गवाहों की समानता
प्रश्नः क्या कारण है कि इस्लाम में दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के समान ठहराई जाती है?
उत्तरः दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर हमेशा नहीं ठहराई जाती।
(क) जब विरासत की वसीयत का मामला हो तो दो न्यायप्रिय (योग्य) व्यक्तियों की गवाही आवश्यक है।
पवित्र क़ुरआन की कम से कम 3 आयतें हैं जिनमें गवाहों की चर्चा स्त्री अथवा पुरुष की व्याख्या के बिना की गई है। जैसेः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए साक्ष्य का नियम यह है कि तुम्हारी जमाअत (समूह) में से दो न्यायप्रिय व्यक्ति गवाह बनाए जाएं। या यदि तुम यात्रा की स्थिति में हो और वहाँ मृत्यु की मुसीबत पेश आए तो ग़ैर (बेगाने) लोगों में से दो गवाह बनाए जाएं।’’ (सूरह अल-मायदा, आयत 106)
(ख) तलाकष् के मामले में दो न्यायप्रिय लोगों की बात की गई हैः
‘‘फिर जब वे अपनी (इद्दत) की अवधि की समाप्ति पर पहुंचें तो या तो भले तरीके से (अपने निकाह) में रोक रखो, या भले तरीके से उनसे जुदा हो जाओ और दो ऐसे लोगों को गवाह बना लो जो तुम में न्यायप्रिय हों और (हे गवाह बनने वालो!) गवाही ठीक-ठीक और अल्लाह के लिए अदा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन 65ः2)
(इस जगह इद्दत की अवधि की व्याख्या ग़ैर मुस्लिम पाठकों के लिए करना आवश्यक जान पड़ता है। इद्दत का प्रावधान इस्लामी शरीअत में इस प्रकार है कि यदि पति तलाकष् दे दे तो पत्नी 3 माह 10 दिन तक अपने घर में परिजनों की देखरेख में सीमित रहे, इस बीच यदि तलाकष् देने वाले पति से वह गर्भवती है तो उसका पता चल जाएगा। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो इद्दत की अवधि 4 माह है। यह इस्लाम की विशेष सामाजिक व्यवस्था है। इन अवधियों में स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती।) अनुवादक
(ग) स्त्रियों के विरूद्ध बदचलनी के आरोप लगाने के सम्बन्ध में चार गवाहों का प्रावधान किया गया हैः
‘‘और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएं और फिर 4 गवाह लेकर न आएं, उनको उसी कोड़े से मारो और उनकी गवाही न स्वीकार करो और वे स्वयं ही झूठे हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन 24ः4)
पैसे के लेन-देन में दो स्त्रियों की गवाही
एक पुरुष की गवाही के बराबर होती है
यह सच नहीं है कि दो गवाह स्त्रियाँ हमेशा एक पुरुष के बराबर समझी जाती हैं। यह बात केवल कुछ मामलों की हद तक ठीक है, पवित्र क़ुरआन में ऐसी लगभग पाँच आयतेें हैं जिनमें गवाहों की स्त्री-पुरुष के भेद के बिना चर्चा की गई है। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन की केवल एक आयत है जो यह बताती है कि दो गवाह स्त्रियाँ एक पुरुष के बराबर हैं। यह पवित्र क़ुरआन की सबसे लम्बी आयत भी है जो व्यापारिक लेन-देन के विषय में समीक्षा करती है। इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब किसी निर्धारित अवधि के लिये तुम आपस में कष्र्ज़ का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो। दोनों पक्षों के बीच न्याय के साथ एक व्यक्ति दस्तावेज़ लिखे, जिसे अल्लाह ने लिखने पढ़ने की योग्यता प्रदान की हो उसे लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए, वह लिखे और वह व्यक्ति इमला कराए (बोलकर लिखवाए) जिस पर हकष् आता है (अर्थात कष्र्ज़ लेने वाला) और उसे अल्लाह से, अपने रब से डरना चाहिए, जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न करे, लेकिर यदि कष्र्ज़ लेने वाला अज्ञान या कमज़ोर हो या इमला न करा सकता हो तो उसका वली (संरक्षक अथवा प्रतिनिधि) न्याय के साथ इमला कराए। फिर अपने पुरूषों में से दो की गवाही करा लो। ओर यदि दो पुरुष न हों तो एक पुरुष और दो स्त्रियाँ हों ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह बकष्रह आयत 282)
ध्यान रहे कि पवित्र क़ुरआन की यह आयत केवल और केवल व्यापारिक कारोबारी (रूपये पैसे के) लेन-देन से सम्बंधित है। ऐसे मामलों में यह सलाह दी गई है कि दो पक्ष आपस में लिखित अनुबंध करें और दो गवाह भी साथ लें जो दोनों (वरीयता में) पुरुष हों। यदि आप को दो पुरुष न मिल सकें तो फिर एक पुरुष और दो स्त्रियों की गवाही से भी काम चल जाएगा।
मान लें कि एक व्यक्ति किसी बीमारी के इलाज के लिए आप्रेशन करवाना चाहता है। इस इलाज की पुष्टि के लिए वह चाहेगा कि दो विशेषज्ञ सर्जनों से परामर्श करे, मान लें कि यदि उसे दूसरा सर्जन न मिले तो दूसरा चयन एक सर्जन और दो सामान्य डाक्टरों (जनरल प्रैक्टिशनर्स) की राय होगी (जो सामान्य एम.बी.बी.एस) हों।
इसी प्रकार आर्थिक लेन-देन में भी दो पुरुषों को तरजीह (प्रमुखता) दी जाती है। इस्लाम पुरुष मुसलमानों से अपेक्षा करता है कि वे अपने परिवारजनों का कफ़ील (ज़िम्मेदार) हो। और यह दायित्व पूरा करने के लिए रुपया पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी पुरुष के कंधों पर है। अतः उसे स्त्रियों की अपेक्षा आर्थिक लेन-देन के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दूसरे साधन के रुप में एक पुरुष और दो स्त्रियों को गवाह के रुप में लिया जा सकता है ताकि यदि उन स्त्रियों में से कोई एक भूल करे तो दूसरी उसे याद दिला दे। पवित्र क़ुरआन में अरबी शब्द ‘‘तनज़ील’’ का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘कन्फ़यूज़ हो जाना’ या ‘ग़लती करना’ के लिए किया जाता है। बहुत से लोगों ने इसका ग़लत अनुवाद करके इसे ‘‘भूल जाना’’ बना दिया है, अतः आर्थिक लेन-देन में (इस्लाम में) ऐसा केवल एक उदाहरण है जिसमें दो स्त्रियों की गवाही को एक पुरुष के बराबर कष्रार दिया गया है।
हत्या के मामलों में भी दो गवाह स्त्रियाँ
एक पुरुष गवाह के बराबर हैं
तथपि कुछ उलेमा की राय में नारी का विशेष और स्वाभाविक रवैया किसी हत्या के मामले में भी गवाही पर प्रभावित हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक भयभीत हो सकती है। अतः कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में हत्या के मामलों में भी दो साक्षी स्त्रियाँ एक पुरुष साक्षी के बराबर मानी जाती हैं। अन्य सभी मामलों में एक स्त्री की गवाही एक पुरुष के बराबर कष्रार दी जाती है।
पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से बताता है कि
एक गवाह स्त्री एक गवाह पुरुष के बराबर है
कुछ उलेमा ऐसे भी हैं जो यह आग्रह करते हैं कि दो गवाह स्त्रियों के एक गवाह पुरुष के बराबर होने का नियम सभी मामलों पर लागू होना चाहिए। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि पवित्र क़ुरआन ने सूरह नूर की आयत नम्बर 6 में स्पष्ट रूप से एक गवाह औरत को एक पुरुष गवाह के बराबर कष्रार दिया हैः
‘‘और जो लोग अपनी पत्नियों पर लांच्छन लगाएं, और उनके पास सिवाय स्वयं के दूसरे कोई गवाह न हों उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि) चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है और पाँचवी बार कहे कि उस पर अल्लाह की लानत हो, अगर वह (अपने आरोप में) झूठा हो। और स्त्री से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है, और पाँचवी बार कहे कि इस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) टूटे अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो।’’ (सूरह नूर 6 से 9)
हदीस को स्वीकारने हेतु हज़रत आयशा
(रज़ियल्लाहु अन्हा) की अकेली गवाही पर्याप्त है
उम्मुल मोमिनीन (समस्त मुसलमानों की माता) हज़रत आयशा रजि़. (हमारे महान पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पत्नी) के माध्यम से कम से कम 12,220 हदीसें बताई गई हैं। जिन्हें केवल हज़रत आयशा रजि़. एकमात्र गवाही के आधार पर प्रामाणिक माना जाता है।
(इस जगह यह जान लेना अनिवार्य है कि यह बात उस स्थिति में सही है कि जब कोई पवित्र हदीस (पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथन अथवा कार्य की चर्चा अर्थात हदीस के उसूलों पर खरी उतरती हो (अर्थात किसने किस प्रकार क्या बताया) के नियम के अनुसार हो, अन्यथा वह हदीस चाहे कितने ही बड़े सहाबी (वे लोग जिन्होंने सरकार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा सुना है) के द्वारा बताई गई हो, उसे अप्रामाणिक अथवा कमज़ोर हदीसों में माना जाता है।) अनुवादक
यह इस बात का स्पष्ट सबूत है कि एक स्त्री की गवाही भी स्वीकार की जा सकती है।
अनेक उलेमा तथा इस्लामी विद्वान इस पर एकमत हैं कि नया चाँद दिखाई देने के मामले में एक (मस्लिम) स्त्री की साक्षी पर्याप्त है। कृपया ध्यान दें कि एक स्त्री की साक्षी (रमज़ान की स्थिति में) जो कि इस्लाम का एक स्तम्भ है, के लिये पर्याप्त ठहराई जा रही है। अर्थात वह मुबारक और पवित्र महीना जिसमें मुसलमान रोज़े रखते हैं, गोया रमज़ान शरीफ़ के आगमन जैसे महत्वपूर्ण मामले में स्त्री-पुरुष उसे स्वीकार कर रहे हैं। इसी प्रकार कुछ फुकहा (इस्लाम के धर्माचार्यों) का कहना है कि रमज़ान का प्रारम्भ (रमज़ान का चाँद दिखाई देने) के लिए एक गवाह, जबकि रमज़ान के समापन (ईदुलफ़ित्र का चाँद दिखाई देने) के लिये दो गवाहों का होना ज़रूरी है। यहाँ भी उन गवाहों के स्त्री अथवा पुरुष होने की कोई भी शर्त नहीं है।
कुछ मुसलमानों में स्त्री की गवाही को
अधिक तरजीह दी जाती है
कुछ घटनाओं में केवल और केवल एक ही स्त्री की गवाही चाहिए होती है जबकि पुरुष को गवाह के रूप में नहीं माना जाता। जैसे स्त्रियों की विशेष समस्याओं के मामले में, अथवा किसी मृतक स्त्री के नहलाने और कफ़नाने आदि में एक स्त्री का गवाह होना आवश्यक है।
अंत में इतना बताना पर्याप्त है कि आर्थिक लेन-देन में स्त्री और पुरुष की गवाही के बीच समानता का अंतर केवल इसलिए नहीं कि इस्लाम में पुरुषों और स्त्रियों के बीच समता नहीं है, इसके विपरीत यह अंतर केवल उनकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के कारण है। और इन्हीं कारणों से इस्लाम ने समाज में पुरूषों और स्त्रियों के लिये विभिन्न दायित्वों को सुनिश्चित किया है।
GAVAHO KI SAMANTA
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