ़लसफ़ा (तरीक़ा) बयान करते हुए फ़रमाया दिया है कि मुझे तुम्हारे दिलों का तक़्वा और परहेज़-गारी मतलूब है रहा गोश्त तो इस से मुझे कोई ग़रज़ (मतलब) नहीं
चुनांचे (जैसा कि) इरशाद-ए-इलाही है:
(لَنْ یَّنَالَ اللّٰہَ لُحُوْمُھَا وَ لَا دِمَآؤُھَا وَ لٰکِنْ یَّنَالُہُ التَّقْوٰی مِنْکُمْ) [الحج: ٣٧]
तर्जुमा: अल्लाह को इन क़ुर्बानियों का गोश्त और ख़ून नहीं पहुंचता बल्कि उसे तो सिर्फ़ तुम्हारे दिलों का तक़्वा व परहेज़-गारी पहुंचतीं है।
(सूरा अल्-ह़ज्ज:37)
तो गोया (मानो) क़ुर्बानी करना अल्लाह के हुज़ूर तक़्वा ओ परहेज़-गारी का नज़राना पेश करने के साथ-साथ अल्लाह के बंदों में से ग़रीबों और मिस्कीनों के साथ मुवासात व हमदर्दी (मदद) का ज़री'आ भी है अल्लाह-त'आला ने जो फ़रमाया है: (لَکُمْ فِیْھَا خَیْرٌ)
या'नी इन क़ुर्बानियों में तुम्हारे लिए भलाई है 'अक़्ल के बीमारों को तो यह भलाईयां शायद नज़र न आ सके लेकिन अगर थोड़ा-सा 'अक़्ल-ए-सलीम (सद्बुद्धि) से काम लिया जाए तो यह भलाईयां बड़ी वाज़ेह (स्पष्ट) और एक खुली हुई हक़ीक़त हैं।
● क़ुर्बानी के माद्दी (भौतिक) फ़वाइद (फ़ाइदे):
दुनिया में लाखों करोड़ों ऐसे अफ़राद (लोग) है जिन का ज़रिया'-ए-म'आश (रोज़गार का साधन) ही यही है कि वो ऊंटों, गायों और भेड़-बकरियों के रेवड़ पालें और मा'मूली क़ीमत पर ख़रीद कर मुफ़्त की घास-फूस के साथ पाल कर और मा'मूली क़ीमत का चारा दाना डाल कर 'ईद-ए-क़ुर्बां के मौक़ा' (अवसर) पर अच्छी दामों (क़ीमत) फ़रोख़्त (sale) करें
कभी यह भी अंदाज़ा (अनुमान) किया है कितनों का गुज़र-बसर (गुज़ारा) इसी अम्र (कार्य) पर मुनहसिर (निर्भर) है ?
● इन के बाद उन लोगों की बारी आ जाती है जो उनसे माल ख़रीद कर बाज़ारों और मंडियों में ला कर बेचते हैं वो अलग मुनाफ़ा' (नफ़ा') कमाते हैं जो हज़ारों ख़ानदानों की दाल-रोटी मुहय्या (इकट्ठा) करते हैं।
● फिर अन-गिनत (असंख्य) लोग वो हैं जो अय्याम-ए-क़ुर्बानी में जानवरों को ज़ब्ह करने और उनका गोश्त बनाने की उजरत (मज़दूरी) वुसूल करते हैं यह बात भी मा'रूफ़ (प्रसिद्ध) है कि इन अय्याम में इस काम की उजरत (मज़दूरी) भी बड़ी मा'क़ूल और 'आम हालात की निस्बत (तुलना) ज़ियादा होती है इस तरह कितनों का भला हुआ और हफ़्ता दस दिन की ही नहीं बल्कि (किंतु) महीनों की रोटी कमाएंगे जहां लाखों ग़रीब ख़ानदान कम-अज़-कम तीन दिन के लिए गोश्त जैसी 'उम्दा ग़िज़ा (उत्तम भोजन) से बहरा-मंद (कामयाब) होते हैं वहीं क़ुर्बानियों की खालो (चमड़ों) से अपनी बीसियों (बहुत सारी) ज़रुरतें पूरी करते हैं क्यूंकि वो खाले (चमड़े) भी तो ग़रीबों, मिस्कीनों को ही दी जाती है जिन्हें वो बेच कर उन की क़ीमत अपने काम में लाते हैं खालो (चमड़ों) के इन इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) फ़वाइद (फ़ाइदे) के 'अलावा हज़ारों यतीमख़ाने (अनाथ आश्रम) दीनी मदारिस और रफ़ाही-इदारे ऐसे हैं जिन का सालाना (वार्षिक) बजट उन्हीं खालो (चमड़ों) की बदौलत (द्वारा) मुस्तहकम (मज़बूत) होता है।
● फिर हज़ारों ख़ानदान (परिवार) ऐसे हैं जिन का ज़री'आ-ए-रोज़गार (व्यवसाय) चमड़े की रंगाई है ज़रा उनसे पूछ कर देखें कि उनकी म'ईशत (रोज़गार) में क़ुर्बानी की कितनी अहमियत है और उनकी इक़्तिसादी (आर्थिक) पोज़ीशन (स्थिति) के इस्तेहकाम (मज़बूती) में क़ुर्बानी को कितना दख़्ल है ?
● इसी तरह अफ़राद-ए-मु'आशरा (समाज) में से कितने लोग वो भी है जो हड्डी वग़ैरा का कारोबार करते हैं सरकारी शो'बा-ए-तिजारत (व्यवसाय विभाग) से राब्ता (contact) कर के देखे तो पता चले कि क़ुर्बानियों की खालो (चमड़ों) हड्डियों और ऊन (wool) वग़ैरा से किस-क़दर ज़र-ए-मुबादला (विदेशी मुद्रा) हासिल होता है और अंदरून-ए-मुल्क (मुल्क के अंदर) कितनी मस्नू'आत (products) होती हैं जिन का तमाम-तर (मुकम्मल) इंहिसार (दार-ओ-मदार) यही चमड़ा, हड्डी, सींग और अँतड़ियों पर होता है गो (अगरचे) सिर्फ़ क़ुर्बानी के जानवरों ही से यह चीज़ें हासिल नहीं होती लेकिन इनमें क़ुर्बानी के जानवरों का एक मा'क़ूल (उचित) हिस्सा ज़रूर शामिल होता है खालो (चमड़ों) का कारोबार करने वाले कारीगर और ताजिर (व्यापारी) कहते हैं कि क़ुर्बानी की खालो (चमड़ों) जैसी 'उम्दा (श्रेष्ठ) दूसरी कोई खाल (चमड़ा) नहीं होती
अल-ग़रज़ (संक्षेप में) सिलसिला-बा-सिलसिला (लगातार) कितनी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा (लोगों) को इन क़ुर्बानियों का फ़ाइदा (नफ़ा) पहुंचता है और नीचे से ऊपर तक कई अश्ख़ास (लोग) इदारे, ठेकेदार, कारख़ाना-दार (कारखाने का मालिक) और क़ौम-ओ-मुल्क सभी मुस्तफ़ीद (फ़ायदा उठाने वाले) होते हैं क़ुरआन-ए-करीम का यह ए'जाज़ (करिश्मा) है कि इस ने उन तमाम फ़वाइद (फ़ाइदे) को (لَکُمْ فِیْھَا خَیْرٌ)
के जुमला में समेट लिया है
और यह हक़ीक़त अपनी जगह है कि क़ुर्बानी को महज़ (केवल) मु'आशी व माद्दी (आर्थिक और भौतिक) पहलू (उद्देश्य) से जाँचना (परखना) ही ग़लत है क्यूंकि यह अल्लाह के ख़लील हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत का इहया (भावना) ख़ुलफ़ा, सहाबा का त'आमुल (मु'आमला) और तवातुर (लगातार) उम्मत से साबित-शुदा सुन्नत है।
● हुज्जाज की हदी के फ़वाइद-व-मसारिफ़ (फ़ाइदे और ख़र्चे):
घर में की जाने वाली इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) क़ुर्बानियों के माली व माद्दी (आर्थिक और भौतिक) फ़वाइद (फ़ाइदे) तो आप के सामने आ चुके हैं अब रहा मौसम-ए-हज्ज की हदी या हुज्जाज की मिना में की जाने वाली क़ुर्बानियों का सवाल और यह नज़रिया (नुक़्ता-ए-नज़र) कि वहां तो गोश्त और चमड़ा वग़ैरा सब बे-कार ही चला जाता है उनका कोई पुरसान-ए-हाल (ख़बर लेने वाला) नहीं होता इस सिलसिले में 'अर्ज़ (गुज़ारिश) है कि बहुत पहले तो मालूम नहीं कि उनसे इस्तिफ़ादा (नफ़ा') करने का मंसूबा (योजना) कैसा होता था लेकिन शाह सऊद के दौर (समय) से हुज्जाज (हाजी लोगों) की क़ुर्बानियों के चमड़े हुकूमत की तरफ़ से मिस्र व सूडान वग़ैरा ममालिक की तरफ़ भेजे जाने लगे थे और वहां से वो नमक वग़ैरा देने और रंगने के बाद अमरीका और यूरपी ममालिक को भेज दिए जाते थे शाह फ़ैसल के दौर-ए-हुकूमत में इस ग़रज़ (उद्देश्य) के लिए जिद्दा में एक 'अज़ीमुश्शान (बहुत बड़ा) कारख़ाना क़ाएम (निर्मित) हो गया मिना से क़ुर्बानी के ज़ब्ह शुदा जानवरों को ट्रकों के ज़री'आ बाहर लाया जाता और उनका चमड़ा निकाल कर जिद्दा भेज दिया जाता जहां जदीद (आधुनिक) आलात ओ वसाइल पर मुश्तमिल (आधारित) कारख़ाने में साफ़ कर के उन्हें पुख़्ता (मज़बूत) किया जाता फिर इसे हर क़िस्म (प्रकार) के ख़ूबसूरत पक्के रंगों से रंगा जाता इस कारख़ाने में सैकड़ों मिस्री और दूसरे ममालिक के कारीगर और 'अमला (स्टाफ़) काम करता है और वहां बीस पच्चीस क़िस्म के मर्दाने (पुरुषों) ज़नाने (महिलाओं) और बचकाने (बच्चों के) जूते,चप्पलें और सैंडले तैयार होती है इन के 'अलावा (सिवा) फ़ौजी इस्ते'माल की अश्या (चीजें) कमर की पेटी,कारतूसदान वग़ैरा और 'आम इस्ते'माल की अश्या (चीजें) सूटकेस बैग,मनी-बैग और फ़ाइल बैग वग़ैरा तैयार होती है।
हिंदुस्तान के मा'रूफ़ (प्रसिद्ध) तारीख़ी (ऐतिहासिक) पर्चे (समाचार पत्र) माह-नामा (मासिकपत्र) " सिद्क़ जदीद " लखनऊ ने 27 जनवरी, 1956 की इशा'अत (प्रकाशन) में ज़िक्र किया था कि इसी तरह हड्डियों के बारे में भी तदाबीर सोची जा रही है और उम्मीद ज़ाहिर की थी कि चमड़े की तरह ही क़ुर्बानी की दूसरी अश्या (वस्तुएं) गोश्त और ऊन वग़ैरा भी जदीद (आधुनिक) तरीकों से काम आने लगेगी
" मे'मार क़ौम " बैंगलोर ने अपनी 5 अक्टूबर, 1978 की इशा'अत (प्रकाशन) में सऊदी हुकूमत के मक्का और मदीना से मुत'अल्लिक़ा तरक़्क़ियाती मंसूबों (योजना) का तज़्किरा (ज़िक्र) करते हुए लिखा था कि सऊदी अरब में जर्मनी की मदद से एक जदीद (आधुनिक) मंसूबे की बुनियाद रखी गई है जिस के तहत हुज्जाज (हाजी लोगों) की क़ुर्बानियों के गोश्त और खालो (चमड़ों) से ज़्यादा से ज़्यादा फ़वाइद (फ़ाइदे) हासिल किए जाएंगे और लिखा था कि इस जदीद (आधुनिक) तरक़्क़ी-पज़ीर मंसूबे से एक बहुत बड़े मस'अले (समस्या) का हल निकल आया है।
जिद्दा से शाए' (प्रकाशित) होने वाला एक कसीर-उल-इशा'अत (बहुत ज़्यादा प्रकाशित होने वाला) रोज़-नामा (दैनिक पत्र) "अल-मदीना" जो मौसम-ए-हज्ज में अपने 'उमूमी अरबी एडिशन के 'अलावा एक उर्दू एडिशन भी रोज़ाना शाए' (प्रकाशित) करता है उसने अपनी 16, ज़ुल-क़ा'दा 1403 हिजरी, उर्दू इशा'अत (प्रकाशन) में मक्का-मुकर्रमा के मेयर फ़वाद मोहम्मद उमर के हवाले से लिखा था कि इस साल हज्ज के दौरान में पहली मर्तबा क़ुर्बानी के जानवरों का गोश्त इस्लामी तरक़्क़ियाती बैंक के ज़री'आ ग़रीब इस्लामी ममालिक को बर-आमद (निकास) किया जाएगा जिस का मक़्सद क़ुर्बानी के गोश्त से लोगों को फ़ाइदा पहुंचाना है इस ग़रज़ (उद्देश्य) के लिए मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) ममालिक को बाक़ा'इदा गोश्त भेजने का सिलसिला शुरू' है।
इसी अख़बार "अल-मदीना" की 4, ज़ुल-क़ा'दा 1404 हिजरी, की उर्दू इशा'अत (प्रकाशन) में यह रिपोर्ट शाए' (प्रकाशित) की गई कि सऊदी एयरलाइंस और और Pia के मा-बैन (बीच में) एक मु'आहदा (समझौता) तय पाया है जिस के तहत Pia कारगो की बारह परवाज़ो (उड़ानों) के ज़री'आ क़ुर्बानी का यख़-बस्ता (बहुत ठंडा) या frozen गोश्त अफ़्ग़ाँ मुहाजिरीन के लिए पाकिस्तान पहुंचाया जाएगा
दुबई से शाए' (प्रकाशित) होने वाले पर्चा " अल-इस्लाह " ने मुहर्रम 1406 हिजरी ब-मुताबिक़ सितंबर, 1985 की इशा'अत (प्रकाशन) नंबर (92) में इस्लामी तरक़्क़ियाती बैंक के हवाले से लिखा था कि उसने इस साल क़ुर्बानी के तीन लाख जानवरों का frozen गोश्त बुर्किना फासो, माली, मॉरिटानिया, चाड, बांग्लादेश, जोर्डन और यमन में पहुंचाया है।
इसी तरह सऊदी रोज़-नामा " अल-जज़ीरा " की 18, सितंबर 1986, ब-मुताबिक़ 14, मुहर्रम, 1408, हिजरी ब-रोज़ जुमे'रात की इशा'अत नंबर 5103, में बर्री, बहरी (समुद्री) और हवाई रास्तों से लाखों जानवरों का गोश्त मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) देशों में पहुंचाए जाने की मुल्क-वार तफ़्सील मज़कूर (उल्लेखित) है उपर जिन ममालिक (देशों) के नाम ज़िक्र हुए
है इन के 'अलावा मिस्र, सूडान, सेनेगल, ज़ाम्बिया, जिबूती, सीरिया और पाकिस्तान के नाम भी इस गोश्त से इस्तिफ़ादा (फ़ाइदा) करने वाले ममालिक (देशों) में सामिल है।
रोज़-नामा अख़बार " अल-मदीना " अपनी 29, ज़ुल-क़ा'दा 1403, हिजरी की उर्दू इशा'अत (प्रकाशन) में और इदारा (संस्था) औक़ाफ़ दुबई की तरफ़ से शाए' (प्रकाशित) होने वाले अरबी माह-नामा (मासिक पत्रिका) " अल-ज़िया " ने सऊदी ख़बर-रसाँ (सूचना वाहक) एजेंसी के हवाले से लिखा है कि इस साल मिना में जदीद (आधुनिक) ज़ब्ह-ख़ाना (बूचड़खाना) का इज़ाफ़ा किया गया है जो पांच हजार मुरब्बा' (वर्ग) मीटर पर मुश्तमिल (आधारित) है जिसकी पूरी 'इमारत (building) एयर-कंडीशनर है इस में ज़ब्ह करने खाले (चमड़े) उतार के गोश्त को साफ़ करने और मुंजमिद (frozen) करने के लिए दुनिया के जदीद तरीन आलात व वसाइल (सामग्री और साधन) का एहतिमाम (बंदोबस्त) किया गया है जिस का 'अमला (स्टाफ़) बारह सौ (1200) अफ़राद (लोगों) पर मुश्तमिल (आधारित) है इस ज़ब्ह-ख़ाना (बूचड़खाना) में पहले ही साल एक लाख बीस हज़ार जानवरों का गोश्त मुंजमिद (frozen) किया गया जिसे बा'द-अज़ाँ (इस के बाद) दूसरे ममालिक (देशों) में पहुंचाया गया।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस मंसूबे को वुस'अत दे कर मिना में होने वाली तमाम-तर (मुकम्मल) क़ुर्बानियों के तमाम अज्ज़ा (सामग्री) को काम में लाया जाएगा एक सऊदी रोज़-नामा " अल-जज़ीरा " ने अपने शुमारा नंबर 5419, बाबत जुम'आ 6, ज़िलहिज्जा 1407, हिजरी ब-मुताबिक़ 31, जुलाई 1987, के पेज 7, पर क़ुर्बानियों के गोश्त के बारे में लिखा है कि इस साल कुर्रा-ए-अर्ज़ के बीस से ज़्यादा इस्लामी ममालिक (देशों) तक यह गोश्त पहुंचाया जा रहा है।
इसी तरह एक सऊदी रोज़-नामा की हफ़्ता-वार (weekly) इशा'अत (प्रकाशन) " अल-अर्ब'आ " शुमारा (संख्या) नंबर (32) और इस्लामिक बैंक दुबई के 'इल्मी व इक़्तिसादी (आर्थिक) मैगज़ीन माह-नामा (मासिक पत्रिका) " उल-इक़्तिसाद उल इस्लामी " शुमारा नंबर (25) में भी बड़ी तवील व मुफ़ीद (लंबी और उपयोगी) तजावीज़ और मंसूबों की रिपोर्टे दर्ज है जिस के ज़ेर-ए-'अमल आ जाने पर क़ुर्बानियों की ऊन का एक बाल भी ज़ाए' (बर्बाद) नहीं जाएगा और तवक़्क़ो' (उम्मीद) है कि खालो (चमड़ों) हड्डियों और गोश्त व़गैरा से मजमू'ई (सामूहिक) नफ़ा भी इतना ही हो जाएगा जो अस्ल जानवर की क़ीमत के लग-भग होता या अपने बा'ज़ (कुछ) इफ़ादी (लाभदायक) पहलूओं की वजह से अस्ल क़ीमत से भी यह फ़ाइदा बढ़ जाएगा जब क़ुर्बानी के जानवरों की ऊन और हड्डी वग़ैरा से सहीह इस्तिफ़ादा (नफ़ा) शुरू' हो गया और गोश्त से 'अरक़ियात और माउल्लहम कशीद किया जाने लगा तो ब'ईद नहीं कि खड़े जानवर की निस्बत (तुलना) इस की क़ुर्बानी की इफ़ादियत व मालिय्यत (क़ीमत) मज़ीद (अधिक) बढ़ जाए।
इस तरह 'आम मुल्कों (देशों) में की जाने वाली और मिना में हुज्जाज की क़ुर्बानियों के तमाम फ़वाइद (फ़ाइदे) को पेश-ए-नज़र (सामने) रखा जाए तो क़ुर्बानी न करने बल्कि इस की क़ीमत सदक़ा कर देने की तज्वीज़ (सलाह) में क़त'अन (हरगिज़) कोई मा'क़ूलियत (प्राथमिकता) बाकी नहीं रह जाती बल्कि वो सुन्नत से सरीह (खुल्लम-खुल्ला) बग़ावत है और इस पर मुस्तज़ाद (अतिरिक्त) यह कि क़ुर्बानी या किसी भी दूसरी 'इबादत को मु'आशी व माद्दी (आर्थिक और भौतिक) नुक़्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण) से जाँचना (परखना) ही ग़लत है
अल्लाह-त'आला क़ुर्बानी की मशरू'इय्यत (फ़र्ज़ियत) को मशकूक (शंकास्पद) बनाने की कोशिश करने वालों को राह-ए-हिदायत नसीब फ़रमाए,
आमीन।
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