लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी जामि'आ सलफ़िया ( मरकज़ दारुल-'उलूम ) बनारस
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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नज़ाफ़त ( पाकीज़गी ) और सफ़ाई-सुथराई इन्सानी ज़िंदगी और समाज के लिए हद-दर्जा ( बहुत ज़्यादा ) ज़रूरी चीज़ है इस का एहतिमाम ( बंदोबस्त ) ना करने से ज़िंदगी की गाड़ी पटरी से उतर सकती है और ढेर-सारी दुश्वारियों का सामना करना पड़ सकता है मज़हब-ए-इस्लाम जो एक जामे' और मुकम्मल ( संपूर्ण ) दीन है और ज़िंदगी के हर मैदान में इन्सान की रहनुमाई ( नेतृत्व ) करता है इस ने सफ़ाई-सुथराई के त'अल्लुक़ से बड़ा वाज़ेह ( स्पष्ट ) मौक़िफ़ इख़्तियार किया है इस मज़हब ( धर्म ) में सफ़ाई की जिस हमा-गीर ( सर्वव्यापी ) पैमाने पर ता'लीम ( शिक्षा ) दी गई है इस की नज़ीर ( मिसाल ) मिलनी मुश्किल है जिस्म की सफ़ाई लिबास व पोशाक की सफ़ाई घर और मकान की सफ़ाई रास्तों और गुज़र-गाहो की सफ़ाई पब्लिक मक़ामात की सफ़ाई ज़ाहिर की सफ़ाई और बातिन ( भीतर ) की सफ़ाई अल-ग़रज़ यहां एक वसी' और मुकम्मल ( संपूर्ण ) निज़ाम है जिस को दुनिया के मुसलमान अगर वाक़ि'ई ( सचमुच ) अपना ले तो दुसरो के लिए मश'अल-ए-राह ( रहनुमा ) बन जाएगे ।
लेकिन अफ़सोस कि आज मु'आमला इस के बर-'अक्स ( उलटा ) हो चुका है मुसलमानो और इन के 'इलाक़ो और गली कूचों की शनाख़्त ( पहचान ) ही गंदगी से की जाने लगी है जिस दीन में सफ़ाई और नज़ाफ़त ( पाकीज़गी ) ओ तहारत की अहमियत ( महत्व ) को समझने के लिए सिर्फ नमाज़ जेसी 'इबादत ( बंदगी ) को ले लिजिए इस 'इबादत की अदायगी के लिए तहारत ( गुस्ल ) शर्त है या'नी ( अर्थात ) आदमी का जिस्म पाक हो वो गुस्ल किए हो और आ'ज़ा-ए-वुज़ू को धुले हुए हो इस तरह इस का कपड़ा पाक हो जिस ज़मीन और फ़र्श पर नमाज़ पढ़े वो पाक हो वग़ैरा-वग़ैरा दिन भर में कम-अज़-कम पांच मर्तबा इस नज़ाफ़त ( सफ़ाई ) का एहतिमाम ( बंदोबस्त ) करने वाला शख़्स ( इंसान ) कभी गंदगी को पसंद कर सकता है हरगिज़-नहीं ।
आम रास्तों और गुज़र गाहों की सफ़ाई के बारे में इस दीन की ता'लीम ( शिक्षा ) किस-क़दर अहम ( महत्वपूर्ण ) है इस को जानने के लिए यही काफी है कि इस मज़हब ( धर्म ) में आम रास्तों से गंदगी और तकलीफ़-देह ( दुखदायी ) चीज़ों को हटा ने की तर्ग़ीब ( प्रोत्साहन ) दी गई है और इसे ईमान की एक शाख़ और ईमान का एक तक़ाज़ा क़रार दिया गया है एक हदीष में आम रास्तों और राहगीरों के आराम करने की जगहों पर क़ज़ा-ए-हाजत ( पाखाना ) से मना' करते हुए इसे ला'नत ( फटकार ) का काम बतलाया है मुत'अद्दिद ( कई ) हदीसो में आम रास्तों से तकलीफ़-देह ( तकलीफ़ वाली ) चीज़ों को हटाने वालों को जन्नत तक की ख़ुशख़बरी ( अच्छी ख़बर ) दी गई है अब इस तनाज़ुर में हम ग़ौर ( विचार ) करें कि ईद उल-अज़हा ( बकरा-'ईद ) के मौके पर जब हम 'इबादत ( बंदगी ) के तौर पर कुर्बानी की सुन्नत अदा करते हैं और जानवरों को ज़ब्ह ( हलाल करना ) करते हैं तो इन से निकलने वाले फ़ुज़लात ( शरीर से निकलने वाली गंदगी ) जिस में ओझड़ीया , ( आंतों ) चमड़ों के टुकड़े और हड्डियाँ वग़ैरा होती हैं इन्हें आम रास्तों और रहाइशी इलाकों के बीचो-बीच इधर-उधर ( यहां वहां ) फेंक देते हैं और चूँ कि अक्सर ( अधिकतर ) मुस्लिम घरों में कुर्बानीया होती हैं तो इस तरह ढेर सारे फ़ुज़लात ( गंदगी ) इकट्ठा हो जाते है और ये बात मुसल्लम ( माना हुआ ) है कि इस तरह के हैवानी फ़ुज़लात में बहुत जल्द ( जल्दी ) त'अफ़्फ़ुन ( बदबू ) पैदा होता है और हद-दर्जा ( बहुत ज़्यादा ) तकलीफ़-देह ( दुखदायी ) बदबू ( दुर्गध ) फूटती है ये बदबू बराह-ए-रास्त
( सीधे तौर पर ) हमें और हमारे अफ़राद ख़ाना ( व्यक्तियों ) की सेहत ( तन्दरूस्ती ) को मुतअस्सिर किए बग़ैर नहीं रह सकती इस से तरह तरह की बीमारीया फैलती है दूसरा ये कि इस से राहगीरों को सख़्त तकलीफ़ होती हैं इन राहगीरों में औरतें, बच्चे, बुड्ढे , बीमार और मफ़लूज ( लकवा मारा हुआ ) हर तरह के लोग होते है इन में मुस्लिम भी होते है ग़ैर-मुस्लिम भी बल्कि ( किंतु ) ग़ैर-मुस्लिम की ता'दाद ( संख्या ) ज़्यादा होती हैं क्यों के इस मुल्क में वही अकसरिय्यत ( अधिक ) में है हम अक़ल्लियत ( अल्पसंख्यक ) में है इन में से बहुत ऐसे होते है जो मुतलक़ ( बिल्कुल ) ज़बीहा कोही अच्छी नज़र से नहीं देखते इस पर मुस्तज़ाद ( फ़ालतू ) इस की गंदगी भी इन्हें बरदाश्त ( सहन ) करनी पड़े इस से वो किस क़द्र बर-अफ़रोख़्ता ( आक्रोशित ) होते हो गे इस का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं ।
इस लिए जरूरी है कि हम इस बात पर ग़ौर करें कि कुर्बानी जेसी 'अज़ीमुश्शान ( महान ) 'इबादत ( बंदगी ) के ज़रिया' एक तरफ हम अल्लाह का तक़र्रुब ( नज़दीकी ) हासिल करने की कोशिश करते हैं तो दूसरी तरफ अपनी कोताही ( ख़ामी ) और बे-तवज्जोही ( लापरवाही ) के जरिए इस कुर्बानी के फ़ुज़लात ( गंदगी ) इधर उधर फैला कर अल्लाह के पसंदीदा दीन को बदनाम करने का सबब ( कारण )
भी बनते हैं ये खुला तज़ाद ( विरोध ) है जो हमारी इस इबादत पर सवालिया-निशान लगाता है ।
मुस्लिम क़ाइदीन,'उलमा,तंज़ीमो और इदारो ( संस्था ) को इस मौके पर सफ़ाई की ज़बरदस्त मुहिम चलानी चाहिए और इस त'अल्लुक़ ( सम्बन्ध ) से लोगों में बेदारी लानी चाहिए जुम'आ के ख़ुतबो 'आम वा'ज़ ( मज़हबी तक़रीर ) ओ नसीहत की मजलिसो और हर क़िस्म ( प्रकार ) के इज्तिमा' ( जलसा ) में इस मौज़ू' ( विषय ) को छेड़ना चाहिए इस तरह अहल-ए-क़लम ( लिखने वाले ) और सहाफ़ी ( पत्रकार ) हज़रात भी इस त'अल्लुक़ से अपनी ज़िम्मेदारी अदा करें सोशल-मीडिया अब काफ़ी मुअस्सिर ( असरदार ) हो चुका है इस के जरिए भी इस तहरीक को आगे बढ़ाया जा सकता है याद रहे कि मुसलमानों की तरफ़ से अगर हमा-जिहत ( हर दिशा ) कोशिश की जाएगी तो बि-इज़्नी त'आला इस के मुफ़ीद ( उपयोगी ) असरात जरुर जल्द-अज़-जल्द ( तुरंत ) ज़ाहिर होगे और ग़ैर-मुस्लिमो और हुकूमतों में भी इस का अच्छा पैगाम जाएगा ।
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