मिलाद नबी

सूरा यूनुस आयत नंबर (58) के मफ़्हूम (मतलब) को तीर तीर कर मीलादियों ने कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया!

क्या यह आयत नबी और सहाबा को मा'लूम न थी ? अगर इस आयत का उनको पता था तो हुक्म क्यूं न दिया जश्न-ए-मीलाद मनाने का दिए जलाने का झंडियां लगाने का हलवा और बिरयानी पकाने का हर चीज़ को हर रंग में करने का मीलाद न मनाने वालों को मुंह भर भर कर फ़ुर्सत से गाली देने का ?
तीन सो साल गुज़रने के बाद मोहब्बत के सच्चे शैदाइयों को नहीं सिर्फ़ शियों को पता चला कि इस आयत का मफ़्हूम (मतलब) जश्न-ए-मीलाद भी है फिर क्या था सहाबा और अहल-ए-बैत से नफ़रत करने वाले शियों की मोहब्बत में यह मीलादी लोग इस अनोखे मफ़्हूम को ले उड़े और आज तक उड़ रहे हैं।

वाह! क्या ख़ूब समझ है क़ुरआन की इन गुमराह मौलवियों को आयत के इस मफ़्हूम (मतलब) को जिब्रील, नबी, सहाबा और इमामों में से कोई न समझ पाया बस समझने लगे तो तीन सो साल के बाद नबी से मोहब्बत के दा'वे-दार (दा'वा करने वाले) ?

तौहीद ओ सुन्नत के मफ़्हूम (मतलब) को बदल कर पूरी दुनिया में शिर्क ओ बिद'अत के पुजारी ही आज सबसे बड़े मुहिब्बान (चाहने वाले) और 'आशिक़ान-ए-रसूल के दावेदार हैं फ़हम-ए-सलफ़ (सहाबा, ताबि'ईन और तबा'-ताबि'इन) से हटकर किसी भी आयत या हदीष के मफ़्हूम (मतलब) को समझना ही अस्ल गुमराही का ज़री'आ है सलफ़ की पूरी ज़िंदगी मोहब्बत-ए-रसूल से भरी हुई है अगर कोई चीज़ नहीं है तो यह मीलादुन्नबी और इस जैसी दूसरी बिद'आत।

जब आयत का मफ़्हूम (मतलब) रबी'-उल-अव्वल में जश्न-ए-मीलाद ठहरा तो हर रमज़ान में जश्न-ए-नुज़ूल-ए-वही, जश्न-ए-बद्र और जश्न-ए-फ़त्ह मक्का हर शव्वाल में जश्न-ए-उहद और जश्न-ए-ख़ंदक़, माह-ए-सफ़र में जश्न-ए-हिजरत और न जाने कितने जश्न जब इस्लाम से मुत'अल्लिक़ (बारे में) हर ख़ुशी पर हमें इज़हार-ए-जश्न ही करना है तो आज से मीलादी हज़रात मज़कूरा जश्नों का एहतिमाम (बंदोबस्त) भी करे और पूरी दुनिया में इस्लाम का मज़ाक़ उड़ाए फिर इन जश्नों के सामने तौहीद, रिसालत और आख़िरत की क्या हैसियत बाकी रह जाती है क्यूंकि सालों भर जश्न के मूड में रह कर उन चीजों को समझने की फ़ुर्सत कहां मिलेगी ?

मीलादुन्नबी के हवाले से बात बस इतनी है कि यह दीन से हटकर कुछ भी कहलाएं जाने के लाइक़ तो हो सकता है लेकिन मोहब्बत-ए-रसूल की 'अलामत नहीं हो सकती इस्लाम के सच्चे पैरोकार (अनुयायी) का तरीक़ा नहीं हो सकता लिहाज़ा (इसलिए) इस जश्न का किसी भी वसीले से (माध्यम से) मदद करना अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी से ख़ाली नहीं।

लेखक: नदीम अख़्तर सलफ़ी

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद 

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