लेखक: शैख़ किफ़ायतुल्लाह सनाबिली
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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'अस्र-ए-हाज़िर की ख़ास इस्तिलाह
" वतनियत " (देश प्रेम) और इस से मुंसलिक (शामिल) ग़ैर-ज़रूरी तक़ाज़ों से हट कर बात की जाए तो वतन से मोहब्बत कोई मा'यूब (ख़राब) चीज़ नहीं है न इस्लाम में और न ही किसी और मज़हब (धर्म) में बल्कि (किंतु)
अपने वतन और इलाक़े से मोहब्बत एक फ़ितरी (natural) चीज़ है
और हर इंसान का हक़ है
अल्लाह के नबी ﷺ पर जब पहली वह्य आई और आप ﷺ ने इस का तज़्किरतन "वरक़ा बिन नौफ़ल" से किया तो मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) रिवायात के मुताबिक़ (अनुसार) वरक़ा बिन नौफ़ल ने कई पेशीन-गोईयां की लेकिन जैसे ही वरक़ा ने यह कहा:
”ليتني أكون حيا إذ يخرجك قومك“
तर्जमा: काश मैं उस वक़्त ज़िंदा रहूं जब आप की क़ौम आप को यहां से निकाल देगी!
तो आप ﷺ ने कहा:
”أو مخرجي هم؟“
तर्जमा: क्या यह लोग मुझे यहां से निकाल देगी ?
(सहीह बुखारी हदीष नंबर:3)
इस की तशरीह (व्याख्या) में इमाम सुहैली रहिमहुल्लाह फ़रमाते हैं:
”يؤخذ منه شدة مفارقة الوطن على النفس فإنه ﷺ سمع قول ورقة أنهم يؤذونه ويكذبونه فلم يظهر منه انزعاج لذلك فلما ذكر له الإخراج تحركت نفسه لذلك لحب الوطن وإلفه فقال: أو مخرجي هم“
तर्जमा: इस से मा'लूम होता है कि वतन की मुफ़ारक़त (जुदाई) दिल पर बहुत गिराँ (कठिन) गुज़रती है क्यूंकि अल्लाह के नबी ﷺ ने यह सब कहते हुए सुना कि यह लोग आप को तकलीफ़ देंगे और झुटला देंगे लेकिन इन बातों पर आप को कोई घबराहट नहीं हुई लेकिन जैसे ही वरक़ा ने यह ज़िक्र किया कि यह लोग आप को यहां से निकाल देंगे इस पर आप ﷺ का दिल लरज़ उठा वतन की मोहब्बत और इस से उलफ़त (प्रेम) के बा'इस (कारण) और आप ﷺ ने बेसाख़्ता (तुरंत) कहा: क्या यह लोग मुझे यहां से निकाल देंगे ?
[فتح الباري لابن حجر، ط المعرفة: 12/ 359]
नीज़ (और) सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुमा की जो सब से बड़ी क़ुर्बानी शुमार की गई है वो हिजरत या'नी तर्क-ए-वतन (जला-वतन) की क़ुर्बानी है अहद-ए-फ़ारूक़ी में जब सहाबा ने अपने इस्लामी हिजरी-सन की बुनियाद डाली तो मशवरा हुआ कि इसे किस नाम से मौसूम (प्रसिद्ध) किया जाए यह बहुत अहम मसअला था क्यूंकि किसी चीज़ को सन के साथ जोड़ने का मतलब यह है कि इसे हर साल, हर-माहा, हर-दिन और हर-लम्हा के लिए यादगार बनाया जा रहा है अब ग़ौरतलब बात यह थी नबी ﷺ और सहाबा की पूरी ज़िंदगी में ऐसी कौन सी सब से अहम बात थी जिसे हमेशा के लिए यादगार बना दिया जाए बहुत सारी बातें कही गई लेकिन जिस चीज़ पर इत्तिफ़ाक़ हुआ वो यह कि वाक़ि'आ-ए-हिजरत से इस्लामी सन को मौसूम (प्रसिद्ध) किया जाए इमाम बुखारी रहिमहुल्लाह
(अल-मुतवफ़्फ़ा:256) ने कहा:
”حدثنا عبد الله بن مسلمة، حدثنا عبد العزيز، عن أبيه، عن سهل بن سعد، قال: ما عدوا من مبعث النبي ﷺ ولا من وفاته، ما عدوا إلا من مقدمه المدينة“
तर्जमा: सह्ल बिन साद साइदी रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि इस्लामी तारीख़ का शुमार न नबी-ए-करीम ﷺ की नुबुव्वत के साल से हुआ और न आप की वफ़ात के साल से बल्कि (किंतु) इस का शुमार मदीना की हिजरत के साल से हुआ,
(सहीह बुखारी:3934)
यह हिजरत का मुक़द्दस और 'अज़ीमुश्शान (बहुत बड़ा) 'अमल जिसे इस्लामी तारीख़ के साथ जुड़ने का शरफ़ (सम्मान) मिला यह तर्क-ए-वतन (जला-वतन) की क़ुर्बानी से 'इबारत था इस से ब-ख़ूबी (अच्छी तरह से) अंदाज़ा (अनुमान) लगाया जा सकता है कि वतन की मोहब्बत क्या चीज़ होती है और ईमान व 'अमल की चोटियों पर पहुंचने के बावुजूद भी वतन से जुदाई कितनी बड़ी क़ुर्बानी होती है,
यह बात भी पेश-ए-नज़र (सामने) रखिए कि इसी वतन में अहल-ए-वतन (वतन वालों) ने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुमा के साथ क्या सुलूक (व्यवहार) किया था कितनों की जायदाद (संपत्ति) पर क़ब्ज़ा कर लिया कितनों को दर्द-नाक सजाए दी और कितनों के अक़रिबा (रिश्तेदार) व अहल-ओ-'अयाल (बाल-बच्चों) को जान से मार डाला लेकिन अहल-ए-वतन की इन मज़ालिम (अत्याचार) के बावुजूद भी वो अपने वतन की मोहब्बत से दस्त-बरदार न हो सके
एक आज़ाद शख़्स को तो जानें दे मक्का में ग़ुलामी की ज़िंदगी बसर करने वाले बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु का हाल देखें जिन्हें इस्लाम लाने के सबब (कारण) अहल-ए-मक्का ने हौल-नाक सजाए भी दी सहीह बुखारी की रिवायत है अम्माँ 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु जब हिजरत कर के मदीना आ गए तो वो बुख़ार में मुब्तला हो गए और बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु के बुख़ार में जब कुछ तख़फ़ीफ़ (कमी) होती तो ज़ोर-ज़ोर से रोते और यह शे'र पढ़ते:
”ألا ليت شعري هل أبيتن ليلة ... بواد وحولي إذخر وجليل
وهل أردن يوما مياه مجنة ... وهل يبدون لي شامة وطفيل“
तर्जमा: काश मुझे यह मा'लूम हो जाता कि कभी मैं एक रात भी वादी-ए-मक्का में गुज़ार सकूंगा जब कि मेरे इर्द-गिर्द (आसपास) (ख़ुशबूदार घास)
अज़्ख़र और ज़लील (बेइज़्ज़त) होगी,
और क्या एक दिन भी मुझे ऐसा मिल सकेगा जब मैं मक़ाम-ए-मजिन्ना के पानी पर जाऊंगा और क्या शामा और तुफ़ैल की पहाड़ियों को एक नज़र देख सकूंगा,
अम्माँ 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने बयान किया कि फिर मैं आप ﷺ की ख़िदमत मैं हाज़िर हुईं और आप को इत्तिला' (ख़बर) दी तो आप ﷺ ने दु'आ की:
”اللهم حبب إلينا المدينة كحبنا مكة، أو أشد وصححها وبارك لنا في صاعها ومدها، وانقل حماها فاجعلها بالجحفة“
तर्जमा: ऐ अल्लाह! मदीना की मोहब्बत हमारे दिल में इतनी पैदा कर दे जितनी मक्का की थी बल्कि इस से भी ज़ियादा यहां की आब-ओ-हवा (मौसम) को सेहत-बख़्श (तंदुरुस्ती देने वाला) बना हमारे लिए यहां के सा' और मुद
(अनाज नापने के पैमाने) में बरकत 'इनायत (मेहरबानी) फ़रमा और यहां के बुख़ार को मक़ाम ए जुहफ़ा में भेज दे,
(सहीह बुखारी:3926)
मुलाहज़ा फ़रमाए कि अहल-ए-वतन की ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती (अत्याचार) भी इस की मोहब्बत पर असर-अंदाज़ नहीं हो सकती और हर शख़्स का दिल अपने वतन की मोहब्बत से सरशार (भरा हुआ) होता है यह एक फ़ितरी (क़ुदरती) बात है,
इमाम इब्ने बताल (अल-मुतवफ़्फ़ा:449) फ़रमाते हैं:
”وقد جبل الله النفوس على حب الأوطان والحنين إليها، وفعل ذلك عليه السلام، وفيه أكرم الأسوة“
तर्जमा: अल्लाह-त'आला ने लोगों को वतन से मोहब्बत और उस के साथ इश्तियाक़ (चाहत) पर पैदा किया है और आप ﷺ ने भी वतन से मोहब्बत की इस में बेहतरीन उस्वा (नमूना) है,
[شرح صحيح البخارى لابن بطال 4/ 453]
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