🔹बेटियों की शादी में की जाने वाली 'उमूमी ('आम) गलती🔹

🔹बेटियों की शादी में की जाने वाली 'उमूमी ('आम) गलती🔹

बद-क़िस्मती से जब से माद्दा-परस्ती (अधर्मी) की दौड़ शुरू' हुई हैं कितने ही दीन-दार घराने ऐसे हैं जो अपनी बेटियों को किताब-ओ-सुन्नत की ता'लीम दिलाते हैं पाकीज़ा और साफ़-सुथरे माहोल में इन की तर्बियत करते हैं लेकिन निकाह के वक़्त दुनिया की चमक-दमक से मर'ऊब (डरा हुआ) हो कर बेटी के अच्छे मुस्तक़बिल की तमन्ना (आशा) में बे-दीन या बिद'अती या मुशरिक घरानों में अपनी बेटियां ब्याह देते हैं और यह तसव्वुर (ख़याल) कर लेते हैं कि बेटी नए घर में जाकर अपना माहोल ख़ुद बना लेगी बा'ज़ (चंद) बा-हिम्मत (हिम्मत वाली) सलीक़ा-शि'आर (तमीज़दार) और ख़ुश-क़िस्मत (भाग्यवान) ख़वातीन की इस्तिसनाई मिसालों से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन 'उमूमी ('आम) हक़ाइक़ (सच्चाई) यही बतलाती हैं कि ऐसी ख़वातीन को बाद में बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है ख़ुद वालिदैन (मां बाप) भी ज़िंदगी-भर 
हाथ मलते रहते हैं हमें इस हक़ीक़त को फ़रामोश नहीं करना चाहिए कि अल्लाह-त'आला ने औरत के मिज़ाज (तबीअत) में दूसरों को ढालने की ब-जाए ख़ुद ढलने की सिफ़त (तासीर) ग़ालिब रखी है
यही वजह है कि अहल-ए-किताब की औरतें लेने की इजाज़त है देने की नहीं कम-अज़-कम (बहुत कम) दीन-दार घरानों में कुफ़ू दीन का उसूल (नियम) किसी क़ीमत पर नज़र-अंदाज़ नहीं करना चाहिए !

(निकाह के मसाइल: शैख़ मुहम्मद इक़बाल कीलानी पेज नंबर:67)

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