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✍️... डॉ: अजमल मंजूर मदनी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
यह शैख़ सा'द अल हुसैन का रिसाला (पत्रिका) हैं जो कि जॉर्डन के अंदर सऊदी सिफ़ारत-ख़ाने (दूतावास) में दीनी मुशीर (सलाह-कार) हैं यह रिसाला (पत्रिका) क़तर में एक भाई के पास भेजा था तब्लीग़ीयों के बारे में सवाल के जवाब में जिस के अंदर एक तमहीद (परिचय) के बाद कहते हैं कि:
पहला:
आप जानते हैं कि दा'वत-ए-दीन 'इबादत हैं और 'इबादत उसी वक़्त मक़बूल होगी जब वो किताब-ओ-सुन्नत की रौशनी-में (सामने रख के) शरी'अत के मुवाफ़िक़ (अनुकूल) होगी !
दूसरा:
तब्लीग़ीयों के मनहज पर दा'वत-ए-दीन का 'अमल (काम) शरी'अत के मुवाफ़िक़ (अनुकूल) नहीं हैं मैं उन के साथ आठ साल रह चुका हूं तीन दिन, चालीस दिन, और चार महीने के लिए निकलना और फिर दा'वत-ए-दीन को छे मौज़ू' (विषय) में महदूद (सीमित) कर देना और फिर फ़ज्र (सुबह) के बाद दस छोटी सूरतों को सिर्फ़ पढ़ना यह सारे तरीक़े शरी'अत से साबित नहीं हैं हर ज़ुहर की नमाज़ के बाद यह जमा'अत का त'आरुफ़ (जान-पहचान) कराते हैं हर 'अस्र की नमाज़ के बाद यह दा'वत ए दीन के लिए निकलते हैं हर मग़रिब की नमाज़ के बाद यह छे (six) दा'वती सिफ़ात पर तफ़्सीली गुफ़्तुगू (बातचीत) करते हैं हर 'इशा की नमाज़ के बाद यह कांधलवी की हयातुस्सहाबा पढ़ते हैं यह कुछ मख़्सूस (विशेष) अज़़कार (ज़िक्र) करते हैं आख़िर इन लोगों ने यह तहदीद (सीमित) और इल्तिज़ाम कहां से लाए शरी'अत में और मनहज-ए-सलफ़ में ऐसा तो कुछ नहीं हैं नूह अलैहिस्सलाम से लेकर मोहम्मद ﷺ तक तमाम अंबिया ने जो दा'वत का काम किया हैं उन में से यह तब्लीग़ी दा'वत किसी के मुताबिक़ (अनुसार) नहीं हैं इरशाद-ए-बारी-त'आला हैं:
(وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَسُولًا أَنِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوتَ)
तर्जुमा: और बिला-शुब्हा यक़ीनन हम ने हर उम्मत में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की 'इबादत करो और ताग़ूत से बचो (सूरा अन्-नह़्ल:36)
मजीद इरशाद-ए-बारी-त'आला हैं:
(وَمَا أَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ مِنْ رَسُولٍ إِلَّا نُوحِي إِلَيْهِ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنَا فَاعْبُدُونِ)
तर्जुमा: और हम ने तुझसे पहले कोई रसूल नहीं भेजा मगर उस की तरफ़ यह वही करते थे कि हक़ीक़त यह हैं कि मेरे सिवा कोई मा'बूद नहीं सू मेरी 'इबादत करो (सूरा अल्-अम्बिया:25)
नमाज़,ज़कात,अख़्लाक़ियात और हाकिमिय्यत (शासन) वग़ैरा किसी भी मस'अले से पहले सब से बढ़कर तौहीद का मसअला हैं सिर्फ़ अल्लाह की 'इबादत करने का मसअला हैं जब कि दूसरी दीगर (अन्य) हिज़्बी जमा'अतों और तंज़ीमो की तरह तब्लीग़ी जमा'अत भी इसे अपने तरजीहात (फ़ौक़ियत) में न कम रखतें हैं बल्कि (किंतु) इस का कुछ भी एहतिमाम (बंदोबस्त) नहीं करते बल्कि सच तो यह है कि यह जमा'अत कलिमा-ए-तय्यिबा (ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मद रसूलुल्लाह) का मा'नी (मतलब) भी नहीं जानते हैं इसे नहीं मा'लूम कि इस का सहीह मफ़्हूम (मतलब) यह हैं: अल्लाह के सिवा कोई मा'बूद-ए-बर-हक़ नहीं है
बल्कि (किंतु) यह इस का मतलब बताते हैं कि अल्लाह राज़िक़ (रोज़ी देनेवाला) हाकिम और ख़ालिक़ हैं वही मारने, जिलाने वाला हैं अगर इस कलमें यही मा'नी (मतलब) होता तो फिर कुफ़्फ़ार क़ुरैश से झगड़ा क्यूँ होता ? और वो लोग
इस कलमें का इंकार क्यूं करते क्यूँकि (इसलिए कि) अल्लाह ने उन के बारे में फ़रमाया हैं:
(وَلَئِنْ سَأَلْتَهُمْ مَنْ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ لَيَقُولُنَّ خَلَقَهُنَّ الْعَزِيزُ الْعَلِيمُ)
तर्जुमा: अगर आप इन से दरियाफ़्त करे कि आसमानों और ज़मीन को किस ने पैदा किया तो यक़ीनन उन का जवाब यही होगा कि इन्हें ग़ालिब व दाना (अल्लाह) ने ही पैदा किया हैं (सूरा अज़्-ज़ुख़रुफ़:9)
तीसरा:
चूँकि (इसलिए कि) यह जमा'अत शरी'अत के मनहज पर काम नहीं कर रही हैं इस लिए आप देखेंगे कि इस ने आज-तक अपने पड़ोस में शिर्क ओ बिद'अत और गुमराही के मरकज़ में कोई तबलीग़ और दा'वत नहीं करते और ना ही आज तक इसे ख़त्म कर सके हैं जबकि साठ सालों से इसी बग़ल (पास) में यह रहते हैं बल्कि यह तो ख़ुद अपने 'अक़ाइद की इस्लाह नहीं करते इन के साथ मशाइख़ सूफ़ी हैं किस्से कहानियों और ख़्वाब पर मबनी (निर्भर) किताबों को पढ़ते और पढ़ाते हैं किताब-ओ-सुन्नत के शुरूहात (अर्थ) और 'उलमा-ए-उम्मत की किताबों से दूर रहते हैं
इन की गुमराही की सबसे वाज़ेह (स्पष्ट) दलील ख़ुद इन की मरकज़ी मस्जिद है जिस के अंदर क़बरों मौजूद हैं इसी तरह पाकिस्तान के अंदर रायविंड में और सूडान की इन की मरकज़ी मस्जिद में
चौथा:
और ख़ुद इस जमा'अत का वुजूद (अस्तित्व) ही मुसलमानों की मुत्तहिदा (संयुक्त) जमा'अत से ख़ुरूज (बग़ावत) हैं बल्कि (किंतु) इस जमा'अत के मनहज से ख़ुरूज हैं क्यूंकि इसी तरह के ख़ुरूज से मुसलमानों में तफ़रीक़ (भेद भाव) और इंतिशार (गड़बड़) पैदा होता हैं जिस तरह कि पहले के ख़ुद टूट कर
बिखर गए थे इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(مِنَ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا كُلُّ حِزْبٍ بِمَا لَدَيْهِمْ فَرِحُونَ)
तर्जुमा: उन लोगों से जिन्होंने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और कई गिरोह हो गए हर गिरोह इसी पर जो उन के पास हैं ख़ुश हैं
(सूरा अर्-रूम:32)
मजीद इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(إِنَّ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا لَسْتَ مِنْهُمْ فِي شَيْءٍ إِنَّمَا أَمْرُهُمْ إِلَى اللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُمْ بِمَا كَانُوا يَفْعَلُونَ)
तर्जुमा: बेशक वो लोग जिन्होंने अपने दीन को जुदा-जुदा कर लिया और कई गिरोह बन गए तू किसी चीज़ में भी इन से नहीं इन का मु'आमला तो अल्लाह ही के हवाले हैं फिर वो इन्हें बताएगा जो कुछ वो किया करते थे
(सूरा अल्-अन्आम:159)
पाँचवाँ:
तब्लीग़ी जमा'अत के अंदर दूसरी जमा'अतों के मुक़ाबले सब से ज़ियादा तब'इय्यत (पैरवी) पाई जाती हैं और दा'वत के मैदान में इन्हीं की अकसरिय्यत हैं मगर यह किताब-ओ-सुन्नत के मनहज से कोसों (मिलों) दूर हैं और यही इस की गुमराही की सबसे बड़ी दलील हैं इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(وَإِنْ تُطِعْ أَكْثَرَ مَنْ فِي الْأَرْضِ يُضِلُّوكَ عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ إِنْ يَتَّبِعُونَ إِلَّا الظَّنَّ وَإِنْ هُمْ إِلَّا يَخْرُصُونَ)
तर्जुमा: और दुनिया में ज़ियादा लोग ऐसे हैं कि अगर आप उन का कहना मानने लगे तो वो आप को अल्लाह की राह से बे-राह करदे वो महज़ बे-अस्ल ख़यालात पर चलते हैं और बिल्कुल क़ियासी बातें करते हैं
(सूरा अल्-अन्आम:116)
मजीद इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(وَقَلِيلٌ مِنْ عِبَادِيَ الشَّكُورُ)
तर्जुमा: और बहुत थोड़े मेरे बंदों में से पूरे शुक्र-गुज़ार हैं (सूरा सबा:13)
मजीद इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(وَإِنَّ كَثِيرًا مِنَ الْخُلَطَاءِ لَيَبْغِي بَعْضُهُمْ عَلَى بَعْضٍ إِلَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَقَلِيلٌ مَا هُم)
तर्जुमा: और बेशक बहुत से शरीक यक़ीनन उन का बा'ज़ बा'ज़ पर ज़्यादती करता हैं मगर वो लोग जो ईमान लाए और इन्होंने नेक-आ'माल किए और यह लोग बहुत ही कम हैं ( सूरा साद:24)
मजीद इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(وَمَا يُؤْمِنُ أَكْثَرُهُمْ بِاللَّهِ إِلَّا وَهُمْ مُشْرِكُونَ)
तर्जुमा: और इन में से अक्सर अल्लाह पर ईमान नहीं रखते मगर इस हाल में कि वो शरीक बनाने वाले होते हैं (सूरा यूसुफ़:106)
इस लिए 'अदद (तादाद) कोई दलील नहीं हैं क्यूँकि बड़े बड़े अंबिया क़यामत के दिन आएंगे और उनके पास एक या दो पैरोकार (अनुयायी) होगे किसी के पास कोई नहीं होगा ख़ुद उलुल-'अज़्म रसूल नूह अलैहिस्सलाम जिन्होंने साढ़े नौ-सौ बरस तबलीग़ की मगर उसके साथ भी थोड़े लोग हैं
छठा:
दा'वत ओ तबलीग़ में हरकत और सर-गर्मी (कोशिश) मनहज की सेहत के लिए दलील नहीं हैं अक्सर (कई बार) देखा जाता हैं कि गुमराह और अहल-ए-बातिल ही ज़ियादा सर-गर्म होते हैं नफ़्स-ए-अम्मारा ही इंसान पर अक्सर ग़ालिब होता हैं शैतान बातिल को मुज़य्यन (आरास्ता) करता हैं और हक़ को कमतर बना कर दिखाता हैं
इस की सबसे बड़ी दलील हदीष इफ़्तिराक़ (फूट डालना) हैं:
عَنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ عَمْرٍو، قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: " لَيَأْتِيَنَّ عَلَى أُمَّتِي مَا أَتَى عَلَى بَنِي إِسْرَائِيلَ، حَذْوَ النَّعْلِ بِالنَّعْلِ حَتَّى إِنْ كَانَ مِنْهُمْ مَنْ أَتَى أُمَّهُ عَلَانِيَةً لَكَانَ فِي أُمَّتِي مَنْ يَصْنَعُ ذَلِكَ، وَإِنَّ بَنِي إِسْرَائِيلَ تَفَرَّقَتْ عَلَى ثِنْتَيْنِ وَسَبْعِينَ مِلَّةً، وَتَفْتَرِقُ أُمَّتِي عَلَى ثَلَاثٍ وَسَبْعِينَ مِلَّةً كُلُّهُمْ فِي النَّارِ إِلَّا مِلَّةً وَاحِدَةً، قَالُوا: وَمَنْ هِيَ يَا رَسُولَ اللَّهِ؟ قَالَ: مَا أَنَا عَلَيْهِ وَأَصْحَابِي"
तर्जुमा: सय्यदना अब्दुल्लाह बिन 'अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: मेरी उम्मत के साथ हू-ब-हू (बिल्कुल) वहीं सूरत-ए-हाल पेश आएंगी जो बनी-इस्राईल के साथ पेश आ चुकी हैं (या'नी मुमासलत (समानता) में दोनों बराबर होगे) यहां तक कि उन में से किसी ने अगर अपनी मां के साथ ए'लानिया (खुले तौर पर) ज़िना किया होगा तो मेरी उम्मत में भी ऐसा शख़्स होगा जो इस फ़े'ल-ए-शनी' (बुरी हरकत) का मुर्तकिब होगा बनी-इस्राईल बहत्तर फ़िरक़ो में बट गए और मेरी उम्मत तिहत्तर फ़िरक़ो में बट जाएगी और एक फ़िरक़ा को छोड़कर बाक़ी सभी जहन्नम में जाएंगे सहाबा ने 'अर्ज़ किया अल्लाह के रसूल यह कौन सी जमा'अत होगी ? आप ने फ़रमाया यह वो लोग होंगे जो मेरे और मेरे सहाबा के नक़्श-ए-क़दम पर होंगे (सुनन तिर्मिज़ी:2641)
और यह फ़िरक़ा नाजिया वहीं ताइफ़ा मंसूरा हैं जिस का ज़िक्र इस हदीष के अंदर वारिद (आया) हुआ हैं:
عَنْ ثَوْبَانَ ، أَنّ رَسُولَ اللَّه صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ:" لَا يَزَالُ طَائِفَةٌ مِنْ أُمَّتِي عَلَى الْحَقِّ مَنْصُورِينَ لَا يَضُرُّهُمْ مَنْ خَالَفَهُمْ حَتَّى يَأْتِيَ أَمْرُ اللَّهِ عَزَّ وَجَلَّ".
तर्जुमा: सय्यदना सौबान रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: मेरी उम्मत में से एक गिरोह हमेशा नुसरत-ए-इलाही (अल्लाह की मदद) से बहरा-वर हो कर हक़ पर क़ायम रहेगा मुख़ालिफ़ीन की मुख़ालिफ़त (विरोध) इसे (अल्लाह के अम्र या'नी) क़यामत तक कोई नुक़्सान न पहुंचा सकेगी (सुनन इब्न ए माजा:10)
सातवाँ:
जहां तक यह कहना कि उनके हाथों लोग हिदायत पाते हैं तो इस में कोई शक नहीं हैं लेकिन ऐसी हिदायत का क्या फ़ाइदा जिस का मनहज और 'अक़ीदा फ़ासिद हो इरशाद ए बारी-त'आला हैं:
(وَلَقَدْ أُوحِيَ إِلَيْكَ وَإِلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكَ لَئِنْ أَشْرَكْتَ لَيَحْبَطَنَّ عَمَلُكَ وَلَتَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ)
तर्जुमा: यक़ीनन तेरी तरफ़ भी और तुझ से पहले (के तमाम नबियों) की तरफ़ भी वही की गई हैं कि अगर तू ने शिर्क किया तो बिला-शुब्हा (यक़ीनन) तेरा 'अमल ज़ाए' हो जाएगा और बिल-यक़ीन तू ज़ियाँ-कारो में से हो जाएगा
(सूरा अज़्-ज़ुमर:65)
मैंने उनके साथ रह कर मुशाहदा (अनुभव) किया हैं कि किस तरह 'अक़ीदे में इन के यहां तसाहुल (लापरवाई) पाया जाता हैं शिर्क ओ बिद'अत की कोई परवाह नहीं हैं जबकि अल्लाह फरमाता हैं:
(إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ وَمَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدِ افْتَرَى إِثْمًا عَظِيمًا)
तर्जुमा: बेशक अल्लाह इस बात को नहीं बख़्शेगा कि उस का शरीक बनाया जाए और वो बख़्श देगा जो इस के 'अलावा हैं जिसे चाहेगा और जो अल्लाह का शरीक बनाए तो यक़ीनन उस ने बहुत बड़ा गुनाह घड़ा (सूरा अन्-निसा:48)
आठवाँ:
जहां तक यह कहना कि बा'ज़ (कुछ) 'उलमा-ए-सऊदी ने इस जमा'अत की ताईद (हिमायत) की हैं तो मैं नहीं जानता कि कोई मा'रूफ़ (प्रसिद्ध) 'आलिम-ए-दीन इस जमा'अत में शामिल हो या इस के साथ दा'वत के लिए निकला हो और सब कुछ देखने के बाद इस का तज़्किया किया हो हां बा'ज़ 'उलमा के सामने इस जमा'अत की मदह-ओ-सताइश (ता'रीफ़) की गई तो इसी की रौशनी-में तज़्किया कर दिया हैं जबकि दूसरी तरफ़ देखते हैं कि बहुत सारे 'उलमा ने इस जमा'अत से तहज़ीर (डराना) किया हैं जैसे कि शैख़ अब्दुल रज़्ज़ाक़ अफीफी, सालेह अल हैदान, अब्दुल्लाह अल-गदियान, सालेह अल-फ़ौज़ान और दुसरे बहुत सारे 'उलमा इसी तरह बहुत सारे तालिब-ए-'इल्म जब उन का शिकार होगए उन के साथ रहकर इन की गुमराहियों को देख लिया तो फिर तौबा कर लिया
मैं ख़ुद उन की जाल में फँसा हुआ था उन का दिफ़ा' (बचाव) करता था
लेकिन जब उन के फ़साद 'अक़ीदा और मनहज से वाक़िफ़ हुआ तो उन का साथ छोड़ दिया,
ھدانا اللہ وایاکم، وفقکم اللہ، والسلام علیکم ورحمتہ اللہ وبرکاتہ۔
कत्बा (लेख)
(सा'द अल हुसैन)
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