बिद'आत-ए-मुहर्रम बरेलवी मकतब-ए-फ़िक्र की नज़र-में🔹

🔹बिद'आत-ए-मुहर्रम बरेलवी मकतब-ए-फ़िक्र की नज़र-में🔹

लेखक: शैख़ मोहम्मद मुनीर क़मर
(साल-ए-नौ का आग़ाज़ व पैग़ामात और तज़्किरा चंद बिद'आत का पेज नंबर:48/53)

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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माह-ए-मुहर्रम में अपनाई जाने वाली बिद'आत, ता'ज़िया-दारी (ता'ज़िया बनाना) मर्सिया-ख़्वानी (मर्सिया-पढ़ना) और काला लिबास (काले कपड़े) पहनना वग़ैरा के बारे में बा'ज़ (कुछ) शी'आ हज़रात (लोग) अपने अख़बारात व रसाइल (समाचार-पत्र) और मजालिस (सभाओं) के ज़रिए किताब-ओ-सुन्नत से ना-वाक़िफ़ (अनजान) लोगों को यह बावर (विश्वास) करवाने की कोशिश करते हैं कि उन की मुख़ालिफ़त (विरोध) करना सिर्फ़ वहाबी 'उलमा का काम है वर्ना (नहीं तो) 'उलमा-ए-अहल-ए-सुन्नत के नज़दीक तो यह काम सहीह व दुरुस्त बल्कि कार-ए-सवाब (नेकी का काम) हैं यह महज़ (केवल) उन की मुग़ालता-दिही (धोखा देना) है और हक़ीक़त इस के बिल्कुल बर-'अक्स (विरुद्ध) है लिहाज़ा (इसलिए) हम यहां सुन्नी 'उलमा और उन में से भी बिल-ख़ुसूस (ख़ास तौर पर) बरेलवी मकतब-ए-फ़िक्र के बानी और सरख़ैल (लीडर) 'आलिम शाह अहमद रज़ा खान फ़ाज़िल बरेलवी की तसरीह (वज़ाहत) ज़िक्र किए देते हैं ताकि उन का मुग़ालता (धोखा) और अस्ल हक़ीक़त ज़ाहिर (स्पष्ट) हो जाए।

ता'ज़िया:
मौसूफ़ (जनाब) अपने फ़तावा मौसूमा 'इरफ़ान-ए-शरी'अत हिस्सा अव्वल पेज नंबर:15 पर फ़रमाते हैं:
ता'ज़िया आता देख कर ए'राज़ व रु-गर्दानी (मुंह फेरले) करें उस की तरफ़ देखना ही न चाहिए और पेज 16 पर लिखते हैं:
[मसअला]: 
मुहर्रम शरीफ़ में मर्सिया-ख़्वानी में शिरकत (शामिल होना) जाइज़ है या नहीं ?

[जवाब]: 
नाजाएज़ है वो मनाही व मुनकरात (हराम और नाजाएज़ बातों) से पुर (भरपूर) होते हैं और अपने फ़तावा मौसूमा अहकाम-ए-शरी'अत हिस्सा अव्वल पेज नंबर:89 पर लिखते हैं:
" मुहर्रम में सियाह व सब्ज़ (काले और नीले) कपड़े 'अलामत-ए-सोग है और सोग (मातम) हराम है "

[मसअला]: 
क्या फ़रमाते हैं मसाइल-ए-ज़ैल (नीचे के मसाइल) में:
(1) बा'ज़ (कुछ) अहल-ए-सुन्नत व जमा'आत मुहर्रम के अश्रा (दस दिनों) में न तो रोटी पकाते हैं, न तो झाड़ू देते हैं, कहते हैं:
बा'द-ए-दफ़्न रोटी पकाई जाएगी,
(2) इस दिन में कपड़े नहीं उतारते,
(3) माह-ए-मुहर्रम में कोई शादी-बियाह नहीं करता,

[जवाब]: 
तीनों बातें सोग (मातम) हैं और सोग हराम है,
फ़ाज़िल बरेलवी अपने रिसाला (पत्रिका) " ता'ज़िया-दारी " के पेज नंबर 4 पर लिखते हैं:
ग़रज़ (मतलब) अश्रा मुहर्रम-उल-हराम अगली (पहले की) शरी'अतो से इस शरी'अत-ए-पाक तक निहायत (बहुत) बा-बरकत महल ए 'इबादत (बंदगी का समय) ठहरा हुआ था इन बेहूदा (बेकार) रुसूम (रिवाज) ने जाहिलाना और फ़ासिक़ाना मेलों का ज़माना कर दिया यह कुछ और इस के साथ वो कुछ कि गोया (जैसे) ख़ुद-साख़्ता (मन-घड़त) तस्वीरें बे-ऐनिही (बिल्कुल) हज़रात शुहदा रिज़वानुल्लाह 'अलैहिम के जनाज़े है कुछ उतारा बाकी तोड़ा और दफ़्न कर दिए यह हर साल इज़ा'अत ए माल (माल की बर्बादी) के जुर्म (गुनाह) में दो वबाल जुदा-गाना है अब ता'ज़िया-दारी इस तरीक़ा ना-मर्ज़िय्या (ना-पसंदीदा) का नाम है क़त'अन (बिल्कुल) बिद'अत है और नाजाएज़ व हराम है इस रिसाला (पत्रिका) के पेज नंबर 15, पर हस्ब-ज़ेल (निम्नलिखित) सवाल व जवाब मज़कूर (उल्लेखित) है:

सवाल:
ता'ज़िया बनाना और उस पर नज़्र-ओ-नियाज़ करना, 'अराइज़ ब उम्मीद हाजत-बरारी लटकाना और और बनियते बिद'अत-ए-हसना इस को दाख़िल-ए-हसनात जानना कैसा गुनाह है ?

जवाब:
अफ़'आल-ए-मज़कूरा जिस तरह 'अवाम ए ज़माना (इस समय लोगों) में राइज (जारी) हैं बिद'अत-ए-सय्यिआ (बुरा रिवाज) व मम्नू' व नाजाएज़ हैं,
और पेज 11 पर लिखते हैं:
" ता'ज़िया पर चढ़ाया हुआ खाना न खाना चाहिए अगर नियाज़ दे कर चढ़ाएं या चढ़ा कर नियाज़ दें तो भी उसके खाने से एहतिराज़ (नफ़रत) करें,
शादी-बियाह:
बा'ज़ (कुछ) अहल-ए-सुन्नत और ख़ुसूसन (ख़ास-कर) बरेलवी हज़रात माह-ए-मुहर्रम में शादी-बियाह नहीं करते ऐसे लोगों के लिए फ़ाज़िल बरेलवी का फ़तवा पेश-ए-ख़िदमत है चुनांचे (जैसा कि) " मल्फ़ूज़ाते आला हज़रत " 
हिस्सा अव्वल पेज नंबर 46 पर यूँ लिखा है:
'अर्ज़: क्या मुहर्रम व सफ़र में निकाह करना मना' है ?
इरशाद: निकाह किसी महीने में मना' नहीं यह ग़लत मशहूर है,

शिरकत: 
शी'आ तो शी'आ आजकल तो सुन्नी भी ता'ज़िया बनाते, कलावे पहनते, शहादत-नामा पढ़ पढ़ कर रोते और रुलाते हैं और शी'ओं की मजालिस में शरीक (शामिल) होते, उनकी शिरीनी (हलवा) खाते और मातमी जुलूस में शिरकत करते हैं ऐसे लोगों के लिए फ़ाज़िल बरेलवी के रिसाला (पत्रिका)
"اعالی الافادة في تعزية الهند وبيان الشهادة‘"
के बा'ज मक़ामात ताज़ियाना 'इबरत हैं चुनांचे लिखते हैं:
सवाल: 
मजलिस-ए-मर्सिया-ख़्वानी अहल-ए-शी'आ में अहल-ए-सुन्नत व जमा'अत को शरीक होना जाइज़ है या नहीं ?
जवाब:
हराम है हदीष में है: रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

[مَنْ كَثَّرَ سَوَادَ قَوْمٍ فَهُوَ مِنْهُمْ ] 
" जो शख़्स किसी क़ौम की ता'दाद बढ़ाने का सबब (कारण) बना वो उन्हीं में से है "
( كشف الخفاء ومزيل الالباس ۳۶۰/۲ حدیث : ۲۵۸۸، المقاصد الحسنة ١٢٧/٢ -)
वो बद-ज़बान (गुस्ताख़) नापाक लोग तबर्रा (गाली-गलोच) बक जाते हैं इस तरह कि जाहिल सुनने वालों को ख़बर भी नहीं होती और मुतवातिर (लगातार) सुना गया है कि सुन्नियों को शर्बत देते हैं उस में नजासत (गंदगी) मिलाते हैं और कुछ न हो तो अपने यहां क़ुल्लतैन (गंदा) का पानी मिलाते हैं और कुछ न हो तो वो रिवायते मौज़ू'अ व कलिमात ए शनी'आ (बुरे अलफ़ाज़) और मातम ए हराम से खाली नहीं होती और यह देखेंगे, सुनेंगे, और मना' न कर सकेंगे ऐसी जगह जाना हराम है,
अल्लाह-त'आला फ़रमाता है:

 (فَلَا تَقْعُدُ بَعْدَ الذُّكرى مَعَ الْقَوْمِ الظَّالِمِينَ ) (الأنعام:68)
तर्जमा: तो याद करने के बाद ऐसे ज़ालिम लोगों के पास मत बैठ,
(सूरा अल्-अन्आम:68)
वल्लाहु-आ'लम,
ता'ज़िया-दारी (ता'ज़िया-बनाने) के बारे में उन से एक इस्तिफ़ता (सवाल) और उस का जवाब मुलाहज़ा (ग़ौर) फ़रमाए:
सवाल:
क्या फ़रमाते हैं 'उलमा-ए-दीन इस मसअला में कि ता'ज़िया-दारी का क्या हुक्म है ?
जवाब: अश्रा मुहर्रम-उल-हराम अगली शरी'अतों से इस शरी'अत-ए-पाक तक निहायत (बहुत) बा-बरकत महल ए 'इबादत (बंदगी का समय) ठहरा हुआ था इन बेहूदा (बे-कार) रुसूम (रिवाज) ने जाहिलाना व फ़ासिक़ाना मेलों का ज़माना कर दिया फिर वबाल ए इब्तिदा' (ईजाद) का वो जोश हुआ कि ख़ैरात को भी ब-तौर-ए-ख़ैरात न रखा जाए रिया व तफ़ाख़ुर (दिखावा और अभिमान) 'अलानिया (सब के सामने) होता है फिर वो भी यह नहीं कि सीधी तरह (चुप-चाप) मोहताजों को दें बल्कि छतों पर बैठ कर फेंकेंगे रोटियां ज़मीन पर गिर रही हैं रिज़्क़ इलाही की बे-अदबी होती है पैसे रेत में गिरते हैं माल की इज़ा'अत (बर्बादी) हो रही है मगर नाम हो गया कि फ़ुलाँ साहब का लंगर लुटा रहे हैं अब बहार ए अश्रा के फूल खिले ताशे बाजे बजते चले तरह तरह के खेलों की धूम बाज़ारी-'औरतों का हर तरफ़ हुजूम (भीड़) शहवानी मेलों की पूरी रुसूम (रिवाज) जश्न.... वग़ैरा अब की ता'ज़िया-दारी इस तरीक़ा ना-मर्ज़िय्या (ना-पसंदीदा) का नाम है क़त'अन (बिल्कुल) बिद'अत व नाजाएज़ व हराम है,
(بدر الانوار فى آداب الآثار ص:۴۰۳
मौलाना अहमद रजा खां)
" कुतुब-ए-शहादत जो आज कल राइज (आम) हैं अक्सर (अधिकतर)
मौज़ू' व रिवायत ए बातिला पर मुशतमला (शामिल) हैं यूँही मर्सिया ऐसी चीज़ का पढ़ना सुनना हराम है हदीष में है:

 (نَهَى رَسُولُ اللَّهِ ﷺ عَنِ الْمَرَانِي)
" रसूलुल्लाह ﷺ ने मर्सियों (मातम) से मना' फ़रमाया है " 

(रावी अबू दाऊद व अल-हाकिम, अब्दुल्लाह बिन अबू औफ़ा, अ'आली अल-इफ़ादा (फ़ायदा) मौसूफ़ की ज़िक्र कर्दा यह रिवायत अबू दाऊद में नहीं बल्कि इब्ने माजा: हदीष नंबर:1592 में है और ज़'ईफ़ है, ज़'ईफ़ अल-जामे':6067
ज़'ईफ़ इब्ने माजा:348, अबू 'अदनान)

रिश्तेदारी:
रवाफ़िज़ (शी'आ) के साथ रिश्तेदारी करने के बारे में एक इस्तिफ़्सार (सवाल) और उस पर फ़ाज़िल बरेलवी का जवाब 
" मल्फ़ूज़ात-ए-आ'ला हज़रत " हिस्सा तीन पेज नंबर,111 पर यूँ मज़कूर (उल्लेखित) है:
'अर्ज़:
 रवाफ़िज़ (शी'आ) में शादी करना कैसा है ? आजकल 'अजीब क़िस्सा है कोई रवाफ़िज़ (शी'आ) किसी का मामू है, और किसी का साला, कोई कुछ और कोई कुछ ?
इरशाद:
नाजाएज़, है ईमान दिलों से हट गया है अल्लाह और रसूलुल्लाह ﷺ की मोहब्बत दिलों से जाती रही है,
रब्ब-उल-'इज़्ज़त इरशाद फ़रमाता है:
( وَإِمَّا يُنسِيَنَّكَ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَلَا تَقۡعُدۡ بَعۡدَ ٱلذِّكۡرَىٰ مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ )
तर्जमा: तुझे अगर शैतान भुला दे तो याद आने पर ज़ालिमों के साथ मत बैठ, 
(सूरा अल्-अन्आम:68)
हुज़ूर ﷺ फ़रमाते हैं:
[اِيَّاكُمْ وَإِيَّاهُمُ لَا يُضِلُّونَكُمْ وَلَا
 يَفْتِنُونَكُمْ]
" उन से दूर भागो और उन्हें अपने से दूर करो कहीं वो तुम्हें गुमराह न कर दें कहीं तुम्हें फ़ित्ने में न डाल दें "

ख़ास राफ़िज़ीयों के बारे में एक हदीष है:

 [يَأْتِي قَوْمٌ لَهُم نُبَل يُقَالُ لَهُمُ الرّافِضَةُ لَا يَشْهَدُونَ جُمُعَةٌ ولَا جَمَاعَةٌ، وَيَطْعَنُونَ عَلَى السَّلَفِ فَلَا تُجَالِسُوهُمْ وَلَا تُوا كِلُوهُمْ وَلَا تُنَاكِحُوهُمْ وَإِذَا مَرِضُوا فَلَا تَعُودُوهُمْ وَإِذَا مَاتُوا فَلَا تَشْهَدُوهُمْ ]
तर्जमा: एक क़ौम आने वाली है उन का एक बद लक़ब होगा उन्हें राफ़िज़ी कहा जाएगा न जुम'आ में आएंगे न जमा'अत में और सलफ़ (पूर्वजों) को बुरा कहेंगे तुम उनके पास न बैठना न उनके साथ खाना पीना न शादी-बियाह करना बीमार पड़े तो पूछने न जाना मर जाएं तो जनाज़े पर न जाना,
थोड़ा आगे चल कर लिखते हैं:
आज कल के रवाफ़िज़ तो 'उमूमन (अक्सर) ज़रूरियात ए दीन के मुनकर और क़त'अन (बिल्कुल) मुर्तद हैं उनके मर्द या औरत का किसी (सुन्नी मर्द या औरत) से निकाह हो सकता ही नहीं,

(मल्फ़ूज़ात ए आ'ला हज़रत 3/111, ब-हवाला ता'लीमात ए शाह अहमद रज़ा खां बरेलवी, अज़ मौलाना मोहम्मद हनीफ़ यज़्दानी पेज नंबर: 50,54)

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