MAKTABA - AL- FURQAN
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જાન દે દેના શિર્ક સે આસાન હૈ
پانی پر دم کرنا
پانی پر دم کرنے کا حکم
سوال : بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا کیسا ہے ؟
*بارِش میں دَو نَمازیں جمع کر کے پڑھنا:*
تحریر: فضیلۃ الشیخ غلام مصطفےٰ ظہیر اَمن پوری حفظہ اللہ.
سوال : بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا کیسا ہے ؟
جواب: بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا جائز ہے، جیسا کہ :
◈ امام الائمہ، ابن خزیمہ رحمہ اللہ فرماتے ہیں :
ولم يختلف علماء الحجاز ان الجمع بين الصلاتين فى المطر جائز.
”علماءِ حجاز کا اس بات پر اتفاق ہے کہ بارش میں دو نمازوں کو جمع کرنا جائز ہے۔“
[صحيح ابن خزيمة 85/2 ]
◈ سعید بن جبیر تابعی رحمہ اللہ تعلق کہتے ہیں کہ صحابی رسول سیدنا عبد اللہ بن عباس رضی اللہ عنہا نے بیان فرمایا :
جمع رسول الله صلى الله عليه وسلم بين الظهر والعصر، والمغرب والعشاء بالمدينة، فى غير خوف، ولا مطر (وفي لفظ : ولا سفر)، قلت لابن عباس : لم فعل ذلك ؟ قال : كي لا يخرج أمته .
’’رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے مدینہ منورہ میں ظہر و عصر اور مغرب و عشا کو بغیر کسی خوف اور بارش (ایک روایت میں بغیر کسی خوف اور سفر) کے جمع کیا۔ (سعید من جبیر کہتے ہیں : ) میں نے سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما سے دریافت کیا کہ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے ایسا کیوں کیا؟ فرمایا : اس لئے کہ آپ صلى الله عليه وسلم کی امت پر کوئی مشقت نہ ہو۔ “
[صحيح مسلم : 54/705، 50]
سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما ہی کا بیان ہے :
صليت مع رسول الله صلى الله عليه وسلم بالمدينة ثمانيا جميعا، وسبعا جميعا، الظهر والعصر، والمغرب والعشاء .
”میں نے مدینہ منورہ میں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کی اقتدا میں ظہر و عصر کی آٹھ رکعات اور مغرب و عشا کی سات رکعات جمع کر کے پڑھیں۔ “
[ صحيح البخاري : 543، 1174، صحيح مسلم : 55/705]
◈ شیخ الاسلام، ابن تیمیہ رحمہ اللہ (661-728ھ) فرماتے ہیں :
والجمع الذى ذكره ابن عباس لم يكن بهذا ولا بهذا، وبهذا استدل أحمد به على الجمع لهذه الأمور بطريق الأولى، فإن هذا الكلام يدل على أن الجمع لهذه الأمور أولى، وهذا من باب التنبيه بالفعل، فانه اذا جمع ليرفع الحرج الحاصل بدون الخوف والمطر والسفر، فالخرج الحاصل بهذه أولى أن يرفع، والجمع لها أولى من الجمع لغيرها.
”سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما نے جس جمع کا ذکر کیا ہے، وہ نہ خوف کی وجہ سے تھی، نہ بارش کی وجہ سے۔
اسی حدیث سے امام احمد رحمہ اللہ نے استدلال کیا ہے کہ خوف اور بارش میں تو بالاولیٰ جمع ہو گی. اس بحث سے معلوم ہوتا ہے کہ ان امور میں نمازوں کو جمع کرنا بالاولیٰ جائز ہے۔ یہ تنبیہ بالفعل کی قبیل سے ہے . جب خوف، بارش اور سفر کے بغیر جو مشقت ہوتی ہے، اس مشقت کو ختم کرنے کے لیے دو نمازوں کو جمع کیا جا سکتا ہے، تو ان اسباب کی مشقت کو ختم کرنا تو بالاولیٰ جائز ہو گا، لہٰذا خوف، بارش اور سفر کی بنا پر نمازوں کو جمع کرنا دیگر امور کی بنا پر جمع کی نسبت زیادہ جائز ہو گا۔
[مجموع الفتاوي: 76/24 ]
◈ محدث العصر، علامہ البانی رحمہ اللہ سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما کے قول فى غير خوف ولا مطر کی شرح میں فرماتے ہیں :
فإنه يشعر أن الجمع للمطر كان معروفا فى عهدم صلى الله عليه وسلم، ولو لم يكن كذلك، لما كان ثمة فائدة من نفي المطر كسبب مبرر للجمع، فتامل
”یہ الفاظ اس بات کی طرف اشارہ کرتے ہیں کہ نبی اکرم صلی اللہ علیہ وسلم کے عہد مبارک میں بارش کی وجہ سے نمازوں کو جمع کرنا معروف تھا۔ غور فرمائیے ! اگر ایسا نہ ہوتا، تو بارش کو جمع کے جواز کے سبب کے طور پر ذکر کرنے کا کوئی فائدہ نہیں تھا۔“
[ ارواءالغليل : 3 40 ]
◈ نافع مولیٰ ابن عمر رحمہ اللہ بیان کرتے ہیں :
كانت أمراء نا إذا كانت ليلة مطيرة، أبطأوا بالمغرب وعجلوا بالعشاء قبل أن يغيب الشفق، فكان ابن عمر يصلي معهم، لا يرى بذلك بأسا، قال عبيد الله : ورأيت القاسم، وسالما يصليان معهم، فى مثل تلك الليلة.
”جب بارش والی رات ہوتی، تو ہمارے امرا مغرب کو تاخیر سے ادا کرتے اور شفق غروب ہونے سے پہلے عشا کے ساتھ جمع کر لیتے۔ سیدنا ابن عمر رضی اللہ عنہما ان کے ساتھ ہی نماز پڑھتے تھے اور اس میں کوئی حرج خیال نہیں کرتے تھے . عبید اللہ بیان کرتے ہیں :
میں نے قاسم اور سالم رحمها اللہ کو دیکھا کہ وہ دونوں ان کے ساتھ ایسی رات میں مغرب و عشاء کو جمع کرتے تھے .“
[المؤطأ للإمام مالك : 331، السننن الكبريٰ للبيهقي : 168/3، و سنده صحيح ]
◈ ہشام بن عروہ تابعی رحمہ اللہ بیان کرتے ہیں :
رأيت أبان بن عثمان يجمع بين الصلاتين فى الليلة المطيرة؛ المغرب والعشاء، فيصليهما معا، عروة بن الزبير، وسعيد بن المسيب، وأبو بكر بن عبدالرحمن، وأبو سلمة بن عبدالرحمن، لاينكرونه .
”میں نے ابان بن عثمان رحمہ اللہ کو بارش والی رات مغرب و عشا کی نمازوں کو جمع کرتے دیکھا. عروہ بن زبیر، سعید بن مسیب، ابوبکر بن عبدالرحمٰن، ابوسلمہ بن عبدالرحمن رحمہ اللہ اس پر کوئی اعترض نہیں کرتے تھے۔“
[مصنف ابن ابي شيبة : 234/2، السنن الكبريٰ للبيهقي : 168/3، 169، و سنده صحيح ]
◈ عبدالرحمن بن حرملہ رحمہ اللہ کہتے ہیں :
رايت سعيد بن المسيب يصلي مع الائمة، حين يجمعون بين المغرب والعشاء، فى الليلة المطيرة.
”میں نے امام سعید بن مسیب کو ائمہ کے ساتھ بارش والی رات میں مغرب و عشا کی نمازوں کو جمع کر کے پڑھتے ہوئے دیکھا ہے۔“
[مصنف ابن ابي شيبه : 234/2، و سنده حسن ]
◈ ابومودود، عبدالعزیز بن ابوسلیمان رحمہ اللہ کہتے ہیں :
صليت مع أبى بكر بن محمد المغرب والعشاء، فجمع بينهما فى الليلة المطيرة.
”میں نے ابوبکر بن محمد کے ساتھ مغرب و عشا کی نماز پڑھی، انہوں نے بارش والی رات میں دونوں نمازوں کو جمع کیا تھا۔ “
[مصنف ابن ابي شيبه : 234/2، و سنده حسن ]
◈ شیخ الاسلام، ابن تیمیہ رحمہ اللہ (661-728ھ) فرماتے ہیں :
فهذه الآثار تدل على أن الجمع للمطر من الأمر القديم، المعمول به بالمدينة زمن الصحابة والتابعين، مع أنه لم ينقل أن أحدا من الصحابة والتابعين أنكر ذلك، فعلم أنه منقول عندهم بالتوائر جواز ذلك.
”ان آثار سے معلوم ہوتا ہے کہ بارش کی وجہ سے دو نمازوں کو جمع کرنا قدیم معاملہ ہے، جس پر صحابہ و تابعین کرام کے عہد میں مدینہ منورہ میں بھی عمل رہا ہے۔ اس کے ساتھ ساتھ کسی ایک بھی صحابی سے اس پر اعتراض کرنا بھی منقول نہیں۔ اس ثابت ہوتا ہے کہ صحابہ و تابعین سے بالتواتر اس کا جواز منقول ہے ـ“
[ مجموع الفتاوٰي : 83/24 ]
◈ جناب عبدالشکور لکھنوی، فاروقی، دیوبندی لکھتے ہیں :
”امام شافعی رحمہ اللہ کے نزدیک سفر میں اور بارش میں بھی دو نمازوں کا ایک وقت میں پڑھ لینا جائز ہے اور ظاہر احادیث سے بھی ایسا ہی معلوم ہوتا ہے، لہٰذا اگر کسی ضرورت سے کوئی حنفی بھی ایسا کرے، تو جائز ہے۔ “
[علم الفقه، حصه دوم، ص : 150 ]
*یاد رہے کہ بارش کی صورت میں جمع تقدیم و تاخیر، دونوں جائز ہیں۔ تقدیم میں زیادہ آسانی ہے، نیز جمع صوری کو بھی اختیار کِیا جا سکتا ہے۔*
क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?
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पार्ट:1
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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इस्लाम अल्लाह रब्ब-उल-'आलमीन की तरफ़ से नाज़िल किया हुआ वो दीन (धर्म) हैं जो रहती दुनिया तक मख़्लूक़ (मनुष्यों) की रहनुमाई (नेतृत्व) करता रहेगा साढ़े चौदा सो साल से यह दीन बराबर फल-फूल रहा है और इस के मानने वालो की ता'दाद (संख्या) में रोज़-अफ़्ज़ूँ (दिन रात) इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) ही होता रहा है आज दुनिया का कोई ख़ित्ता (इलाक़ा) ऐसा नहीं जहां इस के नाम-लेवा (मानने वाले) मौजूद न हो ता'दाद (संख्या) के ए'तिबार से देखा जाए तो 'ईसाइयत (ईसाई धर्म) के बाद सबसे ज़ियादा अगर किसी मज़हब (धर्म) के मानने वाले इस दुनिया में है तो वह मज़हब-ए-इस्लाम ही है।
अल्लाह-त'आला ने अपने आख़िरी नबी जनाब मोहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ को यह दीन दे कर भेजा तो आप ने तन-तन्हा (ख़ुद ही) इस की तब्लीग़-ओ-इशा'अत का काम शुरू' किया मक्का के "13" साला ज़िंदगी में दा'वत की राह-में बड़ी रुकावटें आई तकलीफ़े उठानी पड़ी लेकिन इस्लाम के मानने वालों की ता'दाद (संख्या) में थोड़ा-थोड़ा ही सही मगर इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) होता रहा मदनी दौर में इस में ख़ातिर-ख़्वाह (मनचाहा) तेज़ी आई और नबी आख़िरुज़्ज़माँ ﷺ के इस दुनिया को ख़ैर-बाद कहने के वक़्त एक लाख से ज़ियादा (अधिक) नुफ़ूस (लोग) इस्लाम के साए में पनाह ले चुके थे।
तौहीद, रिसालत, हश्र-ओ-नश्र (क़ियामत) और दीगर (अन्य) बुनियादी 'अक़ाइद को लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में उतार ने के लिए क़ुरआन में नौ'-ब-नौ' (तरह तरह के) 'अक़्ली-व-मंतिक़ी दलाइल पेश किए गए शिर्क-ओ-कुफ़्र के दलाइल की कमज़ोरी और बुतलान (बातिल) को वाज़ेह (स्पष्ट) किया गया दिलों को अपील करने वाले 'अक़्ली ओ नक़ली दलाइल से मुतमइन (संतुष्ट) हो-कर लोग जौक़-दर-जौक़ (गिरोह के गिरोह) इस्लाम में दाख़िल होते गए शहरों, देहातो और मुल्कों से निकल कर इस्लाम की रोशनी देखते-देखते मुख़्तलिफ़ बर्र-ए-आज़मो (महाद्वीपों) तक में फैल गई इस तेज़-रफ़्तारी के साथ इस्लाम की इशा'अत (प्रचार) के पीछे जहां इस की हक्क़ानिय्यत (सच्चाई ) उस के महासिन (भलाइयां) और उस के फ़ज़ाइल (अच्छाईयां) थे वहीं अहल ए इस्लाम की 'अमली (व्यावहारिक) ज़िंदगी उन के अख़्लाक़ (आचरण) की बलंदी (श्रेष्ठता) किरदार (चरित्र) की सफ़ाई (सादगी) और मु'आमलात (व्यवहार) की पाकीज़गी (पवित्रता) वग़ैरहा का भी बड़ा दख़्ल (हस्तक्षेप) था !
इशा'अत-ए-इस्लाम (इस्लाम के प्रचार) के सिलसिले में ज़माना-ए-क़दीम (प्राचीनकाल) से लेकर अब-तब बा'ज़ (चंद) लोग एक ग़लत-फ़हमी (ना-समझी) का शिकार रहते हैं या जान बूझ कर (सब कुछ जानते हुए) ऐसा प्रोपोगंडा करते हैं वो यह कि इस्लाम में दाख़िल करने के लिए मुसलमान जब्र-ओ-इकराह (बलपूर्वक) और ज़ोर ओ ज़बरदस्ती से काम लेते हैं और बसा-औक़ात (कभी-कभी) माल-ओ-मता' (धन और सामग्री) के ज़री'आ (द्वारा) भी लोगों को रिझाने की कोशिश करते हैं यह महज़ (केवल) एक दा'वा है जिस का शर'ई (धार्मिक) 'अक़्ली (उचित) और ज़मीनी (लाक्षणिक) ए'तिबार (विश्वास) से जाइज़ा (समीक्षा) लेने की ज़रूरत है ताकि इस दा'वे की हक़ीक़त (सच्चाई) सामने आए और सहीह सूरत-ए-हाल (वर्तमान स्थिति) से आगाही (ज्ञान) हो।
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:2
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*शर'ई (धार्मिक) नुक़्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण)*
शर'ई (धार्मिक) ए'तिबार (विश्वास) से देखा जाए और आख़िरीं (अंतिम) नबी (पैग़ंबर) का 'अमल (काम) और आप की ज़िम्मेदारियों का जाइज़ा (समीक्षा) लिया जाए तो यह बात खुल कर सामने आती हैं कि अल्लाह-त'आला ने अपने नबी (पैग़ंबर) को सिर्फ़ (केवल) इबलाग़ (पहुँचाने) और दा'वत की ज़िम्मेदारी दी थी या'नी (अर्थात) अल्लाह का पैग़ाम (संदेश) अल्लाह के बंदों (मनुष्यों) तक पहुँचाने का आप को मुकल्लफ़ (पाबंद) किया था और साथ ही यह वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया था कि दा'वत की कामयाबी (सफलता) और नाकामी (असफलता) की फ़िक्र (चिंता) आप को नहीं करनी है यह अल्लाह के हाथ में है हिदायत (मार्ग-दर्शन) देना अल्लाह का काम है आप अपने ज़िम्मा (ज़िम्मेदारी) का काम करते जाएं और नतीजा (अंजाम) से बे-फ़िक्र (निडर) रहें।
इस सिलसिले की चंद आयात क़ुरआनी मुलाहज़ा हो :
وَلَوْ شَاء رَبُّکَ لآمَنَ مَن فِیْ الأَرْضِ کُلُّہُمْ جَمِیْعاً أَفَأَنتَ تُکْرِہُ النَّاسَ حَتَّی یَکُونُواْ مُؤْمِنِیْنَ- {سورہ یونس:۹۹}
तर्जमा: और अगर आप का रब (पालन-हार) चाहता तो जो लोग भी ज़मीन में है सब के सब ईमान ले आते तो क्या (ऐ नबी) आप लोगों को मजबूर करेंगे कि वो ईमान वाले हो जाए।
(सूरा यूनुस:99)
एक जगह फ़रमाया:
{إِنَّکَ لَا تَہْدِیْ مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَکِنَّ اللَّہَ یَہْدِیْ مَن یَشَاء ُ وَہُوَ أَعْلَمُ بِالْمُہْتَدِیْنَ - {سورہ قصص:۵۶}
तर्जमा: (ऐ नबी) आप जिसे चाहे हिदायत नहीं दे सकते अल्लाह ही जिसे चाहे हिदायत देता है हिदायत वालो से वही ख़ूब आगाह (जानकार) है।
(सूरा अल्-क़सस:56)
मज़ीद (अधिक) फ़रमाया:
{فَإِنْ أَعْرَضُوا فَمَا أَرْسَلْنَاکَ عَلَیْہِمْ حَفِیْظاً إِنْ عَلَیْکَ إِلَّا الْبَلَاغُ- {سورہ شوری:۴۸}
तर्जमा: अगर यह लोग मुंह फेर ले तो (ऐ नबी) हम ने आप को इन का निगराँ (रक्षक) बनाकर नहीं भेजा है आप की ज़िम्मेदारी तो सिर्फ़ तब्लीग़-ओ-दा'वत है।
(सूरा अश़्-शूरा:48)
एक मक़ाम पर यूँ इरशाद हैं:
{فَذَکِّرْ إِنَّمَا أَنتَ مُذَکِّرٌ، لَّسْتَ عَلَیْہِم بِمُصَیْطِرٍ- {سورہ غاشیہ:۲۱،۲۲}
तर्जमा: (ऐ नबी) आप नसीहत करें आप का काम नसीहत करना है आप उन के ऊपर दारोग़ा नहीं है।
(सूरा अल्-ग़ाशिया:21:22)
यह भी इरशाद हैं:
{لاَ إِکْرَاہَ فِیْ الدِّیْنِ قَد تَّبَیَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَیِّ - {سورہ بقرہ: ۲۵۶}
तर्जमा: दीन (धर्म) में कोई ज़बरदस्ती नहीं हिदायत और गुमराही ज़ाहिर (स्पष्ट) हो चुकी है।
(सूरा अल्-ब-क़-रा:256)
मज़ीद फ़रमाया:
{وَقُلِ الْحَقُّ مِن رَّبِّکُمْ فَمَن شَاء فَلْیُؤْمِن وَمَن شَاء فَلْیَکْفُرْ- {سورہ کہف:۲۹}
तर्जमा: (ऐ नबी) कह दीजिए कि हक़ तुम्हारे रब की तरफ़ से हैं पस जो चाहे ईमान लाए और जो चाहे कुफ़्र करें।
(सूरा अल्-कह्फ़:29)
इस मफ़्हूम (अर्थ) को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है:
{إِنَّا ہَدَیْنَاہُ السَّبِیْلَ إِمَّا شَاکِراً وَإِمَّا کَفُوراً - {سورہ دہر:۳}
तर्जमा: हमने इसे राह दिखला दी अब ख़्वाह (चाहे) वो शुक्र-गुज़ार बने ख़्वाह (चाहे) ना-शुक्रा।
(सूरा अल्-इन्सान:3)
लोगों को मुख़ातिब (संबोधन) करके कहा गया:
{فَإِن تَوَلَّیْتُمْ فَاعْلَمُواْ أَنَّمَا عَلَی رَسُولِنَا الْبَلاَغُ الْمُبِیْنُ- {سورہ مائدہ: ۹۲}
तर्जमा: अगर रु-गर्दानी (विरोध) करोगे तो जान लो कि हमारे रसूल के ज़िम्मा (ज़िम्मेदारी) सिर्फ़ साफ़-साफ़ पहुंचा देना था।
(सूरा अल्-माइदा :92)
अल-ग़रज़ (सारांश यह कि) इस मफ़्हूम (अर्थ) की बहुत सारी आयतें है जिन में वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया गया है कि अल्लाह का दीन (धर्म) और अल्लाह का पैग़ाम (संदेश) वाज़ेह (स्पष्ट) तोर पर पेश हो चुका है सहीह और ग़लत रास्तों की निशान-दही कर दी गई है इंसान को 'अक़्ल और सूझ-बूझ (समझदारी) भी दी गई है दोनों रास्तों और दोनों के अंजाम को सामने रखें और अपने लिए सहीह रास्ते का इंतिख़ाब (चयन) करें इस के लिए उस के ऊपर किसी तरह का जब्र (बलप्रयोग) या ज़ोर-ज़बरदस्ती की जरूरत नहीं है और नबी का काम भी यही है कि ख़ैर-ओ-शर (पाप और पुन्य) और हक़-ओ-नाहक़ (सही और ग़लत) को वाज़ेह (स्पष्ट) करदे ता कि हुज्जत (दलील) तमाम हो जाए और जो काम नबी का हैं वहीं उस के मुत्तबि'ईन (अनुयायी) और वारिसीन का भी है।
इसी तरह नबी-ए-करीम ﷺ की 'अमली (व्यावहारिक) ज़िंदगी और आप की सीरत-ए-तय्यबा (पवित्र जीवन) के मुताले' (अध्ययन) से पता चलता है कि कभी आप ने इस्लाम के लिए किसी को मजबूर नहीं किया किसी पर सख़्ती (कठोरता) नहीं की आप ने दा'वत दी और हक़ (सत्य) को बयान किया इसे क़ुबूल (स्वीकार) करने की दरख़्वास्त (अपील) की।
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:3
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*किसी को जबरन (ज़बरदस्ती) इस्लाम में दाख़िल करने के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से दर्ज ज़ैल (नीचे लिखित) नुक़ात (points) भी क़ाबिल-ए-ग़ौर (ध्यान देने योग्य) हैं*
1) इस्लाम में यह बात मुसल्लम (प्रमाणित) और मुत्तफ़क़-'अलैह (सर्वमान्य) हैं कि अगर कोई अपनी रज़ा-ओ-रग़बत (मर्ज़ी) के बग़ैर किसी जब्र (बलप्रयोग) और ज़बरदस्ती की वजह से (कारण से) इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करता है तो ऐसा इस्लाम क़ाबिल-ए-क़ुबूल (स्वीकरणीय) नहीं और न ऐसे मुसलमान को उस के इस्लाम से कोई फ़ाइदा (लाभ) मिलने वाला है बिल्कुल वैसे ही (उसी तरह) जैसे किसी मुसलमान को जबरन (बलपूर्वक) कलमा-ए-कुफ़्र पढ़वाया जाए तो इस्लाम से वह ख़ारिज (बाहर) नहीं हुआ करता।
2) एक मुसलमान को किताबिया (यहूदी या 'ईसाई) औरत से शादी करने की इजाज़त (अनुमति) हैं लेकिन अगर कोई किसी किताबिया औरत से शादी करता है तो उस औरत के लिए जरूरी नहीं कि अपना दीन-ओ-'अक़ीदा (धर्म) छोड़ दे और इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करे उसे अपने दीन (धर्म) पर बाकी रहने का पूरा हक़ (अधिकार) हासिल है।
3) अगर लोगों को ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) मुसलमान बनाया गया होता तो मौक़ा' (अवसर) मिलते ही वह इस्लाम से निकल भागते और अपने पुराने मज़हब (धर्म) की तरफ़ लौट जाते लेकिन इस्लाम की पूरी तारीख़ इस तरह की मिसाल (उदाहरण) पेश करने से कासिर (नाकाम) है।
4) अगर ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) लोगों को मुसलमान बनाना होता तो मुसलमान कई सदियों तक पूरी ताक़त और क़ुव्वत (शक्ति) में रहे वो चाहते तो जबरन (बलपूर्वक) अपने इर्द-गिर्द (चारों तरफ़) के लोगों को मुसलमान बना लेते और मुस्लिम मु'आशरे (समाज) में कोई ग़ैर-मुस्लिम न रहता लेकिन तारीख़ शाहिद (इतिहास गवाह) है कि 'अहद-ए-नबवी, 'अहद-ए-सहाबा, 'अहद-ए-अमवी, 'अहद-ए-अब्बास और बा'द के अदवार (युग) में भी हमेशा मुस्लिम मुल्कों (countries) और 'इलाक़ो में ग़ैर-मुस्लिम (यहूदी, ईसाई, मजूसी, बुत-परस्त, आतिश-परस्त) मुसलमानों के साथ साथ रहें उन्हें बड़े बड़े मनासिब (पदवियां) सुपुर्द किए गए और वो मु'अज़्ज़ज़-ओ-मुकर्रम (सम्मानित) रहे मदीना में मस्जिद-ए-नबवी में हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को 'ऐन (ठीक) नमाज़ बल्कि (किंतु) इमामत की हालत में एक मजूसी ग़ुलाम (नौकर) ही ने तो शहीद किया था।
5) "इस्लाम में ज़िम्मी (इस्लामी राज्य में ग़ैर मुस्लिम नागरिक) के हुक़ूक़ (अधिकार)"
यह एक ऐसा मौज़ू' (विषय) है कि जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने की थ्योरी की नफ़ी (अस्वीकृति) के लिए यही तन्हा (अकेला) काफ़ी (पर्याप्त) है ज़िम्मी इन रि'आया (जनता) को कहते हैं जो इस्लामी हुकूमत में आबाद हो और जिन का मज़हब (धर्म) इस्लाम न हो मुस्लिम हुकूमत उन से बहुत ही मा'मूली (साधारण) टैक्स लेकर इस के 'इवज़ (बदले) उन की जान-ओ-माल के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) की ज़िम्मेदार होती थी और उन को बहुत सारे मज़हबी व समाजी व सियासी हुक़ूक़ (अधिकार) हासिल होते अगर जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने की कोई हक़ीक़त (सत्यता) होती तो मुस्लिम हुकूमतों के यहां यह शो'बा (विभाग) और यह महकमा (कचहरी) वुजूद (अस्तित्व) ही में न आता बल्कि (किंतु) ऐसे लोगों को या तो इस्लाम में दाख़िल कर लिया जाता या इंकार की सूरत में मुल्क-बदर (जिलावतन) कर दिया जाता।
6) बहुत से ग़ैर मुस्लिम मुअर्रिख़ीन-ओ-मुफ़क्किरीन (इतिहासकारों) ने भी इस्लाम और मुसलमानो की वुस'अत-ए-क़ल्बी का ए'तिराफ़ (स्वीकार) किया है और किसी को जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने के मफ़रूज़े (भ्रम) की तरदीद (रद्द) की हैं चंद मिसालें (उदाहरण) मुलाहज़ा (अध्यन) हो।
मशहूर (प्रसिद्ध) यूरोपीयन मुअर्रिख़ (इतिहासकार) एडवर्ड गिबन लिखता है:
इस्लाम ने किसी मज़हब (धर्म) के मसाइल (समस्या) में दस्त-अंदाज़ी (हस्तक्षेप) नहीं की किसी को ईज़ा (तकलीफ़) नहीं पहुँचाई कोई मज़हबी (धार्मिक) अदालत ग़ैर-मज़हब (दूसरे धर्म) वालों को सज़ा (दंड) देने के लिए क़ाइम (स्थापित) नहीं की और इस्लाम ने लोगों के मज़हब (धर्म) को ब-जब्र (बलपूर्वक) तब्दील (परिवर्तन) करने का कभी क़स्द (विचार) नहीं किया
इस्लाम की तारीख़ (इतिहास) के हर सफ़्हा (पेज) में और हर मुल्क (देश) में जहां इस को वुस'अत (ताक़त) हासिल (प्राप्त) हुई वहां दूसरे मज़ाहिब (धर्मसमूह) से 'अदम मुज़ाहमत पाई जाती हैं यहां तक कि फ़िलिस्तीन में एक ईसाई शा'इर (कवि) ने उन वाक़ि'आत (घटनाओं) को देखकर जिन का ज़िक्र (उल्लेख) हम कर रहे हैं बारह सो साल बाद ए'लानिया (खुले तौर पर) कहा था कि सिर्फ़ मुसलमान ही रू-ए-ज़मीन (भूमी की सतह) पर ऐसी क़ौम (जाति) है जो दूसरे मज़ाहिब (धर्मसमूह) वालों को हर क़िस्म (प्रकार) की आज़ादी (स्वतंत्रता) देते हैं।
(इस्लाम और रवादारी पेज:80/81 ब-हवाला ज़वाल रुमत अल कुबरा पेज:185)
मशहूर (प्रसिद्ध) फ्रेंच मुफ़क्किर (विचारक) डॉक्टर गुस्तावली अपनी
तसनीफ़ (पुस्तक) "तमद्दुन 'अरब" में लिखता है:
"मुसलमान हमेशा मफ़्तूह (पराजित) अक़्वाम (कौमों) को अपने मज़हब (धर्म) की पाबंदी में आज़ाद छोड़ देते थे"
(तमद्दुन 'अरब:पेज:80)
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:4 (लास्ट पार्ट)
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*हिंदुस्तान, इस्लाम और मुसलमान*
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यह मौज़ू' (विषय) एक तवील (लंबी) बहस का मुतक़ाज़ी (ज़रुरत) हैं लेकिन अपने ज़ेर-ए-बहस (चर्चाधीन) जुज़ई (थोड़े) से मुत'अल्लिक़ (विषय में) चंद (कुछ) बातें पेश (समक्ष) करने पर इक्तिफ़ा (पर्याप्त) किया जाता हैं।
*हिंदुस्तान में मुसलमानो की आमद (आगमन) का सिलसिला (सम्बंध) पहले से जारी था लेकिन तारीख़ी (ऐतिहासिक) हैसियत से हिंदुस्तान में मुसलमानो का सिलसिला (सम्बंध) मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले (आक्रमण) से शुरू' (प्रारंभ) माना जाता हैं उस हमले में मुसलमानों को फ़त्ह (विजय) मिली थी और यहां इस्लामी हुकूमत की दाग़-बेल पड़ी थी मोहम्मद बिन क़ासिम और मज़हबी (धार्मिक) जब्र-ओ-इकराह (ज़बरदस्ती) के हवाले से सिर्फ़ (मात्र) एक मिसाल (उदाहरण) पेश की जा रही हैं:
मशहूर (प्रसिद्ध) मुअर्रिख़ (इतिहासकार) 'अली बिन हामिद मुसन्निफ़ (लेखक) "तारीख़-ए-सिंध" ने मज़हबी (धार्मिक) आज़ादी (स्वतंत्रता) से मुत'अल्लिक़ (विषय में) मोहम्मद बिन क़ासिम की पॉलिसी का यह ए'लान (घोषणा) नक़्ल किया है कि:
"हमारी हुकूमत में हर शख़्स मज़हबी (धार्मिक) मु'आमला (व्यवहार) में आज़ाद (स्वतंत्र) होगा जो शख़्स (व्यक्ति) चाहें इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करें और जो चाहे अपने मज़हब (धर्म) पर क़ाइम (यथावत) रहें हमारी तरफ़ से कोई त'अर्रुज़ (विरोध) न होगा"
(इस्लाम और रवादारी: पेज नंबर:153)
*हिंदुस्तान के अव्वल (प्रथम) वज़ीर-ए-आ'ज़म (प्रधानमंत्री) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब
(दी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया के पेज नंबर:204)
पर लिखा है:
अफ़ग़ान और मुग़ल हुक्मरानों ने ख़ास तौर पर इस बात का हमेशा (सदा) लिहाज़ (ध्यान) रखा कि मुल्क (देश) के क़दीम (प्राचीन) रस्म-ओ-रिवाज (रीति रिवाज) और उसूलों (सिद्धांतों) में कोई दख़्ल (हस्तक्षेप) न दिया जाए उन में कोई भी बुनियादी (आधार भूत) तब्दीली (परिवर्तन) नहीं की गई हिंदुस्तान का इक़्तिसादी (आर्थिक) और समाजी ढाँचा ब-दस्तूर (पहले की तरह) क़ाइम (स्थापित) रहा गयासुद्दीन तुग़लक़ ने अपने हुक्काम को वाज़ेह (स्पष्ट) हिदायत (आदेश) इस बारे में जारी की थी कि वो मुल्क (देश) के रिवाजी (प्रचलित) क़ानून को ब-दस्तूर (यथावत) क़ाइम (स्थापित) रखें और सल्तनत (हुकूमत) के मु'आमलात (व्यवहार) को मज़हब (धर्म) से जो हर फ़र्द (व्यक्ति) का जाती और निजी (व्यक्तिगत) 'अक़ीदा (विश्वास) होता है बिल्कुल अलग रखें।
*प्रोफ़ेसर राम प्रशाद खोसला अपनी किताब
(मुगल किंग सीप एंड मोबिलिटी) में लिखते हैं:
मुग़लों के ज़माने (समय) में 'अदल-ओ-इंसाफ़ (न्याय) में जो एहतिमाम (बंदोबस्त) होता और जो उन की मज़हबी (धार्मिक) रवादारी (उदारता) की पॉलिसी थी उस से 'अवाम (जनता) हमेशा (सदा) मुतमइन (संतुष्ट) रही इस्लामी रियासत (हुकूमत) में सियासत (राजनीति) और मज़हब (धर्म) का गहरा (धनिष्ट) लगाव (नाता) रहा है लेकिन मुग़लो की मज़हबी (धार्मिक) रवादारी (उदारता) की वज़ह से उस लगाव को कोई ख़तरा पैदा नहीं हुआ किसी ज़माने में भी यह कोशिश नहीं की गई कि हुक्मराँ क़ौम का मज़हब (धर्म) महकूमों (प्रजा) का भी मज़हब (धर्म) बना दिया जाए हत्ता कि औरंगज़ेब ने भी हुसूल-ए-मुलाज़मत (नौकरी) के लिए इस्लाम की शर्त (पाबंदी) नहीं रखी मुग़लो के 'अहद (समय) में "Fermilao act" या "corporation act" जैसे क़वानीन (कानून) मंज़ूर नहीं किए गए एलिज़ाबेथ के ज़माने में एक ऐसा कानून था जिस के जरिए से जबरी (ज़बरदस्ती) तौर पर 'इबादत (उपासना) कराईं जाती थी मुग़लो के ज़माने (समय) में इस क़िस्म (प्रकार) का कोई जब्र (बलप्रयोग) नहीं किया गया "Bortholomews day" जैसे क़त्ल-ए-'आम (नरसंहार) से मुग़लो की तारीख़ कभी दाग़दार (कलंकित) नहीं हुई मज़हबी (धार्मिक) जंग की ख़ूँ-रेज़ी (मार-काट) से यूरोप की तारीख़ भरी हुई है लेकिन मुग़लो के 'अहद (समय) में ऐसी मज़हबी (धार्मिक) जंग की मिसाल (उदाहरण) नहीं मिलती बादशाह मज़हब-ए-इस्लाम का मुहाफ़िज़ (रक्षक) और निगहबान (रखवाला) जरुर समझा जाता लेकिन उस ने कभी ग़ैर-मुस्लिम रि'आया (जनता) के 'अक़ाइद (आस्था) पर दबाव (प्रेशर) नहीं डाला।
(इस्लाम में मज़हबी रवादारी: सैयद सबाउद्दीन अब्दुर्रहमान दार अल-मुस्नफ़ीन आज़म गढ़, तब' जदीद : 'ईस्वी-साल:2009 पेज नंबर:287)
"इस्लामी अहकाम (आदेश) पर ए'तिराज़ (आलोचना) और उन की हक़ीक़त" के 'उनवान (शीर्षक) से अपने एक मज़मून (लेख) में मुहतरम (श्रीमान) सनाउल्लाह साहब लिखते हैं:
जब हिंदुस्तान में मुसलमान हुक्मरान (राजा) आएं यहां हिंदुस्तान में ब्रह्मणी हुकूमत ने बुद्धों, जैनियों और दलितों पर बे-पनाह (बहुत ज़ियादा) मज़ालिम (अत्याचार) ढाए थे इस लिए मज़लूमो (पीड़ितों) ने इस्लाम की इंसाफ़-पसंदी (न्यायप्रियता) से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो कर बग़ैर (बिना) दा'वत (आमंत्रण) के इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) कर लिया उन्होंने
मुस्लिम हुक्मरानों को अपना नजात-दहिंदा (आज़ाद कराने वाला) समझा पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामधारी सिंह 'दिनकर जैसे दर्जनों (बहुत से) हिंदु मुअर्रिख़ीन (इतिहासकार) और इंसाफ़-पसंद (न्यायप्रिय) मुसन्निफ़ीन (लेखक) ने अपनी किताबों में इस हक़ीक़त (सत्यता) को तस्लीम (स्वीकार) किया है अगर ज़ुल्म (अत्याचार) और तशद्दुद (हिंसा) से मज़हब (धर्म) फैलाने का काम मुस्लिम हुक्मरानों ने किया होता तो सात सौ साल में या तो हिंदुस्तान में एक भी हिंदू बाकी न बचता या फिर इतने लंबे 'अर्से (समय) तक उन की हुकूमत क़ाइम (यथावत) नहीं रह सकती तारीख़ी (ऐतिहासिक) रिकार्ड बताते हैं कि मुस्लिम दौर-ए-हुकूमत में हिंदू और मुसलमानों के दरमियान (बीच में) मेल-मिलाप और त'आवुन (सहयोग) बराबर क़ाइम (यथावत) रहा फ़ौज और हुकूमत के अहम (महत्वपूर्ण) 'ओहदों (पद) पर बड़ी ता'दाद (संख्या) में हिंदू फ़ाइज़ (नियुक्त) रहें तशद्दुद (ज़ुल्म) की हालत (स्थिति) में ऐसा मुमकिन (संभव) न था।
(इस्लाम और ग़लत-फ़हमीया मज्मू'आ मज़ामीन से रोज़ा दा'वत नई दिल्ली, 28, जुलाई, 2002, पेज:39)
*मिस्टर टी. डब्ल्यू. अर्नोल्ड अपनी किताब "The Preaching of Islam" में लिखते हैं:
औरंगज़ेब के 'अहद (समय) की किताब तवारीख़ (इतिहास) में जहाँ तक मैंने तलाश (खोज) किया है ब-जब्र (बलपूर्वक) मुसलमान करने का ज़िक्र (उल्लेख) कही नहीं मिलता (इस्लाम और रवादारी:216)
*एक फ़्रांसीसी सय्याह (पर्यटक) डॉक्टर ब्रनियर देहली (Delhi) के सूरज-ग्रहण के अश्नान (स्नान) और पूजा-पाट का नज़ारा (दीदार) करने के बाद लिखते हैं:
" मुस्लिम फ़रमाँ-रवाओ (राजाओं) की तदबीर (उपाय) मम्लकत (राष्ट्र) का यह एक जुज़ (भाग) हैं कि वो हिंदूओं की रुसूम (रीतियों) में दस्त-अंदाज़ी (हस्तक्षेप) करना मुनासिब (अनुकूल) नहीं समझते और उन्हें मज़हबी (धार्मिक) रुसूम (रस्में) बजा लाने (अदा करने) की पुरी आज़ादी देते हैं "
*मशहूर (प्रसिद्ध) हिंदी हफ़्त-रोज़ा (साप्ताहिक) "कांति" के साबिक़ (पूर्व) एडिटर (संपादक) डोक्टर कौसर यज़्दानी ने हिंदुस्तान में जबरी (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने के वाहिमा (भ्रम) को ग़लत (झूठ) ठहराते हुए बड़े पते की बात कही है मौसूफ़ (महोदय) फरमाते हैं:
इस सिलसिले में एक दिल-चस्प (रोचक) अम्र (बात) यह भी है कि वतन-ए-'अज़ीज़ (प्यारे मुल्क) में हर-वक़्त (हर समय) propaganda (प्रचार) किया जाता हैं कि मुस्लिम बादशाहों ने यहां के बाशिंदों (नागरिकों) को तलवार और ताक़त के ज़ोर (बल) पर ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) मुसलमान बनाया ऐसी बात करने वाले यह नहीं सोचते कि वो ख़ुद (स्वयं) अपने बुज़ुर्गों (बापदादे) और अस्लाफ़ (पुर्खो) पर कितना बड़ा इल्ज़ाम (आरोप) लगा रहे हैं कि वो ऐसे बुज़दिल (डरपोक) थे कि ख़ुद (स्वयं) करोड़ों की ता'दाद (संख्या) में होते हुए भी बाहर से आने वाले चंद (कुछ) हजार मुसलमानों का मुक़ाबला न कर सके उन के गुलाम-ओ-महकूम (दास) बन गए यहां तक कि इस दबाव (प्रेशर) में अपनी बुज़दिली (कायरता) और पस्त-हिम्मती (डर) की वजह से (करण से) अपना धर्म छोड़ कर मुसलमानों का मज़हब (धर्म) क़ुबूल (स्वीकार) कर लिया फिर यह कैसी 'अजीब (विचित्र) बात है कि इन मुसलमानों के हुक्मरान (राजा) न रहने पर भी इन्होंने मुबैयना (तथाकथित) हमला-आवरो (आक्रमणकारों) का मज़हब (धर्म) न छोड़ा और आज-तक फ़स्ताई (फासीवादी) ताकतों के तमाम-तर (सारे का सारा) ज़ुल्म-ओ-सितम (अन्याय) इम्तियाज़ (भेदभाव) फ़साद (उपद्रव) क़त्ल-ओ-ग़ारत-गिरी (ख़ून खराबा) मज़हबी (धार्मिक) मक़ामात (बहुत से स्थान) और मज़हबी (धार्मिक) कुतुब (किताबें) की बे-हुरमती (अपमान) अपनी जान-ओ-माल और 'इज़्ज़त-आबरू पर वहशियाना (बर्बरतापूर्ण) और राक्षसी हमलों के बावुजूद (अतिरिक्त) इस मज़हब (धर्म) को छोड़कर आज के हुक्मरानों का मज़हब (धर्म) इख़्तियार (पसंद) करने की बात तक नहीं करते न किसी दबाव (प्रेशर) में आते हैं न किसी लालच में और सबसे दिल-चस्प (रोचक) बात यह है कि आज भी बहुत से लोग हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम (इस्लाम के अनुयायी) हो रहें हैं आख़िर इन के सरो पर कौन सी इस्लामी तलवार लटक रही हैं ? और जो मुसलमान ख़ुद ही दलितों जेसी पसमांदगी (लाचारी) की ज़िंदगी (जीवन) गुज़ार ने पर मजबूर (लाचार) हैं वो कौन सा लालच दे रहे हैं ?
इस सिलसिले में यह अम्र (बात) भी काबिल-ए-ज़िक्र (उल्लेखनीय) है कि जब वतन-ए-'अज़ीज़ के बाशिंदों (नागरिकों) में हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम (इस्लाम के अनुयायी) होने वालो के बारे में ग़ौर (विचार) किया जाता हैं तो नज़र आता हैं कि ज़्यादातर (अधिकतर) ख़ुश-हाल (मालदार) जंग-जू (लड़ाकू) बहादुर हुक्मराँ और असहाब-ए-रोज़गार (कारोबारी) लोग हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम हुए क्षत्रिय क़ौमे मुसलमान हुई अगर वो तलवार के डर से मुसलमान हुए तो हमेशा की कमज़ोर पस-मांदा (पिछड़े) डरपोक और बुज़दिल (कायर) क़ौमे तो उन को देखकर मुसलमान हो गई होती ऐसा क्यूँ नहीं हुआ ?
(इस्लाम और ग़लत-फ़हमियां: पेज:133)
*आईन-ए-हिन्द (संविधान) और तबलीग़-ए-मज़हब (धर्म प्रचार) की आज़ादी (स्वतंत्रता)*
आईन-ए-हिन्द (संविधान) में तमाम (सम्रग) मज़ाहिब (धर्मसमूह) के लोगों को अपने मज़हबी (धार्मिक) उमूर (काम) के इंतिज़ाम (व्यवस्था) मज़हब (धर्म) की तबलीग़ (प्रचार) और मज़हबी (धार्मिक) ता'लीम (शिक्षा) की इजाज़त (अनुमति) दी गई हैं चुनांचे (जैसा कि) आईन (संविधान) की दफ़्'अ (क़ानून की धारा) (25) में आज़ादी, ज़मीर (अंतरात्मा) मज़
माह-ए-मुहर्रम और मौजूदा मुसलमान | Mah-e-Muharram aur Maujooda Musalman
माह-ए-मुहर्रम और मौजूदा मुसलमान Hindi Book PDF
Mah-e-Muharram aur Maujooda Musalman
लेखक: शैख तौसीफ़ उर रहमान (ख़ुतबात राशिदी: पेज नंबर 77 / 84)
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
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