MUSALMANO KO AEKZUTH HONA CHAHYE


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प्रश्नः क्या कारण है कि मुसलमान विभिन्न समुदायों और विचाधाराओं में विभाजित हैं?
उत्तरः मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए।
यह सत्य है कि आज के मुसलमान आपस में ही बंटे हुए हैं। दुख की बात यह है कि इस प्रकार के अलगाव की इस्लाम में कोई अनुमति नहीं है। इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि उसके अनुयायियों में परस्पर एकता को बरक़रार रखा जाए।
‘‘सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूत पकड़ लो और अलगाव में न पड़ो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 3ः103)
वह कौन सी रस्सी है जिसकी ओर इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला ने इशारा किया है। पवित्र क़ुरआन ही वह रस्सी है, यही अल्लाह की वह रस्सी है जिसे समस्त मुसलमानों को मज़बूती से थामे रहना चाहि। इस पवित्र आयत में दोहरा आग्रह है, एक ओर यह आदेश दिया गया है कि अल्लाह की रस्सी को ‘‘मज़बूती से थामे रखें’’ तो दूसरी ओर यह आदेश भी है कि अलगाव में न पड़ो (एकजुट रहो)।
पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, आज्ञापालन करो अल्लाह का, और आज्ञापालन करो रसूल (सल्लॉ) का, और उन लोगों का जो तुम में साहिब-ए-अम्र (अधिकारिक) हों फिर तुम्हारे बीच किसी मामले में विवाद हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम वास्तव में अल्लाह और अंतिम दिन (किष्यामत) पर ईमान रखते हो। यही एक सीधा तरीकष है और परिणाम की दृष्टि से भी उत्तम है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4ः59)
सभी मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों का ही अनुकरण करना चाहिए और आपस में फूट नहीं डालनी चाहिए।
इस्लाम में समुदायों और अलगाव की मनाही है
पवित्र क़ुरआन का आदेश हैः
‘‘जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही तुम्हारा उनसे कोई वास्ता नहीं, उनका मामला तो अल्लाह के सुपुर्द है और वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 6ः159)
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर
(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे
ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे? नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
पवित्र क़ुरआन की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पवित्र सूरह की 67वीं आयत में पवित्र क़ुरआन बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’
कहने का आदेश देता है
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (पवित्र क़ुरआन , 41ः33)
ज्ञातव्य है कि यहाँ पवित्र क़ुरआन कह रहा है कि ‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’ दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64वीं आयत भी लिखवाते थेः
‘‘हे नबी! कहो, हे किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’
इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रहॉ), इमाम हम्बल (रहॉ) और ईमाम मालिक (रहॉ), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।
कुछ लोग फ़िरकषें (समुदायों) के तर्क में हुजूर (सल्ल.) की एक हदीस पेश करते हैं जो सुनन अबू दाऊद में (हदीस नॉ 4879) बयान की गई है जिसमें आप (सल्लॉ) का यह कथन बताया गया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी।’’
इस हदीस से स्पष्ट होता है कि रसूल अल्लाह (सल्लॉ) ने मुसलमानों में 73 फ़िरकष्े बनने की भाविष्यवाणी फ़रमाई थी। लेकिन आप (सल्लॉ) ने यह कदापि नहीं फ़रमाया कि मुसलमानों को फ़िरकषें में बंट जाने में संलग्न हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन हमें यह आदेश देता है कि हम फ़िरकषें में विभाजित न हों। वे लोग जो पवित्र क़ुरआन और सच्ची हदीसों की शिक्षा में विश्वास रखते हों और फ़िरकष्े और गुट न बनाएं वही सीधे रास्ते पर हैं।
तिर्मिज़ी शरीफ़ की 171वीं हदीस के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी, और वे सब जहन्नम की आग में जलेंगे, सिवाए एक फिरके के...।’’
सहाबा किराम (रज़ि.) ने इस पर रसूल अल्लाह (सल्लॉ) से प्रश्न किया कि वह कौन सा समूह होगा (जो जन्नत में जाएगा) तो आप (सल्लॉ) ने जवाब दिय ‘‘केवल वह जो मेरे और मेरे सहाबा का अनुकरण करेगा।’’
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में अल्लाह और अल्लाह के रसूल के आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है। अतः एक सच्चे मुसलमान को पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ का ही अनुकरण करना चाहिए। वह किसी भी आलिम (धार्मिक विद्वान) के दृष्टिकोण से सहमत भी हो सकता है जब कि उसका दृष्टिकोण पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ के अनुसार हो। यदि उस आलिम के विचार पवित्र क़ुरआन और हदीस के विपरीत हों तो उनका कोई अर्थ और महत्व नहीं, चाहे उन विचारों का प्रस्तुतकर्ता कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो।
यदि तमाम मुसलमान पवित्र क़ुरआन का अध्ययन पूरी तरह समझकर ही कर लें और मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसों का अनुकरण करें तो अल्लाह ने चाहा तो सभी परस्पर विरोधाभास समाप्त हो जाएंगे और एक बार फिर मुस्लिम समाज एक संयुक्त संगठित उम्मत बन जाएगा।

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