ISLAM KA HI ANUPALAN KYU

इस्लाम का ही अनुपालन क्यों?

इस्लाम की ओर आकर्षित करने वाले दस कारण

1.   स्पष्ट आस्था एवं अवधारणाः
इस्लाम के अनुपालन का पहला कारण यह है कि इस्लामी आस्था एवं अवधारणा बिल्कुल स्पष्ट और आसानी से समझ में आने वाली हैं इनमें किसी तरह की कोई पेचीदगी या उलझाव नहीं है। इन्हें समझने के लिए वह ज्ञान काफ़ी है जो प्रत्येक मनुष्य को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है । जैसे एकेश्वरवाद के बारे में इस्लाम की मान्यता यह हैः
“अल्लाह यकता (प्रत्येक दृष्टि से एक, जिसमें किसी प्रकार की कोई अनेकता न पाई जाती हो) है। अल्लाह सबसे निरपेक्ष है और सब उसके मुहताज हैं। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है। और कोई उसका समकक्ष नहीं।”               (क़ुरआन; 112:1-4)
कुरआन में उपास्य (अल्लाह) के गुणों का उल्लेख करते हुए एक जगह कहा गया हैः
“अल्लाह वह जीवन्त शाशवत सत्ता है, जो सम्पूर्ण जगत को संभाले हुए है उसके सिवा कोई उपास्य नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊंघ लगती हैं। ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना किसी की कोई सिफ़ारिश भी कर सके। जो कुछ बन्दों के सामने है उसे वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उसे भी वह जानता है और उसके (अल्लाह के) ज्ञान में से कोई चीज़ उनके (बन्दों के) ज्ञान  की पकङ में नहीं आ सकती। यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका सिंहासन आकाशों और धरती पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देने वाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।”                                                                 (क़ुरआन; 2:255)
क़ुरआन की इस आयत में ईश्वर के गुणों का वर्णन किया गया है कि उपास्य वह है जिसकी हस्ती कभी मिटने वाली नहीं है, जो किसी दूसरे के दिये हुए जीवन से नहीं बल्कि स्वयं अपने जीवन से जीवित है और जिसके बल बूते पर समस्त जगत (ब्रह्मांड) की व्यवस्था बनी हुई है। प्रभुता पूरी की पूरी किसी दूसरे की लेशमात्र भी साझेदारी के बिना उसी की है। सत्ता के समस्त अधिकारों का मालिक वह ख़ुद है कोई दूसरा न उसके गुणों में साझी है और न उसके अधिकारों में। वह हर तरह की इन्सानी कमज़ोरियों से बहुत ऊंचा है। सो जाना तो दूर उसे कभी ऊंघ भी नहीं आती और वह हर समय अपनी सृष्टि की निगरानी करता है और हर समय हर किसी की ज़रूरत पूरी करने के लिए तैयार मौजूद होता है। धरती और आकाशों में जो कुछ है उसी का है आकाश कितना विस्तृत है इसका हम अनुमान नहीं लगा सकते। हां वैज्ञानिकों ने जो खोज की है उसके अनुसार हमारी पृथ्वी एक सौर मंडल का हिस्सा है और सौर मंडल आकाश गंगा का हिस्सा है। इस आकाश गंगा में अनुमानित दो लाख सौर मंडल हो सकते हैं और वैज्ञानिकों की खोज के अनुसार ऐसी दो लाख आकाश गंगाएं हैं। यह तो हुआ एक आकाश का अपूर्ण वर्णन और क़ुरआन में सात आकाशों का उल्लेख है। हम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि ईश्वर की सत्ता कितनी विस्तृत है। और इस विस्तृत सत्ता में जो कुछ भी है वह उसकी सृष्टि है और उसकी शासित है, उसके आदेशों का पालन करने वाली है, उसकी साझी या उसके समक्ष नहीं है। अर्थात ऐसा कोई भी नहीं जो उससे बात मनवा सके, बल्कि मनवाना तो दूर उसकी अनुमति के बिना उसके सामने सिफ़ारिश के लिए मुंह खोलने की हिम्मत भी कोई नहीं कर सकता, चाहे वह बङे से बङा पैग़म्बर या कोई फ़रिशता ही क्यों न हो।
इस आयत में इसके बाद बताया गया है कि ईश्वर की असीम सम्प्रभुता और अबाध अधिकारों की तरह उसका ज्ञान भी सीमा से परे है। वह खुले, छिपे, भूत, वर्तमान, भविष्य सबका जानने वाला है। इसके विपरीत इन्सान, जिन्न फ़रिश्ते या ईश्वर की कोई भी सृष्टि हो सबका ज्ञान सीमित है। इन्सानों का हाल तो यह है कि उसे खुद अपने भले-बुरे की भी समझ नहीं है। उसकी ज़रूरतों को भी सृष्टि का पालनहार ईश्वर ही जानता और समझता है और उन्हें पूरा करने की व्यवस्था भी वही करता है। इन्सान के पास तो उतना ही ज्ञान है जो अल्लाह ने अपनी कृपा से उसे दे रखा है।
आयत में एक बार फिर बताया गया है कि उसका सिंहासन धरती और आकाशों पर छाया हुआ है अर्थात सात आकाशों जिसके विस्तार की कल्पना करने में भी हम असमर्थ हैं और धरती के अन्तर्गत जो कुछ भी है ईशवरीय सत्ता के अधीन है और इस विस्तृत ब्रह्मांड की व्यवस्था चलाने और इसकी देख-रेख करने में ईश्वर को कोई थकाबट नहीं होती, जैसा कि अपने सीमित ज्ञान के कारण हम अकसर सोचने लगते हैं।
[21/01 12:28 AM] aqisaiyed: इस्लामी अवधारणा के अनुसार उपास्य केवल वही हो सकता है, जो इस आयत में बतायी गयी सारी शर्तें पूरी करता हो, अर्थात जिसमें य़े सारे गुण मौजूद हों। अगर कोई एक गुण भी उसमें नहीं है तो वह उपास्य नहीं हो सकता। दूसरे किसी भी धर्म में यह स्पष्टता नहीं है। कहीं त्रेश्वरवाद (Trinity) की कल्पना है, जो बिल्कुल स्पष्ट नहीं है ̶ ईश्वर एक भी है और ईश्वर तीन भी है। यह इतना गूढ़ विषय है कि उस धर्म के बड़े से बड़े ज्ञानी भी इसकी व्याख्या करने में असमर्थ हैं। कहीं सर्वशक्तिमान ईश्वर के अलग-अलग गुणों को ही अलग-अलग भगवान मान लिया गया है और उन्हें उपास्य बना लिया गया है यहां भी ईश्वर की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है।
ईश्वर और उपास्य की स्पष्ट मान्यता के अलावा इस्लाम में दूसरी धारणांए भी बिल्कुल स्पष्ट हैं। इस्लाम मनुष्य को एक सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था देता है। जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य का मार्गदर्शन करती है। मामव जीवन का कोई भी विभाग ईश्वरीय मार्गदर्शन से ख़ाली नहीं है। इस्लामी आस्था के अनुसार मनुष्य धरती पर अल्लाह का ख़लीफ़ा अर्थात प्रतिनिधि है। उसे यहां अल्लाह के बताये गये तरीक़े से ज़िन्दगी गुज़ारनी है और फिर दुनिया में मरने के बाद अल्लाह के सामने हाज़िर होना है और दुनिया में किये गये अपने सभी कर्मों का हिसाब देना है। इन्हीं कर्मों के आधार पर मनुष्य को पुरस्कार या दंड मिलेगा। पुरस्कार के रूप में उसे स्वर्ग मिलेगा और दंड के रूप में नरक। स्वर्ग और नरक दोनों ही शाश्वत ठिकाने हैं अर्थात ईश्वर की आज्ञा का पालन करने वाले स्वर्ग में जाएंगे जहां वे हमेशा रहेंगे और ईश्वर का पालन न करने वाले, संसार में मनमानी ज़िन्दगी गुज़ारने वाले नरक में जाएंगे, जहां वे हमेशा रहेंगे।
इस्लाम यह भी बताता है कि अल्लाह ने अपने आदेश मनुष्य तक पहुंचाने के लिए ख़ुद ज़मीन पर अवतार नहीं लिया, बल्कि इन्सानों में से ही किसी को चुना और उसे अपना संदेशवाहक (रसूल या पैग़म्बर) बनाया फिर ऐसी व्यवस्था की कि अल्लाह फ़रिश्तों के माध्यम से पैग़म्बर तक अपना संदेश भेजता और पैग़म्बर की यह ज़िम्मेदारी होती कि वे लोगों तक ईश्वर का पैग़ाम पहुंचा दें और उसके अनुसार जीवन गुज़ार कर नमूना भी लोगों को बता दें। अल्लाह ने जिस सबसे पहले मनुष्य, हज़रत आदम, को दुनिया में भेजा उसे अपना पैग़म्बर चुना ताकि वे अपनी संतान तक ईश्वर का आदेश पहुंचाएं और कोई भी मनुष्य उससे वंचित न रह जाए। अल्लाह ने संसार में हर जगह हर क्षेत्र में, हर क़ौम में और हर भाषा में अपने पैग़म्बर भेजे और अंत में हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को भेजा मुहम्मद (सल्ल०) के समय दुनिया इतनी विकसित हो चुकी थी कि उनकी शिक्षाओं को सुरक्षित रखा जा सके। अत: ये शिक्षाएं रहती दुनिया तक के लिए हैं अब अल्लाह का कोई भी पैग़म्बर दुनिया में आने वाला नहीं। मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हैं।
इस्लाम में ये अवधारणाएं इतनी स्पष्ट हैं कि जो भी इन्हें समझना चाहे वह बड़ी आसानी से समझ सकता है। साथ ही इस्लाम में ऐसी व्यवस्था भी है कि ये बातें समय-समय पर ताज़ा होती रहती हैं।
2.   ईश्वर निर्मित एवं सुरक्षित नियम:

यह दूसरा कारण है जो इस्लाम की ओर आकर्षित करता है। इस्लाम केवल कुछ इबादतों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह जीवन की सम्पूर्ण व्यवस्था है। इन्सान के निजी, व्यक्तिक एवं सामूहिक जीवन से सम्बंधित जितने भी नियम हो सकते हैं वे सब क़ुरआन और हदीस में मौजूद हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि ये सारे के सारे नियम किसी मनुष्य के बनाये हुए नहीं हैं, अर्थात यह हर दौर, हर ज़माने , हर समय और हर जगह के लिए समान रूप से लागू किये जाने योग्य हैं। चूकि इन्हें सृष्टि के रचयिता ने स्वयं बनाया है इसलिए इनमें किसी संशोधन एवं नवीनीकरण की भी आवश्यकता नहीं है। दुनिया चाहे कितनी भी उन्नति कर ले, हालात कुछ भी हो जाएं, इस्लाम के नियम ऐसे हैं कि उनकी उपयोगिता हर हाल में बनी रहेगी।
यह केवल इस्लाम के अनुयायियों की आस्था नहीं है, बल्कि इतिहास साक्षी है कि ईश्वरीय ग्रंथ क़ुरआन ईश्वर के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारा गया। यह बात भी प्रमाणित है कि मुहम्मद (सल्ल०) लिखना पढ़ना नहीं जानते थे, बल्कि उस समय के अरब समाज में जो लोग लिखे पढ़े थे उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। अल्लाह के फ़रिशते हज़रत जिबरील (अलै०) अल्लाह के आदेश से क़ुरआन की आयतें लेकर आते और उन्हें मुहम्मद (सल्ल०) को याद करा देते। फिर मुहम्मद (सल्ल०) ये आयतें अपने सहाबियों (साथियों) को याद करा देते। सहाबियों में से जो लोग लिखना पढ़ना जानते उनमें से किसी को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) आदेश देते कि वे इन्हें लिख लें। फिर जब दूसरी आयत आती तो आदेश देते कि इसे उक्त आयत से पहले और उक्त के बाद लिख लें। इस तरह 23 वर्ष में पूरा क़ुरआन नाज़िल हुआ। इसे लिखने और याद करने का क्रम भी साथ-साथ चलता रहा। चूंकि इसे स्वयं उसी व्यक्ति ने संकलित किया है, जिसपर इसका अवतरण हुआ है, इससे प्रमाणित होता है कि ये वही शब्द हैं जो ईश्वर की ओर से आये हैं। दूसरे किसी भी ग्रंथ के साथ यह बात नहीं है। क़ुरआन के ठीक पहले के अवतरण तौरात और इंजील को भी क्रमशः हज़रत मूसा (अलै०) और हज़रत ईसा (अलै०) के 300-350 वर्ष बाद दूसरे लोगों ने संकलित किया है, जिनकी भाषा भी अवतरण की भाषा नहीं थी।
इसके अतिरिक्त क़ुरआन का विषय वस्तु ख़ुद इस बात का प्रमाण है कि वह किसी मनुष्य की रचना नहीं है, बल्कि इसका रचयिता वही है जो सर्वजगत का रचनाकार है। इसमें जैसी ज्ञान एवं तत्वदर्शिता की बातें कही गयी हैं वे किसी मनुष्य के ज्ञान की सीमा में नहीं आ सकतीं। बहुत सी बातें तो विज्ञान ने अब मालूम की हैं जब कि वे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही क़ुरआन में लिख दी गयी थीं। उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं  क़ुरआन में गर्भाशय के भीतर शिशु की रचना के जो विभिन्न चरण वताये गये हैं, उनकी खोज विज्ञान ने अभी हाल में ही 1980 के आस पास की है। और बहुत से क्षेत्रों में विज्ञान भी वहां नहीं पहुंच सका है, जिसकी ओर क़ुरआन में इशारे किये गये हैं।
क़ुरआन के ईश्वरीय ग्रंथ होने का एक प्रमाण उसका साहित्यिक स्तर भी है। उस स्तर की रचना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है यह भी एक कारण है कि क़ुरआन में किसी शब्द का हेर-फेर नहीं किया जा सका क़ुरआन की भाषा शैली मनुष्य द्वारा किये गये किसी भी हेर-फेर को स्वीकार ही नहीं कर सकती। इसके अलावा क़ुरआन में ईश्वर ने इसे ईश्वर की वाणी न मानने वालों को कई जगह चुनौती भी दी है कि अगर वे इसे ईश्वर की ओर से आया हुआ नहीं मानते हैं तो वे इसके जोड़ की एक पंक्ति ही तैयार कर लाएं और इसके लिए अपने सारे सहयोगियों से मदद ले लें। साढ़े चौदह सौ साल से क़ुरआन की यह चुनौती आज भी बरक़रार है।
दूसरी ओर अल्लाह ने ऐसी व्यवस्था की है कि क़ुरआन की शिक्षाएं शत् प्रतिशत सुरक्षित हैं एक तो इसकी भाषा शैली ऐसी है कि इसमें कोई फेर वदल नहीं की जा सकती दूसरे इस किताब का चमत्कार यह है कि इसके हाफिज़ अर्थात इसे कंठस्त कर लेने वाले दुनिया में हर जगह मौजूद हैं और हर दौर में रहे हैं। हालांकि इसकी भाषा अरब वासियों के अलावा सबके लिए अजनबी है, लेकिन इसके बावजूद यह किसी भी भाषा बोलने वाले की ज़ुबान पर बड़ी आसानी से जारी हो जाती है। एक आदमी चाहे उसकी भाषा ज़ूलू हो, चीनी हो, तमिल हो या कोई और हो चाहे वह मातृभाषा के अलावा किसी भी भाषा को बोलने में असमर्थ हो, लेकिन जब वह क़ुरआन पढ़ता है तो उच्चारण की कोई ग़लती नहीं करता और छोटे-छोटे बच्चे इस मोटी किताब को ज़ुबानी याद कर लेते हैं। क़ुरआन के अलावा दूसरी किसी किताब में यह विशेषता नहीं है कि उसे ज़ुबानी याद किया जा सके। यहां तक कि दूसरे धर्मों के बड़े-बड़े पंडितों को भी उनके धर्मग्रंथ ज़ुबानी याद नहीं होते। क़ुरआन को ज़ुबानी याद कर लेने वाले लाखों, करोड़ों की संख्या में दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं और क़ुरआन उनके सीनों में
3.   जीवित भाषाः
इस्लाम की ओर आकर्षित होने का तीसरा कारण यह है कि इस जीवन व्यवस्था की शिक्षाएं जिस भाषा में हैं वह भाषा जीवित है। इतना लम्बा समय बीतने का कोई प्रतिकूल प्रभाव इस भाषा पर नहीं पड़ा। सामान्य रूप से भाषाओं का जीवन इतना लम्बा नहीं हुआ करता है। दो-तीन सदियों में भाषाएं बदलते-बदलते कुछ की कुछ हो जाती हैं। 15 सदियों तक जीवित रहने का और अपने मूल रूप में जीवित रहने का श्रेय अरबी के अलावा किसी भाषा को प्राप्त नहीं। पूरे अरब क्षेत्र में आज भी वही भाषा बोली और समझी जाती है जो आज से 1500 वर्ष पहले प्रचलित थी अरब के विभिन्न भागों में कुछ शब्दों और उच्चारण का अन्तर उस समय भी या और अब भी है। समय के साथ साथ कुछ नये शब्द आ गये हैं, कुछ शब्द बदल गये हैं, लेकिन मूल रूप से भाषा वही है। क़ुरआन व हदीस आज भी वहां की मानक साहित्यिक रचना है। दूसरे ईशग्रंथों के साथ ऐसा नहीं है। क़ुरआन से ठीक पहले के दो ईशग्रंथों की अगर बात करें तो वे जिन भाषाओं में अवतरित हुई थीं वे कुछ सदियों बाद मिट गयीं और दूसरी भाषाओं ने उनका स्थान ले लिया।
क़ुरआन और हदीस का एक और अच्छा पहलू यह है कि वे दुनिया में जहां भी गयीं अपनी मूल भाषा में गयीं। हर भाषा के जानने वालों को समझने के लिए इनका अनुवाद तो किया गया मगर मूल भाषा को भी साथ-साथ रखा गया। जिस भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ मूल अरबी से हुआ, कहीं भी अनुवाद से अनुवाद नहीं हुआ इसलिए अर्थ के अनर्थ होने का मामला इसके साथ नहीं हुआ जैसा कि दूसरे ग्रंथों के साथ हुआ।
भाषा का इतने लम्बे समय तक जीवित रहना, किसी भी भाषा-भाषी के लिए इसको सीखने में आसानी और हर जगह अनुवाद के साथ मूल भाषा का मौजूद होना स्पष्ट करता है कि यह सब ईश्वरीय योजना के तहत हो रहा है।

4.   व्यावहारिक नमूनाः
इस्लाम के अनुपालन के लिए प्रेरित करने वाली इसकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसकी शिक्षाओं का व्यावहारिक नमूना मौजूद है। निस्संदेह सभी धर्म अच्छी और भली बातें कहते हैं नैतिकता और आध्यात्म की शिक्षा देते हैं, लेकिन इस्लाम के अलावा किसी के पास भी उन शिक्षाओं का व्यावहारिक नमूना मौजूद नहीं है। अल्लाह ने अपनी किताब में मानवता की भलाई और सफलता के जो नियम बनाये और जिन नियमों का उल्लेख अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी हदीसों में किया, उन सबक उन्होंने अपने जीवन में बरत कर दिखा दिया।
इस्लाम के पैग़म्बर (सल्ल०) के जीवन का प्रत्येक क्षण जन्म से लेकर मृत्यु तक उनके ज़माने के लोगों के सामने रहा और अब उन लोगों की मौत के बाद इतिहास के पन्नों में दर्ज है। मुहम्मद (सल्ल०) के जीवन की कोई संक्षिप्त से संक्षिप्त अवधि भी ऐसी नहीं है कि वे अपने आस-पास के लोगों की नज़रों से ओझल रहे हों। जन्म, बाल्यावस्था बचपन, किशोरावस्था, वयस्क होने का काल, जवानी, व्यापार, यात्राएं, विवाह, नबी बनने से पहले के संगी साथी, सामाजिक कामों और समाज सेवा में अभिरुचि, संधि में शरीक रहना, धीरे धीरे लोगों से मिलना-जुलना कम कर देना अकेलापन पसन्द करना, पूरे-पूरे दिन के लिए हिरा नामी गुफा में बैठ जाना, फिर ईश्वरीय प्रकाशना का आना, इस्लाम का उदय, इस्लाम का आह्वान, प्रचार-प्रसार, विरोध मक्का से मदीना पलायन, युद्ध, संधि, पत्र लिखवाकर दुनिया भर में शासकों को इस्लाम की ओर बुलाना, दीन का पूर्ण होना, आख़िरी हज और मृत्यु ̶ ये सारे काम दुनिया के सामने हुए एक पल के लिए भी आप दुनिया की निगाहों से ओझल नहीं रहे।
रसूल (सल्ल०) के पवित्र साथियों ने उनके जीवन के एक एक पल को रिकार्ड कर लिया या लिखने वालों तक पहुंचा दिया। वे मस्जिद में हों, सहाबियों के बीच हों, यात्रा कर रहे हों, बाज़ार में हों या कहीं और, यहां तक कि आपकी पवित्र पत्नियों ने अकेले में गुज़ारे हुए उनके समय का उल्लेख भी लोगों के सामने कर दिया।
हालांकि यह बहुत ही कठिन होता है। दुनिया में कहीं और इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती है। बेहतरीन दृष्टिकोण और आदर्श सिद्धांत तो कई समाज सुधारकों और धर्मों के संस्थापकों ने प्रस्तुत किये, लेकिन उसका व्यावहारिक नमूना कोई प्रस्तुत नहीं कर सका। वे मौलिक आदर्श, दृष्टिकोण या स्वर्णाक्षरों से लिखे जाने वाले कथन किस काम के अगर उनके साथ उनका व्यावहारिक नमूना मौजूद न हो, नबी (सल्ल०) ने न केवल यह कि अपने बताये नियमों पर ख़ुद अमल किया, बल्कि सहाबा (रज़ि) की मदद से एक ऐसा समाज बनाकर दिखा दिया जो सामूहिक जीवन से जुड़ी इस्लामी शिक्षाओं का जीवंत उदाहरण था। एक ऐसा समाज जो अल्लाह का अपेक्षित समाज था। एक ऐसा समाज जो न पहले कभी बना था और न उसके बाद कभी बन पाया।

इस्लामी शिक्षाओं ने वह आदर्श समाज एक ऐसी क़ौम से बनाया जो दुनिया की बदतरीन क़ौम समझी जाती थी। यह सच्चाई है कि अरब समाज इस्लाम से पहले पूरी दुनिया में बदनाम था। सभ्यता और संस्कृति से कोसों दूर एक उजड और बर्बर क़ौम जिससे सभ्य दुनिया की क़ौमें पनाह मांगती थी। यहां तक कि उस ज़माने के विश्व विजेताओं ने भी अरब पर शासन करने का साहस नहीं किया। यही कारण है कि अरब पर कभी क़ानून का शासन नहीं रहा। हर क़बीला आज़ाद था (हां क़बीलों ने अपने स्तर पर कुछ नियम बना रखे थे) छोटी-छोटी बातों पर युद्ध छिड़ जाता तो कई पीढ़ियों तक चलता। मगर जब यही लोग इस्लाम से परिचित हुए और इस्लामी नियमों के अन्तर्गत इनका प्रशिक्षण हुआ तो इनकी काया पलट गयी। ये इतने सभ्य और शिष्ट हो गये कि दुनिया में सभ्यता का प्रतीक बन गये। वही दुनिया जो इनकी उजडता के कारण इनसे दूर भागती थी, इनसे सभ्यता और शालीनता सीखने लगी। इनके चाल चलन और आचार विचार से प्रभावित होकर एक बड़ी आबादी इस्लाम के क़रीब आ गयी। इस बारे में एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि चूंकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पूरी दुनिया के लिए एक अनुकरणीय नमूना बनाकर भेजे गये थे इसलिए आप के जीवन में हर व्यक्ति के लिए नमूना मौजूद है। कोई व्यक्ति अगर व्यापारी है तो आपके व्यापार के तरीक़े को देखे, अगर पति है तो ख़दीजा और आयशा के पति से मिले, अगर सिपाही है तो बद्र और उह्द के सेनापति से शिक्षा ले, अगर शिष्य है तो मस्जिद नबवी के बाहर चबूतरे पर बैठे लोगों के गुरु की शरण में जाए। अगर पिता है तो ज़ैनब और फ़ातिमा के पिता से सीख ले, नाना है तो हसन और हुसैन के नाना का स्नेह देखे। अर्थात जीवन के जिस क्षेत्र से भी उसका सम्बंध है, नबी (सल्ल०) की जीवनी में उसे अपने लिए एक नमूना मिल जाएगा।

5.   नबी के सच्चे और बलिदानी साथी:
यह पांचवां कारण है जो इस्लाम के ईश्वरीय धर्म होने का प्रमाण भी है और इसके अनुपालन के लिए प्रेरित भी करता है। इस्लाम की सत्यता को जन-जन तक पहुंचाने का काम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के देहांत के बाद रुक नहीं गया, बल्कि आपने इस्लाम के संदेश से परिचित होने वाले हर व्यक्ति पर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि वह इसे उन लोगों तक पहुंचाए, जिन तक यह नहीं पहुंचा है। अतः आपके साथियों (सहाबा) ने इसे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया। सहाबा (रजि०) इस्लाम की शिक्षाओं का ऐसा सच्चा और जीवंत नमूना थे कि वे जहां भी गये, लोग उनके स्वभाव से प्रभावित होकर इस्लाम के निकट आए।
एक दूसरा पहलू इसका यह है कि जो सहाबी आप (सल्ल०) के जितना निकट था वह उतना ही अधिक आप पर जान निछावर करता था। आम तौर पर किसी महापुरुष के बहुत नज़दीक रहने वाले लोग उसकी महानता को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उसके जीवन के नकारात्मक और कमज़ोर पहलुओं से भी वे अवगत होते हैं। लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ थे और मानवता के लिए नमूना थे इसलिए जो सहाबी (रज़ि०) आपको जितना ज़्यादा जानते थे वे उतना ही ज़्यादा आप पर जान देते थे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नबी (सल्ल०) के तरीक़े का पालन करते थे।

6.   वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित शिक्षाएं:
इस्लाम की ओर आकर्षित होने का एक बड़ा कारण यह है कि इसकी सारी की सारी शिक्षाएं, मान्यताएं और अवधारणाएं वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हैं वस्तुस्थिति से हटकर इसमें कोई बात नहीं कही गयी है जो बात भी है वह तार्किक है और बुद्धि को अपील करने वाली है।
अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। अरब में पढ़े लिखे लोगों को उंगलियों पर गिना जा सकता था, लेकिन क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओं को देखकर दुनिया हैरान है कि इतनी गहरी और गुढ़ जानकारियों इसमें कहां से आ गयीं। ऐसा ज्ञान तो उस समय के सबसे आधुनिक और विकसित समाज के पास भी नहीं था, जो दुनिया के मार्गदर्शक कहे जाते थे और जिनका दुनिया अनुसरण करती थी। वे भी परम्पराओं और अटकलों के सहारे ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। निश्चित रूप से यह अल्लाह की किताब है और इसकी बातें अल्लाह की बातें हैं।
बल्कि आज के वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता भी हैरान हैं कि वे बातें जिनकी खोज अभी हाल के वर्षों में हो सकी है, साढ़े चौदह शताब्दि पहले की किताब में इसके इशारे मौजूद हैं। बल्कि क़ुरआन में बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जिनकी खोज अभी बाक़ी है। क़ुरआन व हदीस में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो विज्ञान के प्रमाणित सिद्धांतों से टकराती हो। जैसे वॉटर साइकिल, या प्रत्येक जीव के पानी से जन्म लेने की बातें जो क़ुरआन में बतायी गयी हैं, उनसे वैज्ञानिक अभी हाल में ही अवगत हुए हैं। ये इस बात का प्रमाण है कि क़ुरआन सृष्टि के रचयिता की किताब है, जिसे सारे रहस्यों का पहले से ही ज्ञान है और जिसके ज्ञान की सीमा से बाहर कुछ भी नहीं है।
7.   संतुलनः

इस्लाम के नियमों का संतुलित होना इस्लाम के अनुपालन के लिए प्रेरित करने का एक बड़ा कारण है। इस्लाम के नियम बहुत ही संतुलित हैं इसमें न्यूनता या अधिकता नहीं पायी जाती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन अपनाने की शिक्षा दी गयी है। क़ुरआन ख़ुद कहता है कि दीन आसान है, मुश्किल नहीं। इस्लाम अपने मानने वाले को कभी भी मुश्किल में नहीं डालता। यह आदमी पर उतना ही बोझ डालता है, जितना वह सहन कर सके ̶
“अल्लाह किसी प्राणी पर उसकी सहनशक्ति से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता।’’ (क़ुरआन- 2: 28)
इस्लामी आदेश मानव स्वभाव के ठीक अनुकूल है। क़ुरआन ख़ुद कहता है ̶
“जहां तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहो।’’        (क़ुरआन- 64: 16)
मोटे तौर पर इस्लाम के दो विभाग हैं ̶ अल्लाह का हक़ और अल्लाह की सृष्टि का हक़। इस्लाम के अनुयायियों के लिए ये दोनों ही हक़ अदा करना ज़रूरी है। इन दोनों ही तरह के हक़ की अदायगी में संतुलन का बड़ा महत्व है। अल्लाह का हक़ अदा करना है, मगर ऐसा न हो कि अल्लाह का हक़ अदा करने में अल्लाह के बन्दों का हक़ मारा जाए। माता-पिता के अधिकारों हैं, पत्नी एवं बच्चों के अधिकार हैं, मित्रों एवं पड़ोसियों के अधिकार हैं, रिश्तेदारों के अधिकार हैं, यहां तक कि अजनबी लोगों और दुश्मनों के भी अधिकार हैं और इन सब में संतुलन बना के चलना है, पेड़ पौधों के अधिकार हैं पशु पक्षियों के अधिकार हैं, नदी एवं पहाड़ों के भी अधिकार हैं, ऐसा न हो कि एक ओर झुकाव हो जाए और दूसरे पक्ष का अधिकार हनन होने लगे। यह सब कोई मुश्किल काम नहीं है, बहुत स्वाभाविक है। आज हालात और माहौल की वजह से कुछ चीज़ें बहुत मुश्किल मालूम होती हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि ये बिल्कुल मुश्किल नहीं हैं। संतुलन बनाए रखना बहुत आसान है।

8.   हर हाल में उपयुक्त और व्यवहारिक नियमः
इस्लाम के नियमों एवं सिद्धांतों में इतनी लचक है कि वे हर तरह की स्थिति में फ़िट हो जाते हैं। आदमी किसी भी हाल में हो। उसके लिए इस्लामी उसूलों का पालन करना बराबर आसान है। कोई अगर बीमार है खड़े होकर नमाज़ नहीं अदा कर सकता है बैठ कर पढ़ ले, बैठ कर पढ़ने की भी शक्ति नहीं है, लेट कर पढ़ ले, केवल इशारों से पढ़ ले। सफ़र में है या बीमार है तो रमज़ान के रोज़े छोड़ दे, बाद में रख ले। किसी ऐसी हालत में फंस गया है कि जान बचाने के लिए हराम भोजन खाने के अलावा कोई चारा नहीं है तो इसका भी प्रावधान मौजूद है। उत्तरी ध्रुव पर चला गया है और रमज़ान के रोज़े रखने हैं तो सुर्योदय और सुर्यास्त का इन्तिज़ार करने की ज़रूरत नहीं, मैदानी क्षेत्रों के समय के आधार पर रोज़े रखे। 
इसी तरह इस में हर उम्र हर सोशल स्टैटस के लोगों का ध्यान रखा गया है और नियमों में इतनी लचक रखी गयी है कि किसी को भी असुविधा न हो। धनवानों को ज़कात और सदक़े (दान) देने के लिए प्रतिबंधित और प्रेरित किया गया है तो गरीबों और ज़रूरतमंदों को यह छूट दी गयी है कि वे दान ले सकते हैं। अर्थात इन्सान दुनिया के किसी हिस्से में रहे, किसी भी उम्र का हो, कोई भी पेशा अपनाए, उसके साथ कोई अनोखा से अनोखा मामला क्यों न हो जाए, उसे इस्लाम से हर विषय में मार्गदर्शन अवश्य मिल जाएगा।
इस्लाम के नियम हर स्थिति के लिए मौजूद हैं, बस उन्हें लागू करने की ज़रूरत है। ये नियम लागू करने में बहुत व्यवहारिक हैं, यानी बिना किसी असुविधा के इन्हें कहीं भी कभी भी लागू किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ये क़ानून अरब में एक निश्चित क़ौम को एक विशेष समय के लिए दिया गया था। और इसकी प्रायोज्यता वहीं तक सीमित थी, बल्कि ये हर तरह के लोगों के लिए समान रूप से प्रयोग में लाने योग्य (Applicable) है।
समय के साथ एक से एक नयी समस्याएं पैदा हुईं, नये हालात का सामना हुआ, नये आविष्कार एवं अनुसंधान हुए लेकिन इस्लामी क़ानून हर हालत में व्यवहारिक रहे। कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसने समय का साथ नहीं दिया हो और इसमें किसी संशोधन की आवश्यकता महसूस की गयी हो। उदाहरण के लिए हम पर्यावरण की समस्याओं को लें। पर्यावरण की समस्याएं अभी हाल की चीज़ें हैं। बल्कि ये शब्दावली ही नयी है। 19 वीं शताब्दी के आरंभ से पूर्व इसकी कल्पना भी नहीं थी, लेकिन आश्चर्य है कि क़ुरआन ने साढ़े चौदह शताब्दी पहले पर्यावरण की सुरक्षा की बात की और उसके बारे में निर्देश दिया। विभिन्न हदीसों में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। लोगों को पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा दी गयी है और संतुलन बिगाड़ने की स्थिति में ख़तरनाक परिणाम से सचेत किया गया है।
9.   उपास्य और उपासक का सीधा सम्बंधः
इस्लाम की बहुत बड़ी विशेषता जो इस्लाम को एक स्वाभाविक धर्म प्रमाणित करती है यह है कि इसमें उपासक का उपास्य से सीधा सम्पर्क होता है, बीच में कोई वाया मीडिया नहीं होता। दूसरे सभी धर्मों ने उपास्य और उपासक के बीच माध्यम खड़े कर रखे हैं। यहूदियत, ईसाइयत हो या हमारे देशबंधुओं का हिन्दू धर्म हो, आम आदमी अपने उपास्य से सीधा सम्पर्क नहीं कर सकता उसे काहिन, पादरी या पुजारी का सहारा लेना ही पड़ेगा। इनके बिना कोई इबादत नहीं होती। लेकिन इस्लाम में ऐसे किसी माध्यम का वजूद नहीं है। उपासक अपने उपास्य से बन्दा अपने आक़ा से सृष्टि अपने स्रष्टा से सीधा सम्पर्क करती है। उपास्य और उपासक की उपासना के बीच किसी ग़ैर का हस्तक्षेप नहीं है। बन्दे ने अगर कोई गुनाह किया है तो उसे किसी पादरी के सामने (Confession) करने की ज़रूरत नहीं है वह सीधे अल्लाह के सामने तौबा करे। उससे माफ़ी मांगे । रोए गिड़गिड़ाए और आगे ऐसा न करने का वादा करे, तो अल्लाह की ओर से खुली घोषणा है कि वह उसे माफ़ कर देगा। अल्लाह इस बात को पसन्द करता है कि बन्दा अपनी ग़लतियों के लिए उससे माफ़ी मांगे और वह उसे माफ़ करे। क़ुरआन में अल्लाह बन्दों से कहता है कि तुम मुझे पुकारो मैं तुम्हारी पुकार सुनूंगा।
इतना ही नहीं इस्लाम में ख़ुदा बार-बार अपने बन्दों को सम्बोधित करता है। कहीं उसे “ऐ मेरे बन्दो!”  कहीं “ऐ आदम के बेटो!” कहीं “ऐ ईमान लाने वालो!” बल्कि कहीं “ऐ मेरा इन्कार करने वालो!” कहकर सम्बोधित करता है और उसे जीवन बिताने का सलीक़ा बताता है। हर तरह के धार्मिक कर्मों की अदायगी इस्लाम का मानने वाला ख़ुद कर सकता है उसे बीच में किसी को लाने की ज़रूरत नहीं। यह बहुत बड़ी आज़ादी है जो इस्लाम के मानने वालों को प्राप्त है। यानी धर्म के मामले में इस्लाम इन्सानों को इन्सानों की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाता है। इस्लाम का मानने वाला हर आदमी अपना आप काहिन, प्रीस्ट, पोप और ब्रह्मण है।

10. विश्व बंधुत्व का समर्थकः

इस्लाम सार्वभौमिक एवं विश्वव्यापी मानवता की बात करता है। ये मानवता को राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बांधता। इस्लाम एक ऐसे अल्लाह की कल्पना करता है जो सर्वजगत का पालनहार है और उसके बनाये हुए सारे इन्सान समान हैं चाहे वे धरती के किसी भी भाग में रहते हों। विश्व बंधुत्व इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार सारे मनुष्य एक माता पिता की संतान हैं और आपस में भाई-भाई हैं और इसलिए हरेक के बराबर मानवाधिकार हैं।
इस्लाम के अलावा जितने भी धर्म हैं चाहे वे छोटे हों या बड़े उसके मानने वालों की संख्या कम हो या अधिक किसी न किसी राष्ट्रीयता और क्षेत्रता में सीमित हैं और उसी क्षेत्र विशेष के रहने वालों को ईश्वर की कृपा का पात्र और मार्गदर्शन का पात्र समझते हैं। बल्कि संसार के कई बड़े धर्मों ने तो इस परिधि को और भी संकीर्ण करके एक वंश के लोगों तक ही सीमित कर दिया है। यहूदी केवल इसराईल की संतान को ही ईश्वरीय मार्गदर्शन और कृपा का अधिकारी मानते हैं और संसार का प्रत्येक मनुष्य जो इसराईली वंश से नहीं है उसे सारे मानवधिकारों से वंचित समझते और उनका हर प्रकार से शोषण करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। हमारे देश में भी कुछ ऐसा ही हाल है यहां एक वर्ण विशेष ने ईश्वर को अपनी जागीर समझा हुआ है और उस वर्ण के बाहर जो भी है वह ईश्वर की दया और उसके मार्गदर्शन का पात्र नहीं हो सकता। ईसाई हों ज़रथ्रुष्ठी हों या और धर्म का अनुयायी सबने ईश्वर की सत्ता को दुनिया के एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित कर रखा है।
इन सबके विपरीत इस्लाम मानवता को राष्ट्रीयता एवं क्षेत्रीयता में विभाजित नहीं होने देता वह समस्त मानवजाति को संसार में मौजूद सारे संसाधनों का बराबर भागीदार और ईश्वर की कृपा और मार्गदर्शन का पात्र समझता है। इस्लाम की मान्यता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने दुनिया में हर जगह और हर क़ौम में अपना मार्गदर्शन भेजा हैः
“कोई समुदाय ऐसा नहीं हुआ है, जिसमें कोई चेतावनी देने वाला न आया हो।”
(क़ुरआन- 35 :24)
इतना ही नहीं उन सभी संदेशवाहकों पर, जो दुनिया के किसी भी भाग में ईश्वरीय मार्गदर्शन लेकर कभी भी आये हों, ईमान लाना इस्लाम के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है। कोई व्यक्ति उस समय तक मुसलमान नहीं हो सकता जब तक वह अल्लाह के भेजे हुए सारे मार्गदर्शकों अर्थात पैग़म्बरों पर और उनकी शिक्षाओं पर ईमान न लाए।

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