आप ﷺ ब-हैसियत ख़ाविंद | Aap ﷺ b-haisiyat Khawind(Shohar)

 आप ﷺ ब-हैसियत ख़ाविंद | Aap ﷺ b-haisiyat Khawind(Shohar)

  बिला-शुब्हा (यक़ीनन) हमारे प्यारे रसूल हज़रत मोहम्मद ﷺ ज़िंदगी के तमाम शो'बे (विभाग) में हमारे लिए ideal और नमूना हैं आप ﷺ के अक़्वाल-व-अफ़'आल (काम और बातें) और इरशादात-व-ता'लीमात (आदेश) ज़िंदगी के हर एक गोशे और पहलू को शामिल हैं और ज़िंदगी के तमाम मराहिल (पड़ाव) को मुहीत (घेरा) हैं 'इबादात और उन की कैफ़ियत (हालत) मु'आमलात (व्यवहार) और उनके जुज़इयात (छोटी छोटी बातें) बचपन-व-लड़क-पन, बुलूग़त-व-जवानी और कुहूलत-व-बुढ़ापा ग़रज़े-कि (ख़ुलासा ये कि) तमाम मु'आमलात (व्यवहार) और तमाम मराहिल (पड़ाव) में हमारी रहनुमाई (नेतृत्व) के लिए आप के अक़्वाल-व-अफ़'आल (बातें और काम) मौजूद (सामने) है ताकि उन्हें 'अमली जामा पहना कर हम दोनों जहां में स'आदत (भलाई) और ख़ुशी-व-मसर्रत (आनंद) हासिल कर सकें यह मुख़्तसर मज़मून (लेख) आप ﷺ की इज़दिवाजी (विवाह संबंधी) ज़िंदगी के एक अहम गोशा से मुत'अल्लिक़ (बारे में) है और वो यह है कि आप ﷺ अपनी अज़्वाज-ए-मुतह्हरात और पाकबाज़ बीवियों के साथ शब-ओ-रोज़ (रात-दिन) कैसे गुज़ारते थे ? आप उनके साथ कैसा त'आमुल (मु'आमला) फ़रमाते थे ?
उनसे 'अहद-ए-वफ़ा कैसे निभाते थे और उनका नाज़ (लाड़-प्यार) कैसे उठाते थे ? आज मियाँ-बीवी के ख़राब त'अल्लुक़ात (संबंध) को उस्तुवार (मज़बूत) करने और उनकी बे-कैफ़ (उदास) ज़िंदगी को पुर-कैफ़ (ख़ूबसूरत) बनाने के लिए आप ﷺ की ख़ानगी-ज़िंदगी के उस अहम गोशे (पहलू) से पर्दा उठाना और इस सिलसिले में आप की रौशन ता'लीमात (शिक्षाएं) और आ'ला (श्रेष्ठ) अख़्लाक़-व-किरदार (व्यवहार) से रौशनी हासिल करना बेहद (बहुत) ज़रुरी है मियाँ-बीवी के ख़राब त'अल्लुक़ात (संबंध) का 'इलाज सिर्फ़ आप की सीरत (character) में ही मिलेगा क्यूंकि एक कामयाब और अच्छे शौहर होने के लिए जो औसाफ़ (गुण) और ख़ूबियां दरकार (ज़रूरी) होती हैं वो सब आप ﷺ की ज़ात सुतुदा-सिफ़ात (आचार व्यवहार) में ब-दर्जा-अतम (संपूर्ण) मौजूद थी अल्लाह-त'आला ने क़ुर'आन-ए-मजीद में आप ﷺ की ज़िंदगी को हमारे लिए नमूना (आदर्श) क़रार देते हुए फ़रमाया:
{ لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِي رَسُولِ اللَّهِ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ}
तर्जमा: बेशक तुम सबके लिए रसूलुल्लाह ﷺ की ज़िंदगी में बेहतरीन नमूना है।
( सूरा अल्-अह़ज़ाब:21)
इब्ने 'आशूर फ़रमाते हैं:
" अल्लाह-त'आला ने आप ﷺ की पूरी ज़ात को नमूना बनाया है और यहां किसी ख़ास वस्फ़ (गुण) का ज़िक्र नहीं किया ताकि यह इत्तिबा'-व-पैरवी (अनुसरण) आप के अक़्वाल-व-अफ़'आल दोनों को शामिल हो " अल्लाह-त'आला ने ब-शुमूल (साथ लेकर) रसूलुल्लाह ﷺ के पूरी उम्मत को औरतों के साथ हुस्न-ए-सुलूक (अच्छा व्यवहार) करने और उनसे अच्छे तरीक़े से पेश आने का हुक्म दिया है: इरशाद-ए-बारी-त'आला है:
{ وَعَاشِرُوهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ}
तर्जमा: और उसके साथ अच्छे तरीक़े से ज़िंदगी बसर करो।
( सूरा अन्-निसा:19)
आप ﷺ अपनी इज़दिवाजी ज़िंदगी में इस हुक्म-ए-इलाही पर 'अमल-दर-आमद (आज्ञा पालन) करके अपनी उम्मत के लिए एक 'अमली नमूना पेश करने के बाद इस दार-ए-फ़ानी से रुख़्सत हुए चुनांचे (इसलिए) आप ﷺ की सीरत-ए-पाक और ज़ख़ीरा-ए-अहादीस का मुताल'अ (अध्ययन) करने वाला इस बात का गवाह है कि आप ﷺ ने पूरी ज़िंदगी अपनी अज़्वाज-ए-मुतह्हरात और बीवियों से लुत्फ़-ओ-नर्मी, प्यार-ओ-मोहब्बत और हुस्न-ए-सुलूक का मु'आमला फ़रमाया और ता-दम-ए-ज़ीस्त ('उम्र-भर) सब के साथ अच्छे तरीक़े से ज़िंदगी बसर की यहां इस अहम (ख़ास) गोशे (पहलू) से मुत'अल्लिक़ (विषय में) आप ﷺ के अख़्लाक़-ओ-किरदार (व्यवहार) और ता'लीमात (शिक्षाओं) की कुछ झलकियां पेश कर ने की कोशिश की जा रही है।

  सबसे पहले यह जान लें कि अच्छा इंसान वो है जो अपनी बीवी बच्चों के साथ अच्छा सुलूक (व्यवहार) करने वाला हो आप ﷺ ने फ़रमाया:
«خَيْرُكُمْ خَيْرُكُمْ لِأَهْلِهِ وَأَنَا خَيْرُكُمْ لِأَهْلِي»
तर्जमा: तुम में सबसे बेहतर वो शख़्स है जो अपने अहल-ओ-'अयाल (family) के साथ बेहतर मु'आमला करता हो और मैं अपने अहल-ओ-'अयाल (family) के साथ बेहतर मु'आमला करता हूं।
(तिर्मिज़ी:3895, सहीह)
इस हदीष की रोशनी में आदमी को अपना जाइज़ा लेना चाहिए कि क्या वो अपनी बीवी और बच्चों के साथ अच्छा सुलूक (व्यवहार) करता है या बुरा सुलूक करता है ?
अगर वो अच्छा सुलूक (व्यवहार) करता है तो अच्छा इंसान है और उसके बर-'अक्स (विरुद्ध) अगर बुरा सुलूक करता है तो वो बुरा इंसान है हमारे मु'आशरे (समाज) में बा'ज़ (चंद) लोग ऐसे हैं जो घर के बाहर लोगों के साथ अच्छा बरताव करते हैं उनसे हँस-मुख और हश्शाश-बश्शाश (बहुत खुश) हो कर मिलते हैं उन की मदद करते हैं और उनके काम आते हैं लेकिन जब वो अपने घर के अंदर दाख़िल होते हैं तो दारोग़ा बन कर दाख़िल होते हैं उनके दाख़िल होते ही घर की फ़ज़ा (माहौल) मुकद्दर (उदास) हो जाती
है वो बात बात पर ज़बानदराज़ी (बदज़बानी) से लेकर दस्त-दराज़ी (मार-पीट) तक करते हैं जिससे घर के माहौल में चैन-ओ-सुकून नहीं होता और दूर-दूर तक ख़ुशी-व-मसर्रत (प्रसन्नता) नज़र नहीं आती हालांकि हमारे हुस्न-ए-सुलूक का सबसे ज़ियादा हकदार हमारे घर वाले होते हैं क्यूंकि उनके साथ हमें अपनी ज़िंदगी गुज़ारनी होती है हमारे मसाइल उन्हीं के साथ जुड़े होते हैं हम सुब्ह-ओ-शाम के लम्हात (पल) उन्हीं के साथ गुज़ारते हैं और हमारे दुख-सुख में वही काम आते हैं लिहाज़ा (इसलिए) उनके साथ हमारा त'आमुल (मु'आमला) दूसरों के मुक़ाबले में बेहतर होना चाहिए यही आप ﷺ की ता'लीम (शिक्षा) है और यही आप ﷺ का तरीक़ा है।

  आप ﷺ अज़्वाज-ए-मुतह्हरात को नेकी का हुक्म देते आ'माल-ए-सालिहा अंजाम देने पर उभारते ने'मत-ए-आख़िरत की रग़बत (शौक़) दिलाते और दुनिया और उसकी फ़ित्ना-सामानी (झगड़ा और फ़साद) से डराते ताकि घरों में दीनी माहौल हो और सब के सब इस हदफ़ (लक्ष्य) और मक़्सद को हासिल करने में कामयाब हो जिस के लिए सब को अल्लाह-त'आला ने पैदा किया है चुनांचे (जैसा कि) हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं कि जब रमज़ान का आख़िरी अश्रा आता तो आप ﷺ अपनी कमर पूरी तरह कस लेते और उन रातों में आप ख़ुद भी जागते और अपने घर वालों को भी जगाया करते थे
(सहीह बुख़ारी:2024)
और उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा रिवायत करती हैं कि एक रात नबी-ए-करीम ﷺ ने बेदार होते ही फ़रमाया कि सुब्हान-अल्लाह आज की रात किस-क़दर फ़ित्ने उतारे गए हैं और कितने ख़ज़ाने खोले गए हैं उन हुजरा (कोठरी) वालियों अज़्वाज-ए-मुतह्हरात को जगाओं क्यूंकि बहुत सी औरतें जो दुनिया में बारीक (पतला) कपड़ा पहनने वाली हैं वो आख़िरत में नंगी होगी।
(सहीह बुख़ारी:115)
आज हम अपने अहल-ए-ख़ाना (फ़ैमिली) की दीनी ता'लीम-ओ-तर्बियत और तज़्कीर-ओ-तज़्किया (वा'ज़-ओ-नसीहत) के सिलसिले में जिस बे-हिसी (भावना की कमी) और तसाहुल (लापरवाई) के शिकार हैं वो निहायत (बहुत) अफ़सोस-नाक है बहुत से लोग सौम-ओ-सलात (रोज़ा नमाज़) के पाबंद होते हैं उनका वज़'-क़त' (शक्ल-ओ-सूरत) भी इस्लामी होता है और वो अपनी ज़िंदगी इस्लामी ता'लीमात-व-हिदायात के मुताबिक़ (अनुसार) गुज़ारने की कोशिश करते हैं लेकिन उन की बीवियां और उनके दीगर (अन्य) अहल-ए-ख़ाना नमाज़ तक नहीं पढ़ते या नमाज़ का एहतिमाम (प्रबंध) नहीं करते और इस्लामी श'आइर-व-हुदूद की धज्जियाँ उड़ाते हैं मगर वो उन की इस्लाह के लिए फ़िक्र-मंद (परेशान) नज़र नहीं आते।

  आप ﷺ अपनी बीवियों से शदीद (बहुत ज़्यादा) मोहब्बत करते थे यहां तक कि यह मोहब्बत आप के लिए एक फ़ितरी और जिबिल्ली (हक़ीक़ी) चीज़ के क़ाइम-मक़ाम हो गई थी आप ﷺ ने फ़रमाया:
" दुनिया की चीज़ों में दो चीज़ें मुझे पसंद हैं औरत और ख़ुशबू और नमाज़ में मेरी आंखों की ठंडक है।
(सुनन अल-नसाई:3940)
आप ﷺ की बीवियों से मोहब्बत का 'आलम (हाल) यह था कि आप बर्तन के उसी हिस्से से खाते या पीते जिस हिस्से से आप की कोई बीवी खाती या पीती हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं कि मैं हैज़ की हालत में पानी पीती फिर मैं बर्तन नबी ﷺ को पकड़ा देती आप मेरे मुंह वाली जगह पर अपना मुंह मुबारक रख कर नोश फ़रमाते मैं हड्डी से गोश्त नोचती जबकि मैं हैज़ से होती थी और मैं वो हड्डी आप को पकड़ा देती तो आप मेरे मुंह वाली जगह पर अपना मुंह मुबारक रखते
(देखें सहीह मुस्लिम:300)
आप ﷺ अपनी बीवियों का बोसा लेते हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ रोज़े की हालत में अपनी बीवी का बोसा ले लेते थे और मु'आनक़ा (गले मिलना) भी फ़रमा लेते थे लेकिन आप ﷺ तुम्हारी निस्बत (तुलना) अपनी ख़्वाहिश पर ज़ियादा कंट्रोल और ज़ब्त (बरदाश्त) करने वाले थे।
(सहीह बुख़ारी:1927, सहीह मुस्लिम:1106)
आप ﷺ बीवियों से इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए यह और इस तरह के मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) तरीक़े इख़्तियार (पसंद) करते थे क्यूंकि आप ﷺ इस हक़ीक़त से ब-ख़ूबी (अच्छी तरह) आगाह थे कि मोहब्बत-ओ-उलफ़त के बग़ैर इज़दिवाजी (विवाहित) ज़िंदगी ख़ुशगवार नहीं हो सकती और प्यार-ओ-शफ़क़त के बग़ैर घर में ख़ुशी के फूल नहीं खिल सकते।

  आप ﷺ हस्ब-ए-इस्तिता'अत (अपनी शक्ति के अनुसार) अपनी बीवियों पर ख़र्च करते और उनके खाने पीने, पहनने और रहने सहने का मुनासिब (उचित) बंदोबस्त करते थे नीज़ (और) आप ﷺ ने इस का हुक्म पूरी उम्मत को दिया चुनांचे (इसलिए) शौहर पर बीवी के नान-ओ-नफ़क़ा (रोटी-कपड़ा) और लिबास-व-पोशाक को वाजिब (कर्तव्य) क़रार देते हुए फ़रमाया:
" जब तुम खाओ तो उसे भी खिलाओ जब तुम पहनो तो उसे भी पहनाओ चेहरे पर न मारो बुरा-भला न कहो और घर के 'अलावा (सिवा) किसी और जगह उससे 'अलैहिदगी (जुदाई) इख़्तियार न करो।
(देखें: सुनन अबू दाऊद:2142, सुनन इब्ने माजा:1850, मुसनद अहमद:20013, सहीह)
एक मर्तबा जब अज़्वाज-ए-मुतह्हरात से कुछ नाख़ुश-गवार (ना-पसंद) वाक़ि'आत पेश आए तो
उन से आप ﷺ नाराज़ और ख़फ़ा हो गए लेकिन इस नाराज़ी-व-ख़फ़गी (गुस्सा) में भी आप ने न उन को मारा और न उन को बुरा-भला कहा बल्कि उन की तादीब (सज़ा) और इस्लाह के लिए सिर्फ़ हिज्र (जुदाई) और 'अलैहिदगी का रास्ता इख़्तियार फ़रमाया सहीह बुख़ारी और मुस्लिम में है कि आप ﷺ ने अज़्वाज-ए-मुतह्हरात से एक महीना तक हिज्र (जुदाई) और 'अलैहिदगी इख़्तियार की थी।
(देखें, सहीह बुख़ारी:2468, सहीह मुस्लिम:1479)

  आप ﷺ ने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी बीवी को ज़द-ओ-कोब (मार-पीट) नहीं किया बशरी (इंसानी) तक़ाज़ों के मुताबिक़ (अनुसार) अज़्वाज-ए-मुतह्हरात से कुछ नाख़ुश-गवार (ना-पसंदीदा) वाक़ि'आत पेश (सामने) आए आप ﷺ उनसे नाराज़ भी हुए लेकिन आप ने उन पर हाथ नहीं उठाया चुनांचे (जैसा कि) हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने कभी किसी को अपने हाथ से नहीं मारा न किसी औरत को न किसी ग़ुलाम (नौकर) को मगर यह कि आप अल्लाह के रास्ते में जिहाद कर रहे हो।
(सहीह मुस्लिम:2328)
आज हमारे मु'आशरे (समाज) में बा'ज़ (कुछ) लोग मा'मूली-मा'मूली बातों पर अपनी बीवियों के साथ निहायत (बहुत) ग़लत तरीक़े से पेश आते हैं उनके साथ गाली-गलोच करना और उन्हें मारना-पीटना अपना जाइज़ हक़ समझते हैं ऐसे लोगों को आप ﷺ की ज़िंदगी से रोशनी हासिल कर के अपनी इस्लाह करनी चाहिए।

  बीवियों के साथ वक़्तन-फ़-वक़्तन (कभी-कभी) सैर-ओ-तफ़रीह करने और उसके पसंदीदा खेलकूद में उसके साथ मुक़ाबला-आराई करने से उसकी बोरियत (उकताहट) ख़त्म होती है और उसके अंदर शौहर के तईं (लिए) मोहब्बत बढ़ती है इस मक़्सद (उद्देश्य) के लिए आप ﷺ ने अम्माँ 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा के साथ दौड़ का मुक़ाबला किया चुनांचे (जैसा कि) वो बयान करती हैं कि वो नबी-ए-अकरम ﷺ के साथ एक सफ़र में थी कहती हैं कि मैं ने आप ﷺ से दौड़ का मुक़ाबला किया तो मैं जित गई फिर जब मेरा बदन (शरीर) भारी हो गया तो मैंने आप से दोबारा (फिर) मुक़ाबला किया तो आप जित गए इस पर आप ﷺ ने फ़रमाया:
" यह जित उस जित के बदले है "
(सुनन अबू दाऊद:2578, सहीह)

  आप ﷺ अपनी बीवियों का हद-दर्जा (बहुत अधिक) ख़याल रखा करते थे उनके अहवाल (हाल-चाल) दरयाफ़्त (पूछ-ताछ) फ़रमाते और रोज़ाना (हर-रोज़) तमाम बीवियों की ज़ियारत फ़रमाते नमाज़-ए-फ़ज्र के बाद सबके घर जाते उन्हें सलाम करते और दु'आ देते और 'अस्र के बाद भी सबके पास जाते और सब से बात-चीत करते इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ नमाज़-ए-फ़ज्र अदा करके तुलू'-ए-आफ़ताब तक अपनी जा-ए-नमाज़ पर ही बैठे रहते और आप ﷺ के साथ सहाबा किराम भी बैठे रहते फिर एक एक करके तमाम बीवियों के घर जाते उन्हें सलाम करते और उनके लिए दु'आ-ए-ख़ैर फ़रमाते फिर जिनके पास आप की बारी होती उनके हाँ (वहाँ) रुक जाते।
[المعجم الاوسط:( 8764)]
और 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं कि 'अस्र की नमाज़ के बाद आप तमाम बीवियों के घर जाते और उनसे क़रीब होते या'नी उन्हें बोसा लेते और उनसे उंसिय्यत (मुहब्बत) हासिल करते।
(सहीह बुख़ारी:5216)
और अनस रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि नबी ﷺ की नौ (9) बीवियां थी जब आप उनमें बारी तक़सीम फ़रमाते तो पहली बारी वाली बीवी के पास नवें रात ही पहुंचते वो सब हर रात उस (बीवी के) घर में जम' (इकट्ठा) हो जाती थी जहां नबी ﷺ तशरीफ़ फ़रमा होते।
(सहीह मुस्लिम:1462)
इब्ने कसीर रक़म-तराज़ (लिखते) हैं: " हर रात तमाम अज़्वाज-ए-मुतह्हरात आप ﷺ की उन बीवियों के घर में इकट्ठा होती थी जिन के हां (वहां) आप की बारी होती थी और कभी-कभी आप ﷺ 'इशा (रात) का खाना भी सबके साथ खाते थे फिर हर एक अपने अपने घर वापस चली जाती और आप ﷺ उलफ़त-ओ-मोहब्बत के इज़हार और दिल-जूई (तसल्ली) की ख़ातिर सोने से पहले अपनी बीवी से कुछ देर बात-चीत भी किया करते थे।
(तफ़्सीर इब्ने कसीर:2/242)

  आप ﷺ घर के काम-काज में अपनी बीवियों का हाथ बटाते थे असवद बिन यज़ीद कहते हैं कि मैं ने हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से पूछा कि रसूल-ए-करीम ﷺ अपने घर में क्या क्या करते थे ?
आप ने बतलाया कि हुज़ूर ﷺ अपने घर के काम-काज या'नी (मतलब) अपने घर वालियों की ख़िदमत किया करते थे और जब नमाज़ का वक़्त होता तो फ़ौरन (तुरंत) नमाज़ के लिए चले जाते थे।
(सहीह बुख़ारी:676)
और एक रिवायत में है कि हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने जवाब दिया: आप ﷺ एक इंसान ही थे आप अपना कपड़ा ख़ुद सी लेते बकरी दुह लेते और अपना काम ख़ुद कर लेते।
(मुसनद अहमद:26194)

  आप ﷺ बीवियों के फ़ितरी ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब और ग़ुस्से को ignore कर दिया करते थे और उस पर उन का मुवाख़ज़ा (पकड़) नहीं करते थे चुनांचे (जैसा कि) एक मर्तबा आप ﷺ अम्मी 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा के यहां तशरीफ़ रखते थे आप के साथ चंद सहाबा किराम भी थे उस वक़्त आप की एक बीवी ज़ैनब बिंत जहश रज़ियल्लाहु अन्हा ने नबी-ए-करीम ﷺ के लिए एक प्याले में कुछ खाने की चीज़ भेजी
'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने ख़ादिम (नौकर) के हाथ पर ग़ुस्सा में मारा जिस की वजह से कटोरा गिर कर टूट गया फिर नबी-ए-करीम ﷺ ने कटोरा लेकर टुकड़े जम' (इकट्ठा) किए और जो खाना उस बर्तन में था उसे भी जम' (इकट्ठा) करने लगे और हाज़िरीन से फ़रमाया कि आप की मां को ग़ैरत आ गई है इस के बाद ख़ादिम (नौकर) को रोके रखा फिर 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा के घर से एक नया कटोरा मंगवा कर ज़ैनब बिंत जहश को भिजवा दिया टूटा हुआ कटोरा 'आइशा के यहां रख लिया।
(देखें: सहीह बुख़ारी:2481, सहीह मुस्लिम:5225)
ग़ौर करें कि आप ﷺ के साथ चंद सहाबा किराम ब-हैसियत मेहमान मौजूद हैं और सब के सामने आप की बीवी ग़ैरत में आ कर दूसरी बीवी की तरफ़ से भेजा गया कटोरा तोड़ देती हैं लेकिन आप ﷺ मेहमानों से यह कह कर अपनी बीवी की तरफ़ से मा'ज़रत पेश करते हैं कि आप लोगों की मां को ग़ैरत आ गई है और अपनी बीवी की कोई सर-ज़निश (डाँट-डपट) नहीं करते अगर आज हमारी बीवी मेहमानों के सामने ऐसा करदे तो इसे हम अपनी बे'इज़्ज़ती समझकर सब के सामने ही उस की दुर्गत (बुरी हालत) बना दे लिहाज़ा (इसलिए) एक 'अक़्ल-मंद (समझदार) ख़ाविंद (शौहर) को अपनी अहलिया (पत्नी) के फ़ितरी ग़ुस्से पर आग-बबूला (नाराज़) होने की बजाए हिल्म-व-बुर्द-बारी (गंभीरता) और संजीदगी का मुज़ाहरा करना चाहिए जैसा कि आप ﷺ ने अपनी बीवी के साथ फ़रमाया।

  आप ﷺ अपनी बीवियों के साथ वफ़ादारी के तक़ाज़े पूरे करते हुए उन की सहेलियों के साथ भी हुस्न-ए-सुलूक का मु'आमला फ़रमाते उन्हें हदिया (भेंट) और तोहफ़ा भेजते हत्ता कि बीवियों की वफ़ात (मृत्यु) के बाद भी उनकी सहेलियों के साथ हुस्न-ए-सुलूक करते हज़रत 'आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं कि मुझे किसी औरत पर इतना रश्क (हसद) नहीं आता था जितना हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा पर आता था हालांकि वो आँ-हज़रत ﷺ की मुझसे शादी से तीन साल पहले वफ़ात पा चुकी थी रश्क (हसद) की वजह (कारण) यह थी कि आँ-हज़रत ﷺ को मैं कसरत से उनका ज़िक्र करते सुनती थी और आँ-हज़रत ﷺ को उनके रब ने हुक्म दिया था कि हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा को जन्नत में एक ख़ोल-दार मोतियों के घर की ख़ुशख़बरी सुना दे आँ-हज़रत ﷺ कभी बकरी ज़ब्ह करते फिर उसमें से हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा की सहेलियों को हिस्सा भेजते थे।
(सहीह बुख़ारी:6004)

  ख़ुलासा-कलाम यह है कि मियाँ-बीवी का रिश्ता एक निहायत (बहुत) ही अहम (ख़ास) रिश्ता है जो एक अजनबी मर्द और एक अजनबी औरत से क़ाएम होता है औरत फ़ितरी (क़ुदरती) तौर पर कमज़ोर होती है और मर्द के मुक़ाबले में उस की 'अक़्ल कमज़ोर होती है इसलिए एक मर्द को उसकी कमज़ोरी 'अक़्ल का ख़याल रखते हुए उसकी गलतियों से दरगुज़र करना चाहिए और उसके साथ मोहब्बत-ओ-प्यार का मु'आमला करना चाहिए इसी लिए आप ﷺ ने बतौर ए ख़ास औरतों के साथ हुस्न-ए-सुलूक करने का हुक्म दिया और आप ने ख़ुद अज़्वाज-ए-मुतह्हरात के साथ हुस्न-ए-सुलूक के ऐसे रौशन नमूने पेश किए जो मोहब्बत-व-वफ़ादारी का बे-मिसाल सर-चश्मा हैं जिससे लोग ता-क़याम-ए-क़यामत (हमेशा) अपनी इज़दिवाजी ज़िंदगियों में सैराब होते रहेंगे।


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लेखक: डॉ: नसीम स'ईद तैमी मदनी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद



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