लेखक: शैख़ किफ़ायतुल्लाह सनाबिली
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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'ईद-ए-मीलादुन्नबी ﷺ मनाने वाले 'ईद-ए-मीलाद के दलाइल पर बात करते हैं तो मुतज़ाद (विरुद्ध) बातें सुनने को मिलती हैं:
मसलन (जैसे)
① सुन्नत साबिता या बिद'अत-ए-हसना:
मीलादी एक तरफ़ कहते हैं कि 'ईद-ए-मीलाद मनाने का सुबूत क़ुरआन-ओ-हदीष दोनों में है
दूसरी तरफ़ जब उनसे यह पूछा जाए कि ख़ैर-उल-क़ुरून में तो इस का रिवाज न था तो कहते हैं गरचे (हालाँकि) यह बाद की ईजाद (खोज) है या'नी (मतलब) बिद'अत है लेकिन " बिद'अत-ए-हसना " है।
'अर्ज़ (गुज़ारिश) है कि यह दोनों बातें एक दूसरे के ख़िलाफ़ हैं अगर किताब-ओ-सुन्नत से यह 'ईद साबित है तो फिर इसे बिद'अत-ए-हसना नहीं बल्कि (किंतु) सुन्नत साबिता कहा जाएगा और अगर " बिद'अत-ए-हसना " या'नी बा'द की ईजाद है तो फिर किताब-ओ-सुन्नत से इस का सुबूत मुमकिन (संभव) नहीं है।
② कभी सराहत (वज़ाहत) की शर्त और कभी इस से नज़र-पोशी (आंख चुराना)
जब हम मीलादियों के सामने किताब-ओ-सुन्नत से रद्द-ए-बिद'अत के नुसूस (दलील) पेश करते हैं और कहते हैं कि 'ईद-ए-मीलाद भी बिद'अत है लिहाज़ा (इसलिए) किताब-ओ-सुन्नत के उन नुसूस (दलील) की रौशनी-में मर्दूद है तो यह मीलादी कहते हैं कि किताब-ओ-सुन्नत में 'ईद-ए-मीलाद के अलफ़ाज़ के साथ इस का रद्द पेश करो
लेकिन जब यह 'ईद-ए-मीलाद के जवाज़ (सही होने) पर क़ुरआनी आयात व अहादीस पेश करते हैं तो यह शर्त भूल जाते हैं।
क्या कोई एक आयत या कोई एक हदीष ऐसी पेश की जा सकती है जिसमें 'ईद-ए-मीलादुन्नबी ﷺ के अलफ़ाज़ के साथ इस के जवाज़ (सही होने) की बात कही गई हो ?
③ कभी मुक़ल्लिद और कभी ग़ैर-मुक़ल्लिद:
मीलादी हज़रात कहते हैं कि हम मुक़ल्लिद हैं और हमारे अस्ल दलाइल हमारे इमाम के अक़्वाल (बातें) हैं
लेकिन जब 'ईद-ए-मीलाद की बात आती है तो इस मौक़ा' पर यह ग़ैर-मुक़ल्लिद बन जाते हैं
क्या कोई शख़्स अइम्मा-ए-अर्ब'आ रहिमहुल्लाह में से किसी एक से भी 'ईद-ए-मीलाद के जवाज़ (जाइज़ होने) का क़ौल (बात) पेश कर सकता है ?
④ कभी जाहिल-ए-मुतलक़ और कभी मुज्तहिद-ए-आ'ज़म (महान विद्वान)
मीलादी एक तरफ़ कहते है कि हम किताब-ओ-सुन्नत से बराह-ए-रास्त (directly) मसाइल अख़्ज़ (हासिल) नहीं कर सकते इस लिए इमाम-ए-आ'ज़म अबू हनीफ़ा रहिमहुल्लाह की तक़लीद (पैरवी) करते हैं
दूसरी तरफ़ जब 'ईद-ए-मीलाद की बात आती है तो बराह-ए-रास्त क़ुरआन-ओ-हदीष लेकर इज्तिहाद करने और फ़तवा देने बैठ जाते हैं
और क़ुरआन ओ हदीष से ऐसे मसाइल ढूँडने निकलते हैं जिन तक उनके इमाम की भी रसाई (पहुंच) नहीं हो सकती।
क्या हम पूछ सकते हैं कि एक जाहिल (अनपढ़) मुक़ल्लिद को फ़तवा देने का इख़्तियार (अधिकार) किस ने दिया ?
⑤ नूर या बशर:
मीलादी कभी ऐसी बातें करते हैं जिनसे लाज़िम आता है कि आप ﷺ की कोई तारीख़-ए-पैदाइश है ही नहीं चुनांचे (इसलिए) यह हज़रात एक ख़ुद-साख़्ता (मन-घड़त) हदीष पर ईमान रखते हैं कि "اول ما خلق اللہ نوری‘‘ या'नी अल्लाह ने सबसे पहले मेरे नूर को पैदा किया जब तमाम मख़्लूक़ात में सबसे पहले नूर-ए-नबी (ﷺ) को पैदा किया गया तो उस वक़्त सूरज व चांद भी पैदा न हुए थे और तारीख़े सूरज और चांद ही से बनती हैं लिहाज़ा (इसलिए) इस 'अक़ीदा की बुनियाद पर आप ﷺ की कोई तारीख़-ए-पैदाइश हो ही नहीं सकती।
लिहाज़ा (इसलिए) जब आप ﷺ की कोई तारीख़-ए-पैदाइश ही नहीं है तो फिर तारीख़ ए पैदाइश मनाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
और अगर यह कहा जाए कि दुनिया में आप ﷺ वालिदैन (मां बाप) के ज़री'आ जिस तारीख़ को आए वहीं तारीख़-ए-पैदाइश है तो 'अर्ज़ (गुज़ारिश) है कि वालिदैन के ज़री'आ दुनिया में पैदा होना यह तो बशर (इंसान) की ख़ूबी है और अहल-ए-बिद'अत आप ﷺ को बशर (इंसान) मानते ही नहीं वल्कि नूर मानते हैं लिहाज़ा (इसलिए) अगर नूर वालिदैन के मराहिल से गुज़रे तो उसे एक दूसरी शक्ल अपनाना कह सकते हैं पैदा होना तो नहीं कह सकते क्यूंकि नूर की शक्ल में पैदाइश (जन्म) तो सबसे पहले हो चुकी है।
इस तफ़्सील से मा'लूम हुआ कि मीलादी हज़रात 'ईद-ए-मीलाद के जवाज़ (जाइज़ होने) वग़ैरा से मुत'अल्लिक़ (बारे में) मुतज़ाद (उल्टा) क़िस्म की बातें करते हैं लिहाज़ा (इसलिए) उनकी सारी की सारी बातें एक दूसरे से टकरा कर साक़ित (रद्द) हो गए।
वाज़ेह (स्पष्ट) रहे कि उनके नज़दीक क़ुरआन की बा'ज़ (कुछ) आयत दूसरी आयत से टकराने के सबब (कारण) दोनों क़िस्म की आयत साक़ित (रद्द) हो गई।
(ख़ुलासा अल-अफ़्कार शरह मुख़्तसर अल-मनार: पेज नंबर:197,198)
'अर्ज़ (गुज़ारिश) है कि जब उनके ब-क़ौल (अनुसार) (न'ऊजु-बिल्लाह) क़ुरआन की आयत दूसरी आयत से टकरा जाए तो दोनों क़िस्म (प्रकार) की आयत साक़ित (रद्द) हो जाती हैं तो फिर उनके अपने अक़्वाल (कथन) अगर उन्हीं के दूसरे अक़्वाल से टकरा जाए तो उनका क्या हश्र होना चाहिए इस का
अंदाज़ा ख़ुद लगाले
हम अगर 'अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी।
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