જાન દે દેના શિર્ક સે આસાન હૈ
پانی پر دم کرنا
پانی پر دم کرنے کا حکم
سوال : بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا کیسا ہے ؟
*بارِش میں دَو نَمازیں جمع کر کے پڑھنا:*
تحریر: فضیلۃ الشیخ غلام مصطفےٰ ظہیر اَمن پوری حفظہ اللہ.
سوال : بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا کیسا ہے ؟
جواب: بارش میں دو نمازوں کو جمع کر کے پڑھنا جائز ہے، جیسا کہ :
◈ امام الائمہ، ابن خزیمہ رحمہ اللہ فرماتے ہیں :
ولم يختلف علماء الحجاز ان الجمع بين الصلاتين فى المطر جائز.
”علماءِ حجاز کا اس بات پر اتفاق ہے کہ بارش میں دو نمازوں کو جمع کرنا جائز ہے۔“
[صحيح ابن خزيمة 85/2 ]
◈ سعید بن جبیر تابعی رحمہ اللہ تعلق کہتے ہیں کہ صحابی رسول سیدنا عبد اللہ بن عباس رضی اللہ عنہا نے بیان فرمایا :
جمع رسول الله صلى الله عليه وسلم بين الظهر والعصر، والمغرب والعشاء بالمدينة، فى غير خوف، ولا مطر (وفي لفظ : ولا سفر)، قلت لابن عباس : لم فعل ذلك ؟ قال : كي لا يخرج أمته .
’’رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے مدینہ منورہ میں ظہر و عصر اور مغرب و عشا کو بغیر کسی خوف اور بارش (ایک روایت میں بغیر کسی خوف اور سفر) کے جمع کیا۔ (سعید من جبیر کہتے ہیں : ) میں نے سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما سے دریافت کیا کہ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے ایسا کیوں کیا؟ فرمایا : اس لئے کہ آپ صلى الله عليه وسلم کی امت پر کوئی مشقت نہ ہو۔ “
[صحيح مسلم : 54/705، 50]
سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما ہی کا بیان ہے :
صليت مع رسول الله صلى الله عليه وسلم بالمدينة ثمانيا جميعا، وسبعا جميعا، الظهر والعصر، والمغرب والعشاء .
”میں نے مدینہ منورہ میں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کی اقتدا میں ظہر و عصر کی آٹھ رکعات اور مغرب و عشا کی سات رکعات جمع کر کے پڑھیں۔ “
[ صحيح البخاري : 543، 1174، صحيح مسلم : 55/705]
◈ شیخ الاسلام، ابن تیمیہ رحمہ اللہ (661-728ھ) فرماتے ہیں :
والجمع الذى ذكره ابن عباس لم يكن بهذا ولا بهذا، وبهذا استدل أحمد به على الجمع لهذه الأمور بطريق الأولى، فإن هذا الكلام يدل على أن الجمع لهذه الأمور أولى، وهذا من باب التنبيه بالفعل، فانه اذا جمع ليرفع الحرج الحاصل بدون الخوف والمطر والسفر، فالخرج الحاصل بهذه أولى أن يرفع، والجمع لها أولى من الجمع لغيرها.
”سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما نے جس جمع کا ذکر کیا ہے، وہ نہ خوف کی وجہ سے تھی، نہ بارش کی وجہ سے۔
اسی حدیث سے امام احمد رحمہ اللہ نے استدلال کیا ہے کہ خوف اور بارش میں تو بالاولیٰ جمع ہو گی. اس بحث سے معلوم ہوتا ہے کہ ان امور میں نمازوں کو جمع کرنا بالاولیٰ جائز ہے۔ یہ تنبیہ بالفعل کی قبیل سے ہے . جب خوف، بارش اور سفر کے بغیر جو مشقت ہوتی ہے، اس مشقت کو ختم کرنے کے لیے دو نمازوں کو جمع کیا جا سکتا ہے، تو ان اسباب کی مشقت کو ختم کرنا تو بالاولیٰ جائز ہو گا، لہٰذا خوف، بارش اور سفر کی بنا پر نمازوں کو جمع کرنا دیگر امور کی بنا پر جمع کی نسبت زیادہ جائز ہو گا۔
[مجموع الفتاوي: 76/24 ]
◈ محدث العصر، علامہ البانی رحمہ اللہ سیدنا ابن عباس رضی اللہ عنہما کے قول فى غير خوف ولا مطر کی شرح میں فرماتے ہیں :
فإنه يشعر أن الجمع للمطر كان معروفا فى عهدم صلى الله عليه وسلم، ولو لم يكن كذلك، لما كان ثمة فائدة من نفي المطر كسبب مبرر للجمع، فتامل
”یہ الفاظ اس بات کی طرف اشارہ کرتے ہیں کہ نبی اکرم صلی اللہ علیہ وسلم کے عہد مبارک میں بارش کی وجہ سے نمازوں کو جمع کرنا معروف تھا۔ غور فرمائیے ! اگر ایسا نہ ہوتا، تو بارش کو جمع کے جواز کے سبب کے طور پر ذکر کرنے کا کوئی فائدہ نہیں تھا۔“
[ ارواءالغليل : 3 40 ]
◈ نافع مولیٰ ابن عمر رحمہ اللہ بیان کرتے ہیں :
كانت أمراء نا إذا كانت ليلة مطيرة، أبطأوا بالمغرب وعجلوا بالعشاء قبل أن يغيب الشفق، فكان ابن عمر يصلي معهم، لا يرى بذلك بأسا، قال عبيد الله : ورأيت القاسم، وسالما يصليان معهم، فى مثل تلك الليلة.
”جب بارش والی رات ہوتی، تو ہمارے امرا مغرب کو تاخیر سے ادا کرتے اور شفق غروب ہونے سے پہلے عشا کے ساتھ جمع کر لیتے۔ سیدنا ابن عمر رضی اللہ عنہما ان کے ساتھ ہی نماز پڑھتے تھے اور اس میں کوئی حرج خیال نہیں کرتے تھے . عبید اللہ بیان کرتے ہیں :
میں نے قاسم اور سالم رحمها اللہ کو دیکھا کہ وہ دونوں ان کے ساتھ ایسی رات میں مغرب و عشاء کو جمع کرتے تھے .“
[المؤطأ للإمام مالك : 331، السننن الكبريٰ للبيهقي : 168/3، و سنده صحيح ]
◈ ہشام بن عروہ تابعی رحمہ اللہ بیان کرتے ہیں :
رأيت أبان بن عثمان يجمع بين الصلاتين فى الليلة المطيرة؛ المغرب والعشاء، فيصليهما معا، عروة بن الزبير، وسعيد بن المسيب، وأبو بكر بن عبدالرحمن، وأبو سلمة بن عبدالرحمن، لاينكرونه .
”میں نے ابان بن عثمان رحمہ اللہ کو بارش والی رات مغرب و عشا کی نمازوں کو جمع کرتے دیکھا. عروہ بن زبیر، سعید بن مسیب، ابوبکر بن عبدالرحمٰن، ابوسلمہ بن عبدالرحمن رحمہ اللہ اس پر کوئی اعترض نہیں کرتے تھے۔“
[مصنف ابن ابي شيبة : 234/2، السنن الكبريٰ للبيهقي : 168/3، 169، و سنده صحيح ]
◈ عبدالرحمن بن حرملہ رحمہ اللہ کہتے ہیں :
رايت سعيد بن المسيب يصلي مع الائمة، حين يجمعون بين المغرب والعشاء، فى الليلة المطيرة.
”میں نے امام سعید بن مسیب کو ائمہ کے ساتھ بارش والی رات میں مغرب و عشا کی نمازوں کو جمع کر کے پڑھتے ہوئے دیکھا ہے۔“
[مصنف ابن ابي شيبه : 234/2، و سنده حسن ]
◈ ابومودود، عبدالعزیز بن ابوسلیمان رحمہ اللہ کہتے ہیں :
صليت مع أبى بكر بن محمد المغرب والعشاء، فجمع بينهما فى الليلة المطيرة.
”میں نے ابوبکر بن محمد کے ساتھ مغرب و عشا کی نماز پڑھی، انہوں نے بارش والی رات میں دونوں نمازوں کو جمع کیا تھا۔ “
[مصنف ابن ابي شيبه : 234/2، و سنده حسن ]
◈ شیخ الاسلام، ابن تیمیہ رحمہ اللہ (661-728ھ) فرماتے ہیں :
فهذه الآثار تدل على أن الجمع للمطر من الأمر القديم، المعمول به بالمدينة زمن الصحابة والتابعين، مع أنه لم ينقل أن أحدا من الصحابة والتابعين أنكر ذلك، فعلم أنه منقول عندهم بالتوائر جواز ذلك.
”ان آثار سے معلوم ہوتا ہے کہ بارش کی وجہ سے دو نمازوں کو جمع کرنا قدیم معاملہ ہے، جس پر صحابہ و تابعین کرام کے عہد میں مدینہ منورہ میں بھی عمل رہا ہے۔ اس کے ساتھ ساتھ کسی ایک بھی صحابی سے اس پر اعتراض کرنا بھی منقول نہیں۔ اس ثابت ہوتا ہے کہ صحابہ و تابعین سے بالتواتر اس کا جواز منقول ہے ـ“
[ مجموع الفتاوٰي : 83/24 ]
◈ جناب عبدالشکور لکھنوی، فاروقی، دیوبندی لکھتے ہیں :
”امام شافعی رحمہ اللہ کے نزدیک سفر میں اور بارش میں بھی دو نمازوں کا ایک وقت میں پڑھ لینا جائز ہے اور ظاہر احادیث سے بھی ایسا ہی معلوم ہوتا ہے، لہٰذا اگر کسی ضرورت سے کوئی حنفی بھی ایسا کرے، تو جائز ہے۔ “
[علم الفقه، حصه دوم، ص : 150 ]
*یاد رہے کہ بارش کی صورت میں جمع تقدیم و تاخیر، دونوں جائز ہیں۔ تقدیم میں زیادہ آسانی ہے، نیز جمع صوری کو بھی اختیار کِیا جا سکتا ہے۔*
क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?
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पार्ट:1
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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इस्लाम अल्लाह रब्ब-उल-'आलमीन की तरफ़ से नाज़िल किया हुआ वो दीन (धर्म) हैं जो रहती दुनिया तक मख़्लूक़ (मनुष्यों) की रहनुमाई (नेतृत्व) करता रहेगा साढ़े चौदा सो साल से यह दीन बराबर फल-फूल रहा है और इस के मानने वालो की ता'दाद (संख्या) में रोज़-अफ़्ज़ूँ (दिन रात) इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) ही होता रहा है आज दुनिया का कोई ख़ित्ता (इलाक़ा) ऐसा नहीं जहां इस के नाम-लेवा (मानने वाले) मौजूद न हो ता'दाद (संख्या) के ए'तिबार से देखा जाए तो 'ईसाइयत (ईसाई धर्म) के बाद सबसे ज़ियादा अगर किसी मज़हब (धर्म) के मानने वाले इस दुनिया में है तो वह मज़हब-ए-इस्लाम ही है।
अल्लाह-त'आला ने अपने आख़िरी नबी जनाब मोहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ को यह दीन दे कर भेजा तो आप ने तन-तन्हा (ख़ुद ही) इस की तब्लीग़-ओ-इशा'अत का काम शुरू' किया मक्का के "13" साला ज़िंदगी में दा'वत की राह-में बड़ी रुकावटें आई तकलीफ़े उठानी पड़ी लेकिन इस्लाम के मानने वालों की ता'दाद (संख्या) में थोड़ा-थोड़ा ही सही मगर इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) होता रहा मदनी दौर में इस में ख़ातिर-ख़्वाह (मनचाहा) तेज़ी आई और नबी आख़िरुज़्ज़माँ ﷺ के इस दुनिया को ख़ैर-बाद कहने के वक़्त एक लाख से ज़ियादा (अधिक) नुफ़ूस (लोग) इस्लाम के साए में पनाह ले चुके थे।
तौहीद, रिसालत, हश्र-ओ-नश्र (क़ियामत) और दीगर (अन्य) बुनियादी 'अक़ाइद को लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में उतार ने के लिए क़ुरआन में नौ'-ब-नौ' (तरह तरह के) 'अक़्ली-व-मंतिक़ी दलाइल पेश किए गए शिर्क-ओ-कुफ़्र के दलाइल की कमज़ोरी और बुतलान (बातिल) को वाज़ेह (स्पष्ट) किया गया दिलों को अपील करने वाले 'अक़्ली ओ नक़ली दलाइल से मुतमइन (संतुष्ट) हो-कर लोग जौक़-दर-जौक़ (गिरोह के गिरोह) इस्लाम में दाख़िल होते गए शहरों, देहातो और मुल्कों से निकल कर इस्लाम की रोशनी देखते-देखते मुख़्तलिफ़ बर्र-ए-आज़मो (महाद्वीपों) तक में फैल गई इस तेज़-रफ़्तारी के साथ इस्लाम की इशा'अत (प्रचार) के पीछे जहां इस की हक्क़ानिय्यत (सच्चाई ) उस के महासिन (भलाइयां) और उस के फ़ज़ाइल (अच्छाईयां) थे वहीं अहल ए इस्लाम की 'अमली (व्यावहारिक) ज़िंदगी उन के अख़्लाक़ (आचरण) की बलंदी (श्रेष्ठता) किरदार (चरित्र) की सफ़ाई (सादगी) और मु'आमलात (व्यवहार) की पाकीज़गी (पवित्रता) वग़ैरहा का भी बड़ा दख़्ल (हस्तक्षेप) था !
इशा'अत-ए-इस्लाम (इस्लाम के प्रचार) के सिलसिले में ज़माना-ए-क़दीम (प्राचीनकाल) से लेकर अब-तब बा'ज़ (चंद) लोग एक ग़लत-फ़हमी (ना-समझी) का शिकार रहते हैं या जान बूझ कर (सब कुछ जानते हुए) ऐसा प्रोपोगंडा करते हैं वो यह कि इस्लाम में दाख़िल करने के लिए मुसलमान जब्र-ओ-इकराह (बलपूर्वक) और ज़ोर ओ ज़बरदस्ती से काम लेते हैं और बसा-औक़ात (कभी-कभी) माल-ओ-मता' (धन और सामग्री) के ज़री'आ (द्वारा) भी लोगों को रिझाने की कोशिश करते हैं यह महज़ (केवल) एक दा'वा है जिस का शर'ई (धार्मिक) 'अक़्ली (उचित) और ज़मीनी (लाक्षणिक) ए'तिबार (विश्वास) से जाइज़ा (समीक्षा) लेने की ज़रूरत है ताकि इस दा'वे की हक़ीक़त (सच्चाई) सामने आए और सहीह सूरत-ए-हाल (वर्तमान स्थिति) से आगाही (ज्ञान) हो।
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:2
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*शर'ई (धार्मिक) नुक़्ता-ए-नज़र (दृष्टिकोण)*
शर'ई (धार्मिक) ए'तिबार (विश्वास) से देखा जाए और आख़िरीं (अंतिम) नबी (पैग़ंबर) का 'अमल (काम) और आप की ज़िम्मेदारियों का जाइज़ा (समीक्षा) लिया जाए तो यह बात खुल कर सामने आती हैं कि अल्लाह-त'आला ने अपने नबी (पैग़ंबर) को सिर्फ़ (केवल) इबलाग़ (पहुँचाने) और दा'वत की ज़िम्मेदारी दी थी या'नी (अर्थात) अल्लाह का पैग़ाम (संदेश) अल्लाह के बंदों (मनुष्यों) तक पहुँचाने का आप को मुकल्लफ़ (पाबंद) किया था और साथ ही यह वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया था कि दा'वत की कामयाबी (सफलता) और नाकामी (असफलता) की फ़िक्र (चिंता) आप को नहीं करनी है यह अल्लाह के हाथ में है हिदायत (मार्ग-दर्शन) देना अल्लाह का काम है आप अपने ज़िम्मा (ज़िम्मेदारी) का काम करते जाएं और नतीजा (अंजाम) से बे-फ़िक्र (निडर) रहें।
इस सिलसिले की चंद आयात क़ुरआनी मुलाहज़ा हो :
وَلَوْ شَاء رَبُّکَ لآمَنَ مَن فِیْ الأَرْضِ کُلُّہُمْ جَمِیْعاً أَفَأَنتَ تُکْرِہُ النَّاسَ حَتَّی یَکُونُواْ مُؤْمِنِیْنَ- {سورہ یونس:۹۹}
तर्जमा: और अगर आप का रब (पालन-हार) चाहता तो जो लोग भी ज़मीन में है सब के सब ईमान ले आते तो क्या (ऐ नबी) आप लोगों को मजबूर करेंगे कि वो ईमान वाले हो जाए।
(सूरा यूनुस:99)
एक जगह फ़रमाया:
{إِنَّکَ لَا تَہْدِیْ مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَکِنَّ اللَّہَ یَہْدِیْ مَن یَشَاء ُ وَہُوَ أَعْلَمُ بِالْمُہْتَدِیْنَ - {سورہ قصص:۵۶}
तर्जमा: (ऐ नबी) आप जिसे चाहे हिदायत नहीं दे सकते अल्लाह ही जिसे चाहे हिदायत देता है हिदायत वालो से वही ख़ूब आगाह (जानकार) है।
(सूरा अल्-क़सस:56)
मज़ीद (अधिक) फ़रमाया:
{فَإِنْ أَعْرَضُوا فَمَا أَرْسَلْنَاکَ عَلَیْہِمْ حَفِیْظاً إِنْ عَلَیْکَ إِلَّا الْبَلَاغُ- {سورہ شوری:۴۸}
तर्जमा: अगर यह लोग मुंह फेर ले तो (ऐ नबी) हम ने आप को इन का निगराँ (रक्षक) बनाकर नहीं भेजा है आप की ज़िम्मेदारी तो सिर्फ़ तब्लीग़-ओ-दा'वत है।
(सूरा अश़्-शूरा:48)
एक मक़ाम पर यूँ इरशाद हैं:
{فَذَکِّرْ إِنَّمَا أَنتَ مُذَکِّرٌ، لَّسْتَ عَلَیْہِم بِمُصَیْطِرٍ- {سورہ غاشیہ:۲۱،۲۲}
तर्जमा: (ऐ नबी) आप नसीहत करें आप का काम नसीहत करना है आप उन के ऊपर दारोग़ा नहीं है।
(सूरा अल्-ग़ाशिया:21:22)
यह भी इरशाद हैं:
{لاَ إِکْرَاہَ فِیْ الدِّیْنِ قَد تَّبَیَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَیِّ - {سورہ بقرہ: ۲۵۶}
तर्जमा: दीन (धर्म) में कोई ज़बरदस्ती नहीं हिदायत और गुमराही ज़ाहिर (स्पष्ट) हो चुकी है।
(सूरा अल्-ब-क़-रा:256)
मज़ीद फ़रमाया:
{وَقُلِ الْحَقُّ مِن رَّبِّکُمْ فَمَن شَاء فَلْیُؤْمِن وَمَن شَاء فَلْیَکْفُرْ- {سورہ کہف:۲۹}
तर्जमा: (ऐ नबी) कह दीजिए कि हक़ तुम्हारे रब की तरफ़ से हैं पस जो चाहे ईमान लाए और जो चाहे कुफ़्र करें।
(सूरा अल्-कह्फ़:29)
इस मफ़्हूम (अर्थ) को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है:
{إِنَّا ہَدَیْنَاہُ السَّبِیْلَ إِمَّا شَاکِراً وَإِمَّا کَفُوراً - {سورہ دہر:۳}
तर्जमा: हमने इसे राह दिखला दी अब ख़्वाह (चाहे) वो शुक्र-गुज़ार बने ख़्वाह (चाहे) ना-शुक्रा।
(सूरा अल्-इन्सान:3)
लोगों को मुख़ातिब (संबोधन) करके कहा गया:
{فَإِن تَوَلَّیْتُمْ فَاعْلَمُواْ أَنَّمَا عَلَی رَسُولِنَا الْبَلاَغُ الْمُبِیْنُ- {سورہ مائدہ: ۹۲}
तर्जमा: अगर रु-गर्दानी (विरोध) करोगे तो जान लो कि हमारे रसूल के ज़िम्मा (ज़िम्मेदारी) सिर्फ़ साफ़-साफ़ पहुंचा देना था।
(सूरा अल्-माइदा :92)
अल-ग़रज़ (सारांश यह कि) इस मफ़्हूम (अर्थ) की बहुत सारी आयतें है जिन में वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया गया है कि अल्लाह का दीन (धर्म) और अल्लाह का पैग़ाम (संदेश) वाज़ेह (स्पष्ट) तोर पर पेश हो चुका है सहीह और ग़लत रास्तों की निशान-दही कर दी गई है इंसान को 'अक़्ल और सूझ-बूझ (समझदारी) भी दी गई है दोनों रास्तों और दोनों के अंजाम को सामने रखें और अपने लिए सहीह रास्ते का इंतिख़ाब (चयन) करें इस के लिए उस के ऊपर किसी तरह का जब्र (बलप्रयोग) या ज़ोर-ज़बरदस्ती की जरूरत नहीं है और नबी का काम भी यही है कि ख़ैर-ओ-शर (पाप और पुन्य) और हक़-ओ-नाहक़ (सही और ग़लत) को वाज़ेह (स्पष्ट) करदे ता कि हुज्जत (दलील) तमाम हो जाए और जो काम नबी का हैं वहीं उस के मुत्तबि'ईन (अनुयायी) और वारिसीन का भी है।
इसी तरह नबी-ए-करीम ﷺ की 'अमली (व्यावहारिक) ज़िंदगी और आप की सीरत-ए-तय्यबा (पवित्र जीवन) के मुताले' (अध्ययन) से पता चलता है कि कभी आप ने इस्लाम के लिए किसी को मजबूर नहीं किया किसी पर सख़्ती (कठोरता) नहीं की आप ने दा'वत दी और हक़ (सत्य) को बयान किया इसे क़ुबूल (स्वीकार) करने की दरख़्वास्त (अपील) की।
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:3
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*किसी को जबरन (ज़बरदस्ती) इस्लाम में दाख़िल करने के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से दर्ज ज़ैल (नीचे लिखित) नुक़ात (points) भी क़ाबिल-ए-ग़ौर (ध्यान देने योग्य) हैं*
1) इस्लाम में यह बात मुसल्लम (प्रमाणित) और मुत्तफ़क़-'अलैह (सर्वमान्य) हैं कि अगर कोई अपनी रज़ा-ओ-रग़बत (मर्ज़ी) के बग़ैर किसी जब्र (बलप्रयोग) और ज़बरदस्ती की वजह से (कारण से) इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करता है तो ऐसा इस्लाम क़ाबिल-ए-क़ुबूल (स्वीकरणीय) नहीं और न ऐसे मुसलमान को उस के इस्लाम से कोई फ़ाइदा (लाभ) मिलने वाला है बिल्कुल वैसे ही (उसी तरह) जैसे किसी मुसलमान को जबरन (बलपूर्वक) कलमा-ए-कुफ़्र पढ़वाया जाए तो इस्लाम से वह ख़ारिज (बाहर) नहीं हुआ करता।
2) एक मुसलमान को किताबिया (यहूदी या 'ईसाई) औरत से शादी करने की इजाज़त (अनुमति) हैं लेकिन अगर कोई किसी किताबिया औरत से शादी करता है तो उस औरत के लिए जरूरी नहीं कि अपना दीन-ओ-'अक़ीदा (धर्म) छोड़ दे और इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करे उसे अपने दीन (धर्म) पर बाकी रहने का पूरा हक़ (अधिकार) हासिल है।
3) अगर लोगों को ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) मुसलमान बनाया गया होता तो मौक़ा' (अवसर) मिलते ही वह इस्लाम से निकल भागते और अपने पुराने मज़हब (धर्म) की तरफ़ लौट जाते लेकिन इस्लाम की पूरी तारीख़ इस तरह की मिसाल (उदाहरण) पेश करने से कासिर (नाकाम) है।
4) अगर ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) लोगों को मुसलमान बनाना होता तो मुसलमान कई सदियों तक पूरी ताक़त और क़ुव्वत (शक्ति) में रहे वो चाहते तो जबरन (बलपूर्वक) अपने इर्द-गिर्द (चारों तरफ़) के लोगों को मुसलमान बना लेते और मुस्लिम मु'आशरे (समाज) में कोई ग़ैर-मुस्लिम न रहता लेकिन तारीख़ शाहिद (इतिहास गवाह) है कि 'अहद-ए-नबवी, 'अहद-ए-सहाबा, 'अहद-ए-अमवी, 'अहद-ए-अब्बास और बा'द के अदवार (युग) में भी हमेशा मुस्लिम मुल्कों (countries) और 'इलाक़ो में ग़ैर-मुस्लिम (यहूदी, ईसाई, मजूसी, बुत-परस्त, आतिश-परस्त) मुसलमानों के साथ साथ रहें उन्हें बड़े बड़े मनासिब (पदवियां) सुपुर्द किए गए और वो मु'अज़्ज़ज़-ओ-मुकर्रम (सम्मानित) रहे मदीना में मस्जिद-ए-नबवी में हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को 'ऐन (ठीक) नमाज़ बल्कि (किंतु) इमामत की हालत में एक मजूसी ग़ुलाम (नौकर) ही ने तो शहीद किया था।
5) "इस्लाम में ज़िम्मी (इस्लामी राज्य में ग़ैर मुस्लिम नागरिक) के हुक़ूक़ (अधिकार)"
यह एक ऐसा मौज़ू' (विषय) है कि जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने की थ्योरी की नफ़ी (अस्वीकृति) के लिए यही तन्हा (अकेला) काफ़ी (पर्याप्त) है ज़िम्मी इन रि'आया (जनता) को कहते हैं जो इस्लामी हुकूमत में आबाद हो और जिन का मज़हब (धर्म) इस्लाम न हो मुस्लिम हुकूमत उन से बहुत ही मा'मूली (साधारण) टैक्स लेकर इस के 'इवज़ (बदले) उन की जान-ओ-माल के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) की ज़िम्मेदार होती थी और उन को बहुत सारे मज़हबी व समाजी व सियासी हुक़ूक़ (अधिकार) हासिल होते अगर जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने की कोई हक़ीक़त (सत्यता) होती तो मुस्लिम हुकूमतों के यहां यह शो'बा (विभाग) और यह महकमा (कचहरी) वुजूद (अस्तित्व) ही में न आता बल्कि (किंतु) ऐसे लोगों को या तो इस्लाम में दाख़िल कर लिया जाता या इंकार की सूरत में मुल्क-बदर (जिलावतन) कर दिया जाता।
6) बहुत से ग़ैर मुस्लिम मुअर्रिख़ीन-ओ-मुफ़क्किरीन (इतिहासकारों) ने भी इस्लाम और मुसलमानो की वुस'अत-ए-क़ल्बी का ए'तिराफ़ (स्वीकार) किया है और किसी को जबरन (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने के मफ़रूज़े (भ्रम) की तरदीद (रद्द) की हैं चंद मिसालें (उदाहरण) मुलाहज़ा (अध्यन) हो।
मशहूर (प्रसिद्ध) यूरोपीयन मुअर्रिख़ (इतिहासकार) एडवर्ड गिबन लिखता है:
इस्लाम ने किसी मज़हब (धर्म) के मसाइल (समस्या) में दस्त-अंदाज़ी (हस्तक्षेप) नहीं की किसी को ईज़ा (तकलीफ़) नहीं पहुँचाई कोई मज़हबी (धार्मिक) अदालत ग़ैर-मज़हब (दूसरे धर्म) वालों को सज़ा (दंड) देने के लिए क़ाइम (स्थापित) नहीं की और इस्लाम ने लोगों के मज़हब (धर्म) को ब-जब्र (बलपूर्वक) तब्दील (परिवर्तन) करने का कभी क़स्द (विचार) नहीं किया
इस्लाम की तारीख़ (इतिहास) के हर सफ़्हा (पेज) में और हर मुल्क (देश) में जहां इस को वुस'अत (ताक़त) हासिल (प्राप्त) हुई वहां दूसरे मज़ाहिब (धर्मसमूह) से 'अदम मुज़ाहमत पाई जाती हैं यहां तक कि फ़िलिस्तीन में एक ईसाई शा'इर (कवि) ने उन वाक़ि'आत (घटनाओं) को देखकर जिन का ज़िक्र (उल्लेख) हम कर रहे हैं बारह सो साल बाद ए'लानिया (खुले तौर पर) कहा था कि सिर्फ़ मुसलमान ही रू-ए-ज़मीन (भूमी की सतह) पर ऐसी क़ौम (जाति) है जो दूसरे मज़ाहिब (धर्मसमूह) वालों को हर क़िस्म (प्रकार) की आज़ादी (स्वतंत्रता) देते हैं।
(इस्लाम और रवादारी पेज:80/81 ब-हवाला ज़वाल रुमत अल कुबरा पेज:185)
मशहूर (प्रसिद्ध) फ्रेंच मुफ़क्किर (विचारक) डॉक्टर गुस्तावली अपनी
तसनीफ़ (पुस्तक) "तमद्दुन 'अरब" में लिखता है:
"मुसलमान हमेशा मफ़्तूह (पराजित) अक़्वाम (कौमों) को अपने मज़हब (धर्म) की पाबंदी में आज़ाद छोड़ देते थे"
(तमद्दुन 'अरब:पेज:80)
(जारी...)
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*क्या बिल-जब्र (ज़बरदस्ती) लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ?*
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पार्ट:4 (लास्ट पार्ट)
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*हिंदुस्तान, इस्लाम और मुसलमान*
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यह मौज़ू' (विषय) एक तवील (लंबी) बहस का मुतक़ाज़ी (ज़रुरत) हैं लेकिन अपने ज़ेर-ए-बहस (चर्चाधीन) जुज़ई (थोड़े) से मुत'अल्लिक़ (विषय में) चंद (कुछ) बातें पेश (समक्ष) करने पर इक्तिफ़ा (पर्याप्त) किया जाता हैं।
*हिंदुस्तान में मुसलमानो की आमद (आगमन) का सिलसिला (सम्बंध) पहले से जारी था लेकिन तारीख़ी (ऐतिहासिक) हैसियत से हिंदुस्तान में मुसलमानो का सिलसिला (सम्बंध) मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले (आक्रमण) से शुरू' (प्रारंभ) माना जाता हैं उस हमले में मुसलमानों को फ़त्ह (विजय) मिली थी और यहां इस्लामी हुकूमत की दाग़-बेल पड़ी थी मोहम्मद बिन क़ासिम और मज़हबी (धार्मिक) जब्र-ओ-इकराह (ज़बरदस्ती) के हवाले से सिर्फ़ (मात्र) एक मिसाल (उदाहरण) पेश की जा रही हैं:
मशहूर (प्रसिद्ध) मुअर्रिख़ (इतिहासकार) 'अली बिन हामिद मुसन्निफ़ (लेखक) "तारीख़-ए-सिंध" ने मज़हबी (धार्मिक) आज़ादी (स्वतंत्रता) से मुत'अल्लिक़ (विषय में) मोहम्मद बिन क़ासिम की पॉलिसी का यह ए'लान (घोषणा) नक़्ल किया है कि:
"हमारी हुकूमत में हर शख़्स मज़हबी (धार्मिक) मु'आमला (व्यवहार) में आज़ाद (स्वतंत्र) होगा जो शख़्स (व्यक्ति) चाहें इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करें और जो चाहे अपने मज़हब (धर्म) पर क़ाइम (यथावत) रहें हमारी तरफ़ से कोई त'अर्रुज़ (विरोध) न होगा"
(इस्लाम और रवादारी: पेज नंबर:153)
*हिंदुस्तान के अव्वल (प्रथम) वज़ीर-ए-आ'ज़म (प्रधानमंत्री) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब
(दी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया के पेज नंबर:204)
पर लिखा है:
अफ़ग़ान और मुग़ल हुक्मरानों ने ख़ास तौर पर इस बात का हमेशा (सदा) लिहाज़ (ध्यान) रखा कि मुल्क (देश) के क़दीम (प्राचीन) रस्म-ओ-रिवाज (रीति रिवाज) और उसूलों (सिद्धांतों) में कोई दख़्ल (हस्तक्षेप) न दिया जाए उन में कोई भी बुनियादी (आधार भूत) तब्दीली (परिवर्तन) नहीं की गई हिंदुस्तान का इक़्तिसादी (आर्थिक) और समाजी ढाँचा ब-दस्तूर (पहले की तरह) क़ाइम (स्थापित) रहा गयासुद्दीन तुग़लक़ ने अपने हुक्काम को वाज़ेह (स्पष्ट) हिदायत (आदेश) इस बारे में जारी की थी कि वो मुल्क (देश) के रिवाजी (प्रचलित) क़ानून को ब-दस्तूर (यथावत) क़ाइम (स्थापित) रखें और सल्तनत (हुकूमत) के मु'आमलात (व्यवहार) को मज़हब (धर्म) से जो हर फ़र्द (व्यक्ति) का जाती और निजी (व्यक्तिगत) 'अक़ीदा (विश्वास) होता है बिल्कुल अलग रखें।
*प्रोफ़ेसर राम प्रशाद खोसला अपनी किताब
(मुगल किंग सीप एंड मोबिलिटी) में लिखते हैं:
मुग़लों के ज़माने (समय) में 'अदल-ओ-इंसाफ़ (न्याय) में जो एहतिमाम (बंदोबस्त) होता और जो उन की मज़हबी (धार्मिक) रवादारी (उदारता) की पॉलिसी थी उस से 'अवाम (जनता) हमेशा (सदा) मुतमइन (संतुष्ट) रही इस्लामी रियासत (हुकूमत) में सियासत (राजनीति) और मज़हब (धर्म) का गहरा (धनिष्ट) लगाव (नाता) रहा है लेकिन मुग़लो की मज़हबी (धार्मिक) रवादारी (उदारता) की वज़ह से उस लगाव को कोई ख़तरा पैदा नहीं हुआ किसी ज़माने में भी यह कोशिश नहीं की गई कि हुक्मराँ क़ौम का मज़हब (धर्म) महकूमों (प्रजा) का भी मज़हब (धर्म) बना दिया जाए हत्ता कि औरंगज़ेब ने भी हुसूल-ए-मुलाज़मत (नौकरी) के लिए इस्लाम की शर्त (पाबंदी) नहीं रखी मुग़लो के 'अहद (समय) में "Fermilao act" या "corporation act" जैसे क़वानीन (कानून) मंज़ूर नहीं किए गए एलिज़ाबेथ के ज़माने में एक ऐसा कानून था जिस के जरिए से जबरी (ज़बरदस्ती) तौर पर 'इबादत (उपासना) कराईं जाती थी मुग़लो के ज़माने (समय) में इस क़िस्म (प्रकार) का कोई जब्र (बलप्रयोग) नहीं किया गया "Bortholomews day" जैसे क़त्ल-ए-'आम (नरसंहार) से मुग़लो की तारीख़ कभी दाग़दार (कलंकित) नहीं हुई मज़हबी (धार्मिक) जंग की ख़ूँ-रेज़ी (मार-काट) से यूरोप की तारीख़ भरी हुई है लेकिन मुग़लो के 'अहद (समय) में ऐसी मज़हबी (धार्मिक) जंग की मिसाल (उदाहरण) नहीं मिलती बादशाह मज़हब-ए-इस्लाम का मुहाफ़िज़ (रक्षक) और निगहबान (रखवाला) जरुर समझा जाता लेकिन उस ने कभी ग़ैर-मुस्लिम रि'आया (जनता) के 'अक़ाइद (आस्था) पर दबाव (प्रेशर) नहीं डाला।
(इस्लाम में मज़हबी रवादारी: सैयद सबाउद्दीन अब्दुर्रहमान दार अल-मुस्नफ़ीन आज़म गढ़, तब' जदीद : 'ईस्वी-साल:2009 पेज नंबर:287)
"इस्लामी अहकाम (आदेश) पर ए'तिराज़ (आलोचना) और उन की हक़ीक़त" के 'उनवान (शीर्षक) से अपने एक मज़मून (लेख) में मुहतरम (श्रीमान) सनाउल्लाह साहब लिखते हैं:
जब हिंदुस्तान में मुसलमान हुक्मरान (राजा) आएं यहां हिंदुस्तान में ब्रह्मणी हुकूमत ने बुद्धों, जैनियों और दलितों पर बे-पनाह (बहुत ज़ियादा) मज़ालिम (अत्याचार) ढाए थे इस लिए मज़लूमो (पीड़ितों) ने इस्लाम की इंसाफ़-पसंदी (न्यायप्रियता) से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो कर बग़ैर (बिना) दा'वत (आमंत्रण) के इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) कर लिया उन्होंने
मुस्लिम हुक्मरानों को अपना नजात-दहिंदा (आज़ाद कराने वाला) समझा पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामधारी सिंह 'दिनकर जैसे दर्जनों (बहुत से) हिंदु मुअर्रिख़ीन (इतिहासकार) और इंसाफ़-पसंद (न्यायप्रिय) मुसन्निफ़ीन (लेखक) ने अपनी किताबों में इस हक़ीक़त (सत्यता) को तस्लीम (स्वीकार) किया है अगर ज़ुल्म (अत्याचार) और तशद्दुद (हिंसा) से मज़हब (धर्म) फैलाने का काम मुस्लिम हुक्मरानों ने किया होता तो सात सौ साल में या तो हिंदुस्तान में एक भी हिंदू बाकी न बचता या फिर इतने लंबे 'अर्से (समय) तक उन की हुकूमत क़ाइम (यथावत) नहीं रह सकती तारीख़ी (ऐतिहासिक) रिकार्ड बताते हैं कि मुस्लिम दौर-ए-हुकूमत में हिंदू और मुसलमानों के दरमियान (बीच में) मेल-मिलाप और त'आवुन (सहयोग) बराबर क़ाइम (यथावत) रहा फ़ौज और हुकूमत के अहम (महत्वपूर्ण) 'ओहदों (पद) पर बड़ी ता'दाद (संख्या) में हिंदू फ़ाइज़ (नियुक्त) रहें तशद्दुद (ज़ुल्म) की हालत (स्थिति) में ऐसा मुमकिन (संभव) न था।
(इस्लाम और ग़लत-फ़हमीया मज्मू'आ मज़ामीन से रोज़ा दा'वत नई दिल्ली, 28, जुलाई, 2002, पेज:39)
*मिस्टर टी. डब्ल्यू. अर्नोल्ड अपनी किताब "The Preaching of Islam" में लिखते हैं:
औरंगज़ेब के 'अहद (समय) की किताब तवारीख़ (इतिहास) में जहाँ तक मैंने तलाश (खोज) किया है ब-जब्र (बलपूर्वक) मुसलमान करने का ज़िक्र (उल्लेख) कही नहीं मिलता (इस्लाम और रवादारी:216)
*एक फ़्रांसीसी सय्याह (पर्यटक) डॉक्टर ब्रनियर देहली (Delhi) के सूरज-ग्रहण के अश्नान (स्नान) और पूजा-पाट का नज़ारा (दीदार) करने के बाद लिखते हैं:
" मुस्लिम फ़रमाँ-रवाओ (राजाओं) की तदबीर (उपाय) मम्लकत (राष्ट्र) का यह एक जुज़ (भाग) हैं कि वो हिंदूओं की रुसूम (रीतियों) में दस्त-अंदाज़ी (हस्तक्षेप) करना मुनासिब (अनुकूल) नहीं समझते और उन्हें मज़हबी (धार्मिक) रुसूम (रस्में) बजा लाने (अदा करने) की पुरी आज़ादी देते हैं "
*मशहूर (प्रसिद्ध) हिंदी हफ़्त-रोज़ा (साप्ताहिक) "कांति" के साबिक़ (पूर्व) एडिटर (संपादक) डोक्टर कौसर यज़्दानी ने हिंदुस्तान में जबरी (बलपूर्वक) मुसलमान बनाने के वाहिमा (भ्रम) को ग़लत (झूठ) ठहराते हुए बड़े पते की बात कही है मौसूफ़ (महोदय) फरमाते हैं:
इस सिलसिले में एक दिल-चस्प (रोचक) अम्र (बात) यह भी है कि वतन-ए-'अज़ीज़ (प्यारे मुल्क) में हर-वक़्त (हर समय) propaganda (प्रचार) किया जाता हैं कि मुस्लिम बादशाहों ने यहां के बाशिंदों (नागरिकों) को तलवार और ताक़त के ज़ोर (बल) पर ज़बरदस्ती (बलपूर्वक) मुसलमान बनाया ऐसी बात करने वाले यह नहीं सोचते कि वो ख़ुद (स्वयं) अपने बुज़ुर्गों (बापदादे) और अस्लाफ़ (पुर्खो) पर कितना बड़ा इल्ज़ाम (आरोप) लगा रहे हैं कि वो ऐसे बुज़दिल (डरपोक) थे कि ख़ुद (स्वयं) करोड़ों की ता'दाद (संख्या) में होते हुए भी बाहर से आने वाले चंद (कुछ) हजार मुसलमानों का मुक़ाबला न कर सके उन के गुलाम-ओ-महकूम (दास) बन गए यहां तक कि इस दबाव (प्रेशर) में अपनी बुज़दिली (कायरता) और पस्त-हिम्मती (डर) की वजह से (करण से) अपना धर्म छोड़ कर मुसलमानों का मज़हब (धर्म) क़ुबूल (स्वीकार) कर लिया फिर यह कैसी 'अजीब (विचित्र) बात है कि इन मुसलमानों के हुक्मरान (राजा) न रहने पर भी इन्होंने मुबैयना (तथाकथित) हमला-आवरो (आक्रमणकारों) का मज़हब (धर्म) न छोड़ा और आज-तक फ़स्ताई (फासीवादी) ताकतों के तमाम-तर (सारे का सारा) ज़ुल्म-ओ-सितम (अन्याय) इम्तियाज़ (भेदभाव) फ़साद (उपद्रव) क़त्ल-ओ-ग़ारत-गिरी (ख़ून खराबा) मज़हबी (धार्मिक) मक़ामात (बहुत से स्थान) और मज़हबी (धार्मिक) कुतुब (किताबें) की बे-हुरमती (अपमान) अपनी जान-ओ-माल और 'इज़्ज़त-आबरू पर वहशियाना (बर्बरतापूर्ण) और राक्षसी हमलों के बावुजूद (अतिरिक्त) इस मज़हब (धर्म) को छोड़कर आज के हुक्मरानों का मज़हब (धर्म) इख़्तियार (पसंद) करने की बात तक नहीं करते न किसी दबाव (प्रेशर) में आते हैं न किसी लालच में और सबसे दिल-चस्प (रोचक) बात यह है कि आज भी बहुत से लोग हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम (इस्लाम के अनुयायी) हो रहें हैं आख़िर इन के सरो पर कौन सी इस्लामी तलवार लटक रही हैं ? और जो मुसलमान ख़ुद ही दलितों जेसी पसमांदगी (लाचारी) की ज़िंदगी (जीवन) गुज़ार ने पर मजबूर (लाचार) हैं वो कौन सा लालच दे रहे हैं ?
इस सिलसिले में यह अम्र (बात) भी काबिल-ए-ज़िक्र (उल्लेखनीय) है कि जब वतन-ए-'अज़ीज़ के बाशिंदों (नागरिकों) में हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम (इस्लाम के अनुयायी) होने वालो के बारे में ग़ौर (विचार) किया जाता हैं तो नज़र आता हैं कि ज़्यादातर (अधिकतर) ख़ुश-हाल (मालदार) जंग-जू (लड़ाकू) बहादुर हुक्मराँ और असहाब-ए-रोज़गार (कारोबारी) लोग हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम हुए क्षत्रिय क़ौमे मुसलमान हुई अगर वो तलवार के डर से मुसलमान हुए तो हमेशा की कमज़ोर पस-मांदा (पिछड़े) डरपोक और बुज़दिल (कायर) क़ौमे तो उन को देखकर मुसलमान हो गई होती ऐसा क्यूँ नहीं हुआ ?
(इस्लाम और ग़लत-फ़हमियां: पेज:133)
*आईन-ए-हिन्द (संविधान) और तबलीग़-ए-मज़हब (धर्म प्रचार) की आज़ादी (स्वतंत्रता)*
आईन-ए-हिन्द (संविधान) में तमाम (सम्रग) मज़ाहिब (धर्मसमूह) के लोगों को अपने मज़हबी (धार्मिक) उमूर (काम) के इंतिज़ाम (व्यवस्था) मज़हब (धर्म) की तबलीग़ (प्रचार) और मज़हबी (धार्मिक) ता'लीम (शिक्षा) की इजाज़त (अनुमति) दी गई हैं चुनांचे (जैसा कि) आईन (संविधान) की दफ़्'अ (क़ानून की धारा) (25) में आज़ादी, ज़मीर (अंतरात्मा) मज़
माह-ए-मुहर्रम और मौजूदा मुसलमान | Mah-e-Muharram aur Maujooda Musalman
माह-ए-मुहर्रम और मौजूदा मुसलमान Hindi Book PDF
Mah-e-Muharram aur Maujooda Musalman
लेखक: शैख तौसीफ़ उर रहमान (ख़ुतबात राशिदी: पेज नंबर 77 / 84)
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
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हम शहादत-ए-हुसैन पर मातम क्यूं नहीं करते? | Hum Shahadat-e-Hussain par Matam Kyun Nahin Karte?
हम शहादत-ए-हुसैन पर मातम क्यूं नहीं करते Hindi Book PDF
Hum Shahadat-e-Hussain par Matam Kyun Nahin Karte?
लेखक:शैख़ अकरम इलाही हिंदी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
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क्या ज़बरदस्ती लोगों को मुसलमान बनाया जा सकता हैं ? | Kya Jabardasti Se Logon Ko Musalman Banaya Ja Sakta Hai?
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Kya Jabardasti Se Logon Ko Musalman Banaya Ja Sakta Hai? Hindi Pdf Book
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
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कुर्बानी के हैरान - कुन मु'आशी (आर्थिक) और माद्दी (भौतिक) फ़ाइदे | Qurbani ke hairaan - kun mu'aashi (aarthik) aur maaddi (bhautik) Fayde
कुर्बानी के हैरान - कुन मु'आशी (आर्थिक) और माद्दी (भौतिक) फ़ाइदे
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Qurbani kehairaan - kun mu'aashi (aarthik) aur maaddi (bhautik) Fayde Hindi Pdf Book
लेखक: शैख़ हाफ़िज़ शाहिद रफ़ीक़
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
कुर्बानी के हवाले से चंद सुवालात और उनके जवाबात | Qurbani ke hawale se chand sawalat aur unke jawabat Hindi Pdf Book
कुर्बानी के हवाले से चंद सुवालात और उनके जवाबात Hindi Book PDF
Qurbani ke hawale se chand sawalat aur unke jawabat Hindi Pdf Book
लेखक : शैख़ अकरम इलाही
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
कुर्बानी के अहकाम और शरायत | Qurbani ke Ahkam aur Shara'it Hindi Pdf Book
कुर्बानी के अहकाम और शरायत
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Qurbani ke Ahkam aur Shara'it Hindi Pdf Book
लेखक: शेख नसीम सईद तैमी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
اسم معرب کی تعریف، حکم اور اعراب کی اقسام
اسم معرب کی تعریف، حکم اور اعراب کی اقسام
فصل 1- تعریف اسم معرب
س:- اسم معرب سے کیا مراد ہے ؟
ج:- یہ وہ اسم ہے جو اپنے غیر کے ساتھ مرکب ہو اور مبنی اصل کے مشابہ نہ ہو- اور عامل موجود ہو-
س:- مبنی اصل سے کیا مراد ہے ؟
ج:- مبنی اصل سے مراد حرف، امر حاضر اور فعل ماضی ہیں-
س:- معرب کا دوسرا نام کیا ہے ؟
ج:- اسم متمکّن-
س:- کیا فقط "زید" معرب ہے ؟
ج:- نہیں کیونکہ اس کا اسناد غیر کے ساتھ نہیں ہورہا ہے-
س:- کیا "ھؤلاء" معرب ہے؟
ج:- نہیں کیونکہ مبنی الاصل یعنی حرف ہے-
فصل 2 - حکم اسم معرب
س:- معرب کا حکم/خاصیت کیا ہے؟
ج:- اس کا آخر عوامل کے اختلاف سے بدل جاتا ہے-
س:- اختلاف کی کتنی اقسام ہیں ؟
ج:- دو لفظاً و تقدیراً-
س:- لفظاً کی مثال دیں-
ج:- " جاءنی زیدٌ " ، " رائیتُ زيدًا " ، " مررتُ بزيدٍ "
س:- تقدیراً کی مثال دیں-
ج:- " جاءنی موسی " ، " رائیتُ موسی " ، " مررتُ بموسی "(یعنی موسی تینوں حالتوں میں نہیں بدلا)
س:- اعراب سے کیا مراد ہے؟
ج:- اس کی وجہ سے معرب اسم کا آخر بدلتا ہے جیسے ضمۃ ، فتحۃ ، کسرۃ –
س:- وہ کون سے کلمات ہیں جن کا آخر عوامل کے اختلاف سے بدلتا ہے؟
ج:- اسم معرب و منصرف و متمکّن اور فعل مضارع (بس یہ دو ہی صورتیں ہیں)
فصل 3 - اقسام اعراب
س:- اسم معرب کے اعراب کی کتنی اقسام ہیں ؟
ج:- یہ نو ہیں-
س:- پہلی قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " ضمۃ " کے ساتھ - نصب " فتح " کے ساتھ - جر " کسرۃ " کے ساتھ
س:- یہ کن صورتوں میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- تین صورتوں میں
1)مفرد منصرف صحیح کے ساتھ
2)قائم مقام صحیح (جاری مجری صحیح) کے ساتھ
3)جمع مکسر منصرف کے ساتھ
س:- مفرد منصرف صحیح سے کیا مراد ہے ؟
ج:- یہ وہ اسم ہے جس کے آخر میں حرف علت نہ ہو- مثلاً " زیدٌ " اور " قائمٌ " –
س:- جاری مجری صحیح سے کیا مراد ہے ؟
ج:- وہ اسم جس کے آخر میں " واؤ " یا " یاء " ما قبل ساکن ہو مثلاً" ونْوٌ " ، " ظبْيٌ "-
س:- جمع مکسر منصرف سے کیا مراد ہے ؟
ج:- اسم کی ایسی جمع جس میں منفرد کا وزن سلامت نہ ہو مثلاً " رجلٌ " سے " رجالٌ "-
س:- اس جمع میں کس سے اعتراز ہے ؟
ج:- اس جمع سے اعتراز ہے جو غیر منصرف ہو اور سالم سے اعتراز ہے دونوں کے الگ الگ اعراب ہوتے ہیں-
س:- اعراب کی دوسری قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " ضمۃ " کے ساتھ - نصب " کسرۃ " کے ساتھ - جر " کسرۃ " کے ساتھ
س:- یہ کن صورتوں میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- جمع مونث سالم کے ساتھ –
س:- جمع مونث سالم کی مثال دیں –
ج: " مُسْلِمَاتٌ " , " مُسْلِمَاتٍ " , " مُسْلِمَاتٍ "
س:- اعراب کی تیسری قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " ضمۃ " کے ساتھ - نصب " فتح " کے ساتھ - جر " فتح " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- غیر منصرف کے ساتھ مثلاً " جاءنی عمرُ " ، " رائیتُ عمرَ " ، " مررت بِعمرَ " –
س:- اعراب کی چوتھی قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " واؤ " کے ساتھ - نصب " الف " کے ساتھ - جر " یاء " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- اسماۓ ستہ مکبّرۃ کے ساتھ
س:- مگر اس میں شرائط کتنی ہیں ؟
ج:- دو شرائط ہیں
1)واحد کے صیغے میں ہو
2)مضاف ہو یاء متکلم کے علاوہ کسی دوسری ضمیر کی طرف
س:- وہ اسماۓ ستہ مکبّرۃ کون کون سے ہیں ؟
ج:- 1) اخوك2) ابوك3) حنوك4) حموك5) فوك6) ذومال
س:- اعراب کی پانچویں قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " الف " کے ساتھ - نصب " یاء ما قبل مفتوح " کے ساتھ - جر " یاء ما قبل مفتوح " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- تین صورتوں میں
1)تثنیہ کے ساتھ
2)كِلْتَ اور كِلا ، کے ساتھ جب کہ وہ ضمیر کی طرف مضاف ہو- (اسم ظاہر کی طرف نہ ہو) - (معنی ہر دو)
3)اثنانِ اور اثنتانِ کے ساتھ (دو مذکر و مونث) یہ تثنیہ نہیں بلکہ الفاظ ہیں -
س:- اگر كِلْتَ اور كِلا اسم ظاہر کی طرف مضاف ہو تو اعراب کیا ہوگا ؟
ج:- تقدیری تینوں حالتوں میں –
س:- اعراب کی چھٹی قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " واؤ ما قبل مضموم " کے ساتھ - نصب " یاء ما قبل مکسور " کے ساتھ - جر " یاء ما قبل مکسور " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- تین صورتوں میں
1)جمع مذکر سالم کے ساتھ
2) أُولو کے ساتھ
3)عشرون اور اس کے اخوات کے ساتھ
س:- عشرون کے اخوات کون سے ہیں ؟
ج:- ثلثون ، اربعون ، خمسون ، ستون ، سبعون ، ثمانون ، تسعون –
س:- نون تثنیہ اور نون جمع سالم میں کیا فرق ہے ؟
ج:- تثنیہ کا نون ہمیشہ مکسور ہوتا ہے اور جمع سالم کا نون ہمیشہ مفتوح ہوتا ہے –
س:- اضافت کا ان پر کیا اثر ہوتا ہے ؟
ج:- یہ دونوں ساقط ہو جاتے ہیں مثلاً " جاءنی غلامًا زیدٍ " ، " مسلمو مصرٍ " –
س:- اعراب کی ساتویں قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " ضمہ تقدیری " کے ساتھ - نصب " قتحہ تقدیری " کے ساتھ - جر " کسرۃ تقدیری " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- دو صورتوں میں
1)اسم مقصورۃ کے ساتھ
2)اسم جو یاء متکلم کی طرف مضاف ہو اور جمع مذکر سالم نہ ہو، کے ساتھ
س:- اسم مقصورۃ سے کیا مراد ہے ؟
ج:- وہ اسم جس کے آخر میں الف مقصورۃ ہو مثلاً " عصا "-
س:- بالمضاف الی یاء المتکلم غیر جمع المذکر السالم کی مثال دیں –
ج:- " غلامی "
س:- اعراب کی آٹھویں قسم کون سی ہے ؟
ج:- :- رفع " ضمہ تقدیری " کے ساتھ - نصب " قتحہ لفظی " کے ساتھ - جر " کسرۃ تقدیری " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- اسم منقوص کے ساتھ
س:- اسم منقوص سے کیا مراد ہے ؟
ج:- اسم منقوص وہ اسم ہے جس کے آخر میں یاء ما قبل مکسور (کسرۃ) ہو – مثلاً قاضی
س:- اعراب کی نویں قسم کون سی ہے ؟
ج:- رفع " واؤ تقدیری " کے ساتھ - نصب " یاء لفظی " کے ساتھ - جر " یاء لفظی " کے ساتھ
س:- یہ کس صورت میں واقع ہوتا ہے ؟
ج:- جمع مذکر سالم (جو یاء متکلم کی طرف مضاف ہو) کے ساتھ
س:- مثال دیں
ج:- جیسے کہا جاۓ " جاءنی مُسْلِمّی " اصل میں " مُسْلِمُونَ " تھا واؤ اور یاء ایک جگہ جمع ہوۓ – ان دونوں میں سے پہلا ساکن ہے پس واؤ کو یاء سے بدل دیا گیا اور یاء میں ادغام کردیا گیا – اور میم کا ضمہ ، کسرۃ سے بدل گیا یاء کی مناسبت کی وجہ سے
پس " مسلمّی " ہو گیا-
रोज़ा के 100 मसाइल
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
रोज़ा के 100 मसाइल (सवाल नंबर:1,2)
लेखक: शैख़. अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*सहरी सुन्नत है वाजिब नहीं है*
सवाल:1
एक शख़्स रमज़ान में सहरी के वक़्त से कुछ पहले सो गया और सहरी नहीं खा सका हालाँकि उस का सहरी खाने का इरादा था लेकिन फ़ज्र (सुब्ह) के बाद उस की नींद खुली क्या उस का रोज़ा दुरुस्त (सही) होगा ?
जवाब:1
उस का रोज़ा दुरुस्त (सही) होगा क्यूँकि (इसलिए कि) रोज़े की दुरुस्तगी के लिए सहरी खाना शर्त नहीं है सहरी खाना महज़ (सिर्फ़) मुसतहब (पसंदीदा) है अल्लाह के रसूल ﷺ का फ़रमान है "सहरी खाओ क्यूँकि इस में बरकत है"
(मुत्तफ़क़-'अलैह) (शैख़ इब्न बाज़)
*सूरज ग़ुरूब हो जाने के बाद अज़ान से पहले इफ़्तार करना*
सवाल:2
एक सहीह हदीष में अल्लाह के रसूल ﷺ फरमाते हैं
"जब सूरज इधर (मग़रिब) से ग़ुरूब हो जाए और रात उधर मशरिक़ (पूरब) से ज़ाहिर हो जाए तो रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया"
اوکماقال ﷺ
हम ने तहक़ीक़ के बाद पाया कि जब सूरज फ़िल-वाक़े' (सच में) ग़ुरूब हो जाता है इस के पांच सात मिनट के बाद हमारे यहां मुअज़्ज़िन अज़ान देता है यह मुअज़्ज़िन जंतरी में अजीरी (कुवैत) के लिए दिए गए वक़्त के मुताबिक़ (अनुसार) अज़ान देता है तो क्या ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब की तहक़ीक़ हो जाने के बाद मुअज़्ज़िन के अज़ान देने से पहले इफ़्तार करना जाइज़ हैं ?
जवाब:2
जब रोज़े-दार को ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब और रात की आमद (आने) का हक़ीक़ी 'इल्म हो जाए तो उसके लिए इफ़्तार करना जाइज़ हैं अल्लाह रब्ब-उल-'इज़्ज़त का फ़रमान है:
(ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّیَامَ إِلَی الَّلیْْل)
"फिर रोज़े को रात तक पूरा करो"
और अल्लाह के रसूल की हदीष है कि: जब रात इधर से ज़ाहिर हो जाए और दिन उधर से रवाना हो जाए और सूरज ग़ुरूब हो जाए तो रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया
(मुत्तफ़क़-'अलैह)
इस से मा'लूम हुआ कि इन जंतरीओ का ए'तिबार (भरोसा) नहीं किया जाएगा जो इस हक़ीक़त के मुताबिक़ (अनुसार) न हो नीज़ (और) यह कि सहीह तौर पर ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का 'इल्म हो जाने के बाद इफ़्तार करने के लिए अज़ान सुनने की शर्त नहीं है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)
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(सवाल नंबर:3)
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*तुलू'-ए-फ़ज्र का यक़ीनी 'इल्म न होने की सूरत (स्थिति) में अज़ान के दौरान (बीच में) खाना-पीना*
सवाल:3
मुअज़्ज़िन के अज़ान देने की हालत में या अज़ान के कुछ देर बाद तक खाते पीते रहने का क्या हुक्म है ख़ास तौर से ऐसी सूरत (स्थिति) में जब कि तुलू'-ए-फ़ज्र का यक़ीनी तौर पर 'इल्म न हो ?
जवाब:3
रोज़ा रखने वाले को जो चीज़ खाने पीने से रोकने वाली है वो तुलू'-ए-फ़ज्र है क्यूँकि अल्लाह-त'आला का इरशाद हैं:
(فَالآنَ بَاشِرُوہُنَّ وَابْتَغُوا مَا کَتَبَ اللّہُ لَکُمْ وَکُلُواوَاشْرَبُوا حَتَّی یَتَبَیَّنَ لَکُمُ الْخَیْْطُ الأَبْیَضُ مِنَ الْخَیْْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْر)
" अब तुम्हें उन औरतों से मुबाशरत की और अल्लाह-त'आला की लिखी हुई चीज़ को तलाश करने की इजाज़त है और तुम खाते पीते रहो यहां तक कि (सुब्ह) का सफ़ेद धागा
(रात के) सियाह धागे से ज़ाहिर हो जाए "
और नबी-ए-करीम ﷺ का इरशाद हैं:
" जब तक इब्ने उम्मे मकतूम अज़ान न दे खाते पीते रहो क्यूँकि फ़ज्र तुलू' हुए बग़ैर वो अज़ान नहीं देते "
लिहाज़ा (इसलिए) अस्ल ए'तिबार (भरोसा) तुलू'-ए-फ़ज्र ही का होगा पस अगर अज़ान देने वाला क़ाबिल-ए-ए'तिमाद (भरोसेमंद) है और यह कहता है कि वो उस वक़्त तक अज़ान नहीं देता जब-तब कि फ़ज्र तुलू' न हो जाए तो ऐसी सूरत में वो जैसे ही अज़ान शुरू' करे अज़ान सुनते ही खाने पीने से रुक जाना ज़रूरी है
और अगर मुअज़्ज़िन इज्तिहाद कर के और तुलू'-ए-फ़ज्र का अंदाज़ा लगा कर अज़ान देता है तो ऐसी सूरत में भी एहतियात का तक़ाज़ा यही है कि इस की अज़ान सुनते ही खाना-पीना तर्क कर दिया जाए अगर कोई शख़्स खुल्ले मैदान में हो और (आसमान पर) फ़ज्र का मुशाहदा कर रहा हो तो अज़ान सुनने के बावुजूद इस को खाना पीना तर्क करना ज़रूरी नहीं है जब तक वो ख़ुद फ़ज्र तुलू' होते न देखले ब-शर्त-ए-कि रूयत (देखने) से कोई चीज़ माने' (रुकावट) न हो क्यूँकि अल्लाह-त'आला ने सियाह-धागे (रात की तारीकी) से फ़ज्र के सफ़ेद धागे (सुब्ह की सफ़ेदी) के नुमायाँ होने पर हुक्म को मु'अल्लक़ फ़रमाया है और नबी ﷺ ने इब्ने उम्मे मकतूम की अज़ान के बारे में फ़रमाया कि " वो उस वक़्त तक अज़ान नहीं देते जब तक फ़ज्र तुलू' न हो जाए " यहां मुअज़्ज़िन के त'अल्लुक़ (सम्बन्ध) से एक मसअला की तरफ़ में तवज्जोह मबज़ूल कराना चाहता हूं वो यह है कि बा'ज़ (कुछ) मुअज़्ज़िन तुलू'-ए-फ़ज्र से चार पांच मिनट पहले अज़ान दे देते हैं और वो समझते हैं कि रोज़े के लिए बतौर एहतियात वो ऐसा करते हैं यह ऐसा एहतियात है जिस को हम ग़ुलू से ता'बीर कर सकते हैं यह शर'ई एहतियात नहीं है नबी-ए-करीम ﷺ का फ़रमान है कि
”ھَلَکَ الْمُتَنَطِّعُوْنَ“
" दीन में ग़ुलू करने वाले बर्बाद हो गए "
यह एहतियात दुरुस्त नहीं है इस लिए कि यह लोग अगर रोज़े के वास्ते (कारण) एहतियात कर रहे हैं तो नमाज़ को ख़राब कर रहे हैं क्यूंकि बहुत से लोग अज़ान सुनने के बाद फ़ौरन (तुरंत) उठ कर फ़ज्र की नमाज़ पढ़ लेते हैं ऐसी हालत में यह आदमी जिसने वक़्त से पहले अज़ान देने वाले मुअज़्ज़िन की अज़ान सुन कर फ़ज्र की नमाज़ पढ़ ली इस ने नमाज़ को उनके वक़्त से पहले पढ़ लिया और वक़्त से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ दुरुस्त नहीं होती ऐसे मुअज़्ज़िन नमाज़ पढ़ने वालों को भी ज़रर (नुक़्सान) पहुँचाते है और रोज़ा रखने वाले को भी क्यूंकि रोज़ा रखने वाले के लिए अभी ब-हुक्म इलाही खाना पीना मुबाह (जाइज़) था लेकिन इस मुअज़्ज़िन ने अज़ान कह कर उन को इससे रोक दिया इस मुअज़्ज़िन ने एक तरफ़ तो रोज़ा रखने वालों पर ज़ुल्म किया कि अल्लाह की हलाल कर्दा चीज़ से उन को रोक दिया तो दूसरी तरफ़ नमाज़ पढ़ने वालों के साथ भी ज़्यादती की क्यूंकि इन्होंने वक़्त होने से पहले नमाज़ पढ़ ली और यह 'अमल उन की नमाज़ को बातिल कर देने वाला है लिहाज़ा (इसलिए) मुअज़्ज़िन को अल्लाह से डरना चाहिए और यह कि दुरुस्त बात तक पहुंचने के लिए जो इज्तिहाद करे इस में किताब-ओ-सुन्नत के बताए हुए तरीक़ो का ख़याल रखें
(शैख़ इब्न उसैमीन)
🔹..........................🔹
*रोज़ा तोड़ने वाली चीज़े*
सवाल:4
किन किन चीज़ों से रोज़ा टुटता है ?
जवाब:4
क़ुरआन में रोज़ा तोड़ने वाली तीन चीज़ों का बयान हैं:
खाना-पीना और जिमा' (मुबाशरत) इस की दलील अल्लाह रब्बुल-'इज़्ज़त का यह क़ौल है:
( فَالآنَ بَاشِرُوہُنَّ وَابْتَغُوا مَا کَتَبَ اللّہُ لَکُمْ وَکُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّی یَتَبَیَّنَ لَکُمُ الْخَیْْطُ الأَبْیَضُ مِنَ الْخَیْْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّیَامَ إِلَی الَّلیْْلِ)
" अब तुम्हें उन (औरतों) से मुबाशरत की और अल्लाह-त'आला की लिखी हुई चीज़ों को तलाश करने की इजाज़त है तुम खाते-पीते रहो यहां तक कि सुब्ह का सफ़ेद धागा सियाह धागे से ज़ाहिर हो जाए फिर रात तक रोज़े को पूरा करो "
जहा तक खाने-पीने का मु'आमला है तो वो चाहे हलाल हो या हराम मुफ़ीद (उपयोगी) हो या मुज़िर (हानिकारक) या ग़ैर-मुफ़ीद और ग़ैर मुज़िर थोड़ा हो या ज़ियादा (सब से रोज़ा टुट जाएगा) लिहाज़ा (इसलिए) सिगरेट पीने से भी रोज़ा टुट जाएगा अगरचे (हालांकि) वो जरर-रसाँ (हानि पहुँचाने वाला) और हराम है यहां तक कि अहल-ए-'इल्म कहते हैं कि अगर किसी ने काँच का दाना निगल लिया तो उस का रोज़ा टुट जाएगा हालांकि इस टुकड़े से जिस्म को कोई फ़ाइदा नहीं पहुंचेगा इस के बावुजूद (तब भी) इसे रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों में शुमार किया गया ऐसे ही अगर किसी ने नापाक चीज़ से गूँधा हुआ आटा खा लिया उस का रोज़ा टुट जाएगा बावजूद-ए-कि (अगरचे) वो नुक़सान-देह है।
तीसरी चीज़:
हमबिस्तरी है रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों में यह सबसे भारी चीज़ है क्यूंकि इस में (क़ज़ा के साथ) कफ़्फ़ारा भी वाजिब (ज़रूरी) है और कफ़्फ़ारा यह है कि एक गर्दन (ग़ुलाम या लौंडी) आज़ाद करे अगर यह न मिले तो मुसलसल (लगातार) दो माह (महीने) रोज़ा रखे अगर इस की इस्तिता'अत (ताक़त) न हो तो साठ (60) मिस्कीनों को खाना खिलाएं।
चौथी चीज़:
लुत्फ़-अंदोज़ी (मज़ा लेने) के तौर पर मनी' ख़ारिज करना
अगर कोई शख़्स मज़ा लेने के लिए मनी' ख़ारिज करता है तो इस का रोज़ा बातिल हो जाएगा अलबत्ता इस में कफ़्फ़ारा नहीं है (सिर्फ़ क़ज़ा है) कफ़्फ़ारा सिर्फ़ हमबिस्तरी में है।
पांचवीं चीज़:
वो इंजेक्शन जिन को लगवा लेने के बाद खाने पीने से आदमी बे-नियाज़ हो जाए वो ग़िज़ा-बख़्श इंजेक्शन होते हैं अलबत्ता वो इंजेक्शन जो ग़िज़ा (खाने) का काम नहीं करते उन से रोज़ा बातिल नहीं होगा चाहे कोई रगों में लगवाएं या पट्ठों में क्यूंकि ऐसे इंजेक्शन न तो दर-हक़ीक़त (हक़ीक़त में) खाना पीना है और न ही खाने पीने के मा'नी-ओ-मफ़हूम में है।
छटवीं चीज़:
क़स्दन (जान बूझ कर) क़य (उल्टी) करना अगर कोई शख़्स जान बूझ कर अज़-ख़ुद (ख़ुद-ब-ख़ुद) क़य करेगा तो उस का रोज़ा टुट जाएगा और अगर ख़ुद-ब-ख़ुद इस को क़य (उल्टी) आ जाए तो इस के ज़िम्मा कुछ नहीं है।
सातवीं चीज़:
हैज़ या निफ़ास का ख़ून जारी होना अगर ग़ुरूब-ए-आफ़ताब से एक लम्हा (मिनट) भी पहले औरत को हैज़ या निफ़ास का ख़ून शुरू' हो जाए तो इस का रोज़ा बातिल हो जाएगा और अगर ग़ुरूब-ए-आफ़ताब के एक लम्हा बाद हैज़ या निफ़ास का ख़ून शुरू' हो तो रोज़ा दुरुस्त होगा।
आठवीं चीज़:
फ़स्द के ज़री'आ ख़ून निकलवाना क्यूंकि नबी-ए-करीम ﷺ का क़ौल है:
"اَفْطَرَ الْحَاجِمُ وَالْمَحْجُوْمُ“
" फ़स्द खोलने वाले और खुलवाने वाले दोनों का रोज़ा टुट जाता है "
पस (इसलिए) अगर किसी ने फ़स्द खुलवाई और उस से ख़ून निकला तो उस का रोज़ा टुट जाएगा उस शख़्स का भी रोज़ा टुट जाएगा जिसने फ़स्द खोली ब-शर्त-ए-कि इसी तरीक़ा पर
यह काम हो जिस तरीक़ा पर नबी-ए-करीम ﷺ के ज़माने में होता था और वो तरीक़ा यह था कि फ़स्द खोलने वाला मुंह से ख़ून का क़ारूरा खींचता था अब अगर ऐसे आलात (हथियार) से फ़स्द खोली जाए जो फ़स्द खोलने वाले (के जिस्म) से लगे नहीं रहते तो ऐसी सूरत में जिस की फ़स्द खोली जाए उस का रोज़ा टुट जाएगा और खोलने वाले का रोज़ा नहीं टुटेगा
रमज़ान के दिन में किसी ऐसे रोज़े-दार की तरफ़ से जिस पर रोज़ा फ़र्ज़ था अगर मज़्कूरा-बाला रोज़ा तोड़ने वाले का मुंह में से किसी का इर्तिकाब हुआ तो उस पर चार हुक्म मुरत्तब होंगे :
1) गुनाह-गार होना
2) रोज़ा बातिल होना
3) दिन के बाक़ी-माँदा हिस्से में खाने पीने वग़ैरा से परहेज़ करना
4) इस रोज़े की क़ज़ा करना
और अगर हमबिस्तरी की वजह से रोज़ा ख़राब हुआ है तो पांचवां हुक्म कफ़्फ़ारा का भी मुरत्तब होगा
लेकिन यह जानना ज़रूरी हैं कि रोज़ा तोड़ने वाली उन चीज़ों से उसी वक़्त रोज़ा टुटेगा जब कि तीन शर्तें पाई जाए
1) रोज़े-दार को 'इल्म हो
2) याद रखते हुए ऐसा करे
3) अपने इरादे और इख़्तियार से करे
'इल्म होने का मतलब यह है कि अगर किसी रोज़े दार को रोज़ा तोड़ने वाली इन चीज़ों का या उन में से किसी एक का 'इल्म नहीं था (कि इस से रोज़ा टुट जाता है)
और उसने इस का इर्तिकाब कर लिया तो उस का रोज़ा (नहीं टुटेगा बल्कि) सहीह होगा चाहे इस की ला-'इल्मी (भूल) वक़्त से मुत'अल्लिक़ (बारे में) हो या हुक्म से वक़्त के बारे में 'इल्म न होने की मिसाल यह है कि कोई शख़्स रात के आख़िरीं हिस्से में उठे और यह समझ कर खाए पिए कि अभी तुलू'-ए-फ़ज्र का वक़्त नहीं हुआ है फिर पता चले कि फ़ज्र (सुब्ह) तो तुलू' हो चुकी है
ऐसे शख़्स का रोज़ा दुरुस्त होगा क्यूँकि वक़्त के बारे में इसे 'इल्म नहीं था हुक्म के बारे में 'इल्म न होने की मिसाल यह है कि किसी रोज़े-दार को यह मालूम नहीं था कि फ़स्द खुलवाने से रोज़ा टुट जाता है और उस ने फ़स्द खुलवा ली पस इस से कहा जाएगा कि तुम्हारा रोज़ा दुरुस्त होगा इस की दलील अल्लाह-त'आला का यह क़ौल है कि:
(رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِیْنَا أَوْ أَخْطَأْنَا)
" ऐ हमारे परवरदिगार अगर हम से भूल हो जाए या गलती हो जाए तो हमारी गिरिफ़्त न कर " यह क़ुरआन से दलील हुई सुन्नत से दलील हज़रत असमा बिंत अबू बक्र की वो हदीष है जिसे इमाम बुखारी ने अपनी सहीह बुखारी के अंदर ज़िक्र किया है इस हदीष में हज़रत असमा कहती हैं कि " नबी करीम ﷺ के ज़माने में एक मर्तबा बदली के दिन में (ग़ुरूब ए आफ़ताब का वक़्त समझकर) हम ने रोज़ा इफ़्तार कर लिया फिर सूरज दिखाई पड़ा "
इस से मा'लूम हुआ कि इन्होंने दिन ही में (ग़ुरूब-ए-आफ़ताब से पहले)
रोज़ा इफ़्तार कर लिया था लेकिन उन को सहीह 'इल्म नहीं था बल्कि (किंतु) महज़ (सिर्फ) यह गुमान (अनुमान) कर के कि सूरज ग़ुरूब हो गया है (रोज़ा इफ़्तार किया था)
इस पर नबी ﷺ ने उन को इस रोज़े की क़ज़ा का हुक्म नहीं दिया अगर क़ज़ा वाजिब होती तो आप ज़रूर हुक्म देते और अगर आप उन को क़ज़ा का हुक्म देते तो (हदीषो में) इसे ज़रूर नक़्ल किया जाता
(लेकिन ऐसा न होने से मा'लूम हुआ कि उन का रोज़ा दुरुस्त था और इस की क़ज़ा की ज़रूरत नहीं)
अलबत्ता (लेकिन) अगर किसी ने यह समझ कर इफ़्तार किया कि सूरज ग़ुरूब हो गया है फिर पता चला कि ग़ुरूब नहीं हुआ है इसे फ़ौरन (तुरंत) खाना पीना तर्क कर देना ज़रूरी है इस का रोज़ा दुरुस्त होगा
दुसरी शर्त यह है कि याद रखते हुए
(रोज़ा तोड़ने वाले कामों का इर्तिकाब) करे इस के बर-'अक्स (विरुद्ध) यह है कि भूल कर करे पस (इसलिए) अगर किसी रोज़े-दार ने भूल कर खा पी लिया तो उस का रोज़ा सहीह होगा क्यूंकि अल्लाह-त'आला का इरशाद हैं:
(رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِیْنَا أَوْ أَخْطَأْنَا)
" ऐ हमारे रब अगर हम से भूल हो जाए या गलती हो जाए तो तू हमारी गिरिफ़्त न कर "
और हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की रिवायत कर्दा एक हदीष में नबी ﷺ का इरशाद हैं:
" जिस रोज़े-दार ने भूल कर खा पी लिया वो अपना रोज़ा पूरा करे क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने इसे खिलाया पिलाया है "
तीसरी शर्त इरादा और इख़्तियार है अगर किसी रोज़े-दार ने रोज़ा तोड़ने वाले उन कामों में से किसी का इर्तिकाब किया लेकिन इस में उस के इरादे और इख़्तियार का कोई दख़्ल नहीं था तो उस का रोज़ा दुरुस्त होगा लिहाज़ा (इसलिए) अगर किसी ने कुल्ली किया और पानी उस के इरादे के बग़ैर उस के पेट में उतर गया तो उस का रोज़ा सहीह होगा
ऐसे ही अगर किसी ने अपनी बीवी को हमबिस्तरी पर मजबूर किया और उस को रोकने पर उस (औरत) का बस न चला तो (उस औरत) का रोज़ा सहीह होगा क्यूंकि उसने अपने इरादे व इख़्तियार से यह काम नहीं किया इस की दलील यह है कि अगर किसी शख़्स को कलमा-ए-कुफ़्र कहने पर मजबूर किया गया हो तो उस के बारे में अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
(مَن کَفَرَ بِاللّہِ مِن بَعْدِ إیْمَانِہِ إِلاَّ مَنْ أُکْرِہَ وَقَلْبُہُ مُطْمَءِنٌّ بِالإِیْمَان)
" जो शख़्स ईमान लाने के बाद कुफ़्र करे (वो अगर) मजबूर किया गया हो और दिल उस का ईमान पर मुतमइन हो (तो वो काफ़िर नहीं होगा) "
पस (इसलिए) अगर किसी रोज़े-दार को रोज़ा तोड़ने पर मजबूर कर दिया जाए या बिला-इरादा (अनजाने में) उस ने रोज़ा तोड़ने वाले किसी काम का इर्तिकाब किया तो उस के ज़िम्मा कोई चीज़ नहीं और उस का रोज़ा सहीह होगा।
(शैख़ इब्न उसैमीन)
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(सवाल नंबर:5-6)
*रेडियो की ख़बर और मस्जिद की अज़ान में फ़र्क़*
सवाल:5
एक दिन रमज़ान में रेडियो से यह ख़बर दी गई कि मग़रिब की अज़ान दो मिनट के बाद होने वाली है ठीक उसी वक़्त मुहल्ले के मुअज़्ज़िन की अज़ान की आवाज़ सुनाई दी उन दोनों में से किस का ए'तिबार (भरोसा) करना बेहतर है ?
जवाब:5
अगर मुअज़्ज़िन क़ाबिल-ए-ए'तिमाद (भरोसेमंद) आदमी है और सूरज देख कर अज़ान कहता है तो हम मुअज़्ज़िन ही की इत्तिबा' (पैरवी) करेंगे क्यूंकि वो एक महसूस (ज़ाहिर) चीज़ को देख कर अज़ान देता है और वो है ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का मुशाहदा (देखना) अलबत्ता (लेकिन) अगर वो घड़ी देख कर अज़ान देता है और सूरज देख कर नहीं देता तो गुमान-ए-ग़ालिब यह है कि रेडियो का ए'लान ही ज़ियादा दुरुस्त होगा क्यूँकि घड़ियों में वक़्त मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) रहता है और ऐसी हालत में रेडियो पर ए'तिबार (भरोसा) बेहतर और महफ़ूज़ चीज़ है (शैख़ इब्न उसैमीन)
*मग़रिब की सम्त (तरफ़) परवाज़ (उड़ान) करने वाले जहाज़ (फ़्लाइट) में इफ़्तार कब किया जाए ?*
सवाल:6
हम लोग रमज़ान के महीने में मग़रिब की अज़ान से तक़रीबन (लगभग) एक घंटा क़ब्ल (पहले) रियाज से हवाई-जहाज़ के ज़री'आ (द्वारा) रवाना हुए मग़रिब की अज़ान होने वाली थी और हम सऊदीया की फ़ज़ाओ में थे क्या हम रोज़ा इफ़्तार कर ले जब कि हम सूरज को देख रहे थे जो ख़ासा बलंद (ऊंचा) था और हम फ़ज़ा में थे या हम रोज़ा रखे रहे और अपने मुल्क जा कर रोज़ा इफ़्तार करे या हम सऊदीया की अज़ान के वक़्त के मुताबिक़ रोज़ा इफ़्तार कर ले ?
जवाब:6
जब जहाज़ (फ़्लाइट) रियाज से उड़ा और वो ग़ुरूब-ए-आफ़ताब से पहले मग़रिब ही की तरफ़ रवाना हुआ तो जब तक सूरज ग़ुरूब न हो आप रोज़ा रखे रहेंगे आप ख़्वाह (चाहे) फ़ज़ा में हो या अपने मुल्क में उतरे सूरज ग़ुरूब होने पर ही आप इफ़्तार करे क्यूंकि नबी-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया: " जब रात इधर से बढ़ आए इधर से दिन पीछे हट जाए तो उस वक़्त रोज़े-दार ने इफ़्तार कर लिया " (मुत्तफ़क़-'अलैह)
(शैख़ इब्न बाज़)
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(सवाल नंबर:7-10)
*ब-हालत-ए-रोज़ा क़य (उल्टी) आ जाना*
सवाल:7
क्या क़य (उल्टी) से रोज़ा टुट जाता है ?
जवाब:7
रोज़े-दार को बहुत से ऐसे उमूर (मसलें) पेश (सामने) आते हैं जिन में उस का अपना कोई दख़्ल (हस्तक्षेप) नहीं होता जैसे ज़ख़्म लग जाना, नकसीर फूटना, क़य (उल्टी) हो जाना, या बग़ैर इख़्तियार के पानी या पेट्रोल हल्क़ में चला जाना, इन में से कोई भी चीज़ रोज़ा तोड़ने वाली नहीं है क्यूंकि नबी ﷺ ने फ़रमाया है:
" जिस को ख़ुद-ब-ख़ुद क़य (उल्टी) आ जाए उस पर क़ज़ा नहीं है और जिस ने 'अमदन (जान बूझकर) क़य (उल्टी) किया इस पर क़ज़ा है "
(शैख़ इब्न बाज़)
*लु'आब (थूक) निगलना*
सवाल:8
रोज़े की हालत में लु'आब (थूक) निगलने का क्या हुक्म है ?
जवाब:8
लु'आब (थूक) से रोज़े पर कोई असर नहीं पड़ता क्यूंकि वो भी एक तरह का थूक ही है पस (इसलिए) अगर कोई उस को निगल जाए तो भी हरज नहीं और अगर थूक दे तो भी हरज नहीं लेकिन नाक या सीने से ख़ारिज (बाहर) होने वाले ग़लीज़ बलग़म को थूकना ज़रूरी है इसे निगलना नहीं चाहिए रहा थूक की नौ'इय्यत (प्रकार) का 'आम लु'आब (थूक) तो इस में कोई हरज नहीं हैं और रोज़े-दार के लिए मुज़िर (हानिकारक) नहीं हैं चाहे वो मर्द हो या औरत
(शैख़ इब्न बाज़)
*बिला-इरादा (अनजाने में) हल्क़ (गले) में पानी उतर जाना*
सवाल:9
कुल्ली करते या नाक में पानी डालते वक़्त अगर बिला-इरादा (अनजाने में) रोज़े-दार की हल्क़ में पानी उतर जाए तो क्या उस से रोज़ा फ़ासिद हो जाएगा ?
जवाब:9
अगर रोज़े-दार ने कुल्ली की या नाक में पानी डाला और वो पानी उसके पेट में चला गया तो उस का रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि उसने क़स्दन (जान बूझ कर) ऐसा नहीं किया है अल्लाह-त'आला का फ़रमान है:
(وَلَکِن مَّا تَعَمَّدَتْ قُلُوبُکُم)
" या'नी (गुनाह) वो है जिस का दिल से तुम इरादा करो "
(शैख़ इब्न उसैमीन)
*ग़र्ग़रा (मुंह में पानी लेकर फिराना)
करना*
सवाल:10
क्या किसी दवा से ग़र्ग़रा करने से रोज़ा टुट जाएगा ?
जवाब:10
अगर वो दवा हल्क़ (गले) से नीचे न उतरे तो रोज़ा बातिल नहीं होगा लेकिन सख़्त ज़रूरत के बग़ैर ऐसा न करो अलबत्ता (लेकिन) अगर (ब-वक़्त-ए-ज़रुरत ग़र्ग़रा किया और) तुम्हारे पेट में दवा दाख़िल नहीं हुई तो रोज़ा नहीं टुटेगा (शैख़ इब्न उसैमीन)
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(सवाल नंबर:11-12)
आंख और कान में दवा डालना*
सवाल:11
क्या रोज़ा की हालत में आंख में दवा टपकाने से रोज़ा टुट जाएगा ?
जवाब:11
सहीह यह है कि आंख में दवा टपकाने से रोज़ा नहीं टुटता अगरचे कि अहल-ए-'इल्म के दरमियान (बीच में) इस सिलसिले में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) है बा'ज़ (कुछ)
लोगों का यह कहना है कि अगर दवा का असर हल्क़ (गले) में महसूस हो तो उस से रोज़ा टुट जाएगा लेकिन सहीह यही है कि चाहे असर महसूस हो या न हो रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि आंख नुफ़ूज़ (अंदर घुसने) की जगह नहीं है लेकिन जिस शख़्स ने हल्क़ में दवा का असर महसूस किया उसने बतौर एहतियात और इख़्तिलाफ़ से बचने के लिए इस रोज़ा की क़ज़ा कर ली तो कोई हरज की बात नहीं है वर्ना (नहीं तो) सहीह यही है कि इस से रोज़ा नहीं टुटता चाहे आंख में दवा डाली जाए या कान में
(शैख़ इब्न बाज़)
*टूथ-पेस्ट और ब्रश का इस्ते'माल*
सवाल:12
क्या रोज़े की हालत में दांत साफ़ करने के लिए टूथ-पेस्ट का इस्ते'माल जाइज़ हैं ?
और अगर ब्रश के इस्ते'माल से मसूढ़ो से मा'मूली सा ख़ून निकल आए तो क्या रोज़ा टुट जाएगा ?
जवाब:12
रोज़े की हालत में पानी से, मिस्वाक से या टूथ-ब्रश से दांत साफ करने में कोई हरज नहीं हैं बा'ज़ (कुछ) लोगों ने ज़वाल-ए-आफ़ताब के बाद रोज़ा-दार के लिए मिस्वाक के इस्ते'माल को मकरूह कहा है क्यूंकि इस से उसके मुंह की बू ख़त्म हो जाती है लेकिन सहीह यही है कि पूरे दिन मिस्वाक करना मुसतहब है मिस्वाक के इस्ते'माल से मुंह की बू ख़त्म नहीं होती बल्कि दांत और मुंह की सफाई होती है और महक (सुगंध) तबख़ीर और खाने के फ़ुज़लात वग़ैरा साफ़ हो जाते हैं अलबत्ता (लेकिन) टूथ-पेस्ट के इस्ते'माल का मकरूह होना ज़ाहिर है क्यूंकि इस में बू होती है और इस का एक मज़ा होता है जो बसा-औक़ात (कभी-कभी) थूक से मिलकर अंदर चला जाता है पस (इसलिए) अगर किसी को ज़रूरत रहे तो सहरी के बाद और फ़ज्र से पहले इसे इस्ते'माल कर लेना चाहिए और अगर कोई शख़्स दिन में इसे इस्ते'माल करता है और इस बात का पूरा ख़याल रखता है कि इस का कोई जुज़ (भाग) अंदर न जाए तो ज़रूरत के पेश-ए-नज़र इस में कोई हरज (नुक़सान) नहीं है ब्रश या मिस्वाक करते वक़्त दांतों से मा'मूली सा ख़ून आ जाने से रोज़ा नहीं टुटता
(शैख़ इब्न जिब्रिन)
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🔹रोज़ा के 100 मसाइल🔹
(सवाल नंबर:13-15)
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
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*भूल कर खा पी लेना और देखने वाले का उस को याद दिलाना*
सवाल:13
अगर कोई शख़्स रोज़ा की हालत में भूल कर (ग़लती से) खा पी ले तो इस का क्या हुक्म है ?
और जो शख़्स उस को खाते पीते देखें तो क्या उस को याद दिलाना ज़रूरी है ?
जवाब:13
ब-हालत-ए-रोज़ा जो शख़्स भूल कर खा पी ले तो उस का रोज़ा दुरुस्त होगा लेकिन जैसे ही उस को याद आए फ़ौरन (तुरंत) रुक जाना ज़रूरी है हत्ता कि अगर लुक़्मा (निवाला) या पानी का घूँट मुंह में होतो उसे थूक देना ज़रूरी है रोज़ा दुरुस्त होने की दलील वो हदीष है जिस में अल्लाह के रसूल ﷺ फरमाते हैं कि " जिस से रोज़ा की हालत में भूल हो गई और उसने कुछ खा पी लिया तो वो अपना रोज़ा पूरा करे क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने उसे खिलाया पिलाया है " दुसरी बात यह कि ना-दानिस्ता (ग़लती से) कोई मम्नू' काम करने पर इंसान की गिरिफ़्त नहीं की जाती क्यूंकि कुरआन में है कि:
(رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِیْنَا أَوْ أَخْطَأْنَا)
" या'नी ऐ हमारे रब हम से भूल-चूक हो जाए या ग़लती हो जाए तो हमारी गिरिफ़्त न कर " ”قَدْ فَعَلْتُ“
"या'नी मैंने बंदे की यह दु'आ क़ुबूल कर ली" जो शख़्स ऐसे रोज़े-दार को खाते पीते देखें तो उस पर ज़रूरी है कि उसे याद दिलाए क्यूंकि यह मुनकर काम को बदलने व रोकने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) है और नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया है कि " तुम में से जो शख़्स कोई ग़लत काम होता देखें तो इस को अपने हाथ से बदल दे अगर हाथ से नहीं बदल सकता तो ज़बान से और अगर इस की भी ताक़त नहीं तो दिल से "
और इस में कोई शक नहीं कि रोज़ा की हालत में रोज़े-दार का खाना पीना एक मुनकर काम है अलबत्ता (लेकिन) भूल चूक की हालत में यह मु'आफ़ है क्यूंकि इस पर मुवाख़ज़ा (पकड़) नहीं होगा लेकिन जिस शख़्स ने इस को ऐसा करते देखा और उस को मना' नहीं किया वो मा'ज़ूर नहीं समझा जाएगा
(शैख़ इब्न उसैमीन)
*अजनबी औरत से बात-चीत करना और उस का हाथ छूना*
सवाल:14
रोज़ा की हालत में किसी अजनबी औरत से बात करने या उस का हाथ छू जाने का क्या हुक्म है ? क्यूंकि बा'ज दुकानों और तिजारती मक़ामात पर ऐसा होता है
जवाब:14
अगर औरत से बात करने में मर्द की बद-निय्यती नहीं है और न ही उस से लुत्फ़-अंदोज़ी (मज़ा लेना) मक़्सूद है इस तौर पर कि तिजारती नौ'इय्यत (प्रकार) की बात हो या रास्ता वग़ैरा पूछने के लिए हो ऐसे ही बिला-इरादा (अनजाने में) हाथ छू जाए तो यह सब काम रमज़ान और ग़ैर रमज़ान दोनों में जाइज़ हैं हां अगर औरत से बात करने का मक़्सद लुत्फ़-अंदोज़
होना हो तो यह सिरे-से (बिल्कुल)
जाइज़ नहीं है न रमज़ान में न ग़ैर रमज़ान में अलबत्ता (लेकिन) रमज़ान में इस की मुमान'अत (मनाही) और सख़्त हो जाती है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)
*इंजेक्शन लगवाना*
सवाल:15
क्या रमज़ान में दिन के वक़्त इंजेक्शन लगवाने से रोज़ा पर कोई असर पड़ेगा ?
जवाब:15
इंजेक्शन दो तरह का होता है एक वो जिस से ग़िज़ा (खाना) और ताक़त मक़्सूद (मंशा) होती है और इस के ज़री'आ खाने पीने से आदमी बे-नियाज़ हो सकता है ऐसे इंजेक्शन से रोज़ा टुट जाएगा क्यूंकि नुसूस-ए-शर'इय्या जिस मा'नी-ओ-मफ़हूम पर मुश्तमिल होती है वो मा'नी-ओ-मफ़हूम
जहां कहीं पाया जाएगा वहां वो हुक्म लगाया जाएगा
दूसरा वो इंजेक्शन है जिस से ग़िज़ा (खाना) ताक़त नहीं हासिल होती या'नी इस के ज़री'आ खाने पीने से बे-नियाज़ नहीं हो सकते तो इस से रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि शर'ई दलील न लफ़्ज़ी (शाब्दिक) ए'तिबार से इस को शामिल है न मा'नी (मतलब) के ए'तिबार से ऐसा इंजेक्शन न तो खाना पीना है और न ही खाने पीने के मा'नी में है और जब तक शर'ई दलील से रोज़ा के फ़ासिद होने का सुबूत न मिल जाए रोज़ा का बाकी और दुरुस्त होना ही अस्ल है
(शैख़ इब्न उसैमीन)
🔹..........................🔹
🔹रोज़ा के 100 मसाइल🔹
(सवाल नंबर:13-15)
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
==================
*भूल कर खा पी लेना और देखने वाले का उस को याद दिलाना*
सवाल:13
अगर कोई शख़्स रोज़ा की हालत में भूल कर (ग़लती से) खा पी ले तो इस का क्या हुक्म है ?
और जो शख़्स उस को खाते पीते देखें तो क्या उस को याद दिलाना ज़रूरी है ?
जवाब:13
ब-हालत-ए-रोज़ा जो शख़्स भूल कर खा पी ले तो उस का रोज़ा दुरुस्त होगा लेकिन जैसे ही उस को याद आए फ़ौरन (तुरंत) रुक जाना ज़रूरी है हत्ता कि अगर लुक़्मा (निवाला) या पानी का घूँट मुंह में होतो उसे थूक देना ज़रूरी है रोज़ा दुरुस्त होने की दलील वो हदीष है जिस में अल्लाह के रसूल ﷺ फरमाते हैं कि " जिस से रोज़ा की हालत में भूल हो गई और उसने कुछ खा पी लिया तो वो अपना रोज़ा पूरा करे क्यूंकि अल्लाह-त'आला ने उसे खिलाया पिलाया है " दुसरी बात यह कि ना-दानिस्ता (ग़लती से) कोई मम्नू' काम करने पर इंसान की गिरिफ़्त नहीं की जाती क्यूंकि कुरआन में है कि:
(رَبَّنَا لاَ تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِیْنَا أَوْ أَخْطَأْنَا)
" या'नी ऐ हमारे रब हम से भूल-चूक हो जाए या ग़लती हो जाए तो हमारी गिरिफ़्त न कर " ”قَدْ فَعَلْتُ“
"या'नी मैंने बंदे की यह दु'आ क़ुबूल कर ली" जो शख़्स ऐसे रोज़े-दार को खाते पीते देखें तो उस पर ज़रूरी है कि उसे याद दिलाए क्यूंकि यह मुनकर काम को बदलने व रोकने से मुत'अल्लिक़ (बारे में) है और नबी-ए-करीम ﷺ ने फ़रमाया है कि " तुम में से जो शख़्स कोई ग़लत काम होता देखें तो इस को अपने हाथ से बदल दे अगर हाथ से नहीं बदल सकता तो ज़बान से और अगर इस की भी ताक़त नहीं तो दिल से "
और इस में कोई शक नहीं कि रोज़ा की हालत में रोज़े-दार का खाना पीना एक मुनकर काम है अलबत्ता (लेकिन) भूल चूक की हालत में यह मु'आफ़ है क्यूंकि इस पर मुवाख़ज़ा (पकड़) नहीं होगा लेकिन जिस शख़्स ने इस को ऐसा करते देखा और उस को मना' नहीं किया वो मा'ज़ूर नहीं समझा जाएगा
(शैख़ इब्न उसैमीन)
*अजनबी औरत से बात-चीत करना और उस का हाथ छूना*
सवाल:14
रोज़ा की हालत में किसी अजनबी औरत से बात करने या उस का हाथ छू जाने का क्या हुक्म है ? क्यूंकि बा'ज दुकानों और तिजारती मक़ामात पर ऐसा होता है
जवाब:14
अगर औरत से बात करने में मर्द की बद-निय्यती नहीं है और न ही उस से लुत्फ़-अंदोज़ी (मज़ा लेना) मक़्सूद है इस तौर पर कि तिजारती नौ'इय्यत (प्रकार) की बात हो या रास्ता वग़ैरा पूछने के लिए हो ऐसे ही बिला-इरादा (अनजाने में) हाथ छू जाए तो यह सब काम रमज़ान और ग़ैर रमज़ान दोनों में जाइज़ हैं हां अगर औरत से बात करने का मक़्सद लुत्फ़-अंदोज़
होना हो तो यह सिरे-से (बिल्कुल)
जाइज़ नहीं है न रमज़ान में न ग़ैर रमज़ान में अलबत्ता (लेकिन) रमज़ान में इस की मुमान'अत (मनाही) और सख़्त हो जाती है
(सऊदी फ़तवा कमेटी)
*इंजेक्शन लगवाना*
सवाल:15
क्या रमज़ान में दिन के वक़्त इंजेक्शन लगवाने से रोज़ा पर कोई असर पड़ेगा ?
जवाब:15
इंजेक्शन दो तरह का होता है एक वो जिस से ग़िज़ा (खाना) और ताक़त मक़्सूद (मंशा) होती है और इस के ज़री'आ खाने पीने से आदमी बे-नियाज़ हो सकता है ऐसे इंजेक्शन से रोज़ा टुट जाएगा क्यूंकि नुसूस-ए-शर'इय्या जिस मा'नी-ओ-मफ़हूम पर मुश्तमिल होती है वो मा'नी-ओ-मफ़हूम
जहां कहीं पाया जाएगा वहां वो हुक्म लगाया जाएगा
दूसरा वो इंजेक्शन है जिस से ग़िज़ा (खाना) ताक़त नहीं हासिल होती या'नी इस के ज़री'आ खाने पीने से बे-नियाज़ नहीं हो सकते तो इस से रोज़ा नहीं टुटेगा क्यूंकि शर'ई दलील न लफ़्ज़ी (शाब्दिक) ए'तिबार से इस को शामिल है न मा'नी (मतलब) के ए'तिबार से ऐसा इंजेक्शन न तो खाना पीना है और न ही खाने पीने के मा'नी में है और जब तक शर'ई दलील से रोज़ा के फ़ासिद होने का सुबूत न मिल जाए रोज़ा का बाकी और दुरुस्त होना ही अस्ल है
(शैख़ इब्न उसैमीन)
🔹..........................🔹
ज़कात - फ़र्ज़ियत,मसारिफ़ और मसाइल | Zakat - Farziyat,Masarif Aur Masail
ज़कात - फ़र्ज़ियत,मसारिफ़ और मसाइल PDF Hindi Download
Zakat - Farziyat,Masarif Aur Masail PDF Hindi Download
लेखक: शेख उस्मान सफदर
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
रोजों के 100 मसाइल PDF | Roze Ke 100 Masail Pdf Download
रोजों के 100 मसाइल PDF Hindi Download
Roze Ke 100 Masail PDF Hindi Download
लेखक: शैख़ अस'अद आज़मी | Shaikh Asad Azmi
उस्ताद जामिआ सल्फया, बनारस )
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
रोज़ा के चंद ज़रूरी अहकाम PDF Download | Rozon Ke Chand Jaruri Ahqam PDF Download
रोज़ा के चंद ज़रूरी अहकाम PDF Hindi Download
Rozon Ke Chand Jaruri Ahqam PDF Hindi Download
लेखक: शैख़ अब्दुल्लाह नासिर रहमानी | Abdullah Nasir Rahmani
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद | Abdul Matin Saiyad
(समी , गुजरात - हिन्द)
🔹دو کوڑی کے لوگ آپ کے آئیڈیل ہیں؟🔹*
🔹دو کوڑی کے لوگ آپ کے آئیڈیل ہیں؟
✍️... *ندیم أختر سلفی*
*🔹انٹر ٹینمنٹ، خوشی، مزہ، تفریح اور لطف اندوزی کے نام پر اچھلنا، کودنا، ڈانس کرنا، ایک ساتھ ایک خاص قسم کی آوازیں لگانا، سماج کے ننگے لوگوں کے ساتھ کچھ دن گزار کر اپنی جیت کو نوجوانوں کے ساتھ سڑکوں پر سلیبریٹ کرنا اس ملک اور مہانگری میں تعجب کی بات نہیں جہاں پہلے سے بالی ووڈ اور کرکٹ کے نشہ میں مسلم نوجوان نسل کچھ زیادہ ہی ڈوبی ہوئی نظر آتی ہے، دین سے بیزار کسی شخص کا اپنی جیت پر دنیا کے انداز میں خوشی منانا تو سمجھ میں آتا ہے، لیکن اس قوم کے نوجوانوں کو کیا ہوگیا جو اس ملک میں اپنے مسلمان ہونے کا دعوی رکھتے ہیں کہ جب مذہبی موسم آتا ہے تو ٹوپی پہن لیتے ہیں اور جب چلاجاتا ہے تو غیروں کی طرح ننگے ہو جاتے ہیں.*
*🔹 جس ملک میں کھلے عام ایک خاص مذہب کے ماننے والوں کو ٹارگیٹ پر رکھ لیا گیا اس کے نوجوان اپنے انجام بد سے بے پرواہ سڑکوں پر تھرکتے نظر آرہے ہیں، کلمہ گو قوم کے نوجوان ایک دین بیزار نوجوان کے ساتھ سڑکوں پر بے شرمی کا ایسا مظاہرہ کریں گے یہ سوچنے اور منتھن کرنے کی بات ہے، کیا کمی رہ گئی ان کی رہنمائی میں جو اس مقام تک پہنچے؟ کیا کمی رہ گئی ان کی تربیت میں جو اس انجام تک پہنچے؟*
*🔹جس ملک کا نظام اس وقت ہر سو درہم برہم نظر آتا ہے اس ملک میں نوجوانوں کی یہ غفلت؟ نوجوان تو ملک اور قوم کی ریڑھ کی ہڈی ہوتے ہیں، لیکن سوچئے انہیں کہاں استعمال کیا جارہا ہے؟ اور غور کیجئے کہ اس ہڈی کا تجربہ کیسے کیا جارہا ہے؟ کبھی وہ میدان میں نظر آتے ہیں تو کبھی اسٹیڈیم میں، کبھی وہ اسکرین کے سامنے نظر آتے ہیں تو سڑکوں پر آوارہ گردی کرتے ہوئے، یہ دنیا پریوگ شالا ہی ہے اور شکار گاہ میں بیٹھے شیطان نما انسان شہرت اور اوپن مائنڈ کے نام پر نوجوانوں کا شکار کر رہے ہیں، تنہائی اللہ کی ایک بڑی نعمت تھی جسے ان نوجوانوں نے کھودیا ہے بھیڑ میں اپنے آپ کو گُم کرکے، انہیں تنہائی میں کچھ دیر بیٹھ کر اپنی زندگی کا محاسبہ کرنے کی فرصت ہی کہاں، وہ بھیڑ کا ہی حصہ رہنا چاہتے ہیں چاہے وہ سیاسی بھیڑ ہو یا کوئی اور، اور تو اور مذھب کے نام پر بھی بھیڑ سے انہیں کچھ حاصل نہیں ہورہا ہے.*
*🔹 یہ دنیا آخرت کا پھل ہے، جو بیج یہاں زمین میں ڈالی جائے گی آخرت میں اسی کی شاخ نکلے گی، محبت اور نفرت کا جو معیار اور اسٹینڈ یہاں قائم کیا جائے گا دوبارہ زندہ کئے جانے کے بعد بھی وہی معیار قائم رہے گا، اس دنیا میں جس سے محبت کریں گے قیامت کے دن حشر بھی اسی کے ساتھ ہوگا، اگر ہم واقعی مسلمان ہیں اور آخرت پر یقین رکھتے ہیں تو ہماری محبت بھی صرف انہیں کے ساتھ ہونی چاہئے جو صاحب ایمان ہیں، ننگے اور بے شرم لوگوں سے محبت اور انہیں آئیڈیل سمجھنا نہ صرف نادانی اور حماقت ہے بلکہ دین بیزاری کی دلیل بھی ہے، جب دنیا کا کینوس کسی کی نگاہ میں سب سے بڑا ہوجاتا ہے تو پھر وہیں سے ارتداد کی راہ بھی کھل جاتی ہے اور پھر انسان دین سے ایسے کھسک لیتا ہے جیسے پانی چکنے پتھر سے.*
*🔹 یا تو یہ نوجوان اپنے کرتوت پر غور کرتے ہوئے دین کی طرف پلٹ آئیں اور اپنی ملی اور سماجی ذمہ داری کا احساس کریں یا اپنی قوم اور سماج کے سامنے کھل کر آجائیں فٹبال کی طرح اِدھر اُدھر لات نہ کھائیں کہ کبھی اِس کے پاؤں میں تو کبھی اُس کے، کبھی اِس پُول میں تو کبھی اُس پُول میں، قوم و ملت کو دھوکے میں نہ رکھیں، اس میں نہ صرف آپ کا نقصان ہے بلکہ قوم و ملت کو بھی اس کی بڑی قیمت چکانی پڑسکتی ہے.*
2024/01/30
🔹पतंग-बाज़ी के नुक़्सानात🔹
🔹पतंग-बाज़ी के नुक़्सानात🔹
लेखक: बरकतुल्लाह मोहम्मदी मदनी
हिंदी अनुवाद: अब्दुल मतीन सैयद
====================
मकर-संक्रांति हिंदू-मज़हब का मशहूर-ओ-मा'रूफ़ तेहवार है जो " 14 " जनवरी को मनाया जाता है जिसमें हिंदू अपने घरों को सजाते हैं नए लिबास (कपड़े) ज़ेब-ए-तन करते हैं मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) तरीक़े से ख़ुशी का इज़हार करते हैं अच्छे पकवान बनाते मिठाईयां तक़सीम करते और पतंग उड़ाते हैं ज़ाहिरी बात है कि यह तमाम काम सिर्फ़ तफ़रीह (मनोरंजन) के तौर पर ही अंजाम नहीं दिए जाते हैं बल्कि (किंतु) इन का त'अल्लुक़ (संबंध) उनके मज़हबी ए'तिक़ादात ('अक़ीदे) से है दीगर (अन्य) मज़हबी तेहवार की तरह यह भी एक तेहवार है जिसे बड़े ही ज़ोर-ओ-शोर (उत्साह) से मनाया जाता है लेकिन अफ़सोस मुसलमानों की अकसरिय्यत ने जो हिंदुस्तान में हिंदू मज़हब के साथ रहने की वजह (कारण) से उनकी बहुत सी 'आदात-व-अतवार (व्यवहार) उनके बा'ज़ (चंद) ए'तिक़ादात (अक़ीदे) जान बूझ कर या अनजाने में इख़्तियार कर लिए हैं जो शरी'अत-ए-इस्लामिया की सरासर (बिल्कुल) मुख़ालिफ़त और अल्लाह को नाराज़ करने वाली बात है जी-हाँ आज बा'ज़ (चंद) मुसलमान मकर संक्रांति और पतंग उड़ाने का तेहवार आते ही जितना ख़ुश होते हैं कि शायद 'ईद-व-बक़र'ईद पर भी न होते हों और इस में हर मकतब-ए-फ़िक्र के मुसलमान मुब्तला हैं पंज-वक़्ता नमाज़ी और दाढ़ी रखते हुए भी घरों की छतों पर चढ़ते हैं इंतिहाई बे-हयाई के साथ शोर मचाते हुए पतंग उड़ाते हैं दूसरों की पतंग काटते हैं और समझते हैं कि कोई बहुत बड़ी जंग हमने फ़त्ह कर ली आइए जरा देखें कि दुनियावी-व-उख़रवी ए'तिबार से इस तेहवार के मनाने में क्या नुक़्सानात हैं।
पहला नुक़्सान: ग़ैर-मुस्लिम और कुफ़्फ़ार से मुशाबहत (समानता)
इरशाद-ए-रब्बानी है:
(وَالَّذِينَ لَا يَشْهَدُونَ الزُّورَ وَإِذَا مَرُوا باللغوِ مَرُّوا كِراماً ) ( الفرقان : ۷۲ )
रहमान के नेक बंदे तो वो हैं जो कुफ़्फ़ार-व-मुशरिकीन के तेहवारों में शिरकत नहीं करते और जब किसी लग़्व (बेकार) चीज़ पर उनका गुज़र होता है तो शराफ़त से गुज़र जाते हैं इस आयत-ए-करीमा में अल-ज़ूर से मुराद
" اعياد المشركين "
है " لا يشهدون الزور "
का मतलब है वो ग़ैर-मुस्लिमों के तेहवारों में शिरकत नहीं करते हैं:
قال ابو العالیہ ، وطاوس وابن سيرين والضحاك و الربيع بن انس وغيره هو اعياد المشركين ( تفسیر ابن کثیر (۳۲۹،۳۲۸/۳) و اقتضاء الصراط المستقيم ( ٤٢٧٠٤٢٦/١) وفي رواية عن ابن عباس رضى الله عنهما انه اعياد المشركين ( الجامع الاحكام القرآن للقرطبي :
(۸۰۰۷۹/۱۳
और शैख़ अब्दुल रहमान किलानी रहिमहुल्लाह इस आयत की तफ़्सीर में फ़रमाते हैं जहां कोई लग़्व (बेकार) और बेहूदा क़िस्म (प्रकार) का काम हो रहा हो अल्लाह के बंदे वहां हाज़िर हो कर तमाशाई नहीं बनते और उन की तबी'अत क़त'अन (हरगिज़) यह गवारा नहीं करती कि वो ऐसी मजालिस (सभाओं) में शरीक हो जैसा कि इस आयत के अगले हिस्से से यही मफ़्हूम (मतलब) मुतबादिर (स्पष्ट) होता है जहां ऐसे बेहूदा (बेकार) क़िस्म (प्रकार) के खेल-तमाशे या मजालिस मुन'अक़िद (आयोजित) होगी वहां वो न रुकना गवारा करते हैं न उन्हें देखना पसंद करते हैं बल्कि (किंतु) शरीफ़ाना तौर पर वहां से आगे गुज़र जाते हैं
(تیسیر القرآن : ۳۲۶٫۳)
इसी तरह नबी-ए-करीम ﷺ ने कुफ़्फ़ार की मुशाबहत (समानता) इख़्तियार करने से सख़्ती से मना' फ़रमाया है:
" من تشبه بقوم فهو منهم (ابوداود: (٤٠٣١)
" जिस ने किसी क़ौम की मुशाबहत इख़्तियार की वो उन्हीं में से है "
फ़रमान-ए-इलाही और इरशाद-ए-नबवी से यह बात वाज़ेह (स्पष्ट) हो गई कि पतंग-बाज़ी करना कुफ़्फ़ार की मुशाबहत है अल्लाह और उसके रसूल की सख़्त मुख़ालिफ़त करना और अल्लाह की नाराज़गी का बा'इस (कारण) है।
दूसरा नुक़्सान: कुफ़्फ़ार के बातिल नज़रियात (सोच) की ताईद (समर्थन) और उनसे मोहब्बत का इज़हार:
नबी-ए-करीम ﷺ का इरशाद-ए-गिरामी है कि
"المرء مع من احب " (صحیح بخاری: ٦١٦٩)
" जो जिससे मोहब्बत करता है उसका हश्र (नतीजा) उसके साथ होगा " अगर मुसलमान नबी-ए-करीम ﷺ आप के सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुमा और अल्लाह के औलिया से मोहब्बत करता है और उसके तरीक़े पर चलता है तो उसका हश्र उन्हीं के साथ होगा और अगर दूसरों के मज़हब और उनके तेहवार से न सिर्फ़ (केवल) यह कि मोहब्बत करता है बल्कि अमलन उस को अंजाम भी देता है उनके साथ उनकी ख़ुशी में शरीक होता है अपने फ़े'ल (काम) से उनके बातिल दीन को तक़्वियत (मदद) पहुंचाता है तो इस का हश्र (नतीजा) भी उन्हीं के साथ होगा।
तीसरा नुक़्सान: वक़्त ज़ाए' करना:
वक़्त एक 'अज़ीम (बहुत बड़ी) ने'मत है गया वक़्त फिर कभी हाथ नहीं आता और वक़्त का हिसाब क़ियामत के दिन देना होगा ज़िंदगी के बारे में पूछा जाएगा और उसमें भी जवानी से मुत'अल्लिक़ (बारे में) ख़ुसूसन (ख़ासकर) पूछा जाएगा और जब तक जवाब न दे दिया जाए
इब्न-ए-आदम (इंसान) के क़दम (पांव) हरकत नहीं कर पाएंगे
لا تزول قدما عبد يوم القيامة حتى يسال عن عمره فيما الفناه " ( ترندی: ۲۴۱۷)
यही वजह (कारण) है कि रसूल-ए-अकरम ﷺ ने इसे ग़नीमत जानने का हुक्म दिया
" اغتنم خمساً قبل خمس فراغك قبل شغلك"
" पांच चीजों को पांच चीजों से पहले ग़नीमत जानों वक़्त को मशग़ूलियत (प्रवृत्ति) से पहले और यह भी फ़रमाया कि दो ने'मतें ऐसी हैं कि अक्सर लोग उन की क़द्र नहीं करते: (1) सेहत (तंदुरुस्ती) (2) वक़्त (सहीह बुख़ारी:6412)
जबकि (हालाँकि) पतंग उड़ाने वाले घंटों छतों पर अपना वक़्त (समय) ज़ाए' (बर्बाद) करते हैं जिसमें बहुत से मुसलमान भी शामिल होते हैं ग़ैर-मुस्लिम तो अल्लाह-व-रसूल को नहीं जानता लेकिन मुसलमानों को क्या हो गया है ? क्या उन्हें यह एहसास नहीं कि लम्हा-लम्हा (पल-पल) का हिसाब उन्हें अल्लाह के सामने देना है।
चौथा नुक़्सान: माल ज़ाए' (बर्बाद) करना:
उम्मत-ए-मुहम्मदिय्या का सबसे बड़ा फ़ित्ना माल है माल को कमाने जम' (इकट्ठा) करने और बच्चों के मुस्तक़बिल (भविष्य) को बनाने में आज इंसान अपने रब-ए-हक़ीक़ी को भी भुल चुका है इसीलिए अल्लाह ने उसे फ़ित्ना से ता'बीर किया:
إنما أموالكم وأولادكم فتنة ) ( التغابن : ۱۵)
" तुम्हारे माल और औलाद तुम्हारे लिए फ़ित्ना है " दीगर (अन्य) इंसानों की तरह मुसलमान भी इस फ़ित्ने में मुब्तला (व्यस्त) हो चुका है इस बात की कोई परवाह नहीं कि माल हलाल ज़री'आ से आ रहा है या हराम ? मक़्सद तो बस अपनी तिजोरियां, अलमारियां भरना और पापी पेट भरना है जबकि (हालाँकि) नबी-ए-करीम ﷺ ने यह भी बताया कि उन पांच सवालों में से दो अहम (ख़ास) सवाल उसी फ़ित्ना माल से मुत'अल्लिक़ (बारे में) होंगे
و عن ماله من ابن
اكتسبه و قیم الفقه (ترندی: ۲۴۱۷)
(1) कहाँ से कमाए ? (2) कहां ख़र्च किया ?
अगर ख़ूब मेहनत कर के ख़ून पसीना बहा कर हलाल तरीक़े से माल कमा भी लिए तो पतंग-बाज़ी करने वाले इस दूसरे सवाल का क्या जवाब देंगे जब पूछा जाएगा
" قیم انفقہ "
" कहां लूटाए और कहां उड़ाए ?
अल्लाह-त'आला ने हलाल काम में भी बेजा (फ़ुज़ूल) इसराफ़ और फ़ुज़ूल-ख़र्ची से मना' फ़रमाया है इरशाद है:
وكلوا واشربوا ولا تسرفوا إنه لا يحب المسرفين) (الاعراف: ۳۱)
" तुम खाओ और पियो लेकिन फ़ुज़ूल-ख़र्ची न करो अल्लाह-त'आला फ़ुज़ूल-ख़र्ची करने वालों को पसंद नहीं करता "
जब हलाल कामों में और खाने पीने की अश्या (चीज़ों) में जो ज़िंदगी गुज़ार ने के लिए नागुज़ीर (अनिवार्य) ज़रूरत है फ़ुज़ूल-ख़र्ची करने से रोक दिया गया तो ज़रा ग़ौर करें कि हराम कामों में रूपया पैसा को पानी की तरह बहाने वाले और ग़ैर-मुस्लिम तेहवार में ख़ुद पतंग ख़रीदने वाले या अपने बच्चों को पतंग और माँझा ख़रीदने के लिए पैसा देने वाले बे-ग़ैरत वालिदैन (मां-बाप) का क्या हश्र होगा ?
अल्लाह ने क़ुरआन में ऐसे फ़ुज़ूल-ख़र्ची करने वालों को एक लक़ब (उपनाम) दिया है और वो है
" इख़्वानुश-शयातीन " यह लोग शैतान के भाई हैं चुनांचे इरशाद-ए-बारी-त'आला है:
ولا تبذر تبذيرا ان المبذرين كانوا اخوان الشيطين وكان الشيطن
لر به کفورا (بنی اسرائیل (26)
" फ़ुज़ूल-ख़र्ची न करो बेशक फ़ुज़ूल-ख़र्च शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का बड़ा ही ना-शुक्रा है।
पाँचवाँ नुक़्सान: कई पतंग या कई गर्दन ? (जानी हलाकतों में इज़ाफ़ा)
जानी नुक़्सान सबसे बड़ा नुक़्सान है जो इस दिन बड़े-पैमाने-पर होता है अख़बार (समाचार-पत्र) और न्यूज़-चैनल ऐसे कई आ'दाद-ओ-शुमार (संख्या) की निशान-दही (इशारा) करते हैं जो इस तेहवार को मनाते हुए इस दुनिया से ही रुख़्सत (रवाना) हो गए।
कितने ही लोग दूसरों की पतंग काटने के फ़िराक़ (धुन) में अपनी ज़िंदगियां तबाह-ओ-बर्बाद कर लेते हैं कितने ही मा'सूमों (निर्दोषों) की गर्दनें कट जाती हैं ? कितने ही बच्चे कटी पतंग पकड़ने की रेस में ज़िंदगी भर के लिए अपाहज (अपंग) और मा'ज़ूर हो जाते हैं और कितनी ही माए अपने प्यारों और दुलारों से हमेशा-हमेश ('उम्र-भर) के लिए महरूम हो जाती हैं लेकिन इस वक़्त कफ़-ए-अफ़सोस मलने (पछतावा करने) से क्या फ़ाइदा ?
काश यह वालिदैन (मां-बाप) इब्तिदा (शुरू'आत) ही से अपने बच्चों को इन हराम कामों के इर्तिकाब (काम) से रोकते तो आज ख़ून के आँसू न बहाने पड़ते इस्लाम की ता'लीमात (शिक्षाएं) बिल्कुल साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ और सूरज की तरह रौशन हैं इस्लाम अपने मानने वालों को हर उस काम से रोकता है जो उनकी जात के लिए गज़ंद (नुक़्सान) और तकलीफ़ का बा'इस (कारण) बने और जो उन्हें नुक़्सान पहुँचाए अल्लाह का इरशाद है:
(والا تقتلوا انفسكم ) ( النساء:۲۹)
" अपने आप को क़त्ल न करो "
नीज़ (और) फ़रमाया:
ولا تلقوا بأيديكم إلى التهلكة (البقرة : ۱۹۵)
" अपने हाथों को हलाकत में न डालो "
मक़ाम-ए-ग़ौर है कि जिन हाथों से पतंग उड़ाई जाती है उन हाथों में पकड़े हुए माँझे और डोर को तेज़ धार बनाया जाता है ताकि पेच लगते ही हरीफ़ (विरोधी) की पतंग काट दी जाए और उसको तैयार करने के लिए शीशों को बारीक कटा जाता है और उसके सुफ़ूफ़ (पाउडर) को उबले हुए चावल में मिक्स कर के मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) रंगों में रंगा जाता है और यही पिसा हुआ शीशा मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) पतंग को ब-आसानी (आसानी से) काट ता है जबकि (हालाँकि) कितने लोगों के हाथ और उँगलियां भी कट जाती हैं और कितनी मा'सूम (निर्दोष) ज़िंदगियां ता'मीर-ए-अजल बन जाती हैं इस के 'अलावा बा'ज़ (कुछ) लोग कई पतंग पकड़ते हुए घर की छतों से गिरकर तो बा'ज़ (कुछ) सड़क हादिसात (accidents) का शिकार हो जाते हैं।
छठा नुक़्सान पतंग-बाज़ी या नज़रबाज़ी ? (आवारगी और बे-हयाई को फ़रोग़ (बढ़ावा) देना)
इस तेहवार को मनाने के लिए हिंदू मज़हब के लोग घरों की छत पर पतंग और माँझे ले कर चले जाते हैं एक बड़ा सा लाउड-स्पीकर लगा होता है जिस में म्यूज़िक और फ़िल्मी गाने बड़े ज़ोर-ओ-शोर से बजाए जाते हैं जिस पर मर्द-ओ-औरत बूढ़े और बच्चे सब मिलकर रक़्स (डांस) करते हुए नज़र आते हैं एक तरफ़ पतंग-बाज़ी होती है तो दूसरी तरफ़ नज़रबाज़ी मर्द-ओ-ज़न (मर्द और औरत) का इख़्तिलात (दोस्ताना) होता है कई लोग शराब-नोशी करते हैं और ज़िना-कारी और बद-कारी तक में मुब्तला होते हैं और ग़ैर-मुस्लिम यह सब तेहवार के नाम पर करते हैं।
लेकिन अफ़सोस कि उन्हीं की देखा-देखी कई मुस्लिम घराने भी इस ला'नत में मुलव्वस (शामिल) नज़र आते हैं कई नाम-निहाद (नाम के) मुसलमान हिंदूओं की मुशाबहत इख़्तियार करते हुए पतंग और माँझा लेकर घरों की छत पर जाते हैं और उनकी " शरीफ़ " बहू बेटियां बग़ैर नक़ाब और बग़ैर बुर्क़ा' के उनका साथ देती हैं बा'ज़ (कुछ) पतंग उड़ाती हैं तो बा'ज़ तमाशाई (दर्शक) बने ग़ैरों को अपनी तरफ़ दा'वत-ए-नज़ारा देती हैं जिन्हें देखकर आवारा क़िस्म के औबाश (लोफ़र) लड़के क़हक़हे लगाते हैं शोर मचाते हैं सीटियां बजाते हैं और मां बाप और ज़िम्मा-दाराना ग़ैरत-व-हमिय्यत (शर्म) को बेचकर खामोश बुत बने खड़े होते हैं यह वो मुसलमान हैं जिनके मुत'अल्लिक़ (बारे में) शा'इर-ए-मशरिक़ अल्लामा-'इक़बाल' ने कहा था:
" वज़अ में तुम हो नसारा तो तमद्दुन में हुनूद
यह मुसलमान हैं जिन्हें देख के शरमाए यहूद "
सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि (किंतु) फ़िल्मी गाने बजाने और म्यूज़िक सुनने में मुस्लिम लड़के लड़कियां भी पेश-पेश (आगे आगे) नज़र आते हैं पतंग-बाज़ी के साथ नज़रों के तीर छोड़े जाते हैं और नज़रबाज़ी, बे-हयाई और मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) बुराईयों में मुब्तला यह मुस्लिम क़ौम (समाज) जब अपनी सारी हदों को पार करती है तो इस ग़फ़लत और कोताही (ख़राबी) के नतीजे (परिणाम) में वो यौम-ए-सियाह (काला-दिन) भी देखना पड़ता है जब उनकी नादान बेटी किसी अजनबी ग़ैर-मुस्लिम के साथ राह-ए-फ़रार इख़्तियार करती है और वालिदैन (मां-बाप) और ख़ानदान की 'इज़्ज़त-आबरू को अपने पैरों तले रौंदते हुए दामन-ए-'इस्मत को दाग़दार करती है और यह बे-हिस (जिसमें एहसास बाक़ी न हो) वालिदैन ज़िल्लत-ओ-रुसवाई (बदनामी) के कड़वे-घूँट पीने पर मजबूर हो जाते हैं।
मज़्कूरा-बाला (जिस का ऊपर ज़िक्र किया है) नुक़्सानात के 'अलावा (सिवा) और भी बहुत से नुक़्सानात हैं मसलन (जैसे) पतंग पकड़ने के लिए बहुत से लड़के भागते हैं फिर उनमें तकरार होती है गाली-गलोच लड़ाई-झगड़े और मार-पीट तक बात पहुंच जाती है और बच्चों के यह झगड़े जब बड़ों तक पहुंचते हैं तो दोस्ती दुश्मनी में और मोहब्बत नफ़रतों में तब्दील हो जाती हैं और महीनों, सालों तक पड़ोसियों से त'अल्लुक़ात ख़राब कर लिए जाते हैं।
लिहाज़ा (इसलिए) पतंग-बाज़ी के दुनियावी और उख़रवी नुक़्सानात के पेश-ए-नज़र हमें चाहिए कि इस तेहवार से अपने आप को और अपने अहल-ओ-'अयाल (घर के लोगों) को दूर रखें बुज़ुर्ग हज़रात अपने बच्चों पर कड़ी नज़र रखें न तो पतंग लाने दे और न उड़ाने दे बल्कि बेहतर है कि इस दिन किसी दीनी मजलिस या तकरीरी जलसा का इं'इक़ाद (आयोजन) किया जाए और इस मौज़ू' (विषय) पर तक़ारीर हो ख़ुसूसन (ख़ास तौर पर) नौजवानों को इस तरह की दीनी महफ़िलों में लाज़िमी तौर पर शरीक (शामिल) किया जाए इसी तरह वो मुसलमान जो पतंग की तिजारत करते हैं उन्हें भी चाहिए कि वो पतंग-बाज़ी के दुनियावी-व-उख़रवी नुक़्सानात को सामने रखते हुए इस तिजारत को तर्क कर दे और कोई हलाल ज़रिया'-ए-म'आश इख़्तियार करें क्यूंकि हलाल तिजारत (बिज़नेस) में बरकत है अल्लाह-त'आला हमें हराम कामों से बचाएं, आमीन।
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