अरफ़ा का रोज़ा कब रखा जाए

🌹'अरफ़ा का रोज़ा कब रखा जाए ?🌹

'अरफ़ा के रोज़ा की तहदीद में 'उलमा के दरमियान बड़ा इख़्तिलाफ़ (मतभेद) पाया जाता है बा'ज़ (कुछ) 'उलमा का कहना है कि पूरी दुनिया के लोग मक्का के हिसाब से 'अरफ़ा का रोज़ा रखेंगे जबकि बा'ज़ 'उलमा का कहना है कि सब अपनी अपनी रूयत के हिसाब से रोज़ा रखेंगे। 

मोहतरम क़ारिईन अगर आप नबी ए करीम ﷺ के क़ौल-ओ-'अमल और उम्मत के त'आमुल पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करेंगे तो आप पर हक़ीक़त रोज़-ए-रोशन की तरह 'अयाँ (ज़ाहिर) हो जाएगी इंशा-अल्लाह सबसे पहली बात यह कि दीन ए इस्लाम में बा'ज़ (कुछ) रोज़ा का त'अल्लुक़ चांद देखने से है यानी चांद देखकर रोज़ा रखा जाए जैसे माह-ए-रमज़ान का रोज़ा मुहर्रम-उल-हराम की नौवीं और दसवीं तारीख का रोज़ा और अय्याम-ए-बीज़ का रोज़ा
और बा'ज़ रोज़ा का त'अल्लुक़ चांद देखने से नहीं है बल्कि इस की तख़सीस (खुसूसियत) बा'ज़ अय्याम से की गई है जैसे सोमवार और जुमेरात का रोज़ा अब हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि यौम-ए-'अरफ़ा के रोज़ा को नबी ए करीम ﷺ ने चांद के साथ ख़ास किया है या फिर किसी दिन के साथ अगर चांद के साथ ख़ास है तो फिर सब लोग अपनी अपनी रूयत के हिसाब से रोज़ा रखेंगे जैसे माह ए रमजान और अय्याम-ए-बीज़ का रोज़ा रखा जाता है और अगर किसी दिन के साथ ख़ास है तो पूरी दुनिया के लोग इस दिन रोज़ा रखे गे जेसे सोमवार जुमेरात का रोज़ा रखा जाता है
अगर 'अरफ़ा के रोज़ा को हम दिन के साथ ख़ास करते हैं तो इस का मतलब यह है कि 'अरफ़ा का दिन तारीख के बदलने से नहीं बदलेगा बल्कि वो अपनी जगह क़ाइम-ओ-दाइम रहेगा जैसे सोमवार और जुमेरात का दिन होता है लेकिन 'अरफ़ा के रोज़ा को दिन के साथ मख़्सूस (विशेष) करना सहीह नहीं क्यूंकि 'अरफ़ा का दिन हफ़्ते के दिनों की तरह साबित नहीं रहता बल्कि चांद के हिसाब से बदलता रहता है चुनांचे (जैसा कि) कभी 'अरफ़ा जुम'आ को होता है तो कभी सनीचर (शनिवार) को और कभी हफ़्ते के दीगर अय्याम (दिनों)
मैं
लिहाज़ा सहीह बात यही है कि 'अरफ़ा का दिन तारीख से मुर्तबत है और इस दिन का रोज़ा चांद के हिसाब से ही रखा जाएगा
दुसरी बात ये है कि नबी ए करीम ﷺ ने अपना हज्ज ज़िन्दगी के आख़िरीं साल में किया है इस के बाद नबी ए करीम ﷺ इस दुनिया में नहीं रहे और जो हाजी हो उसके लिए मुसतहब यह है कि वो'अरफ़ा का रोज़ा ना रखें क्योंकि नबी ए करीम ﷺ ने भी हालत ए हज्ज में अरफ़ा का रोज़ा नहीं रखा था इस का मतलब यह है कि आप ﷺ हज्ज से क़ब्ल (पहले) मदीना में 'अरफ़ा का रोज़ा रखा करते थे
इस की दलील यह है कि जिस साल नबी ए करीम ﷺ ने हज्ज किया उस साल 'अरफ़ा के दिन बा'ज़ सहाबा के मा-बैन (बीच में) इख़्तिलाफ़ (मतभेद) हो गया कि नबी ए करीम ﷺ ने 'अरफ़ा का रोज़ा रखा है या नहीं चुनांचे (जैसा कि) इस इख़्तिलाफ़ को देखते हुए मसअले की तहक़ीक़ की ग़रज़ से उम्मे फ़ज़्ल बिन्ते हारिश रज़ियल्लाहु अन्हा ने दूध का एक प्याला नबी ए करीम ﷺ को भेजा नबी ए करीम ﷺ ने इसे पी लिया ( सहीह बुखारी:1988:सहीह मुस्लिम:1123)

 क़ारिईन-ए-किराम सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्होमा अज्म'ईन का नबी ए करीम ﷺ के बारे में सौम ए 'अरफ़ा के मुत'अल्लिक़ (बारे में) इख़्तिलाफ़ करना इस बात की वाज़ेह दलील है कि हज्ज से क़ब्ल नबी ए करीम ﷺ और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्होमा अज्म'ईन 'अरफ़ा का रोज़ा रखा करते थे तो अब सवाल यह पैदा होता है कि हज्ज से क़ब्ल नबी ए करीम ﷺ मदीना में जो 'अरफ़ा का रोज़ा रखते थे वो मक्का के 'अरफ़ा के हिसाब से या फिर चांद के हिसाब से ?
क्यूंकि बा'ज़ लोगों का यह कहना है कि 'अरफ़ा के रोज़े को फ़ज़ीलत दर असल 'अरफ़ा के दिन के सिलसिले में वारिद फ़ज़ाइल की वजह से हासिल है लेकिन यह बात दुरुस्त नहीं है क्योंकि अगर हम मुसलमानों का पहला हज्ज अबू बक्र व अली रज़ियल्लाहु अन्होमा की म'इय्यत (साथ) में सन 9 हिजरी में भी मानले तो भी यह बात मोहताज तहक़ीक़ होगी कि इस से क़ब्ल तो 'अरफ़ा में हाजियों का वुक़ूफ़ नहीं होता था तो फिर'अरफ़ा के रोज़ा को यह फ़ज़ीलत कैसे हासिल हो गई ?
पता यह चला कि'अरफ़ा के रोज़ा का हुज्जाज ए किराम के वुक़ूफ़-ए-'अरफ़ा से कोई त'अल्लुक़ नहीं है बल्कि इस का त'अल्लुक़ चांद देखने से है और इस रोज़ा को वुक़ूफ़-ए-'अरफ़ात से क़ब्ल ही यह फ़ज़ीलत हासिल थी कि इस के रखने से दो साल के गुनाह मु'आफ़ कर दिए जाते है
क़ारिईन ए किराम जब खुद नबी ए करीम ﷺ ने 'अरफ़ा के रोज़े के लिए मैदान ए 'अरफ़ा में हाजियों के वुक़ूफ़ का ए'तिबार नहीं किया तो फिर पूरी उम्मत ए इस्लामिया के लिए सऊदी के हिसाब से रोज़ा रखना लाज़िम क़रार देना बिल-कुल्लिया (पूरे तौर पर) सहीह नहीं

लिहाज़ा राजेह और सहीह बात यह है कि के अपनी अपनी रूयत के ए'तिबार से 'अरफ़ा का रोज़ा रखा जाए
अल्लाह रब्ब-उल-'आलमीन से दुआ है कि हमें दीन की सहीह समझ अता फरमाए और नबी ए करीम ﷺ का सच्चा पक्का मुत्तबे व 'फ़रमान-बरदार
बनाए और अश्रा ज़िलहिज्जा के बक़िया अय्याम (बाक़ी दिनों) में नेकियों की कसरत की तौफ़ीक़ अता फरमाए और हमारी नेकियों को शरफ़ ए क़ुबूलियत बख़्शे ।

लेखक: अबू अहमद कलीमुद्दीन यूसुफ मदनी

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद

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