बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम part 4

بسم اللہ الرحمن الرحيم
       Part-4
कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबा साहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्धहस्त डॉ. नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाएं ? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं- कहा जाता है कि जिन डॉक्टरों ने पेंसिलीन नामक औषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा कि थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है, क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है। प्रत्येक डॉक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक भी आती है या नहीं। यदि उसको माफ़िक नहीं आती है तो डॉक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है। और यह भी सच है कि अब तो पेंसिलीनों से भी उत्तम दवाइयों की खोज हो चुकी है।
बौद्ध धर्मरूपी औषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही है। बौद्ध धर्म द्वारा 20 प्रतिशत और 80 प्रतिशत में बंट कर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डॉक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ आया और वह डॉक्टर उसकी प्रतीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इंजेक्शन उस मरीज़ को रिएक्शन करता है अर्थात माफ़िक नहीं आता है जिससे की मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डॉक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डॉक्टर साहब इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे। अतः पेंसिलीन ही लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि यह बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात अपने बड़े डॉक्टर की बात पर अड़े हुए हॆं। या उल्टे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा ?
यही हाल हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिस औषधि को बाबा साहब डॉ. अम्बेडक हमें देकर केवल 1 माह 22 दिन के बाद ही परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक नहीं आ रही है, क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्रदान करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अर्थात जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की ज़िद या आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरुक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरु किया है और उसे अपनाना शुरु किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर सकते हैं और कह सकते हैं कि नहीं, वही बाबा साहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म को अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इसके बौद्ध धर्म अपनाने से इसका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है इस बात को बाबा साहब के अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबा साहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबा साहब द्वारा निर्धारित घर्मान्तरण का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसी के लिए हमें धर्म-परिवर्तन करना है।
अब बाबा साहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी औषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करे और इस बौद्ध धर्म रूपी औषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे की हम अपने धर्मांतरण के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें। यहां यह बताना ज़रूरी है कि बाबा साहब इस्लाम धर्म को ही परमौषधि मान कर चल रहे थे लेकिन हालात की तरह मजबूरन उनको बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा। इस तथ्य का ख़ुलासा आगे किया जाएगा।
बाबा साहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल कायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात बौद्ध धर्म ही दिया जाएगा, फ़ायदा हो या न हो। इसलिए एक समय पर उन्होंने कहा है कि- ‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आप को गोली मार कर आत्महत्या कर लूंगा' यह थी उनकी भीषण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबा साहब होते तो निश्चित ही बौद्ध धर्म छोड़ इस्लाम धर्म को ही अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबा साहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हमको ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर इस्लाम धर्म को अपनाना होगा।
स्वयं बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी ही बहुत-सी मान्यताओं को बदला था।
इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1)सांप्रदायिक समझौते (कम्यूनल एवार्ड) द्वारा मिले दो वोटों के अधिकार को जिसे बाबा साहब बहुत ही आवश्यक मानते थे स्वयं एक वोट में बदलना स्वीकार कर लिया था।

(2)बाबा साहब गांधी जी के कट्टर विरोधी तथा उनको अछूतों का दुश्मन मानते थे। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि बाबा साहब ने गांधी जी की दिल खोलकर बड़ाई भी की है। उन्हीं के शब्दों में "मैं समझता हूं कि इस सारे प्रकरण (पूना पैक्ट को करने के लिए) में इस हल का बहुत-सा श्रेय स्वयं महात्मा गांधी को है। मैं महात्मा गांधी का कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुझको एक बड़ी नाज़ुक परिस्थिति में से निकाल लिया। मुझे एक ही अफ़सोस है, महात्मा जी ने गोल मेज़ कांफ़्रेंस के समय भी यही रुख़ क्यों नहीं अपनाया। यदि उन्होंने मेरे दृष्टिकोण के साथ ऐसा ही उदारतापूर्ण व्यवहार किया होता तो इस संकट में से उन्हें न गुज़रना पड़ता। जो हो, यह सब बीती हुई बातें हैं। मुझे हर्ष है कि आज मैं यहां इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए उपस्थित हूं। मुझे विश्वास है कि जो अन्य मित्र उपस्थित नहीं हैं, मैं उनकी ओर से भी बोल रहा हूं कि हम उस समझौते का पालन करेंगे, इस विषय में किसी के मन में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिए। मैं आशा करता हूं कि हिन्दुगण इस समझौते को एक पवित्र समझौता समझेंगे और इसका पालन करते समय अपनी इज़्ज़त को बट्टा नहीं लगने देंगे।" (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, प्रथम भाग 1978 के संस्करण के पृष्ठ 33 से, संपादक भगवान दास एडवोकेट)

(3)बाबा साहब का विचार पहले हिन्दु धर्म में ही रहने का था- यदि हिन्दु दलित वर्ग को समानता का दर्जा दे देता। उन्हीं के शब्दों में ‘यदि मंदिर प्रवेश अछूतों की उन्नति का पहला क़दम है तो वे इसका समर्थन इसलिए करेंगे क्योंकि वे ऐसा ही धर्म चाहते हैं जिसमें उन्हें सामाजिक समानता प्राप्त हो। अछूत लोग अब ऐसे धर्म को बर्दाश्त नहीं करें जिनमें जन्मना सामाजिक विषमता और भेदभाव सुरक्षित हो।' (पृष्ठ संख्या 122 ‘बाबा साहब का जीवन संघर्ष' लेखक-जिज्ञासु) जिसे उन्होंने बाद में बदल दिया और धर्मांतरण की घोषणा कर दी। पूना पैक्ट के समय भाषण करते हुए उन्होंने कहा था कि- ‘आप इसे राजनैतिक समझौते से आगे बढ़कर वह ऐसा कर सकें जिससे दलित वर्ग के लिए न केवल हिन्दु समाज का एक हिस्सा बना रहना संभव हो जाए बल्कि उसे समाज में सम्मान और समानता का दर्जा प्राप्त हो जाए।‘ (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 35)

(4)बाबा साहब कांग्रेस के प्रायः विरुद्ध ही रहे, लेकिन उसके पक्के समर्थक बन कर भी सामने आए। उन्हीं के शब्दों में- ‘तुम्हें कांग्रेस के प्रति अपने रुख़ को एक दम बदल लेना चाहिए। अभी तक कांग्रोस के प्रति हमारा दृष्टिकोण एक विरोधी का दृष्टिकोण रहा है। राजनीतिक क्षेत्र में हम परस्पर शत्रु रहे हैं। अभी तक हमारा दृष्टिकोण कुछ संकुचित रहा है। हमें केवल अपने जातिगत स्वार्थों की ही चिंता रही है। अब हमने जब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, हमें अपने दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन कर डालना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 66)

‘मुझसे लोग पूछते हैं कि पिछले पच्चीस वर्ष तक कांग्रेस के विरुद्ध लड़ते रहने के बावजूद मैने उस ख़ास अवसर पर मौन क्यों धारण कर लिया। हमेशा लड़ते ही रहना सर्वश्रेष्ठ युद्धकौशल नहीं है, हमें दूसरे ढंगों से भी काम लेना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 68)
इस तरह हम दखते हैं कि बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी मान्यताओं को बदला। इस बात के समर्थन में पूर्व वर्जित कुछ उदाहरण बहुत ख़ास मामलों में संबंधित हैं जिनसे कि दलित वर्ग के जीवन-मरन का प्रश्न जुड़ा था। इसके अलावा जहां बाबा साहब ने दलितों के हितार्थ अपनी मान्यताओं को बदला, वहीं उनकी कुछ मान्यताएं पूरी भी नहीं उतरी। जैसे कि उन्होंने कहा था-
‘जिस समाज में 10 बैरिस्टर, 20 डॉक्टर तथा 30 इंजीनियर हों ऐसे समाज को मैं धनवान समाज समझता हूं, यद्यपि उस समाज का हर एक व्यक्ति शिक्षित नहीं उदाहरण के लिए चमार। आज इस समाज को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अगर इसी समाज में कुछ वकील, डॉक्टर तथा पढ़ा-लिखे लोग हों तो कोई भी इस समाज की ओर आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं करेगा, यद्यपि उसमें हर व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं है।'
लेकिन इसमें बाबा साहब का तनिक भी कोई दोष नहीं। यदि आप अपने पुत्र से बहुत-सी उम्मीद रखते हैं और आपका पुत्र उन्हें पूरी नहीं करता है तो क्या आप दोषी हैं ? नहीं, बल्कि आपका पुत्र दायित्वहीनता को दोषी है। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब की मान्यताओँ के ग़लत सिद्ध होने में बाबा साहब का कोई दोष नहीं है बल्कि उनके अनुयायियों की कोताही है कि जिन्होंने अपना वह दायित्व नहीं निभाया, जो उन्हें निभाना चाहिए था।धर्म मनुष्य के लिए है
बाबा साहब ने कहा-
"मैं आप लोगों से यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है। संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई चीज़ नहीं है। धर्म एक साधन मात्र है, जिसे बदल दिया जा सकता है, फेंक दिया जा सकता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 59 से)
हम यह देख चुके हैं कि बौद्ध धर्म जिस उद्देश्य के लिए अपनाया गया था उनमें वह बिल्कुल असफल रहा है। अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि अब कौन-सा धर्म अपनाया जाए। जिसके लिए हमें वही करना चाहिए जो बाबा साहब करना चाहते थे लेकिन मजबूरी की वजह से नहीं कर पाएं। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म की बहुत बड़ाई की है और कहा है कि ‘इंसान की इंसानियत यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। यह (इंसानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है। और यह इंसानियत सबको आदरणीय होनी चाहिए।' किसी को भी किसा का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही किसी को असमान मानना चाहिए, यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं। इसके अलावा यह सच्चाई है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे।

धर्म-परिवर्तन का उद्देश्य

                         بسم اللہ الرحمن الرحيم. 
Part-3
धर्म-परिवर्तन का उद्देश्य
इस प्रकार बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने धर्मान्तरण का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट रूप से बाहरी शक्ति प्राप्त करना निश्चित किया था। इसे हमें कभी भी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि बाहरी शक्ति प्राप्त करने से अर्थात दूसरे समाज के अंदर विलीन होकर ही दलित वर्ग पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सकेगा, बेइज़्ज़तीपूर्ण ज़िंदगी से मुक्ति मिल सकेगी और हमें मिल पाएगा समता का जीवन, स्वतंत्र जीवन, सम्मानपूर्ण जीवन, इंसानियत की ज़िंदगी। ऐसा कौन सा धर्म है जो कि हमारे उद्देश्य अर्थात जो वस्तु हमें चाहिए उसे स्वीकार करने से प्राप्त होता हो ? 
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने इस संबंध में बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहा था कि इस्लाम धर्म अपनाने से ही आपको वह सब कुछ मिल सकता है जो हमें चाहिए। बाबा साहब कहते हैं "तीन धर्म हैं जिनमें से दलित-वर्ग (एक को) चुन सकता है।
                                                  (1) इस्लाम धर्म (2) ईसाई धर्म (3) सिख धर्म। इन तीनों की तुलना करने पर इस्लाम धर्म दलित-वर्ग को वह सबकुछ देता हुआ दिखाई देता है जो उसे चाहिए।" (From page No-296-297 of Thus Spoke Ambedkar Vol.4 By Bhagwan Das)
बाबा साहब ने इस्लाम धर्म को दलित वर्ग का उद्देश्य पूरा करने वाला बताया और उसकी क़लम तोड़ पढ़ाई की। लेकिन फिर भी इस्लाम धर्म क्यों नहीं अपनाया बल्कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने 14 अक्तूबर सन् 1956 ई. को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण किया था ? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है।

बाबा साहब ने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया ?
किसी भी विद्वान् और विशेषकर वकील को अपने किसी भी मामले में सफल होने के लिए उसे अपने लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए। सबसे अच्छा रास्ता वही होता है, जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके। किसी भी रमणीय सुंदर रास्ते को अच्छा नहीं कहा जा सकता ? यदि वह लक्ष्य तक नहीं पहुंचाता है। बाबा साहब एक महान विद्वान् ही नहीं उच्च कोटि के बैरिस्टर भी थे। अतः सन् 1956 ई. में जब उन्होंने धर्म-परिवर्तन करने की बात सोची तो धर्म-परिवर्तन के लिए पूर्व निश्चित लक्ष्य ‘बाहरी शक्ति प्रदान करना' अर्थात किसी भी बाहरी समाज की शक्ति प्राप्त करने को सामने रखा था। तदानुसार उन्होंने सोचना प्रारंभ किया कि हिन्दु समाज के अलावा किस समाज की शक्ति इस देश में है जिसे प्राप्त करके दलित वर्ग के लोग अत्याचारों से बच सकें और सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें। उन्होंने पाया कि इस देश में न तो ईसाई समाज की शक्ति है, न बौद्ध समाज की और न इस्लामी समाज की। सन् 1947 ई. के देश विभाजन के बाद दूसरों की तरह मुसलमानों की शक्ति भी हमारे देश में न के बराबर ही रह गई थी। अर्थात हमारे देश में किसी अन्य समाज की शक्ति नहीं थी जिसे पा कर अर्थात जिसके अंदर अपने आप को विलीन कर के अत्याचारों से मुक्ति मिल सकती। लेकिन बाबा साहब को अपनी भीषण प्रतिज्ञा को पूरा करना था। सम्यक् कल्पना कीजिए कि एक कमरे के बीचोंबीच एक कमज़ोर जर्जर मरीज़ गिरने वाला है और उस कमरे में स्तंभ आदि कुछ भी नहीं है जिसका वह सहारा ले सके। तब वह क्या करेगा ? वह सहारा लेने के लिए उस कमरे कि किसी दीवार की तरफ़ ही बढ़ेगा। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब ने भी जब देखा कि इस कमरा रूपी देश में कोई सहारा नहीं है तब उनको अपने कमज़ोर समाज को गिरने से बचाने के लिए दीवारों की ओर जाना पड़ा। अर्थात जब उन्होंने पाया कि इस देश में कोई भी ऐसा समाज नहीं है जिसकी शक्ति में विलीनी होकर दलित वर्ग को उत्पीड़न एवं अत्याचारों से बचाया जा सके। तब उन्होंने हमारे देश के निकट के देशों की ओर दृष्टि डाली कि क्या उनमें कोई ऐसा समाज रहता है जिसकी शक्ति पाकर लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। उन्होंने पाया कि चीन, जापान, लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में बौद्ध धर्मावलंबी समाज है। अतः उनकी शक्ति अर्थात ‘बाहरी शक्ति' पाने के लिए बौद्ध धर्म ही अपनाना चाहिए और उन्होंने ऐसा ही किया। उन दिनों किसी अन्य धर्म को अपना कर लक्ष्य की प्राप्ति में दिक़्क़त हो सकती थी और बौद्ध धर्म को अपना कर ही लक्ष्य की प्राप्ति आसान मालूम पड़ती थी। इसलिए बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसमें ज़रा भी संदेह की गुंजाइश नहीं है।
पाकिस्तान बनने के बाद सन् 1956 ई. में बाबा साहब ने जब धर्म-परिवर्तन किया था उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दुओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी कि यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव-गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबा साहब 1956 ई. में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए बाबा साहब ने मजबूरी की हालत में बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि बाबा साहब अम्बेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह औषधि देकर केवल एक महीना 22 दिन बाद ही 6 दिसंबर सन् 1956 ई. में परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबा साहब अम्बेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित है, जो औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक भी आई या रिएक्शन कर रही है अर्थात माफ़िक नहीं आ रही है।
बाबा साहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी औषधि हमने आज से लगभग 32 वर्ष पूर्व लेनी प्रारंभ की थी उसमें हमारे रोग को कितना ठीक किया ? ठीक किया भी है या नहीं ? अथवा कहीं या औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात उल्टी तो नहीं पड़ रही है ? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज 39 वर्ष बाद भी नहीं आया है ? निश्चित रूप से हमें मूल्यांकन करना चाहिए।
बौद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफल हुए हैं? इस संबंध में बाबा साहब द्वारा निर्धारित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति अर्थात किसी दूसरे धर्म में विलीन होकर अत्याचारों से मुक्ति पाना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित धर्म में बाहरी शक्ति कितनी आई ? कुछ आई भी है या बिल्कुल भी नहीं आई ? या इस धर्म को अपनाने से बाहरी मूल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है ?
हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म के अपनाने से दलितों के अंदर किसी प्रकार कि कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अच्छे पढ़े-लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती है। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे से हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल संख्या कि मुश्किल से 20 प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो 20 प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे 80 प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि वे ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और 80 प्रतिशत चमार जो बौद्ध नही बने वे कहते हैं कि ये बुद्धु-चुद्धु कहां से बने फिरते हैं?
इस प्रकार पहले जो सौ चमारों की भी शक्ति थी वह भी 20 और 80 में बंट गई है। फिर 20 और 80 की शक्ति भी अपनी-अपनी जगह पूरी बनी रही हो ऐसा भी नहीं रहा। कर्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना।
यह तो रहा समग्र समाज का विश्लेषण। अब हम उन दलितों की स्थिति पर ग़ौर करें, जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है ? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध तो है ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नौ बौद्धों में आ गई हो और दोनों ने मिल कर एक ताक़तवर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नौ बौद्धों की मदद में कोई रुचि नहीं दिखाई। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहे तो कैसे करेंगे ? ज़्यादा से ज़्यादा भारत समाज को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्ध पर अत्याचार करना मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध पत्र से काम चल जाएगा और उसकी फोटो स्टेट कॉपियां करा के बौद्ध उन्हें लट्ठ मारने वाले या ज़िंदा जला देने वालों को दिखा कर बच जाएंगे ? या जहां उन्हें गोलियों से उड़ा देने वाली बात होती है तो क्या वह दूसरे देशों के विरुद्ध पत्र की कॉपी गोली मारने वाले को दिखा कर गोली से बच जाएंगे ? इस प्रकार बाहरी देशों की मदद से तो इस देश में हम असहाय लोगों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही होगा।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म को अपना कर हमने कुछ पाने की बजाय कुछ खोया है और वही खोया है जिसको पाने के लिए यह अपनाया गया था। इस प्रकार बौद्ध धर्म दलित वर्ग के उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण रूप से विफल रहा है।

प्रश्न किया जा सकता है कि क्या डॉ. अम्बेडकर ने ग़लत सोचा था ? क्या उनकी बुद्धि में यब सब बातें नहीं आई होंगी ? इस संबंध में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि एक तो कमी किसी भी इंसान में हो सकती है। दूसरे यह कि बाबा साहब उस वक़्त कुछ और कर पाने में अपने को मजबूर महसूस कर रहे थे। तीसरे कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं जो केवल सोचने मात्र से ही हल नहीं होती है बल्कि उनका क्रियान्वित होते देखना भी अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है। बाबा साहब ने जो कुछ भी सोचा था वह ठीक ही सोचा था लेकिन जिस पर कोई नैतिक दायित्व हो और वह उसे पूरा न करे तो क्या उसमें सोचने वाले की ग़लती मानी जाएगी ? बौद्ध देशों ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई और अब उनकी मदद से कुछ होने वाला भी नहीं है। क्योंकि हमारी समस्या केवल राजनैतिक नहीं है, वरन सामाजिक भी है और वह अधिक विकट है। यदि हमारे सामने सामाजिक समस्या न होती तब तो संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में बौद्ध देशों का सहारा ले सकते थे और अपनी राजनीतिक गुत्थी को सुलवझा सकते थे। किन्तु हमें तो पहले सामाजिक शक्ति प्राप्त करनी है जिससे कि आए दिन होने वाले अत्याचारों से बचा जा सके।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों गांव में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी उन पर जगह-जगह ज़ुल्म और अत्याचार होते हैं। इन अत्याचारों से कैसे बचा जाए यही दलित वर्ग की मूल समस्या है। इस महाव्याधि से मुक्ति दिलाने के लिए ही बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्मरूपी औषधि दी थी जो कामयाब नहीं हुई बल्कि उल्टी पड़ गई। अर्थात दलित समाज बौद्ध और अबौद्ध दो ख़ेमों में बंट कर और भी कमज़ोर हो गया है। आप कहेंगे कि क्या बाबा साहब इसके लिए दोषी हैं ? नहीं! बिल्कुल नहीं! बल्कि हमारे शरीर को यह औषधि माफ़िक ही नहीं आई।
इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि बैद्ध धर्म से अब हमारा काम चलने वाला नहीं है, अब तो इस समाज को भला चंगा तगड़ा बनाने के लिए, अतिरिक्त बाहरी शक्ति प्रदान करने के लिए दूसरी दवाई भी लेनी चाहिए।