सामर्थ्य अर्थात बल क्या चीज़ होती है ? बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा


सामर्थ्य अर्थात बल क्या चीज़ होती है ?
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा-
                           "मनुष्य समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है। एक है मनुष्य बल, दूसरा है धन-बल, तीसरा है मनोबल। इन तीनों बलों में से कौन-सा बल आपके पास है ? मनुष्य बल की दृष्टि से आप अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि संगठित भी नहीं हैं। फिर संगठित नहीं, इतना ही नहीं, इकट्ठा भी तो नहीं रहते। दलित लोग गांव और खेड़ों में बिखरे हुए हैं इसी कारण से जो मनुष्य बल है भी उसका भी ज़्यादती ग्रस्त, ज़ुल्म से पीड़ित अछूत वर्ग की बस्ती को किसी भी प्रकार का उपयोग नहीं हो सकता है।"
"धन-बल की दृष्टि से देखा जाए तो आपके पास थोड़ा-बहुत जनबल तो है ही लेकिन धन-बल तो कुछ भी नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की कुल आबादी की 55% जनसंख्या आज भी ग़रीबी की रेखा से नीचे का जीवन बिता रही है जिसका 90% दलित वर्ग के लोग ही हैं।"
"मानसिक बल की तो उनसे भी बुरी हालत है। सैंकड़ों वर्षों से हिन्दुओं द्वारा हो रहे ज़ुल्म, छि-थू मुर्दों की तरह बर्दाश्त करने के कारण प्रतिकार करने की आदत पूरी तरह से नष्ट हो गई है। आप लोगों का आत्म विश्वास, उत्साह और महत्वकांक्षी होना, इस चेतना का मूलोच्छेद कर दिया गया है। हम भी कुछ कर सकते हैं इस तरह का विचार ही किसी के मन में नहीं आता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 11-12 से) यदि मनुष्य के पास जनबल और धनबल यह दोनों हों भी और मनोबल न हो तो यह दोनों बेकार साबित हो जाते हैं। मान लीजिए आपके पास पैसा भी ख़ूब हो और आदमी भी काफ़ी हों, आपके पास बन्दूक़ें और अन्य सुरक्षा सामग्री भी उपलब्ध हो लेकिन आपके पास मनोबल न हो तो आने वाला शत्रु आपकी बन्दूक़ें और सुरक्षा सामग्री भी छीन ले जाएगा। अतः मनोबल को होना परम आवश्यक है। मनोबल का जगत प्रसिद्ध उदाहरण आपके सामने है। ऐतिहासिक घटना है कल्पना की बात नहीं। नेपोलियन एक बहुत साहसिक एवं अजेय सेनापति के रूप में प्रसिद्ध था, उसके नाम ही से शत्रु कांप उठते थे, लेकिन उसको मामूली से एक सैनिक ने युद्ध में हरा दिया था। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस सैनिक ने यह कह कर उसे हराया था कि मैं नेपोलियन को अवश्यय हराऊंगा क्योंकि मैने उसे खेल के मैदान में हरा रखा है। और वास्तव में उसने नेपोलियन को हरा दिया। उस सैनिक ने उस महान शक्तिशाली अजेय कहे जाने वाले नेपोलियन को इसलिए हरा दिया, क्योंकि उसका मनोबल नेपोलियन के प्रति खेल के मैदान से ही बढ़ा हुआ था।
मनोबल की यह एक विशेषता है कि वह एक बार जब किसी के विरुद्ध बढ़ जाता है तो फिर उसका कम होना असंभव होता है। तभी तो नेपोलियन के पास वास्तविक भौतिक शक्ति एवं रण कौशल होने के बावजूद उसके विरुद्ध बढ़े मनोबल वाले एक मामूली से सैनिक ने उसे ऐलान करके हरा दिया। अतः यदि दलित वर्ग यह सोचे कि हम सिर्फ़ अपनी शक्ति के बल पर ही अत्याचारों का मुक़ाबला कर लेंगे तो यह उनकी भूल है। फिर हमें इस पहलू को हरग़िज़ नहीं भूलना चाहिए। सवर्ण हिन्दुओं का मनोबल हमारे विरुद्ध पहले से ही बहुत बढ़ा हुआ है। हम चाहे कितनी भी वास्तविक शक्ति अर्जित कर लें लेकिन वह तो यही सोचते हैं कि- है तो यह फिर वे ही चमार, भंगी (या अछूत) ही, यह कर भी क्या सकते हैं ? इस लिए हमें मनोबल बढ़ाने की ज़रूरत है और यह उसी समय संभव है जब हम किसी बाहरी सामाजिक शक्ति की मदद लें जिसका मनोबल गिरा हुआ नहीं वरन बढ़ा हुआ हो। और जिससे हिन्दु समाज डरता भी हो।

दलितों पर ही ज़ुल्म क्यों होता है?
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का कथन है-
                                  "वास्तविक स्थिति का मैने यह जो विश्लेषण किया है यदि यह ठीक है तो इससे जो सिद्धांत निकलेगा उसको भी आप सब लोगों को स्वीकार करना होगा और वह यह है कि आप अपने ही व्यक्तिगत सामर्थ्य पर निर्भर रहेंगे तो आपको इस ज़ुल्म का प्रतिकार करना संभव नहीं है। आप लोगों के सामर्थ्यहीन होने के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दुओं द्वारा ज्यादती, ज़ुल्म और अन्याय होता है इसमें मुझे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 12 से)
बाबा साहब ने बताया किः-    
                       "आपकी तरह यहां मुस्लिम भी अल्पसंख्यक हैं। जिस तरह महार, चमार, मांगों (भंगियों) के दो-चार घर गांव में होते हैं उसी प्रकार मुस्लमान के भी दो-चार मकान गांव में होते हैं। किन्तु इन मुसलमानों की ओर आंखें उठाकर देखने की किसी भी स्पृश्य हिन्दु की मजाल होगी ? नहीं। किन्तु आप लोगों पर जैसे-जैसे ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं, ज़्यादतियां हो रही हैं, इसका कारण क्या है। किसी गांव में मुसलमानों के दो घर होने पर कोई स्पृश्य हिन्दु उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देख सकता है। आप (दलित-अस्पृश्य) लोगों के दस मकान होने पर भी स्पृश्य हिन्दु ज्यादती, अन्याय और ज़ुल्म करते हैं। आपकी बस्तियां जला दी जाती हैं, आपकी महिलाओँ से बलात्कार होता है। आदमी, बच्चे और महिलाओं को ज़िंदा जला दिया जाता है। आपकी महिलाओं, बहू और जवान बेटियों को नंगा कर के गांव में घुमाया जाता है यह सब क्यों होता है ? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, इस पर आप लोगों को गंभीरता से चिंतन और खोज करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में इस प्रश्न का एक ही उत्तर दिया जा सकता है और वह यह है कि उन दो मुसलमानों के पीछे सारे भारत के मुसलमान समाज की शक्ति और सामर्थ्य है। इस बात की हिन्दु समाज को अच्छी तरह जानकारी होने के कारण उन दो घर के मुसलमानों की ओर टेढ़ी उंगली उठाई तो पंजाब से लेकर मद्रास तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक संपूर्ण मुस्लिम समाज अपनी शक्ति खर्च कर उनका संरक्षण करेगा। यह यक़ीन स्पृश्य हिन्दु समाज को होने के कारण वे दो घर के मुसलमान निर्भय होकर अपनी ज़िंदगी बसर करते हैं। किन्तु आप दलित अछूतों के बारे में स्पृश्य हिन्दु समाज की यह धारणा बन चुकी है और वाक़ई सच ही है कि आपकी कोई मदद करने वाला नहीं है, आप लोगों के लिए कोई दौड़ कर आने वाला नहीं है, आप लोगों को रुपये पैसे की मदद होने वाली नहीं है और न ही आपको किसी सरकारी अधिकारी की मदद होने वाली है। पुलिस, कोर्ट और कचहरियां यह सब उनके ही होने के कारण स्पृश्य हिन्दु और दलितों के संघर्ष में वे जाति की ओर देखते हैं, अपने कर्तव्य की ओर उनका कोई ध्यान नहीं होता है, पहले जाति बाद में कुछ और, और जाति वालों को भी इस बात का पूरी तरह यक़ीन होता है कि हमारा कौन क्या बाल बांका कर सकता है। आप लोगों की इस असहाय अवस्था के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दु समाज ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय करता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 12 से)
बाबा साहब आगे कहते हैं-
                      "यहां तक जो मैने विश्लेषण किया है उससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली बात यह है कि बिना सामर्थ्य के आप के लिए इस ज़ुल्म और अन्याय का प्रतिकार करना संभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्रतिकार के लिए अत्यावश्यक सामर्थ्य आप के हाथ में नहीं है। यह दो बातें सिद्ध हो जाने के बाद तीसरी एक बात अपने आप ही सिद्ध हो जाती है कि यह आवश्यक सामर्थ्य आप लोगों को कहीं न कहीं से बाहर से प्राप्त करना चाहिए। यह सामर्थ्य आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? यही सचमुच महत्व का प्रश्न है और आप उसका आप लोगों को निर्विकल्प दृष्टि से चिंतन और मनन करना चाहिए।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 13-14 से)

बाहरी शक्ति कैसे प्राप्त करनी चाहिए ?
बाबा साहब के शब्दों को ध्यान से देखिए बाबा साहब लिखते हैं:-
"जिस गांव में अछूत लोगों पर स्पृश्यों की ओर से ज़ुल्म होता है उस गांव में अन्य धर्मावलंबी लोग नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है। अस्पृश्यों पर होने वाला ज़ुल्म बेक़सूरी का है, बेगुनाहों पर ज्यादती है, यह बात उनको (अन्य धर्म वालों को) मालूम नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, जो कुछ हो रहा है वह वास्तव में ज़ुल्म और अन्याय है यह मालूम होने पर भी वे लोग अछूतों की मदद करने के लिए दौड़ कर नहीं जाते हैं, इसका कारण आख़िर क्या है ? ‘तुम हमको मदद क्यों नहीं देते हो ? यदि ऐसा प्रश्न आपने उनसे पूछा तो ‘आपके झगड़े में हम क्यों पड़ें ?' यदि आप हमारे धर्म के होते तो हमने आपको सहयोग दिया होता' - इस तरह का उत्तर वे आपको देंगे। इससे बात आपके ध्यान में आ सकती है कि किसी भी अन्य समाज के आप जब तक एहसानमंद नहीं होंगे किसी भी अन्य धर्म में शामिल हुए बिना आपको बाहरी सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता है। इसका ही स्पष्ट मतलब यह है कि आप लोगों को धर्मान्तर करके किसी भी अन्य समाज में अंतभूत हो जाना चाहिए। सिवाय इसके आपको उस समाज का सामर्थ्य प्राप्त होना संभव नहीं है। और जब तक आपके पीछे सामर्थ्य नहीं है तब तक आपको और आपकी भावी औलाद को आज की सी भयानक, अमानवीय अमनुष्यतापूर्वक दरिद्री अवस्था में ही सारी ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी। ज्यादतियां बेरहमी से बर्दाश्त करनी पड़ेंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 14-15 से)
बाबा साहब के इन विचारों से यह बात अपने आप साफ़ हो जाती है कि सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए हमें किसी अन्य समाज का एहसानमंद अवश्य ही होना पड़ेगा। किसी अन्य समाज में हमे अवश्य ही मिल जाना होगा। दलित वर्ग के जो लोग ऐसा समझते हैं कि वह स्वयं अपने संगठन और बाहूबल से ही अपनी समस्या हल कर सकते हैं वे सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुद धोखे और फ़रेब में हैं बल्कि दलित समाज को भी ग़लत राह दिखा रहे हैं- ऐसी राह, जो बाबा साहब के विचारों के बिल्कुल विपरित है।

हिन्दु धर्म में आपके प्रति कोई सहानुभूति नहीं
बाबा साहब ने कहा है-
"हिन्दु धर्म और समाज की ओर यदि सहानुभूति की दृष्टि से देखा जाए तो ठन-ठन गोपाल, चारों ओर से अंधकार नज़र आएगा। हर जगह पर घृणा, द्वेष, अहंकार, अज्ञान और अंधकार ही दिखाई देगा, यही कहना पड़ेगा। इसका आप लोगों को अच्छा ख़ासा अनुभव है। हिन्दु धर्म में अपनत्व की भावना तो है ही नहीं। किन्तु हिन्दु समाज की ओर से आप लोगों को दुश्मनों से भी दुश्मन, ग़ुलामों से भी ग़ुलाम और पशुओं से भी नीचा समझा जाता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 18 से)
हिन्दु समाज में क्या आप के प्रति समता की दृष्टि है ?
कुछ हिन्दु लोग अछूतों को कहते हैं कि तुम लोग शिक्षा लो, स्वच्छ रहो, जिससे हम आपको स्पर्श कर सकेंगे, समानता से भी देखेंगे। मगर वास्तव में देखा जाए तो अज्ञानी, दरिद्री और अस्वच्छ दलितों का जो बुरा हाल होता है वही बुरा हाल पढ़्-लिखे पैसे वाले और स्वच्छ रहने वाले तथा अच्छे विचार वाले दलितों का भी होता है। दलित वर्ग की समृद्धि की पराकाष्ठा के प्रति तत्कालीन उपप्रधानमंत्री श्री जगजीवन राम जी को वराणसी में श्री संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण करने पर जिस तरह से अपमानित होना पड़ा था उससे दलितों की आंखें खुल चुकी हैं कि हिन्दुओं का स्वच्छता के आधार पर समानता का बर्ताव होने का आश्वासन कितना बड़ा धोखा है। याद रहे, श्री जगजीवन राम जी द्वारा अनावरण की गई मूर्ति को गंगाजल से धो कर पवित्र किया गया था।
कुछ भाई अपने आर्थिक पिछड़ेपन ही को अपने उपर हो रहे अत्याचारों का कारण मानते हैं। यह बात ठीक है कि ग़रीबी बहुत से दुखों का कारण है लेकिन ग़रीब तो ब्राह्मण भी हैं, वैश्य भी हैं और क्षत्रिय भी है। ग़रीबी से वे लोग भी परेशान है और वे ग़रीबी के विरुद्ध लड़ भी रहे हैं लेकिन हमें एक साथ दो लड़ाइयां लड़नी पड़ रही है- एक तो ग़रीबी की दूसरी घृणा भरी जाति प्रथा की। एक तरफ हम पर ग़रीबी की मार पड़ रही है और दूसरे हमारी एक विशेष जाति होने के कारण हम पिट रहे हैं। हमें जाति की लड़ाइ तो तुरंत समाप्त कर देनी चाहिए। हम भंगी, चमार, महार, खटीक आदि अछूत तभी तक हैं, जब तक की हम हिन्दु हैं।

हिन्दु धर्म में स्वतंत्रता
क़ानून से आप को चाहे कितने अधिकार और हक़ दिए गए हों किन्तु यदि समाज उनका उपयोग करने दे तभी यह कहा जा सकता है कि यह वास्तविक हक़ है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आपको न मंदिर जाने की स्वतंत्रता है और न जीने की स्वतंत्रता है, यह आप भली-भांति जानते हैं। इसके समर्थन में अधिक तथ्य जुटाने की आवश्यकता नहीं है। यदि स्वतंत्रता की दृष्टि से देखा जाए तो हम आपने आप को एक ग़ुलाम से भी बदतर हालत में ही पाएंगे। स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक चीज़े बताई गई हैं उनमें से आप के लिए हिन्दु धर्म में कोई भी चीज़ उपलब्ध नहीं है।

क्या हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म था ?
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने बताया है कि हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने लोगों से उसे छोड़ने के लिए समझाते हुए कैसे कठोर शब्दों का प्रयोग किया है। बाबा साहब लिखते हैं- "हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं हो सकता है, बल्कि उन पर ज़बरदस्ती लादी गई एक ग़ुलामी, दासता थी। हमारे पूर्वजों को इस धर्म में ही रखना यह एक क्रूर ख़ूनी पंजा था जो हमारे पूर्वजों के ख़ून का प्यासा था। इस ग़ुलामी से अपनी मुक्ति पाने की क्षमता और साधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए उन्हें इस ग़ुलामी के विरुद्ध विद्रोह करना संभव नहीं था। उन्हें इसी ग़ुलामी में रहना पड़ा। इसके लिए उन्हें हम दोषी नहीं ठहराएंग,कोई भी उन पर रहम ही करेगा। किन्तु आज की पीढ़ी पर उस तरह की ज़बरदस्ती करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। हमें हर तरह की स्वतंत्रता है। इस आज़ादी का सही-सही उपयोग कर यदि इस पीढ़ी ने अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं खोजा, यह जो हज़ारों साल से ब्राह्मणी अर्थात हिन्दु धर्म की ग़ुलामी है उसको नहीं तोड़ा तो मैं यही समझूंगा कि उनके जैसे नीच, उनके जैसे हरामी और उनके जैसे कायर जो स्वाभिमान बेचकर पशु से भी गई गुज़री ज़िंदगी बसर करते हैं अन्य कोई नहीं होंगे। यह बात मुझे बड़े दुख और बड़ी बेरहमी से कहनी पड़ेगी।"(दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है'? के पृष्ठ 34 से)
धर्म, उद्देश्य- पूर्ति का साधन है, अतः धर्म परिवर्तन करो
बाबा साहब कहते हैं-
"यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत है तो धर्मान्तर करो। हिन्दु धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से ग़ुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन करना हो तो धर्मान्तर करो। समता प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करो। आज़ादी प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करो। अपने जीवन की सफ़लता चाहते हो तो धर्मान्तर करो। मानवीय सुख चाहते हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दु धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 51 से)

BABA SAHAB DR. AMBEDKAR AUR ISLAM

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बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम


            🌷Part-1🌷
बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम
मूल रूप से पशु और मनुष्य में यही विशेष अंतर है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है। हिन्दु धर्म ने दलित वर्ग को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है, यही कारण है कि वह अपनी स्थिति परिवर्तन के लिए पूरी तरह कोशिश नहीं कर पा रहा है। हाँ, पशुओं की तरह ही वह अच्छे चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक ग़ुलामी दूर करने के अपने महान उद्देश्य को गंभीरता से नहीं ले रहा है।
दलितों की वास्तविक समस्या क्या है?
परंपरागत उच्च वर्ग द्वारा दलितों पर बेक़सूरी एवं बेरहमी से किए जा रहे अत्याचारों को कैसे रोका जाए, यही दलितों की मूल समस्या है।
हज़ारों वर्षों से दलित वर्ग पर अत्याचार होते आए हैं, आज भी बराबर हो रहा है। यह अत्याचारों का सिलसिला कैसे शुरु हुआ और आज तक भी यह अत्याचार क्यों नहीं रूके हैं? यह एक अहम सवाल है। इतिहास साक्षी है कि इस देश के मूल निवासी द्रविड़ जाति के लोग थे जो बहुत ही सभ्य और शांतिप्रिय थे। आज से लगभग पांच या छः हज़ार वर्ष पूर्व आर्य लोग भारत में आए और यहां के मूल निवासी द्रविड़ों पर हमले किए। फलस्वरूप आर्य और द्रविड़ दो संस्कृतियों में भीषण युद्ध हुआ। आर्य लोग बहुत चालाक थे। अतः छल से, कपट से और फूट की नीति से द्रविड़ों को हराकर इस देश के मालिक बन बैठे।
                                         इस युद्ध में द्रविड़ों द्वारा निभाई गई भूमिका की दृष्टि से द्रविड़ों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में वह आते हैं जिन्होंने इस युद्ध में बहादुरी से लड़ते हुए अंत तक आर्यों के दांत खट्टे किए। उनसे आर्य लोग बहुत घबराते थे। दूसरी श्रेणी में वे द्रविड़ आते हैं जो इस युद्ध में आरंभ से ही तटस्थ रहें या युद्ध में भाग लेने के थोड़े समय बाद ही युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया।
                              आर्यों ने विजय प्राप्त कर लेने के बाद युद्ध में भाग लेने वाले और न लेने वाले दो श्रेणी के द्रविड़ों को शूद्र घोषित कर दिया और उनका काम आर्यों की सेवा करना भी निश्चित कर दिया। केवल इतना फ़र्क़ किया कि जिन द्रविड़ों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था उन्हें सछूत-शूद्र घोषित कर शांति से रहने दिया। कोली, माली, धुना, जुलाहे, कहार, डोम आदि इस क्षेणी में आते हैं। लेकिन जिन द्रविड़ों ने इस युद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अपनी शूर वीरता का परिचय दिया उन मार्शल लोगों को अछूत-शूद्र घोषित कर दिया और इसके साथ ही उन्हें इतनी बुरी तरह कुचल दिया जिससे कि वे लोग हज़ारों साल तक सिर भी न उठा सके। उनके कारोबार ठप कर दिए, उन्हें गांव के बाहर बसने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें इतना बेबस कर दिया कि उन्हें जीवित रहने के लिए मृत पशुओं का मांस खाना पड़ा। इन्होंने अपनी टट्टी उठवाने तक का काम भी हमें सौंपा जिसे उस समय हमने मजबूरी में उठाना शुरु कर दिया और आज तक उठा रहे हैं। जाटव, भंगी, चमार, महार, खटीक आदि इस श्रेणी के लोग हैं।
किन्तु इस मार्शल श्रेणी के लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा बना जिसने यह तय कर लिया कि ठीक है हम युद्ध में हार गए हैं लेकिन फिर भी हम इन आर्यों की ग़ुलामी स्वीकार नहीं करेंगे। वे लोग घोर जंगलों में निकल गए और वहीं पर रहने लगे। नागा, भील, संथाल, जरायु आदि जंगली जातियां इसी वर्ग में आती हैं, जो आज भी आर्यों की किसी भी सरकार को दिल से स्वीकार नहीं करती हैं और आज भी स्वतंत्रता पूर्वक जंगलों में ही रहना पसंद करती हैं।
                                                        आर्य संस्कृति का ही दूसरा नाम हिन्दु धर्म या हिन्दु समाज है। हिन्दु आज बात तो शांति की करते है, लेकिन हज़ारों वर्ष पूर्व हुए आर्य-द्रविड़ युद्ध में छल से हराए गए द्रविड़ संस्कृति के प्रति महाराजा रावण का प्रतिवर्ष पुतला जलाकर द्वेष भावना का प्रदर्शन करते हैं। आज भी वे शूद्रों को अपना शत्रु और ग़ुलाम मानकर उन्हें ज़िंदा जला डालते हैं, उनका क़त्लेआम करते हैं, उनके साथ तरह-तरह के अवर्णीय लोमहर्षक अत्याचार करते हैं। वर्तमान में हुए कुछ अत्याचारों के उदाहरण इस प्रकार हैं-
मंदिर में जल चढाने के आरोप में हरिजनों को गोली से उड़ा दिया
(हमारे कार्यालय संवाददाता द्वारा) नई दिल्ली 7, अगस्त।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले में खेरावाली गांव में शिव मंदिर में जल चढ़ाने जा रहे तीन हरिजनों को दिन-दहाड़े गोली से उड़ा दिया गया। तीन अन्य घायल हो गए, इनमें एक ग़ैर-हरिजन था। यह जानकारी यहां मध्य प्रदेश के भूतपूर्व स्वायत्त शासक मंत्री व अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ई. के सदस्य श्री राजाराम सिंह ने दी। उन्होंने बताया कि गोली तो डाकुओं ने मारी लेकिन उन्हें गांव के ठाकुरों ने बुलाया था। घटना का विवरण देते हुए श्री राजाराम सिंह ने बताया कि ठाकुरों ने हरिजनों को पहले ही धमकी दी थी कि उन्हें शिवालय में जल नहीं चढ़ाने दिया जाएगा। हरिजनों ने इस धमकी की रिपोर्ट थाने में लिखवाई। पुलिस ने धारा 107 के अन्तर्गत मामला तो दर्ज कर लिया लेकिन कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया। श्री सिंह के अनुसार हरिजन 28 जुलाई को जब मथुरा ज़िले के सोरोघाट से कांवर में जल लेकर गांव आए और शिवालय जाने लगे तो पहले से उपस्थित डाकुओं के एक गिरोह ने उन पर गोली चलाई। इनमें तीन हरिजन मारे गए तथा अनेक घायल हुए। यह घटना दिन में 3 और 4 बजे के बीच हुई। घटना के बाद डाकू बिना किसी लूटपाट के लौट गए। अभी तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई। (हिंदुस्तान दैनिक, दिनांक 8-8-1981)
हरिजन को पेड़ पर लटका कर मार दिया
                                    (सांध्य टाइम्स, दिनांक 11-8-1981) कोयम्बतूर से 20 किलोमीटर दूर मानपल्ली गांव में सवर्ण ज़मींदारों ने 20 वर्ष के हरिजन युवक को नारियल के पेड़ से लटका दिया। कई घंटे लटकने के बाद उस युवक की मृत्यु हो गई। पुलिस के अनुसार उस युवक के साथ दो हरिजन औरतों को भी नारियल के पेड़ से टांग दिया गया था। मगर युवक की मृत्यु के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। बताया जाता है कि दो ज़मींदार मोटर साईकिल पर गांव से कहीं बाहर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें दो हरिजन युवक और दो युवतियां दिखीं। उन ज़मींदारों को रास्ता देने पर झगड़ा हो गया। एक हरिजन युवक भाग खड़ा हुआ। शेष तीनों युवक युवतियों को नारियल के पेड़ से बांध दिया गया, जिससे युवक की मृत्यु हो गई।
                         इसके अतिरिक्त रोज़ाना ही अत्याचारों की ख़बरें अख़बारों में छपती रहती हैं। बेलछी, कफलटा, दिहुली, साढूपुर आदि में हुए दिल दहला देने वाले काण्ड कभी भुलाए नहीं जा सकते।देश में कोई ऐसा क्षण नहीं होगा जबकि दलित वर्ग पर अत्याचार नहीं होता होगा, क्योंकि अख़बार में तो कुछ ही ख़ास ख़बरें छप पाती हैं।
बाबा साहब ने इस संबंध में कहा हैः-
"ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय और अत्याचार का प्रश्न है। एक मनुष्य पर हो रहे अन्याय या अत्याचारों का प्रश्न नहीं है, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर ज़बरदस्ती किए जा रहे अतिक्रमण और ज़ुल्म, शोषण तथा उत्पीड़न का प्रश्न है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 9 से)
इस प्रकार यह एक निरंतर से चले आ रहे वर्ग कलह की समस्या है।
                                                           इन अत्याचारों को कौन करता है ? क्यों करता है ? और किस लिए करता है ?अत्याचारी अत्याचार करने में सफल क्यों हो रहा है ? क्या यह अत्याचार रोके जा सकते हैं ? अत्याचारों को रोकने का सही और कारगर उपाय, साधन या मार्ग क्या हो सकता है ? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर दलित वर्ग को आज फिर से संजीदगी से विचार करना चाहिए। दलित वर्ग पर अत्याचार हिन्दु धर्म के तथाकथित सवर्ण हिन्दु करते हैं और वे अत्याचार इस लिए नहीं करते कि दलित लोग उनका कुछ बिगाड़ रहे हैं बल्कि दलितों पर अत्याचार करना वे अपना अधिकार मान बैठे हैं और इस प्रकार का अधिकार उन्हें उनके धर्म ग्रन्थ भी देते हैं।
सवर्ण अपनी परंपरागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। जब दलित वर्ग परंपरागत उच्च वर्ग (हिन्दु) से व्यवहार करते वक़्त बराबरी के, समानता के रिश्ते से बर्ताव रखने का आग्रह करता है तब यह वर्ग कलह उत्पन्न होता है, क्योंकि ऊपरी वर्ग निचले वर्ग के इस प्रकार के व्यवहार को अपनी मानहानि मानता है। इस प्रकार सवर्ण अपनी परंपरागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। सवर्ण और दलित वर्ग के बीच यह एक रोज़ाना होने वाला ‘वर्ग कलह' है।

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में बताया है
                                                                "इस तरह से इस वर्ग कलह से अपना बचाव किया जा सकता है। इसका विचार करना अत्यावश्यक है। इस वर्ग कलह से अपना बचाव कैसे होगा ? इस प्रश्न का निर्णय करना मैं समझता हूं मेरे लिए कोई असंभव बात नहीं है। यहां इकट्ठा हुए आप सभी लोगों को एक ही बात मान्य करनी पड़ेगी और वह यह कि किसी भी कलह में, संघर्ष में, जिनके हाथ में सामर्थ्य होती है, उन्हीं के हाथ में विजय होती है, जिनमें सामर्थ्य नहीं है उन्हें अपनी विजय की अपेक्षा रखना फ़िज़ूल की बकवास है। इसके समर्थन में अन्य कोई आधार खोजने की बात भी फ़िज़ूल है। इस लिए तमाम दलित वर्ग को अब अपने हाथ में सामर्थ्य और शक्ति को इकट्ठा करना बहुत ज़रूरी है (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 10 से)
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