अहकाम ज़कात-उल-फ़ित्र

अहकाम ज़कात-उल-फ़ित्र

ज़कात-ए-फ़ित्र के मसाइल

आ'दाद:
🖌...अब्दुल हादी अब्दुल ख़ालिक़ मदनी 
दा'ई अहसा इस्लामिक सेंटर सऊदी अरब

हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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ज़कात-ए-फ़ित्र की फ़र्ज़ियत:

सौम ए रमज़ान की फ़र्ज़ियत के साल ही 2 हिजरी-सन में इस की मशरू'इय्यत हुई माह-ए-रमज़ान मुकम्मल होने पर सलात-ए-'ईद की अदाएगी से क़ब्ल (पहले) हर मुसलमान पर ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी फ़र्ज़ है रसूलुल्लाह ﷺ ने हर मुसलमान पर ख़्वाह (चाहे) छोटा हो या बड़ा मर्द हो या औरत आज़ाद हो या ग़ुलाम ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी को फ़र्ज़ क़रार दिया है
«فَرَضَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ زَكَاةَ الفِطْرِ صَاعًا مِنْ تَمْرٍ، أَوْ صَاعًا مِنْ شَعِيرٍ عَلَى العَبْدِ وَالحُرِّ، وَالذَّكَرِ وَالأُنْثَى، وَالصَّغِيرِ وَالكَبِيرِ مِنَ المُسْلِمِينَ، وَأَمَرَ بِهَا أَنْ تُؤَدَّى قَبْلَ خُرُوجِ النَّاسِ إِلَى الصَّلاَةِ»( أخرجه البخاري في أبواب صدقة الفطر باب فرض صدقة الفطر رقم 1432۔ أخرجه مسلم في الزكاة باب زكاة الفطر على المسلمين من التمر والشعير رقم 984۔ )
" अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते है: रसूलुल्लाह ﷺ ने रमज़ान का फ़ित्रा एक सा' खजूर या एक सा' जौ हर आज़ाद व ग़ुलाम मर्द व औरत छोटे और बड़े मुसलमान पर फ़र्ज़ क़रार दिया है नीज़ (और) आप ने हुक्म दिया कि 'ईद के लिए लोगों के निकलने से पहले उसे अदा कर दिया जाए "
हर मुसलमान को अपनी तरफ़ से और अपने बीवी बच्चों और उन तमाम लोगों की तरफ़ से जिन का नान-ओ-नफ़क़ा (रोटी-कपड़ा) उस पर लाज़िम है ज़कात ए फ़ित्र अदा करना चाहिए
बहुत सारे मुसलमान ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी में ग़फ़लत व लापरवाही से काम लेते हैं जो यक़ीनन इंतिहाई (बहुत) अफ़सोस-नाक हरकत है

ज़कात ए फ़ित्र की हिकमत

ज़कात ए फ़ित्र में बहुत सी दीनी व अख़्लाक़ी और इज्तिमा'ई व मु'आशरती हिकमतें पाई जाती है चंद का हम मुख़्तसर तौर पर ज़िक्र कर रहे है
(1) ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी में अल्लाह की ने'मत के शुक्रिया का इज़हार है कि इस ने रमज़ान के सियाम ओ क़ियाम की तकमील की तौफ़ीक़ (हिम्मत) बख़्शी और इस महीने में नेक आ'माल करने की सुहूलत (आसानी) 'अता फ़रमाई 
(2) ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी से हालत ए सौम सादिर (जारी) हो जाने वाली कोताहियों, खामियों, कमियों, लग़्वियात (बेहूदा बातें) नक़ाइस (बुराइयाँ) और गुनाह के कामों से पाकी हो जाती है
(3) ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी फ़ुक़रा और मसाकीन के साथ बेहतर सुलूक और नेक-रवय्या का मज़हर (निशानी) है 
(4) ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी से सख़ावत व फ़य्याज़ी और हमदर्दी ओ ग़म-ख़्वारी की बुलंद-तरीन अख़्लाक़ पैदा होते है
(5) ज़कात ए फ़ित्र की अदाएगी से 'ईद के पुर-मसर्रत (खुशियों से भरपूर) मौक़ा' पर ग़रीबों, मोहताजों और ज़रूरतमंदों को भीक माँगने की ज़िल्लत से महफ़ूज़ रखा जाता है ता-कि (इसलिए कि) वो भी अमीरों और दौलतमंदों के दोश-ब-दोश (कंधे से कंधा मिलाए हुए) 'ईद की खुशियों में शरीक हो सकें और 'ईद सब की 'ईद हो 
عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ قَالَ فَرَضَ رَسُولُ اللَّهِ -صلى الله عليه وسلم- زَكَاةَ الْفِطْرِ طُهْرَةً لِلصَّائِمِ مِنَ اللَّغْوِ وَالرَّفَثِ وَطُعْمَةً لِلْمَسَاكِينِ مَنْ أَدَّاهَا قَبْلَ الصَّلاَةِ فَهِىَ زَكَاةٌ مَقْبُولَةٌ وَمَنْ أَدَّاهَا بَعْدَ الصَّلاَةِ فَهِىَ صَدَقَةٌ مِنَ الصَّدَقَاتِ.( رواه أبو داود وابن ماجه والحاكم وحسنه الألباني في صحيح الترغيب والترهيب (1/ 263) رقم: 1085 - )
अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से मर्वी है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने ज़कात ए फ़ित्र को साइम (रोज़े-दार) की लग़्व (झूठ) और बेहूदा बातों से पाकी (पवित्रता) के लिए और मिस्कीनों की ख़ुराक के लिए मुकर्रर फ़रमाया जिस ने इसे सलात-ए-'ईद से पहले अदा किया तो उस की ज़कात मक़बूल (मंजूर) है और जिस ने सलात-ए-'ईद के बाद अदा किया तो वो (ज़कात ए फ़ित्र नहीं बल्कि) 'आम सदक़ों की तरह एक सदक़ा होगा "

ज़कात ए फ़ित्र में कौन सी जिंस (चीज़) निकालनी चाहिए ?

ज़कात ए फ़ित्र उन अजनास (चीज़ों) में से होना चाहिए जो इंसानों की ख़ुराक है मसलन (जैसे) गेहूँ,जौ,खजूर,किशमिश, पनीर, चावल,मकई या कोई दीगर चीज़ जो इंसानों की ख़ुराक मानी जाती है
अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते है: 
«كُنَّا نُخْرِجُ زَكَاةَ الفِطْرِ صَاعًا مِنْ طَعَامٍ، أَوْ صَاعًا مِنْ شَعِيرٍ، أَوْ صَاعًا مِنْ تَمْرٍ، أَوْ صَاعًا مِنْ أَقِطٍ، أَوْ صَاعًا مِنْ زَبِيبٍ»( أخرجه البخاري في أبواب صدقة الفطر باب صدقة الفطر صاع من طعام رقم 1435۔ ) 
" हम नबी ﷺ के ज़माने में एक सा' ग़ल्ला (खाना) सदक़ा ए फ़ित्र निकाला करते थे और उन दोनों हमारा ग़ल्ला (खाना) जौ,किशमिश, पनीर और खजूर था "
मा'लूम हुआ कि:
(1) जानवरों का चारा फ़ित्रा में निकालना दुरुस्त नहीं क्यूंकि नबी ﷺ ने फ़ित्रा मिस्कीनों की ख़ुराक के लिए फ़र्ज़

किया है न कि चौ-पायों की ख़ुराक के लिए
(2) आदमियों की ख़ुराक के अलावा कपड़े,फ़र्श (बिछौना) बर्तन और साज़-ओ-सामान वग़ैरा भी फ़ित्रा में निकालना सहीह नहीं क्यूंकि नबी ﷺ ने इसे ग़ल्ला में मुत'अय्यन (मुक़र्रर) किया है चुनांचे (जैसा कि) आप ﷺ के मुत'अय्यन-कर्दा (मुक़र्रर-कर्दा) हुदूद से तजावुज़ (ख़िलाफ़-वर्ज़ी) नहीं किया जाएगा
(3) ग़ल्ला (अनाज) की क़ीमत निकालना भी दुरुस्त नहीं क्यूंकि:
यह रसूलुल्लाह ﷺ के हुक्म की ख़िलाफ़-वर्ज़ी (नाफ़रमानी) है
* क़ीमत निकालना 'अमल-ए-सहाबा के भी ख़िलाफ़ हैं सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुमा एक सा' ग़ल्ला ही निकाला करते थे 
* नबी ﷺ ने सदक़ा ए फ़ित्र मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) अजनास (सामान) मुत'अय्यन (मुक़र्रर) किया है जिन की कीमतें ग़ालिबन (लगभग) मुख़्तलिफ़ होती है अगर क़ीमत का ए'तिबार होता तो किसी एक जिंस (चीज़) का एक सा' वाजिब होता और दूसरे अजनास (सामान) से इस की क़ीमत के मुताबिक़ (अनुसार) मिक़दार (क़ीमत) वाजिब (ज़रूरी) होती
* क़ीमत निकालने से फ़ित्रा की हक़ीक़त ख़त्म हो जाती है क्यूंकि वो एक ज़ाहिरी शि'आर (पहचान) है जिसे सब जानते हैं जबकि क़ीमत निकालने की शक्ल में वो एक मख़्फ़ी (छिपा हुआ) सदक़ा हो जाता है जिसे सिर्फ़ देने और लेने वाले ही जानते हैं

 ज़कात ए फ़ित्र कब वाजिब होता है ?

'ईद की रात सूरज डूबने के वक़्त सदक़ा ए फ़ित्र वाजिब (ज़रूरी) होता है अगर कोई शख़्स ग़ुरूब (डूबने) से पहले ख़्वाह (चाहे) चंद मिनट ही पहले इंतिक़ाल कर जाए तो उस पर सदक़ा ए फ़ित्र वाजिब नहीं और अगर ग़ुरूब (डूबने) के बाद इंतिक़ाल हुआ ख़्वाह (चाहे) चंद ही मिनट बाद तो सदक़ा ए फ़ित्र निकालना वाजिब (ज़रूरी) है इसी तरह अगर ग़ुरूब से पहले बच्चे की पैदाइश हुई तो उस की तरफ़ से फ़ित्रा निकालना वाजिब है और अगर ग़ुरूब के बाद पैदाइश हुई तो वाजिब (ज़रूरी) नहीं

ज़कात ए फ़ित्र अदा करने का वक़्त

फ़ित्रा अदा करने के दो औक़ात (वक़्त) है एक फ़ज़ीलत का वक़्त और एक जवाज़ (जाइज़) का वक़्त
फ़ज़ीलत का वक़्त ईद के दिन सलात-ए-ईद से पहले का है लिहाज़ा (इसलिए) अफ़ज़ल (बेहतरीन) यह है कि 'ईद के दिन सलात ए 'ईद से पहले ज़कात ए फ़ित्र ग़रीब को दिया जाए
सहीह बुखारी में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीष में है कि नबी ﷺ ने सलात-ए-ईद के लिए लोगों के निकलने से पहले ज़कात ए फ़ित्र अदा करने का हुक्म दिया
عن ابن عمر رضي الله عنهما : أن النبي صلى الله عليه و سلم أمر بزكاة الفطر قبل خروج الناس إلى الصلاة( أخرجه البخاري في أبواب صدقة الفطر باب الصدقة قبل العيد رقم 1438۔ )۔
जवाज़ (जाइज़) का वक़्त 'ईद से एक या दो दिन पहले का है लिहाज़ा (इसलिए) एक मुसलमान के लिए यह जाइज़ हैं कि एक या दो दिन पहले ही ज़कात ए फ़ित्र ग़रीब को पहुंचा दे लेकिन याद रहे कि इस से पहले अगर फ़ित्रा दे दिया गया तो अदा न होगा अगर किसी ने अट्ठाईस रमज़ान से पहले ही फ़ित्रा अदा कर दिया तो क़ब्ल-अज़-वक़्त (समय से पहले) अदाएगी की बिना पर फ़ित्रा अदा न होगा दोबारा अदा करना पड़ेगा 
सहीह बुखारी में नाफ़े' रहिमहुल्लाह से रिवायत है कि इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हु छोटे और बड़े सब की तरफ़ से फ़ित्रा निकालते थे यहां तक कि वो मेरे बेटों की तरफ़ से भी दे देते थे फ़ित्रा उन लोगों को देते थे जो इसे क़ुबूल किया करते थे नीज़ (और) इसे 'ईद-उल-फ़ित्र से एक दिन या दो दिन पहले दे दिया जाता था
يقول نافع رحمه الله: فكان ابن عمر يعطي عن الصغير والكبير حتى إن كان يعطي عن بني . وكان ابن عمر رضي الله عنهما يعطيها الذين يقبلونها وكانوا يعطون قبل الفطر بيوم أو يومين( أخرجه البخاري في أبواب صدقة الفطر باب صدقة الفطر على الحر والمملوك رقم 1440 ۔ )۔ 
जिस तरह फ़ित्रा क़ब्ल-अज़-वक़्त (समय से पहले) देना जाइज़ नहीं इसी तरह फ़ित्रा की अदाएगी में किसी 'उज़्र (मजबूरी) के बग़ैर सलात ए 'ईद पढ़ लेने तक ताख़ीर भी जाइज़ नहीं अगर किसी ने दानिस्ता (जान बूझ कर) तौर पर मुअख़्ख़र कर दिया तो क़ुबूल न होगा अलबत्ता (लेकिन) अगर कोई शर'ई 'उज़्र (मजबूरी) है तो हरज नहीं

ज़कात ए फ़ित्र की मिक़दार (वज़न)

हर फ़र्द (व्यक्ति) की तरफ़ से एक सा' ग़ल्ला सदक़ा ए फ़ित्र की मिक़दार (वज़न) है एक सा' ग़ल्ला का वज़न अच्छे गेहूँ से तक़रीबन (लगभग) ढाई किलो ग्राम होता है मा'लूम रहें कि सा' नापने का एक पैमाना है नापने वाली चीज़ को जब वज़न में तब्दील किया जाएगा तो मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) चीज़ों का वज़न और बसा-औक़ात (कभी-कभी) एक ही चीज़ का वज़न इस की कैफ़ियत बदल जाने से मुख़्तलिफ़ हो जाता है इसी लिए बतौर एहतियात ग़रीबों का ख़याल रखतें हुए अगर कोई तीन किलो ग़ल्ला अदा कर दे तो ज़ियादा बेहतर है
अगर किसी के पास वज़न करने का कोई आला (औज़ार) मौजूद न हो तो मुतवस्सित (न बड़ा न छोटा) आदमी के हाथ से चार लप (चुल्लू) दे देने से एक आदमी की तरफ़ से फ़ित्रा अदा हो जाएगा

ज़कात ए फ़ित्र का मसरफ़ (उपयोग) और इस के हक़दार

ज़कात ए फ़ित्र के हक़दार सिर्फ़ फ़ुक़रा और मसाकीन है ज़कात के बक़िया आठों मसरफ़ में इसे ख़र्च नहीं किया जा सकता क्यूंकि इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु की हदीष है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने सदक़ा ए फ़ित्र फ़र्ज़ किया लग़्व (झूठ) और बेहूदगी से साइम (रोज़े-दार) की पाकी के लिए और मिस्कीनों की ख़ुराक है
عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ قَالَ فَرَضَ رَسُولُ اللَّهِ -صلى الله عليه وسلم- زَكَاةَ الْفِطْرِ طُهْرَةً لِلصَّائِمِ مِنَ اللَّغْوِ وَالرَّفَثِ وَطُعْمَةً لِلْمَسَاكِينِ مَنْ أَدَّاهَا قَبْلَ الصَّلاَةِ فَهِىَ زَكَاةٌ مَقْبُولَةٌ وَمَنْ أَدَّاهَا بَعْدَ الصَّلاَةِ فَهِىَ صَدَقَةٌ مِنَ الصَّدَقَاتِ.( رواه أبو داود وابن ماجه والحاكم وحسنه الألباني في صحيح الترغيب والترهيب (1/ 263) رقم: 1085 - )
लिहाज़ा (इसलिए) मस्जिद या मदरसा या इस्लामी मराकिज़ में सदक़ा ए फ़ित्र देना दुरुस्त नहीं हां ऐसी जम'इय्यत में फ़ित्रा दे सकते हैं जो इसे ग़रीबों और मिस्कीनों में ख़र्च करने का इंतिज़ाम करतीं हों और इसे अस्ल हक़दार तक पहुंचाती हो
फ़ित्रा एक से ज़ियादा फ़क़ीरो में भी तक़सीम किया जा सकता है और यह भी जाइज़ हैं कि कई फ़ितरे एक ही फ़क़ीर को दे दिए जाए
नोट: कुछ लोगों की 'आदत यह है कि फ़ुक़रा ओ मसाकीन के बजाए रिश्तेदारों, पड़ोसियों या बाहमी (आपस में) तबादिला के तौर पर या हर साल चंद मुत'अय्यन (मुक़र्रर) ख़ानदानों ही को ज़कात ए फ़ित्र दिया करते हैं और उन की माली पोजीशन पर ग़ौर नहीं करते कि वो ज़कात के हक़दार है भी या नहीं ज़ाहिर है कि अगर मज़कूरा लोग ग़रीब व मिस्कीन नहीं है तो वो न ही फ़ित्रा लेने के हक़दार है और न ही उन को फ़ित्रा दिया जाना दुरुस्त है अल्लाह-त'आला हर मुसलमान को सदक़ा ए फ़ित्र की दुरुस्त अदाएगी और सहीह मसरफ़ में इसे ख़र्च करने की तौफ़ीक़ अता फरमाए आमीन

ज़कात ए फ़ित्र देने की जगह

मुसलमान जहां पर 'ईद करे वही के फ़क़ीरों को अपना फ़ित्रा दे दे ख़्वाह (चाहे) वो इस का वतन हो या वहां 'आरज़ी तौर पर मुक़ीम हो और अगर किसी दूसरी जगह या दूसरी बस्ती के फ़क़ीरों को पहुंचा दे तो भी कोई हरज नहीं क्यूंकि अस्ल जवाज़ है और दूसरी जगह भेजने से रोकने वाली कोई दलील मौजूद नहीं

والحمد لله رب العالمين وصلى الله على نبينا وسلم
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