लेखक: नदीम अख़्तर सलफ़ी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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🔹इस सवाल का जवाब बहुत आसान है कि मस्जिद क्यूं बनाईं जाती है शु'ऊर व एहसास रखने वाला एक बच्चा भी इस का जवाब यही देगा कि मस्जिद अल्लाह की 'इबादत के लिए बनाई जाती है जहां एक इमाम के पीछे नमाज़ें क़ाएम की जाती है क़ुरआन सीखा और सिखाया जाता है जहां मिम्बरो से दिलों का तज़्किया (सफ़ाई) किया जाता है जहां से इत्तिहाद-ए-मुस्लिम का पैग़ाम पहुंचाया जाता है जहां भाईचारगी और एहतिराम-ए-मुस्लिम की ता'लीम दी जाती है जहां जा-कर अमीरी और ग़रीबी का इम्तियाज़ (भेद-भाव) ख़त्म हो जाता है जहां हाकिम व महकूम (राजा और प्रजा) सब एक ही सफ़ में खड़े हो कर रब के सामने अपनी 'आजिज़ी (मजबूरी) और ग़ुलामी का इज़हार करते हैं
जहां जाने वाला अपने आप को महफ़ूज़ (सुरक्षित) समझता है यक़ीनन (अवश्य) यह दुनिया की सबसे बेहतर जगह है जहां ईमान व यक़ीन और मोहब्बत व हमदर्दी की फ़ज़ा (रौनक़) क़ाएम रहतीं हैं।
🔹यह और इन के 'अलावा (सिवा) बेहतर मक़ासिद (इरादे) के लिए लोग अपना सरमाया (धन-दौलत) लगाकर मस्जिद बनवाते हैं इमाम व मुअज़्ज़िन की त'यीन होती है लेकिन यही मस्जिद अगर चंद ख़सीस (कमीने) लोगों की वजह से मस्जिद-ए-ज़िरार बन जाए
फ़ित्नों की आमाज-गाह (स्थान) बन जाए नुक्ता-चीनियों का अड्डा बन जाए मुसल्लियान ख़तीब, इमाम और मुअज़्ज़िन को अपना गुलाम समझने लगे जुहला (जाहिल) ही इमामों को नमाज़ और अज़ान का तरीक़ा सिखाने लगे इमाम और मुअज़्ज़िन की टाँग खींचीं चाने लगे तो बताया जाए कि इस में मस्जिद का क़ुसूर है या उन ख़सीस (कमीने) लोगों की शर-पसंदी (झगड़ालूपन) है जो 'इबादत और तज़्किया-ए-नफ़्स के लिए नहीं इमामों और 'आलिमो पर ए'तिराज़ (आलोचना) सीखने और सिखाने के लिए मस्जिद आते हैं ऐसे लोगों के साथ हमारे समाज और ख़ास तौर पर नौजवान तबक़ा का क्या रवैया होना चाहिए ?
या तो यह सियाह-दिल (गुनाहगार) नमाज़ी अपनी हरकतों से बाज आए या कोई और मस्जिद तलाश करें जो शख़्स यह मस्जिद बनाता है जब उसकी यह जागीर नहीं तो समाज के दूसरे लोगों की जागीर क्यूं कर हो सकती है ?
ऐसे जुहला (जाहिल) पहले 'उलमा के पास बैठ कर 'इल्म सीखें आदाब-ए-कलाम और एहतिराम ए मस्जिद सीखें फिर अपनी ज़बान खोलें दीन, मस्जिद, इमाम और मुअज़्ज़िन के ख़ैर-ख़्वाह है तो ख़ैर-ख़्वाहो वाला तरीक़ा इख़्तियार करे वर्ना (नहीं तो) ख़ामोशी से नमाज़ पढ़े और अपने घर की राह (रास्ता) ले यह मस्जिद किसी के दिमाग़ी फ़ुतूर (बेहूदा शरारत) की तजरिबा-गाह (तजुर्बा गाह) नहीं कि इंसान जब चाहे यहां तज्रिबा (प्रयोग) करता रहे कोई अपने एहसान का धौंस (रोब) मस्जिद,इमाम और मुअज़्ज़िन पर न दिखाएं देखा गया है कि ऐसे ही लोग 'उमूमन (अक्सर) इमाम और मुअज़्ज़िन का बोझ उठाने से भागते हैं अगर ज़ेहन (मन) में कोई बेहतर मशवरा है तो ज़रूर दे लेकिन अपनी दसीसा-कारियों (साज़िश) और प्रोपेगैंडो से मस्जिद और इस के मुत'अल्लिक़ीन (घरवालों) को महफ़ूज़ (सुरक्षित) रखें वर्ना कल क़यामत के दिन पता चला कि उनकी नमाज़ों का सारा सवाब इमाम और मुअज़्ज़िन की तरफ़ चला गया क्यूंकि दुनिया में इन के ख़िलाफ़ चालें चली गई उन्हें फ़ित्नों में डालने की कोशिश की गई।
🔹कोई समाज में चाहे जिस मक़ाम पर हो उसे मस्जिद में फ़ित्ने फैलाने की इजाज़त बिल्कुल नहीं दी जा सकती 'उलमा और इमाम व मुअज़्ज़िन के ख़िलाफ़ गुरूप-बंदी की इजाज़त बिल्कुल नहीं दी जा सकती यह लोग या तो अपनी हरकतों से बाज़ आए अगर पड़ोस में है तो बेहतर पड़ोसी का किरदार निभाएं या कहीं-और जाकर अपनी नमाज़ें पढ़ें मस्जिद को अपनी बुरी हरकतों से दूर रखें यह ख़ुद उन के हक़ में बेहतर होगा मुसलमान है तो मोहब्बत की दुकानें खोलें नफ़रतो से दूर रहे अपनी पढ़ी गई नमाज़ों की क़ुबूलियत के लिए दुआ करे मस्जिद आकर सुन्नत पढ़ें क़ुरआन की तिलावत करें वा'ज़-ओ-नसीहत (भलाई की बातें) सुनें इस्लाही कामों में अपना हिस्सा पेश करे चौक चौराहों पर बैठ कर ख़्वाह-मख़ाह (बे-वजह) 'उलमा और मस्जिद के इमाम व मुअज़्ज़िन के ख़िलाफ़ नफ़रत के बीज न बोए।
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