हम अपने आप को अहल-ए-हदीस क्यूं कहते हैं जब अल्लाह ने हमारा नाम मुसलमान रखा है ?
क़ारिईन-ए-किराम ! अहल-ए-हदीस से नफ़रत करने वाले हज़रात (लोग) आए-दिन (हमेशा) कोई-न-कोई (एक ना एक) प्रोपेगंडा करते ही रहते हैं जिनमें से एक क़दीम (पुराना) और जदीद (नया) प्रोपेगंडा यह है कि जब अल्लाह रब-उल-'इज़्ज़त ने तुम्हारा नाम " मुस्लिमीन " या'नी मुसलमान रखा है तो तुम अपने आप को अहल-ए-हदीस क्यूं कहते हो ?
जैसा कि क़ुरआन-ए-मजीद में है:
" هُوَ سَمَّىٰكُمُ ٱلۡمُسۡلِمِینَ مِن قَبۡلُ ". (الحج : 78)
तर्जमा: उस ने इस से पहले तुम्हारा नाम मुसलमान रखा।
(सूरा अल्-ह़ज्ज:78)
इस प्रोपेगंडा का जवाब जानने से पहले हम यह वाज़ेह (स्पष्ट) कर देना चाहते हैं कि इस तरह के सतही (दिखावटी) इश्कालात (ए'तिराज़) हम भी कर सकते हैं कि अगर आप अपने आप को मुसलमान समझते हैं तो फिर मज़कूरा आयत पर 'अमल करते हुए अपने आप को सिर्फ़ " मुसलमान " क्यूं नहीं कहते ?
चूँकि इस तरह की सतही (दिखावटी) शुब्हात (शंकाएं) और इश्कालात हमारे मनहज और ता'लीम के यकसर (बिल्कुल) ख़िलाफ़ हैं लिहाज़ा (इसलिए) हम क़ुरआनी ता'लीम की रौशनी-में (सामने रख के) " लक़ब (उपनाम) अहल-ए-हदीस का वजह-ए-तस्मिया (नाम रखने का कारण) " जानने की कोशिश करते हैं।
क़ारिईन-ए-किराम ! अहल-ए-हदीस दो कलमों से मुरक्कब (मिला हुआ) है।
(1) अह्ल: जिस का मा'नी (मतलब) है साहिब और वाला।
(2) हदीष: जिस का मा'नी (मतलब) गुफ़्तुगू और बात-चीत के हैं जबकि इस्तिलाह (बोल-चाल) में रसूल-ए-अकरम ﷺ के क़ौल-ओ-फ़े'ल (तौर-तरीक़ा) और तक़रीर (बात-चीत) को हदीष कहा जाता है।
नीज़ (और) क़ुरआन को भी हदीष कहा गया है जैसा कि अल्लाह रब्ब-उल-'इज़्ज़त का फ़रमान है:
" فَبِاَىِّ حَدِيۡثٍۢ بَعۡدَهٗ يُؤۡمِنُوۡنَ ". ( المرسلات : 50)
तर्जमा: फिर इस हदीष (क़ुरआन) के बाद और कौन सी हदीष पर यह ईमान लाएंगे ?
(सूरा अल्-मुर्सलात:50)
क़ारिईन-ए-किराम !
अहल-ए-हदीस दो वुजूहात (कारण) की बिना (बुनियाद) पर अपने आप को अहल-ए-हदीस कहते हैं।
(1) सिर्फ़ (केवल) क़ुर'आन-ओ-हदीष पर 'अमल करने की वजह (कारण) से अपने आप को अहल-ए-हदीस कहते हैं क्यूंकि हदीष का लफ़्ज़ (शब्द) क़ुर'आन-ओ-हदीष दोनों को शामिल है जैसा कि यहूदिय्यत-व-नसरानिय्यत के पैरोकारों (अनुयायियों) को क़ुर'आन-ए-मजीद में कई मक़ामात (बहुत से स्थान) पर " यहूद और नसारा " कहा गया है
लेकिन चूँकि (इसलिए कि) यह दोनों अहल-ए-किताब थे यहूद को तौरात मिली थी जबकि (हालाँकि) नसारा को इंजील (bible)
लिहाज़ा (इसलिए) इंजील पर 'अमल (पालन) करने की वजह (कारण) से क़ुरआन-ए-करीम ने एक मक़ाम (स्थान) पर उन्हें
" أهل الإنجيل "
कह कर मुख़ातिब किया है इरशाद-ए-बारी-त'आला है:
وَلۡيَحۡكُمۡ اَهۡلُ الۡاِنۡجِيۡلِ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰهُ فِيۡهِؕ وَمَنۡ لَّمۡ يَحۡكُمۡ بِمَاۤ اَنۡزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰٓئِكَ هُمُ الۡفٰسِقُوۡنَ ". ( المائدة : 47)
तर्जमा: और अहल-ए-इंजील को चाहिए कि जो कुछ अल्लाह ने उसमें अहकाम (आदेश) नाज़िल फ़रमाएं हैं उन्हीं के मुताबिक़ (अनुसार) फ़ैसला करे और जो अल्लाह के नाज़िल कर्दा अहकाम के मुताबिक़ फ़ैसला न करे तो ऐसे ही लोग नाफ़रमान हैं।
(सूरा अल्-माइदा:47)
अब सवाल यह पैदा होता है कि नसारा ('ईसाईयों) को " اھل انجیل " क्यूं कहा गया ?
तो जवाब सिर्फ़ (केवल) यही होगा कि इंजील (बाइबल) उन की किताब थी जिस तरह क़ुरआन हमारी किताब है
लिहाज़ा (इसलिए) जिस तरह इंजील पर 'अमल (पालन) करने की वजह से (कारण से) नसारा ('ईसाईयों) को " अहल-ए-इंजील " कहा गया उसी तरह क़ुरआन-ओ-हदीष पर 'अमल करने की वजह से हम भी अपने आप को अहल-ए-हदीस कहते हैं।
(2) अपनी पहचान और शनाख़्त (निशानी) क़ाएम करने के लिए अपने आप को अहल-ए-हदीस कहते हैं।
आप यहां भी ए'तिराज़ (आलोचना) कर सकते हैं कि क्या सिर्फ़ मुसलमान कहना शनाख़्त (परिचय) और पहचान के लिए काफ़ी (बस) नहीं है ?
जवाब 'अर्ज़ (गुज़ारिश) करूंगा कि:
क्या इब्राहीम अलैहिस्सलाम मुसलमान नहीं थे ?
अगर थे तो फिर उन्हें " नबी और रसूल " क्यूं कहा गया ?
सहाबा किराम मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे और ज़रूर थे तो फिर उन्हें सिर्फ़ (केवल) मुसलमान न कह कर " सहाबा " क्यूं कहा गया ?
'अश्रा-ए-मुबश्शरा मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे तो उन को " 'अश्रा-ए-मुबश्शरा " क्यूं कहा गया ?
उम्महात-उल-मोमिनीन मुसलमान थी या नहीं ?
अगर थी तो फिर उन्हें " उम्महात-उल-मोमिनीन " क्यूं कहा गया ?
मक्का हिजरत करने वाले सहाबा मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे तो उन्हें " मुहाजिरीन " क्यूं कहा गया ?
अंसारी सहाबा मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे तो फिर उन्हें " अंसारी " क्यूं कहा गया ?
ताबि'ईन-व-तबा'-ताबि'इन मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे तो उन्हें " ताबि'ईन-व-तबा'-ताबि'इन " क्यूं कहा गया ?
चारों इमाम और दीगर (अन्य) मुहद्दिसीन-व-फ़ुक़हा मुसलमान थे या नहीं ?
अगर थे तो फिर उन्हें " इमाम, मुहद्दिसीन और फ़ुक़हा " क्यूं कहा गया ?
इन सब का जवाब सिर्फ़ यही होगा कि उन की पहचान और शनाख़्त (परख) क़ाएम करने के लिए
सू (और) जब आज के इस दौर (समय) में जबकि हर शख़्स हत्ता कि क़ब्र पूजने वाला और ग़ैरुल्लाह को मुश्किल-कुशा (मदद करने वाला) और हाजत-रवा समझने वाले भी अपने आप को मुसलमान कहते है तो उनसे तफ़रीक़ (जुदाई) के लिए अपने आप को अहल-ए-हदीस कहना न सिर्फ़ (केवल) जाइज़ है बल्कि (किंतु) क़ुरआनी ता'लीम (शिक्षा) के 'ऐन मुताबिक़ (अनुसार) है।
नीज़ (और) आख़िरी बात यह कि हमारा नाम अल्लाह ने सिर्फ़ (केवल) " मुस्लिमीन " ही नहीं रखा है बल्कि (किंतु) " मुस्लिमीन " के साथ-साथ मोमिनीन और 'इबादुल्लाह भी रखा है
जैसा कि रसूल-ए-अकरम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
" فَادْعُوا بِدَعْوَى اللَّهِ الَّذِي سَمَّاكُمُ الْمُسْلِمِينَ الْمُؤْمِنِينَ، عِبَادَ اللَّهِ ". ( سنن الترمذي | أَبْوَابُ الْأَمْثَالِ عَنْ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ | بَابٌ : مَثَلُ الصَّلَاةِ وَالصِّيَامِ وَالصَّدَقَةِ : 2863 ،صحيح الترمذي للألباني : 2863)
तर्जमा: पस पुकारों अल्लाह की पुकार के साथ जिस ने तुम्हारे नाम मुस्लिमीन, मोमिनीन और 'इबादुल्लाह रखे हैं।
(सहीह तिर्मिज़ी:2863)
जबकि मुसनद अहमद के अलफ़ाज़ में है:
" فَادْعُوا الْمُسْلِمِينَ بِأَسْمَائِهِمْ بِمَا سَمَّاهُمُ اللَّهُ عَزَّ وَجَلَّ الْمُسْلِمِينَ الْمُؤْمِنِينَ عِبَادَ اللَّهِ عَزَّ وَجَلَّ ". ( مسند احمد : 17170)
तर्जमा: मुसलमानों को उनके नामों मुस्लिमीन, मोमिनीन और 'इबादुल्लाह से पुकारों जो कि अल्लाह ने रखे हैं।
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