लेखक: शैख़ अब्दुल रऊफ़ नदवी
(ख़ाना-साज़ शरी'अत और आईना किताब-ओ-सुन्नत पेज नंबर:23/25)
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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क़ुर'आन-ए-मजीद, अहादीस नबवी और फ़िक़्ह की किताबों से इस्लाम की जिन असासी (बुनियादी) ता'लीमात का 'इल्म होता है उनमें बा'ज़ (कुछ) मुंदरिजा-ज़ेल (निम्नलिखित) हैं:
तौहीद, आख़िरत, कलिमा-ए-तय्यिबा व शहादत की फ़ज़ीलत नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात, हुक़ूक़-उल-'इबाद वालिदैन (मां बाप) की इता'अत, रिश्ता-दारों के हुक़ूक़ (अधिकार) मेहमानों के हुक़ूक़, औरतों के हुक़ूक़ मियाँ-बीवी के हुक़ूक़ यतामा (यतीमों) के हुक़ूक़, औलाद के हुक़ूक़, लड़कियों और बहनो के हुक़ूक़ ग़ुरबा-ओ-मसाकीन के हुक़ूक़, पड़ोसी के हुक़ूक़, मरीजों के हुक़ूक़, मुसलमानों के हुक़ूक़, ग़ुलामों के हुक़ूक़, रि'आया (जनता) के हुक़ूक़, और जानवरों के साथ हुस्न-ए-सुलूक (अच्छा बरताव) वग़ैरा।
बा'ज़ मा'मूली और छोटी बातों का तज़्किरा (ज़िक्र) भी हम को मिलता है मसलन (जैसे कि) पानी में मक्खी गिर जाए तो किस तरह निकाला जाए जूता पहले किस पैर में पहना जाए और निकाला पहले किस पैर से जाए कितने ढेले से इस्तिंजा किया जाए पाख़ाना (संडास) के लिए किस रुख़ (तरफ़) बैठा जाए फ़ित्रा कब और किस की तरफ़ से और कितना दिया जाए क़ुर्बानी में कौन सा जानवर किस 'उम्र और किस तरह का होना चाहिए ज़कात किस क़िस्म (प्रकार) के माल से किन लोगों पर कितनी मुद्दत में फ़र्ज़ है वग़ैरा-वग़ैरा लेकिन हज़ार तलाश व जुस्तुजू (खोज) के बाद भी क़ुर'आन-ए-मजीद, अहादीस नबवी ﷺ और फ़िक़्ह की किताबों में हस्ब-ज़ेल (नीचे लिखी हुई) बातों का कोई ज़िक्र तफ़्सीलन (विस्तार से) या इज्मालन (मुख़्तसर तौर पर) नहीं मिलता।
ता'ज़िया बनाने का बाब, 'ईद-ए-मीलादुन्नबी का बाब, 'ईद-ए-नौरोज़ का बाब, 'ईद-ए-ग़दीर का बाब, बड़े पीर की ग्यारहवीं का बाब, माह-ए-सफ़र की बिद'आत का बाब, रजबी कूँडों का बाब, शब-बरात में हलवा बनाने का बाब, ग़ैरुल्लाह के नाम ख़स्सी और मुर्ग़ (मुर्ग़ा) ज़ब्ह करने का बाब, तीजा, दसवाँ, चेहलुम (चालीसवाँ) शश्माही, सालीना (बरसी) के नाम बर्थ-डे और फ़ूल-डे मनाने का बाब, बुज़ुर्गों और औलिया-अल्लाह से तंदुरुस्ती, मुक़द्दमा (केस) में फ़त्ह (जीत) लड़का लड़की, रोज़ी, बारिश और नौकरी माँगने का बाब, बुज़ुर्गों के मज़ारों पर नज़्र-ओ-नियाज़ के लिए किस क़िस्म के जानवर और किस 'उम्र और किस सिफ़त के ज़ब्ह किए जाए बुज़ुर्गान-ए-दीन तो बहुत हैं किन किन बुज़ुर्गों का 'उर्स किया जाए और किन का न किया जाए और किस महीने में किया जाए ?
तारीख़ क्या हो ? हज की तरह ज़िंदगी में एक बार किया जाए, ज़कात की तरह साल में एक मर्तबा किया जाए या नमाज़ की तरह हर-रोज़ किया जाए ? कितनी चादरें चढ़ाई जाए, चढ़ाने के बाद कैसे उतारी जाए, उतारने के बाद उनका मसरफ़ (उपयोग) क्या हो ? मीलाद किस तरह शुरू' किया जाए, क़ियाम शुरू' में हो या दरमियान (बीच) में ? क़ियाम में कितनी बार दुरूद-शरीफ़ पढ़ा जाए दुरूद-शरीफ़ के साथ कुछ और पढ़ा जाए या नहीं ? ता'ज़िया किस रक़म (धन) से बनाया जाए ? कहां दफ़्न किया जाए ? दफ़्न की सूरत (स्थिति) क्या हो ? यह सारी बातें अगर नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात की तरह इस्लामी शरी'अत में दाख़िल हैं तो किताब-ओ-सुन्नत और किताब फ़िक़्ह में इनकी तफ़सीलात क्यूं मज़कूर (उल्लेखित) नहीं हैं जबकि (हालाँकि) मक्खी निकालने और जूता पहनने तक का बयान तफ़्सील से साफ़ तौर पर मौजूद है अइम्मा-ए-दीन और फ़ुक़हा-ए-किराम ने छोटी छोटी बातें क़ुरआन और हदीष से निकाल कर हमारी फ़लाह और बहबूद (भलाई) के लिए लिख दी हैं तो इन बातों को क्यूं छोड़ दिया ? अगर कोई कहें कि फ़ुलाँ मौलवी साहब इन बातों को फ़ुलाँ आयत या फ़ुलाँ हदीष से साबित करते हैं उनसे ज़रुर पूछना चाहिए कि आप हनफ़ी और मुक़ल्लिद हैं या वहाबी ग़ैर-मुक़ल्लिद ? अगर वो यह फ़रमाए कि हम हनफ़ी और मुक़ल्लिद हैं तो उनसे पूछे कि क़ुरआन-ओ-हदीस से मसअला इमाम और मुज्तहिद निकालता है और मुक़ल्लिद का काम इमाम की पैरवी (तक़लीद) है इस लिए आप इमाम अबू हनीफ़ा रहिमहुल्लाह या दीगर (अन्य) अइम्मा का क़ौल-ओ-'अमल सुबूत के साथ पेश कीजिए अगर वो सुबूत के साथ पेश कर दें तो दिल खोल कर 'अमल कर सकते हैं वर्ना (नहीं तो) इन बातों से परहेज़ कीजिए और मिठाई, चादर और मुर्ग़ (मुर्ग़ा) बकरा वग़ैरा में जो रक़म (दौलत) ख़र्च कर के उन मौलवी साहिबान को 'ऐश-ओ-'इशरत का सामान मुहय्या (उपलब्ध) करते हैं इसे अपने बच्चों की दीनी ता'लीम-ओ-तर्बियत में ख़र्च कीजिए ताकि ख़ुद उन को दीन का 'इल्म हासिल हो और वो किसी के बहकावे में न आए और क़ुर'आन-ए-मजीद के इस आयत-ए-करीमा के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने के क़ाबिल हो सकें:
يَايُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَطِيعُوا اللَّهَ وَأَطِيعُوا الرَّسُولَ وَلَا تُبْطِلُوا أَعْمَالَكُمْ. (محمد: ۳۳)
तर्जमा: ऐ ईमान वालों अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की इता'अत करो और अपने आ'माल को ज़ाए' (बर्बाद) मत करो।
(सूरा मुह़म्मद:33)
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