लेखक: मुख़्तार अहमद मोहम्मदी मदनी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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हमारे मुल्कों में पीरों फ़क़ीरों से बै'अत का सिलसिला काफ़ी (बहुत) ज़ोरों पर है सादा-लौह (भोलें) मुसलमानों को यह बावर (विश्वास) कराया जाता है कि निजात उस वक़्त तक नामुमकिन (असंभव) है जब तक किसी पीर व मुर्शिद से बै'अत न हो बात तो यहां तक पहुंच गई है कि मुरीद अपने पीर व मुर्शिद की इजाज़त के बग़ैर कोई काम भी नहीं करता उसे अपने इख़्तियारात (अधिकार) का मुकम्मल (पूरा) मालिक बना देता है कुछ दीनी जमा'अतों के अमीर भी लोगों से बै'अत लेते हैं इज्तिमा'ई (सामूहिक तौर पर) बै'अतों का सिलसिला भी चल पड़ा है जिस का तरीक़ा-ए-कार (अंदाज़) यह होता है कि इज्तिमा'आत और दीनी मजलिसों में शरीक तमाम हाज़िरीन (हाज़िर) जिन की ता'दाद (संख्या) हज़ारों में होती है उन से इज्तिमा'ई (सामूहिक तौर पर) बै'अत ली जाती है मौजूदा (उपस्थित) अमीर अपने हाथ पर वफ़ात शुदा किसी 'आलिम के नाम पर बै'अत लेता है चूँकि (इसलिए कि) हाज़िरीन (हाज़िर लोगों) की ता'दाद (संख्या) ज़ियादा होती है
हर शख़्स हज़रत जी के हाथों पर बै'अत नहीं कर सकता इसलिए एक लंबी रस्सी ली जाती है जिस का सिरा (किनारा) हज़रत जी के हाथ में होता है और रस्सी के दूसरे सिरे को हाज़िरीन (हाज़िर लोग) पकड़ कर हज़रत जी से बै'अत करते हैं आए किताब-ओ-सुन्नत सहीहा की रोशनी में ऐसी शख़्सी (व्यक्तिगत) बै'अतों का हुक्म जानने की कोशिश करते हैं
बै'अत: बै' से मुश्तक़ है इस का लुग़वी मा'नी (वास्तविक अर्थ) बेचने और वा'दा करने का है हदीष में है
"الا تبا یعونی علی لا سلام"
" क्या तुम मुझ से अपने आप को इस्लाम की ख़ातिर नहीं बेचोगे "
इस्तिलाहन जाइज़ उमूर में हर हाल में मुस्लिम सुलतान व हुक्मरान की इता'अत-ओ-फ़रमाँ-बरदारी पर 'अहद-ओ-मीसाक़ को बै'अत कहा जाता है
किताब-ओ-सुन्नत के मुताल'अ से दो बातें अज़हर-मिनश्शम्स (ज़ाहिर) होती है
नंबर एक: अमीर की इता'अत हर हाल में वाजिब (ज़रूरी) है वो कैसा भी हो फ़ासिक़-ओ-फ़ाजिर (गुनहगार) हो बदसूरत गुलाम हो रि'आया (जनता) के हुक़ूक़ (अधिकार) की पामाली (बर्बादी) करता हो ज़ुल्म-ओ-ज़ियादती भी कर रहा हो सब कुछ गवारा है लेकिन मुसलमानों की सफ़ में इख़्तिलाफ़ ओ इफ़्तिराक़ तशत्तुत व इंतिशार किसी क़ीमत गवारा नहीं है
नंबर दो: बै'अत का त'अल्लुक़ सिर्फ़ उन अश्ख़ास (लोगों) से हैं जिन के पास इक़्तिदार (हुकूमत) हो जिन्हें किताब-ओ-सुन्नत के नफ़ाज़ (लागू करने) का पावर दिया गया हो नबी-ए-करीम ﷺ की वफ़ात (मौत) के बाद जब अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु ख़लीफ़ा मुंतख़ब हुए लोगों ने उन के हाथ पर बै'अत की इसी तरह उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु पर उस वक़्त सहाबा किराम ने बै'अत की जब वो अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु की वफ़ात (मौत) के बाद मोमिनो के अमीर बने इसी तरह बाद के अदवार (दौर) में हुआ या'नी यह कि बै'अत अइम्मा व हुक्मरानों के साथ ख़ास है
जम'इय्यतों इदारों और तंज़ीमों के सरबराहान व उमरा इस हुक्म में शामिल नहीं है क्यूंकि उन के पास नफ़ाज़-ए-शरी'अत का पावर नहीं होता आज मुसलमानों की सफ़ों में दसियों जमा'अते पाई जाती है हर जमा'अत का एक अमीर है या'नी ब-यक-वक़्त (एक समय में) एक से ज़ियादा अमीर होते है जबकि दीन-ए-इस्लाम में एक वक़्त में एक से ज़ियादा अमीर होने की कोई गुंजाइश (संभावना) नहीं है जमा'अतों के सरबराहान व ज़िम्मादारान को लुग़वी व शर'ई तौर पर अमीर कहना तो दुरुस्त अलबत्ता (लेकिन) बै'अत का हक़ उन्हें हासिल नहीं हैं नबी-ए-करीम ﷺ ने दो मुसाफ़िर हो तब भी किसी एक को अमीर चुन लेने का हुक्म दिया है जिस से साबित होता है कि अमीर का लफ़्ज़ ख़ुलफ़ा व सलातीन के 'अलावा दूसरे ज़िम्मादारों के लिए इस्ते'माल किया जा सकता है अलबत्ता (लेकिन) ऐसे अश्ख़ास (लोग) जिन के पास इक़्तिदार (हुकूमत) न हो वो ख़्वाह (चाहे) कितने ही नेक व मुत्तक़ी क्यूं न हो उन से बै'अत करने का कोई सुबूत नहीं है जिस साल मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु मुसलमानों के ख़लीफ़ा व हुक्मरान बने उस साल को तारीख़ में " عام الجماعہ "
का नाम दिया गया उन पर तमाम सहाबा किराम ने बै'अत की हालाँकि उस वक़्त अमीर मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु से दसियो सहाबा किराम ऐसे थे जो उन से बिला-शुब्हा (यक़ीनन) अफ़ज़ल थे लेकिन किसी ने भी ऐसे सहाबी से बै'अत नहीं की जो अमीर मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु से अफ़ज़ल रहे हो लिहाज़ा (इसलिए) ख़ुलफ़ा व हुक्मरानों के 'अलावा किसी बुज़ुर्ग और मुत्तक़ी इंसान के हाथ पर दीन पर क़ाएम रहने की ग़रज़ से बै'अत करना क़ुरआन ओ हदीष इसी तरह क़ुरून ए मुफ़स्सला में इस की कोई दलील नहीं मिलती यह सूफ़िया की ईजाद कर्दा बिद'अत है सूफ़ियों के यहां पीर और मुरीद के दरमियान जो मु'आहदा (समझौता) होता है बै'अत कहलाता है और वो सारी हदीषे जो अमीर व ख़ुलफ़ा की बै'अत से त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) रखतीं हैं उन से अपने मज़'ऊमा (काल्पनिक) पीर व मुर्शिद को मुराद लेते हैं इन का यह फ़हम (समझ) किताब-ओ-सुन्नत और फ़हम ए सलफ़ के सरासर (बिल्कुल) ख़िलाफ़ हैं जिस के बुतलान (खंडन) के लिए सिर्फ़ यही कह देना काफ़ी है कि इस्लाम में ब-यक-वक़्त (एक समय में) दो अमीरों पर बै'अत न सिर्फ़ हराम बल्कि (किंतु) दूसरे को क़त्ल कर देने की ब-सराहत (स्पष्टता पूर्वक) इजाज़त भी मौजूद है जबकि सूफ़ियों के यहां एक ही शख़्स ब-यक-वक़्त (एक समय में) कई सिलसिलों पर बै'अत शुदा होता है उन के यहां चार मशहूर तुरुक़ (रास्ते) व सिलसिले है जिन पर बै'अतें ली जाती है नक़्श-बंदी,चिश्ती,क़ादिरी,सुहरवर्दी लिहाज़ा (इसलिए) किताब-ओ-सुन्नत में मज़कूर (उल्लेखित) बै'अत से उन सूफ़ियों की बै'अत का चंदाँ (कुछ भी) त'अल्लुक़ नहीं है जहां तक इस शुब्हा का सवाल है कि किसी नेक व मुत्तक़ी शख़्स के हाथों पर बै'अत से इंसान के अंदर ज़ोहद-ओ-वरा' (परहेज़-गारी) और तक़्वा पैदा होता है तो इस का जवाब यह है कि नबी-ए-करीम ﷺ ने मुत्तक़ी व परहेज़गारों की सोहबत (संगत) पर काफ़ी ज़ोर दिया है अच्छी सोहबत को 'इत्र-फ़रोश ('इत्र बेचने वाला) और बुरी सोहबत को लोहार से ता'बीर किया है लिहाज़ा (इसलिए) हमारे लिए नबी-ए-करीम ﷺ का यह फ़रमान काफ़ी है तक़्वा व सालिहिय्यत (नेकी) पैदा करने के लिए बै'अत की कोई जरूरत नहीं है बै'अत जैसी बिद'अत से एहतिराज़ (परहेज़) करते हुए भी इंसान अपने अंदर तक़्वा ओ ज़ोहद (परहेज़-गारी) पैदा कर सकता है अगर बात ऐसी ही है कि बै'अत के बग़ैर तक़्वा नहीं आ सकता तो सवाल यह पैदा होता है कि करोड़ों मुसलमान जो किसी से बै'अत नहीं है क्या उन में कोई भी मुत्तक़ी नहीं है ??
अल्लाह-त'आला सब को सहीह समझ अता फरमाए आमीन
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