बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम PART 5

            بسم اللہ الرحمن الرحيم
Part-5
इस्लाम धर्म अपनाएं या ईसाई मत ?
फिर भी हम इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि कुछ लोग ईसाई धर्म अपनाने की भी सलाह देते हैं तो वे अपनी मूल समस्याओं को भूल जाते हैं अतः हमें अपनी मूल समस्याओं को फिर से याद कर लेना चाहिए क्योंकि अच्छा विचारक वही होता है जो अपनी मूल समस्याओं से न हटे, उसका पूरा ध्यान रखे। यदि रोग को तय कर लिया जाता है तो रोगी का ईलाज करने में अधिक कठिनाई नहीं होती है।
समस्याएं तो हमारे सामने बहुत-सी हैं, आर्थिक भी है, शिक्षा संबंधी भी हैं, लेकिन यह समस्याएं तो अन्य लोगों की भी हैं, सवर्णों की भी हैं। रोटी तो तभी मिलेगी जब हम काम करेंगे। शिक्षा की समस्याएं तो तभी हल होंगी जब हम अपने बच्चों को पढ़ाने की ठान लेंगे वर्ना तो शिक्षा की समस्त सुविधाएं होते हुए भी आज भी चेतना शून्य लोग अपने बच्चों को जूते पॉलिश करने के लिए भेज देते हैं ताकि शाम को दस रूपये कमा कर ले आए। कहने का मतलब यह है कि हमें पहले अपनी मूल समस्या की तरफ़ ध्यान देना चाहिए।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों गांव में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं, जिन्हें बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी आए दिन मारा-काटा और अपमानित किया जाता है। यह तरह-तरह के ज़ुल्म और अत्याचार और रोज़ाना की बेइज़्ज़ती कैसे रुके और बराबरी के साथ कैसे जीवन व्यतीत करें यह मूल समस्या है।
यद्यपि समस्या को सही रूप में लेना बहुत महत्वपूर्ण बात है, लेकिन कुछ निहित स्वार्थी लोग जिनमें कुछ हमारे अज्ञानी भाई भी शामिल हो सकते हैं, हमें हमारी मूल समस्या और हल की तरफ़ से हटाकर दूसरी ओर ले जाना चाहते हैं जहां हम व्यर्थ भटकते ही रहें और अपनी मंज़िल तक न पहंच पाएं।
हमें अपनी मूल समस्या का निदान ढूंढते हुए यह देखना चाहिए कि हम पर तरह-तरह के अत्याचार लाखों गांव में रोजाना कहीं न कहीं होते ही रहते हैं, इसलिए हमें उन्हीं लाखों गांव में रहने वाले मददगार चाहिएं। और हमें धन-दौलत की मदद देने वाला नहीं, बल्कि बेक़सूर होते हुए भी हमें निर्दयतापूर्वक क़त्ल करने वाले उन अत्याचारियों के हाथ रोकने वाला मददगार और मार्शल चाहिए, ताकि पहले अत्याचारी से हमारी जान बच सके।
ईसाई भारत देश के बहुत थोड़े से गांव में हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि वे हमारी रक्षा कर सकें। लेकिन मुसलमान इस देश के सत्तर फ़ीसदी गांव में हैं और वे ख़ुद में मार्शल हैं। वे अपनी क़ौम पर, धर्म बंधुओं पर अत्याचार होते हुए सहन नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि हम इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेते हैं तो निश्चय ही हमारी मूल समस्या हल हो जाएगी।

बाबा साहब इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे
बाबा साहब तो इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे तभी तो बाबा साहब ने कहा था कि "इस्लाम धर्म अपनाने से ही हमको वह सबकुछ मिल सकता है जो हमें चाहिए।" बाबा साहब कहते हैं "तीन धर्म हैं जिनमें से दलित वर्ग (एक को) चुन सकता है (1) इस्लाम धर्म (2) ईसाई धर्म (3) सिख धर्म। इन तीनों की तुलना करने पर इस्लाम धर्म दलित वर्ग का उद्देश्य पूरा करने वाला बताया और उसकी कलमतोड़ प्रशंसा की।"
पतित पावन दास महाराष्ट्र के दलित वर्ग में पैदा हुआ एक संत था जो की डॉ. अम्बेडकर का विश्वसनीय अनुयायी था। वह महाराष्ट्र मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन का अध्यक्ष था। अर्थात बाबा साहब के बहुत ही क़रीब था। अपने भाषणो में से एक भाषण में पतित पावन दास ने कहा "इस्लाम धर्म संपूर्ण (पूरा) एवं सार्वभौमिक धर्म है जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात उनको समान समझता है)। यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दु धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और यही कारण था कि गांधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। यह तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है।" (From page 144-145 of Thus Spoke Ambedkar Vol-IV by Bhagwan Das)
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के समकालीन दलितों के परम हितैषी डॉ. अम्बेडकर के मित्र और समर्थक महान विचारक पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर ने कहा कि-
"मित्रों! शूद्रपन की बीमारी हमारी बहुत भयंकर बीमारी है। यह कैंसर के समान है। बहुत पुराना मर्ज़ है। इसके लिए केवल एक ही औषधि है और वह है ‘इस्लाम'। इसके अलावा कोई औषधि नहीं है। यदि हमने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो हमको कष्ट सहना पड़ेगा। अपनी बीमारी को भूलने के लिए या बीमारी को दबाने के लिए नींद की गोलियां लेते रहना पड़ेगा और दुर्गंधयुक्त मुर्दों के रूप जीवन जीना पड़ेगा। इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने के लिए खड़े हो जाओ और उत्तम मानव की तरह चलो, केवल इस्लाम ही एक मार्ग है।" (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-13)
वहीं पर अन्तिम पैरे में ई. वी. रामास्वामी जी ने कहा है कि "मैं इस्लाम की वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं इस (इस्लाम) का प्रचार नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच्चाई है। मेरा मुसलसमानों से आपकी तुलना में कोई असाधारण प्रेम, मित्रता या विश्वास नहीं है। मैं आपके सामने क्या प्रस्तुत करना चाहता हूं वह है कि ब्राह्मणवाद के ज़हरीले सांप को मारने के लिए या इसकी भयंकर जकड़ से छुटकारा पाने के लिए केवल ‘इस्लाम' ही एक औषधि है। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-16)
इस्लाम की अन्य धर्मों से तुलना करते हुए ई. वी. रामास्वामी ने कहा है कि "इस देश में ईसाईयों में भी अछूत ईसाई हैं। उनमें से कुछ को बस कुछ शिक्षा दे दी गई है और वे अध्यापक के रूप में नियुक्त कर दिए गए हैं। ईसाई उनके साथ उस तरह का व्यवहार नहीं करते जैसा (अच्छा) कि मुसलमान करते हैं। इसलिए आर्य (हिन्दु) लोग ईसाईयों और सिखों से एक प्रकार की दोस्ती महसूस करते हैं। बौद्ध और जैन भी इस्लाम धर्म का विरोध करते हैं इस प्रकार यह आर्य लोग इस्लाम धर्म को अलग-थलग करने के लिए एक-दूसरे के साथ हैं। (इनकी) इस्लाम से घृणा स्वार्थ-वश, अपने बड़प्पन और जाति के आधार पर लाभ उठाने के कारण है। शूद्र लोग जो आख़िरकार ब्राह्मणों के ग़ुलाम हैं इस्लाम और मुसलमानों को दोषी सिद्ध करने में ब्राह्मणों का साथ देते हैं। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
रामास्वामी ने कहा है कि "इस्लाम् की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। एक ईश्वर और मानव समानता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हुई थी।" सारे अंधविश्वास, और मूर्तिपूजा को ख़त्म करने के लिए और युक्ति संगत, बुद्धिपूर्ण जीवन (Rational) जीने के लिए नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
दलित वर्ग में बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के विरोधी नेता मिस्टर जी. ए. गवई (M. L. C) ने एक वक्तव्य (Statement) जारी करके कहा था कि डॉ. अम्बेडकर ने इस्लाम धर्म ग्रहण करना तय कर लिया है। (From page no. 116 ‘Thus Spoke Ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
हिन्दु महासभा और अन्य प्रमुख हिन्दु नेताओं का भी यही कहना था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने जा रहा है । जिससे उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अतः यह सारे नेता बाबा साहब के पास गए और उन पर यही दबाव डाला कि वे इस्लाम धर्म न अपनाएं। जिसमें वे सफल हुए। (From page no. 145 ‘Thus Spoke ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
साथियों ! किसी भी मुद्दे पर किसी भी विद्वान के जो कि जीवित न हो विचार जानने का एक ही तरीक़ा है। और वह यह है कि उस विद्वान का स्वयं का कोई लेख या कथन मिल जाए तो यह सबसे उत्तम तथ्य या साक्ष्य माना जाएगा। उस विद्वान के उन विचारों को और अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए यह देखना होगा कि उस विद्वान के साथ रहने वाले उसके नज़दीकी और उसके पक्के किसी समर्थक ने भी उसी के सामने क्या ऐसे ही विचार उस मुद्दे पर रखे थे। और यदि उनके समकालीन उनके विरोधी भी उसी बात की पुष्टि करते हों तो फिर किसी भी प्रकार का संदेह बाक़ी नहीं रह सकता है। और उन्हें हम पूर्ण रूप से प्रामाणिक मान लेते हैं।
जब हम इसे सर्वमान्य सिद्धांत की दृष्टि से देखते हैं तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे।
आपने देखा कि प्रथम तो बाबा साहब ने स्वयं इस्लाम स्वीकार करने की वकालत की है दूसरे उनके परम सहयोगी सन्त पतित पावन दास ने उन्हीं के जीवन काल में इस्लाम धर्म ग्रहण करने की वकालत की थी। तीसरे उनके समय के दलित वर्ग में ही उनके विरोधी श्री जी. ए. गवई और एम. सी. राजा ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म गर्हण करने जा रहा है। इसके अलावा सवर्ण हिन्दुओं के नेताओं ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने जा रहा है। अतः इसके बाद कोई शक की गुंजाइश बाक़ी नहीं रह जाती है कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे। लेकिन ऐसा क्यों न कर सके इसको आगे स्पष्ट किया जाएगा।
इस्लाम मध्यम मार्ग है
आप इस बात से सहमत होंगे कि धर्म बेहतर जीवन जीने की कला (साधन) मात्र है। इसके संसार में हमें तीन रूप मिलते हैं। घोर ईश्वरवादी और घोर अनिश्वरवादी तथा बुद्धि परक ईश्वरवादी। घोर ईश्वरवादी इंसान को कोई अहमियत ही नहीं देते। घोर अनिश्वरवादी केवल मनुष्य को ही सब कुछ मानते हैं। यह दोनों रास्ते अतिवादी रास्ते हैं। हमने भी इन्हीं में से एक बौद्ध धर्म को चुना था। लेकिन एक तीसरा मध्यम मार्ग इस्लाम धर्म का है जो अल्लाह में भी विश्वास करता है लेकिन यह इंसान को भी अहमियत देता है। वह कहता है कि सारे संसार की तरह ही इंसान को भी अल्लाह ने ही बनाया है, लेकिन इंसान को अल्लाह ने स्वतंत्र छोड़ दिया कि वह जो भी भला-बुरा कर्म करना चाहे कर सकता है, और इस प्रकार अपने कर्मों के लिए ख़ुद इंसान ही ज़िम्मेदार है अल्लाह नहीं। अल्लाह नहीं कहता है कि कमज़ोरों पर अत्याचार करो, उनका शोषण करो, बल्कि उनसे तो ऐसे मज़लूमों के साथ हमदर्दी करने का आदेश दिया है। हमने ईश्वर को इस लिए मानना छोड़ा था कि हिन्दु धर्म में कहा गया है कि इंसान जो भी कर्म करता है ईश्वर के ही आदेश से करता है। अतः जो अत्याचार ग़रीबों के साथ हो रहे हैं वे ईश्वर के आदेश से ही हो रहे हैं। और इस प्रकार अत्याचार करने वाले का कोई दोष नहीं होता है। यह ईश्वरवादी दर्शन हमें पसंद नहीं था।
इसके अलावा हमारी समस्या दर्शन की नहीं है। जो हमारे लोगों को गांव में धूं-लट्ठ मारता है वह कोई दर्शन-फ़र्शन नहीं जानता है उसे तो यह पता है कि यह नीच हैं इन्हें मारना मेरा अधिकार है।

मुसलमानों द्वारा दलितों की सहायता
दूसरी तरफ़ आम मुसलमानों ने मानवीय आधार पर अछूतों की सदा ही कुछ-न-कुछ मदद की है। जब धर्म परिवर्तन करने की कोई भी बात न थी तब भी मुसलमानों ने अछूतों की मदद की। महाद तालाब के आंदोलनों में जब हिन्दुओं ने अछूतों को बेरहमी से मारा तब अछूतों ने मुसलमानों के ही घरों में शरण ली थी। जब महाद तालाब का जल पीने के लिए दोबारा आंदोलन करने के लिए पंडाल के लिए किसी भी हिन्दु ने जगह- नहीं दी थी तब मुसलमानों ने ही जगह दी थी। (पृष्ठ 74-75 जीवन संघर्ष)
बाबा साहब ने सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना की तो इसके निर्माण के लिए बंबई के मुसलमान सेठ हुसैन जी भाई लाल जी ने 50 हज़ार रूपया चंदा दिया और सर काउसजी जहांगीर ने भी सहयोग प्रदान किया किन्तु सखेद कहना पड़ता है कि श्री गोविंद मालवीय जी ने इसकी कटु आलोचना की। (पृष्ठ 125 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
"दूसरी गोल मेज़ कांफ़्रेंस में हिंदुस्तान के नेताओं में काफ़ी ले-दे हुई। अछूतों की मांग को कुचलने के लिए गांधी जी ने गुप्त संधि करने की कोशिश की और जिन्नाह साहब से गांधी जी ने कहा- ‘मैं तुम्हारी सब शर्तें मानने को तैयार हूं यदि तुम मेंरे साथ मिलकर अछूतों की मांग का विरोध करो।' परन्तु जिन्नाह साहब ने इस बात को स्वाकार नहीं किया और कहा ‘हम स्वयं अल्पसंख्यक होने के कारण जब विशेषाधिकार चाहते हैं' तो फिर हम दूसरे अल्पसंख्यकों की मांग का विरोध कैसे कर सकते हैं।" (पृष्ठ 13, पूना पैक्ट बनाम गांधी, लेखल शंकरानंद शास्त्री)
"हिन्दुओं ने बाबा साहब को विधान परिषद में न आने देने के लिए पूरे प्रबंध कर लिए थे। कहा जाता था कि हमने डॉ. अम्बेडकर के लिए विधान परिषद में आने के लिए तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं, तब बाबा साहब ने यूरोपियन वोट प्राप्त कर विधान परिषद में आना चाहा तो गांधी जी ने यह अड़ंगा लगाया कि बंगाल असेंबली के यूरोपियन सदस्यों को अपने वोट देने का अधिकार नहीं है। तब बाबा साहब योगेन्द्र नाथ मंडल और मुस्लिम लीग की सहायता से अछूतों के प्रतिनिधि निर्वाचित हो कर विधान परिषद में आ सके थे।" (पृष्ठ 141 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि हिन्दुओं ने दलित वर्ग के राजनेताओ को कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। जब जगजीवन राम का प्रधानमंत्री बनने का पूरा हक़ था उन्हें नहीं बनाया गया और इस तरह से अपमानित किया। दूसरी तरफ़ देखिए, गुजरात का हसन नाम का एक अछूत ग़ुलाम था। जो कि दिल्ली का सुलतान बना और सुलतान ख़ुसरो शाह के नाम से जाना गया। जिसे सभी मुस्लिम बादशाहों ने बादशाह के रूप में स्वीकार किया और किसी ने भी एतराज़ नहीं किया।

बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम part 4

بسم اللہ الرحمن الرحيم
       Part-4
कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबा साहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्धहस्त डॉ. नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाएं ? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं- कहा जाता है कि जिन डॉक्टरों ने पेंसिलीन नामक औषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा कि थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है, क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है। प्रत्येक डॉक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक भी आती है या नहीं। यदि उसको माफ़िक नहीं आती है तो डॉक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है। और यह भी सच है कि अब तो पेंसिलीनों से भी उत्तम दवाइयों की खोज हो चुकी है।
बौद्ध धर्मरूपी औषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही है। बौद्ध धर्म द्वारा 20 प्रतिशत और 80 प्रतिशत में बंट कर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डॉक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ आया और वह डॉक्टर उसकी प्रतीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इंजेक्शन उस मरीज़ को रिएक्शन करता है अर्थात माफ़िक नहीं आता है जिससे की मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डॉक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डॉक्टर साहब इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे। अतः पेंसिलीन ही लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि यह बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात अपने बड़े डॉक्टर की बात पर अड़े हुए हॆं। या उल्टे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा ?
यही हाल हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिस औषधि को बाबा साहब डॉ. अम्बेडक हमें देकर केवल 1 माह 22 दिन के बाद ही परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक नहीं आ रही है, क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्रदान करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अर्थात जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की ज़िद या आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरुक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरु किया है और उसे अपनाना शुरु किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर सकते हैं और कह सकते हैं कि नहीं, वही बाबा साहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म को अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इसके बौद्ध धर्म अपनाने से इसका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है इस बात को बाबा साहब के अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबा साहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबा साहब द्वारा निर्धारित घर्मान्तरण का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसी के लिए हमें धर्म-परिवर्तन करना है।
अब बाबा साहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी औषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करे और इस बौद्ध धर्म रूपी औषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे की हम अपने धर्मांतरण के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें। यहां यह बताना ज़रूरी है कि बाबा साहब इस्लाम धर्म को ही परमौषधि मान कर चल रहे थे लेकिन हालात की तरह मजबूरन उनको बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा। इस तथ्य का ख़ुलासा आगे किया जाएगा।
बाबा साहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल कायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात बौद्ध धर्म ही दिया जाएगा, फ़ायदा हो या न हो। इसलिए एक समय पर उन्होंने कहा है कि- ‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आप को गोली मार कर आत्महत्या कर लूंगा' यह थी उनकी भीषण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबा साहब होते तो निश्चित ही बौद्ध धर्म छोड़ इस्लाम धर्म को ही अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबा साहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हमको ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर इस्लाम धर्म को अपनाना होगा।
स्वयं बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी ही बहुत-सी मान्यताओं को बदला था।
इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1)सांप्रदायिक समझौते (कम्यूनल एवार्ड) द्वारा मिले दो वोटों के अधिकार को जिसे बाबा साहब बहुत ही आवश्यक मानते थे स्वयं एक वोट में बदलना स्वीकार कर लिया था।

(2)बाबा साहब गांधी जी के कट्टर विरोधी तथा उनको अछूतों का दुश्मन मानते थे। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि बाबा साहब ने गांधी जी की दिल खोलकर बड़ाई भी की है। उन्हीं के शब्दों में "मैं समझता हूं कि इस सारे प्रकरण (पूना पैक्ट को करने के लिए) में इस हल का बहुत-सा श्रेय स्वयं महात्मा गांधी को है। मैं महात्मा गांधी का कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुझको एक बड़ी नाज़ुक परिस्थिति में से निकाल लिया। मुझे एक ही अफ़सोस है, महात्मा जी ने गोल मेज़ कांफ़्रेंस के समय भी यही रुख़ क्यों नहीं अपनाया। यदि उन्होंने मेरे दृष्टिकोण के साथ ऐसा ही उदारतापूर्ण व्यवहार किया होता तो इस संकट में से उन्हें न गुज़रना पड़ता। जो हो, यह सब बीती हुई बातें हैं। मुझे हर्ष है कि आज मैं यहां इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए उपस्थित हूं। मुझे विश्वास है कि जो अन्य मित्र उपस्थित नहीं हैं, मैं उनकी ओर से भी बोल रहा हूं कि हम उस समझौते का पालन करेंगे, इस विषय में किसी के मन में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिए। मैं आशा करता हूं कि हिन्दुगण इस समझौते को एक पवित्र समझौता समझेंगे और इसका पालन करते समय अपनी इज़्ज़त को बट्टा नहीं लगने देंगे।" (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, प्रथम भाग 1978 के संस्करण के पृष्ठ 33 से, संपादक भगवान दास एडवोकेट)

(3)बाबा साहब का विचार पहले हिन्दु धर्म में ही रहने का था- यदि हिन्दु दलित वर्ग को समानता का दर्जा दे देता। उन्हीं के शब्दों में ‘यदि मंदिर प्रवेश अछूतों की उन्नति का पहला क़दम है तो वे इसका समर्थन इसलिए करेंगे क्योंकि वे ऐसा ही धर्म चाहते हैं जिसमें उन्हें सामाजिक समानता प्राप्त हो। अछूत लोग अब ऐसे धर्म को बर्दाश्त नहीं करें जिनमें जन्मना सामाजिक विषमता और भेदभाव सुरक्षित हो।' (पृष्ठ संख्या 122 ‘बाबा साहब का जीवन संघर्ष' लेखक-जिज्ञासु) जिसे उन्होंने बाद में बदल दिया और धर्मांतरण की घोषणा कर दी। पूना पैक्ट के समय भाषण करते हुए उन्होंने कहा था कि- ‘आप इसे राजनैतिक समझौते से आगे बढ़कर वह ऐसा कर सकें जिससे दलित वर्ग के लिए न केवल हिन्दु समाज का एक हिस्सा बना रहना संभव हो जाए बल्कि उसे समाज में सम्मान और समानता का दर्जा प्राप्त हो जाए।‘ (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 35)

(4)बाबा साहब कांग्रेस के प्रायः विरुद्ध ही रहे, लेकिन उसके पक्के समर्थक बन कर भी सामने आए। उन्हीं के शब्दों में- ‘तुम्हें कांग्रेस के प्रति अपने रुख़ को एक दम बदल लेना चाहिए। अभी तक कांग्रोस के प्रति हमारा दृष्टिकोण एक विरोधी का दृष्टिकोण रहा है। राजनीतिक क्षेत्र में हम परस्पर शत्रु रहे हैं। अभी तक हमारा दृष्टिकोण कुछ संकुचित रहा है। हमें केवल अपने जातिगत स्वार्थों की ही चिंता रही है। अब हमने जब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, हमें अपने दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन कर डालना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 66)

‘मुझसे लोग पूछते हैं कि पिछले पच्चीस वर्ष तक कांग्रेस के विरुद्ध लड़ते रहने के बावजूद मैने उस ख़ास अवसर पर मौन क्यों धारण कर लिया। हमेशा लड़ते ही रहना सर्वश्रेष्ठ युद्धकौशल नहीं है, हमें दूसरे ढंगों से भी काम लेना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 68)
इस तरह हम दखते हैं कि बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी मान्यताओं को बदला। इस बात के समर्थन में पूर्व वर्जित कुछ उदाहरण बहुत ख़ास मामलों में संबंधित हैं जिनसे कि दलित वर्ग के जीवन-मरन का प्रश्न जुड़ा था। इसके अलावा जहां बाबा साहब ने दलितों के हितार्थ अपनी मान्यताओं को बदला, वहीं उनकी कुछ मान्यताएं पूरी भी नहीं उतरी। जैसे कि उन्होंने कहा था-
‘जिस समाज में 10 बैरिस्टर, 20 डॉक्टर तथा 30 इंजीनियर हों ऐसे समाज को मैं धनवान समाज समझता हूं, यद्यपि उस समाज का हर एक व्यक्ति शिक्षित नहीं उदाहरण के लिए चमार। आज इस समाज को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अगर इसी समाज में कुछ वकील, डॉक्टर तथा पढ़ा-लिखे लोग हों तो कोई भी इस समाज की ओर आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं करेगा, यद्यपि उसमें हर व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं है।'
लेकिन इसमें बाबा साहब का तनिक भी कोई दोष नहीं। यदि आप अपने पुत्र से बहुत-सी उम्मीद रखते हैं और आपका पुत्र उन्हें पूरी नहीं करता है तो क्या आप दोषी हैं ? नहीं, बल्कि आपका पुत्र दायित्वहीनता को दोषी है। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब की मान्यताओँ के ग़लत सिद्ध होने में बाबा साहब का कोई दोष नहीं है बल्कि उनके अनुयायियों की कोताही है कि जिन्होंने अपना वह दायित्व नहीं निभाया, जो उन्हें निभाना चाहिए था।धर्म मनुष्य के लिए है
बाबा साहब ने कहा-
"मैं आप लोगों से यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है। संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई चीज़ नहीं है। धर्म एक साधन मात्र है, जिसे बदल दिया जा सकता है, फेंक दिया जा सकता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 59 से)
हम यह देख चुके हैं कि बौद्ध धर्म जिस उद्देश्य के लिए अपनाया गया था उनमें वह बिल्कुल असफल रहा है। अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि अब कौन-सा धर्म अपनाया जाए। जिसके लिए हमें वही करना चाहिए जो बाबा साहब करना चाहते थे लेकिन मजबूरी की वजह से नहीं कर पाएं। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म की बहुत बड़ाई की है और कहा है कि ‘इंसान की इंसानियत यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। यह (इंसानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है। और यह इंसानियत सबको आदरणीय होनी चाहिए।' किसी को भी किसा का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही किसी को असमान मानना चाहिए, यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं। इसके अलावा यह सच्चाई है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे।