✍️... डॉ:अजमल मंजूर मदनी
हिंदी:अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
शैख़ से तब्लीग़ी जमा'अत के बारे में सवाल किया गया तो आप ने कहा कि मैं इस जमा'अत के साथ नहीं निकला हूं मैं एक बार कश्मीर गया था एक काम से काम से फ़राग़त के बाद देहली से गुज़र हुआ मुझसे कहा गया कि यहां पर तब्लीग़ी जमा'अत का मरकज़ है जिसे निज़ामुद्दीन कहते हैं यह दरअस्ल (असल में) एक मस्जिद है जिस में पांच क़ब्रें है उन पर क़ुब्बे भी बने हुए हैं जिन की सरीह (स्पष्ट) तौर पर परस्तिश (इबादत) होती है सब कुछ देख कर वहां से चले आए
मगर वो लोग जल्दी किसी अजनबी को उन क़ब्रो के बारे में नही बताते हैं
बल्कि (किंतु) झूठ बोलते है हमारे साथ अब्दुल रब नामी (नाम वाला) शख़्स ने कई लोगों से मा'लूम किया तो एक शख़्स ने इल्यास और उन की बीवी की क़ब्र के बारे में बताया जो कि दोनों मस्जिद के अंदर है फिर इन के 'अलावा भी चार क़बरों का पता चला कहते हैं कि मस्जिद और क़ब्र दोनों एक साथ नहीं हो सकते मगर यह सूफ़ी लोग चूँकि
मनहज अंबिया से वाक़िफ़ नहीं होते हैं और इन के यहां शिर्क ओ बिद'अत की कोई परवाह नहीं होती हैं इस लिए उन के मशाइख़ जब मरते हैं तो उनहें मस्जिदों में दफ़्न कर देते हैं जबकि जिस मस्जिद में क़ब्र हो उस में नमाज़ ही नहीं होती हैं यह फ़तवा मैंने ख़ुद शैख़ इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह से पूछा था और यह हुक्म मुझे ख़ुद मा'लूम हैं बल्कि (किंतु) हर तालिब-ए-'इल्म इसे जानता है
मगर मैंने शैख़ से यह फ़तवा पूछा ताकि सामे'ईन (सुननेवाले) भी सुन ले कि क्या जिस मस्जिद में क़ब्र हो उस में नमाज़ सहीह होगी ? तो शैख़ ने बिला झिझक कहा कि नहीं
मैंने फिर पूछा कि यह क़ब्र क़िबला की तरफ़ नहीं है बल्कि (किंतु) मस्जिद के एक पहलू (बग़ल) में हैं ?
तो शैख़ ने कहा कि फिर भी नमाज़ सहीह नही होगी
मैंने कहा कि तब्लीग़ी जमा'अत के मरकज़ की जो जामे'-मस्जिद है उस में कई (अनेक) क़ब्रें है
तो शैख़ ने कहा कि फिर भी नमाज़ सहीह नही होगी
बड़े अफ़सोस (दुःख) की बात है कि जो जमा'अत पुरी दुनिया में चल फिर रही हैं मगर तौहीद की तरफ़ दा'वत नही देती हैं और न ही शिर्क से रोकती हैं इसी दा'वत पर एक ज़माना गुज़र गया मगर यह तौहीद पर बात नही करतें हैं
बल्कि इस जमा'अत का कोई भी फ़र्द (व्यक्ति) इस वाजिब को पुरा नही कर रहा है
मैं इन से यही कहुंगा कि यह अल्लाह के दीन की तरफ़ वापस आ जाएं और अंबिया का मनहज सीखें ताकि तौहीद की दा'वत की तरफ़ वापस आ जाएं मेरे भाइयों लोगों को नमाज़ के लिए बुलाओ कोई मसअला नही नमाज़ पर तक़रीर करो और दर्स दो कोई ए'तिराज़ (विरोध) नही करेगा जकात पर और जिहाद पर ख़ुतबा करो कोई ए'तिराज़ (विरोध) नही करेगा
मगर जैसे ही कहेंगे कि ग़ैरुल्लाह को पुकार ना शिर्क हैं, क़ब्रो पर क़ुब्बे बनाना हराम है, ग़ैरुल्लाह के लिए ज़बीहा (ज़ब्ह) करना शिर्क हैं, फ़ौरन लोग आसमान को सर पर उठा लेंगे एक नौजवान को जानता हूं जो बेहतरीन तक़रीर करता था अख़्लाक़ ओ किरदार और म'आशियात (अर्थशास्त्र) पर बोलता लोगों की भीड़ लग जाया करतीं थी
मैंने कहा कि मेरे भाई आप की तक़रीर बहुत अच्छी है अच्छा बोलते हैं मगर लोग जो आप के सामने है वो शिर्क ओ बिद'अत और ज़लालत (गुमराही) में मुब्तला (पड़ा) है इन्हें तौहीद का इल्म नहीं है इस पर भी तक़रीर करो अंबिया का मनहज बताओ
चुनांचे (इसलिए) वो बंदा इस मौज़ू' (विषय) पर भी बोलना शुरू किया मगर सामे'ईन (सुननेवाले) बिखरने लगे उन्हें अच्छा नही लगा इस तरह दूसरी बार में बहुत सारे छुट गए तीसरी बार में कुछ लोगों ने मारने की धमकी दी
वो बंदा मेरे पास आया और रोते हुए कहा कि मैं अब मुसीबत में फंस गया लोगों ने मुझे मारने की धमकी दी है मैंने कहा कि यह अंबिया का मनहज हैं अगर तुम अपने पहले तरीके पर बाकी रहते तो तुम से एक भी शख़्स इख़्तिलाफ़ न करता और यही काम हिज़्बी जमा'अतें कर रही हैं मगर अंबिया का यह मनहज नहीं है बल्कि अंबिया को इस राह में सबसे ज़ियादा आज़माया गया है तौहीद की तरफ़ दा'वत देना और शिर्क ओ बिद'अत से लड़ना कोई मा'मूली काम नही है इसी राह में असल तकलीफ़े उठाना पड़ती हैं
इख़्वानी तंज़ीम (संस्था) और तब्लीग़ी जमा'अत और इस तरह की हिज़्बी जमा'अतें यही करती हैं कि
लोगों की भीड़ इखट्टा करने के लिए
तौहीद ओ शिर्क के मसाइल को नहीं छेड़ती हैं लेकिन अगर मैं तौहीद पर बोलना शुरू कर दूं तो बहुत कम लोग मेरी बात सुनेंगे बल्कि मुमकिन हैं सब भाग जाए
इस वक़्त सलफ़ियो की दा'वत को इस लिए ख़ूब बदनाम किया जाता हैं झूठ और बोहतान लगाए जाते हैं इस लिए कि यह तौहीद की तरफ़ दा'वत देते हैं दीगर (अन्य) जमा'अतें समझती है कि अगर यह लोगों को समझाने में कामयाब हो गए तो हमारा मु'आमला खटाई में पड़ जाएंगा इस लिए यह सलफ़ियो को 'अवाम में बदनाम करते हैं मगर उन्हें पता है कि कल अल्लाह के सामने इस बारे में उन से सवाल होगा
बनारस में मेरे पास तब्लीग़ीयो की एक जमा'अत आई मेरे साथ
शैख़ सालेह अल 'इराक़ी भी थे तब्लीग़ीयो ने कहा कि हमें मा'लूम हुआ है कि यहां पर कुछ 'अरब मेहमान आए हैं सुन कर बड़ी ख़ुशी हुई इस लिए ज़ियारत के लिए आगए है हम चाहते हैं कि दा'वत-ए-दीन के लिए आप हमारे साथ निकले शैख़ सालेह ने एक लेक्चर की तैयारी कर रखी थी एक अहल-ए-हदीस मस्जिद के लिए मगर हम उन लोगों के साथ बरेलवी मस्जिद में गए जिन के बारे में मा'रूफ़ है कि यह क़ब्र-परस्त होते हैं इनका 'अक़ीदा हैं कि औलिया ग़ैब जानते हैं काइनात में तसर्रुफ़ (हस्तक्षेप) करते हैं इनके लिए यह नज़्र-ओ-नियाज़,ज़बीहा और इनकी क़ब्रो के लिए रुकू'-ओ-सुजूद सब कुछ ठहराते हैं
हमारे साथ 'अब्द अल-'अलीम नामी एक साथी थे जिन्हें तर्जुमा करना था और जो राब्ता में हमारे साथ काम करते थे शैख़ सालेह ने तक़रीर की और मुतर्जिम (अनुवादक) का इंतिज़ार करने लगे मगर जमा'अत के अमीर ने कहा कि ठहर जाइए अभी मैं तर्जुमा करता हूं बहर-हाल (अंतत) शैख़ ने तक़रीर पुरी करदी मगर किसी ने तर्जुमा नहीं किया
मैंने इंतिज़ार किया कि अभी थोड़ी देर में तर्जुमा होगा मगर इस का कोई तर्जुमा नहीं हुआ थोड़ी देर के बाद एक कुवैती शैख़ ने ख़ुत्बा किया और उनके ख़िताब का तर्जुमा किया गया
मैंने अमीर जमा'अत से कहा कि हम लोग यहां ख़ुद से नहीं आए हैं हमें बाक़ा'इदा बुलाया गया है शैख़ सालेह ने तक़रीर की और तर्जुमा का इंतिज़ार किया मगर किसी ने तर्जुमा नहीं किया आप ने वा'दा किया मगर अब तक नहीं किया
तो इस तब्लीग़ी अमीर ने कहा कि मेरे भाई दरअस्ल (हक़ीक़त में) यह बरेलवियों की मस्जिद है अगर हम यहां तौहीद पर बात करेंगे तो यह हमें भगा देंगे
मैंने कहा कि मेरे भाई क्या यही अंबिया की दा'वत हैं ? आप लोग दुनिया के गोशे गोशे में जाते हो अमेरिका, यूरोप से लेकर ईरान, तूरान (तुर्किस्तान) तक कोई नहीं रोकता है सब लोग एहतिराम (इज़्ज़त) देते हैं कोई सामने खड़ा नही होता क्या यही वज्ह (सबब) है ?
अंबिया की दा'वत में सराहत (तफ़्सील) होती हैं मुजामलत (भलाई करना) और कित्मान (छुपाना) हक़ नहीं होती हैं इस राह (रास्ते) में परेशानियों का सामना होता है चलो फ़र्ज़ करलें कि तौहीद बयान करने पर लोग हमें भगा देंगे तो क्या दुसरी मस्जिदें नहीं है रहने के लिए होटल है नहीं तो सड़क है आप को हक़ बोलना चाहिए क्या अल्लाह के रसूल ﷺ को हक़ बोलने ही की वज्ह से मक्का से नहीं निकाला गया ? फिर मैंने पूछा कि आप कितने साल से दा'वत का काम कर रहे हो ? कहा कि तीस साल से
मैंने कहा कि हिंदुस्तान में लाखों करोड़ों लोग शिर्क का इर्तिकाब कर रहे हैं मगर आप लोग इस पर ख़ामोश है क्या इस कित्मान हक़ पर कल क़यामत के रोज़ सवाल नहीं होगा ?
इस पर बंदा ख़ामोश हो गया फिर मैं भी वहां से चला आया हक़ीक़त यह है लोग क़ुरआन पढ़ते हैं मनहज-ए-हक़ को पहचानते हैं तौहीद की अहमियत और शिर्क ओ बिद'अत की हक़ीक़त समझते हैं मगर छुपाते हैं इन्हीं जैसे लोगों के बारे में अल्लाह ने फ़रमाया है: إِنَّ الَّذِينَ يَكْتُمُونَ مَا أَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنَاتِ وَالْهُدَى مِنْ بَعْدِ مَا بَيَّنَّاهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتَابِ أُولَئِكَ يَلْعَنُهُمُ اللَّهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللَّاعِنُونَ)
तर्जुमा: बेशक वो लोग जो इस को छुपाते हैं जो हम ने वाज़ेह (स्पष्ट) दलीलों और हिदायत में से उतारा है इस के बाद कि हम ने इसे लोगों के लिए किताब में खोल कर बयान कर दिया है ऐसे लोग हैं कि उन पर अल्लाह ला'नत करता है और सब ला'नत करने वाले उन पर ला'नत करते हैं (सूरा अल्-ब-क़-रा:159)
फिर आख़िर क्या होगा जब हम सब से 'अज़ीम चीज़ जिस की तरफ़ सारे अंबिया ने दा'वत दी है इसी को छुपाएंगे इसी तरह सबसे ख़बीस चीज़ जिस से तमाम अंबिया ने डराया है इसे छुपाएंगे ? अगर ऐसे लोगों का कित्मान हक़ पर मुहासबा (पूछ-ताछ) नहीं होगा तो फिर आख़िर किस का होगा ?
(📚الکواشف الجلیہ: ۱/ ۴۱۵)
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